26 फ़रवरी 2011
डब्ल्यूडीआरए मार्च से शुरू करेगा वेयरहाउस रजिस्ट्रेशन
बात पते की - निवेशक इन एजेंसियों से वेयरहाउस का एक्रीडेशन करवा सकते हैं। एक्रीडेशन के लिए 7,500 रुपये फीस और 7,500 रुपये सिक्योरिटी निवेशक को जमा करानी होगी। जिसकी अवधि साढ़े तीन साल तय की गई है।भंडारण विकास एवं नियामक प्राधिकरण (डब्ल्यूडीआरए) मार्च मध्य से वेयरहाउसों का रजिस्ट्रेशन शुरू करेगा। डब्ल्यूडीआरए के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि अभी तक वेयर हाउसों के रजिस्ट्रेशन के लिए 314 आवेदन आ चुके हैं जिसकी भंडारण क्षमता लगभग 11 लाख टन हैं। वेयर हाउस रसीद से किसानों को समय पर ऋण मिलने में आसानी तो होगी ही। साथ ही इससे खाद्यान्न की बर्बादी रोकने में भी मदद मिलेगी। उन्होंने बताया कि वेयर हाउसों के एक्रीडेशन के लिए तीन एजेंसियों को नामित किया गया है। इनमें भारतीय अनाज भंडारण प्रबंधन एवं अनुसंस्थान संस्थान (आईजीएमआरआई) हापुड़ और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चर मार्किटिंग (एनआईएएम) जयपुर के अलावा राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (एनसीडीसी) शामिल हैं। निवेशक इन एजेंसियों से वेयर हाउस का एक्रीडेशन करवा सकते हैं। एक्रीडेशन के लिए 7,500 रुपये फीस और 7,500 रुपये सिक्योरिटी साढ़े तीन साल के लिए निवेशक को जमा करानी होगी। इन्हे 40 कृषि जिंसों को इसके लिए चिन्हित किया गया है। उन्होंने बताया कि इससे दूर दराज के इलाकों में किसानों को उनके उत्पादों के भंडारण की सुविधा मिलेगी। साथ ही वेयर हाउस रसीद के माध्यम से किसानों को बैंकों से आसानी से उत्पाद की कुल कीमत का 75 फीसदी तक ऋण भी मिल सकेगा। इससे किसानों को अपनी जिंस की ब्रिकी के समय माल उठाने की भी आवश्यकता नहीं होगी। किसानों को वेयर हाउस रसीद के माध्यम से अपनी जिंस की बिक्री करने की सुविधा होगी। नैशनल बल्क हैंडलिंग कार्पोरेशन लिमिटेड (एनबीएचसी) के नार्थ इंडिया के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि वेयर हाउस निर्माण में प्राइवेट कंपनियां ज्यादा निवेश कर रही है। इससे जो किसान औने-पौने दाम पर अपनी फसल बेचने को मजबूर थे। उन्हें आसानी से वेयर हाउस में माल रखकर उसकी ऐवज में बैंक से लोन मिल जायेगा। जब फसल का भाव बढ़ेगा तब किसान बैंक का पैसा वापिस करके अपनी जिंस की बिकवाली कर सकेगा। इससे देश भर में कर्ज दिए जाने का मानक भी तय होगा। उच्च क्वालिटी के वेयरहाउसों का निर्माण होगा जिससे ज्यादा समय तक जिंसों का भंडारण किया जा सकेगा। उन्होंने बताया कि इससे कृषि जिंसों की खरीद-फरोक्त में आसानी होगी। (Business bhaskar....R S Rana)
प्याज का एमईपी 150 डॉलर कम करने की सिफारिश
दिक्कतमध्य मार्च से राजस्थान के सीकर से प्याज की आवक शुरू हो जाएगीघरेलू बाजार में दाम बढऩे के कारण दिसंबर 2010 में प्याज निर्यात पर लगा दी थी रोकबात पते की :- नासिक, भावनगर और महुआ मंडियों में प्याज के दाम घटकर ५-७ रुपये किलो रह गए हैं। जबकि दिल्ली आजादपुर मंडी में भी प्याज के दाम घटकर ८-११ रुपये प्रति किलो के स्तर पर आ गए हैं।प्याज की कीमतों में आ रही गिरावट को रोकने के लिए इसके न्यूनतम निर्यात मूल्य (एमईपी) में 150 डॉलर प्रति टन कटौती करने की सिफारिश की गई है। उपभोक्ता मामले विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि प्याज का एमईपी 600 डॉलर प्रति टन है, जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम इससे काफी कम चल रहे है। इसीलिए एमईपी को यहां से घटाकर 450 डॉलर प्रति टन करने की सिफारिश की गई है। खाद्य मामलों पर वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह (ईजीओएम) की आगामी बैठक में इस पर निर्णय लिया जायेगा।उन्होंने बताया कि ईजीओएम की पिछली बैठक में निर्यात पर लगी रोक को तो हटा लिया गया था लेकिन एमईपी 600 डॉलर प्रति टन तय कर दिया था। जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्याज के दाम काफी कम है। इसलिए भारत से होने वाले निर्यात में कमी चल रही है। 450 डॉलर प्रति टन एमईपी होने के बाद निर्यात ज्यादा होने की संभावना है। इससे उत्पादक मंडियों में प्याज की घटती कीमतों को रोकने में मदद मिलेगी। पोटैटो ऑनियन मर्चेंट एसोसिएशन (पोमा) के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि उत्पादक मंडियों नासिक, भावनगर और महुआ में प्याज के दाम घटकर पांच से सात रुपये प्रति किलो रह गए हैं। जबकि दिल्ली आजादपुर मंडी में भी प्याज के दाम घटकर आठ से ग्यारह रुपये प्रति किलो के स्तर पर आ गए हैं। मध्य मार्च से राजस्थान के सीकर लाइन से नए प्याज की आवक शुरू हो जायेगी और मार्च के आखिर में मध्य प्रदेश के मंदसौर और नीमच लाईन से आवक बढऩे की संभावना है। जिससे उत्पादक मंडियों में प्याज की कीमतों में और भी दो से तीन रुपये प्रति किलो की गिरावट आने की संभावना है।शुक्रवार को दिल्ली में 100 ट्रक प्याज की आवक हुई तथा इसके भाव 400 से 500 रुपये प्रति 40 किलो रहे। नासिक से भी सप्ताह में दो से तीन रैकों की आवक हो रही है। घरेलू बाजार में प्याज के दाम बढऩे के कारण सरकार ने दिसंबर 2010 में प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था। तब इसकी कीमतें फुटकर बाजार में बढ़कर 70 से 80 रुपये प्रति किलो पर पहुंच गई थी। जबकि इस समय फुटकर बाजार में प्याज के दाम घटकर 20 से 22 रुपये प्रति किलो हो गए हैं। (Business Bhaskar....R S Rana)
खाद्य सुरक्षा को कहां से आएगी रकम
नई दिल्ली [सुरेंद्र प्रसाद सिंह]। आम बजट में खाद्य सुरक्षा विधेयक के लिए 40 हजार करोड़ रुपये का दांव खेलना वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के समक्ष एक बड़ी आर्थिक चुनौती होगी। वित्त मंत्री के आगामी बजट भाषण में खाद्य सुरक्षा विधेयक शामिल हो सकता है, लेकिन संप्रग सरकार के इस चुनावी वादे के आगे भारी खाद्य सब्सिडी, अनाज की कमी और ध्वस्त राशन प्रणाली रोड़े बनकर खड़े होंगे। मुखर्जी के लिए इनसे निपटने आसान नहीं होगा।
सभी को तीन रुपये किलो में अनाज उपलब्ध कराने वाला कानून बनाने और उसे लागू कराने में सरकार के पसीने छूटेंगे। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने इससे पैदा होने वाली मुश्किलें पहले ही गिना दी हैं। मौजूदा खाद्य सब्सिडी जहां 57 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गई है, वहीं खाद्य सुरक्षा विधेयक पर अमल शुरू होने के साथ ही यह बढ़कर लगभग एक लाख करोड़ रुपये पहुंच जाएगी। राजनीतिक वजहों से अगर वित्त मंत्री बजट में 40 हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त प्रावधान कर भी दें, तब भी सरकार की मुश्किलें कम नहीं होंगी।
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक इसी रूप में लागू करने में अनाज की अनुपलब्धता सबसे बड़ी कठिनाई बनकर उभरेगी। मंडियों में खुले बाजार से अनाज की सरकारी खरीद बढ़ा देने की दशा में खुले बाजार का हाल बुरा हो जाएगा। खुले बाजार में खाद्यान्न के मूल्य आसमान चूमने लगेंगे। दूसरी तरफ अनाज भंडारण की एक अलग समस्या है, जिसके समाधान के लिए पिछले साल के बजट में प्रावधान किए गए थे। 170 लाख टन अतिरिक्त भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिए निजी क्षेत्र को सब्सिडी का प्रोत्साहन देकर आमंत्रित किया गया था, लेकिन साल भर बाद भी नतीजा शून्य रहा।
खाद्यान्न कुप्रबंध को ठीक कर महंगाई से निजात पाने के लिए सरकार का भरोसा राशन प्रणाली पर है, लेकिन यह प्रणाली पहले से ही ध्वस्त है। आम बजट में इसे दुरुस्त करने के लिए प्रावधान किया जा सकता है। पिछले सालों में शुरू की गई आधा दर्जन से अधिक प्रायोगिक परियोजनाओं के नतीजे उत्साहजनक नहीं रहे हैं। राशन प्रणाली के कंप्यूटराइजेशन का काम भी अभी लंबित है। इसके लिए मंत्रालय ने वित्त मंत्री से आम बजट में प्रावधान की गुहार की है।
खाद्य प्रबंधन संभाल रहे भारतीय खाद्य निगम [एफसीआइ] और केंद्रीय भंडारण निगम [सीडब्ल्यूसी] अपनी परंपरागत कार्य प्रणाली, पुराने गोदामों, अकुशल प्रबंध तथा अनुपयुक्त प्रौद्योगिकी के चलते सफेद हाथी बन चुके हैं। खुले में अनाज का सड़ना, परिवहन की कमी और ठेकेदारों के भरोसे खाद्य का प्रबंधन इन निगमों की नियति बन चुका है। इसे ठीक करना वित्त मंत्री की चुनौतियों में शुमार होगा। (Dainik Jagran)
सभी को तीन रुपये किलो में अनाज उपलब्ध कराने वाला कानून बनाने और उसे लागू कराने में सरकार के पसीने छूटेंगे। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने इससे पैदा होने वाली मुश्किलें पहले ही गिना दी हैं। मौजूदा खाद्य सब्सिडी जहां 57 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गई है, वहीं खाद्य सुरक्षा विधेयक पर अमल शुरू होने के साथ ही यह बढ़कर लगभग एक लाख करोड़ रुपये पहुंच जाएगी। राजनीतिक वजहों से अगर वित्त मंत्री बजट में 40 हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त प्रावधान कर भी दें, तब भी सरकार की मुश्किलें कम नहीं होंगी।
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक इसी रूप में लागू करने में अनाज की अनुपलब्धता सबसे बड़ी कठिनाई बनकर उभरेगी। मंडियों में खुले बाजार से अनाज की सरकारी खरीद बढ़ा देने की दशा में खुले बाजार का हाल बुरा हो जाएगा। खुले बाजार में खाद्यान्न के मूल्य आसमान चूमने लगेंगे। दूसरी तरफ अनाज भंडारण की एक अलग समस्या है, जिसके समाधान के लिए पिछले साल के बजट में प्रावधान किए गए थे। 170 लाख टन अतिरिक्त भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिए निजी क्षेत्र को सब्सिडी का प्रोत्साहन देकर आमंत्रित किया गया था, लेकिन साल भर बाद भी नतीजा शून्य रहा।
खाद्यान्न कुप्रबंध को ठीक कर महंगाई से निजात पाने के लिए सरकार का भरोसा राशन प्रणाली पर है, लेकिन यह प्रणाली पहले से ही ध्वस्त है। आम बजट में इसे दुरुस्त करने के लिए प्रावधान किया जा सकता है। पिछले सालों में शुरू की गई आधा दर्जन से अधिक प्रायोगिक परियोजनाओं के नतीजे उत्साहजनक नहीं रहे हैं। राशन प्रणाली के कंप्यूटराइजेशन का काम भी अभी लंबित है। इसके लिए मंत्रालय ने वित्त मंत्री से आम बजट में प्रावधान की गुहार की है।
खाद्य प्रबंधन संभाल रहे भारतीय खाद्य निगम [एफसीआइ] और केंद्रीय भंडारण निगम [सीडब्ल्यूसी] अपनी परंपरागत कार्य प्रणाली, पुराने गोदामों, अकुशल प्रबंध तथा अनुपयुक्त प्रौद्योगिकी के चलते सफेद हाथी बन चुके हैं। खुले में अनाज का सड़ना, परिवहन की कमी और ठेकेदारों के भरोसे खाद्य का प्रबंधन इन निगमों की नियति बन चुका है। इसे ठीक करना वित्त मंत्री की चुनौतियों में शुमार होगा। (Dainik Jagran)
खाद्य सुरक्षा के लिए स्वामीनाथन ने दी छोटे किसानों पर ध्यान देने की सलाह
कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन ने कहा कि भारत को खेती की उत्पादकता बढ़ाकर दोगुनी करने के लिए तेजी से कदम उठाने चाहिए। उन्होंने कहा कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक छोटे और सीमांत किसानों का आर्थिक रूप से उत्थान कर सकता है।
देश में 1970 और 1980 के दशक में आई हरित क्रांति के जनक माने जाने वाले स्वामीनाथन ने कहा कि देश का कृषि क्षेत्र गतिहीनता की स्थिति झेल रहा है और उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि किए बिना खाद्य सुरक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
स्वामीनाथन ने आईएएनएस से कहा, “खाद्य सुरक्षा विधेयक में आपूर्ति की समस्या का समाधान होना चाहिए, यह छोटे किसानों की आर्थिक परेशानी को भी कम करने वाला होना चाहिए। हमारे 80 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत हैं, वे जब तक ज्यादा उत्पादन नहीं करेंगे देश का उत्पादन भी नहीं बढ़ेगा।”
गरीबों के लिए खाद्य पदार्थो पर सब्सिडी की गारंटी देने वाला खाद्य सुरक्षा विधेयक तैयार होने में अभी कुछ समय और लगेगा। सरकार इसके लिए पूरे देश के हितग्राहियों के आंकड़ों का संकलन कर रही है।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) की अध्यक्ष सोनिया गांधी इस विधेयक से जुड़े मसलों पर ध्यान दे रही हैं और वह अगले महीने एक जुलाई को होने जा रही बैठक में अपनी अनुशंसाएं देंगी। एनएसी हितग्राही लोगों की पहले तय की गई संख्या बढ़ाने के लिए इस विधेयक में बदलाव कर रही है।
पिछले वित्त वर्ष में कृषि क्षेत्र की विकास दर 0.2 प्रतिशत रही है यह पिछले पांच साल की सबसे कम विकास दर है। दिसंबर में घरेलू उत्पादन में कमी और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ऊंची कीमतों के चलते खाद्य पदार्थों की महंगाई दर बढ़कर 19.95 प्रतिशत तक पहुंच गई थी।
स्वामीनाथन ने कहा, “मुझे उम्मीद है कि मौजूदा खाद्य महंगाई दर से यह समझ बढ़ेगी कि विदेशों से खाद्य सामग्री खरीदना आसान नहीं है क्योंकि पूरा विश्व समस्याओं से घिरा है। हम अपने 1.1 अरब लोगों की खाद्य सुरक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रह सकते।”
कृषि वैज्ञानिक ने कहा, “मैं जवाहरलाल नेहरू के 1947 के बयान की याद दिलाना चाहता हूं उन्होंने कहा था कि हर क्षेत्र इंतजार कर सकता है लेकिन कृषि नहीं, यदि हम इस क्षेत्र में आपात कदम नहीं उठाएंगे तो हमें यह गतिहीनता झेलनी पड़ेगी।”
सरकार द्वारा कृषि के लिए एक मुख्य पहल, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना 2007 में शुरू की गई थी, कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल इसके लिए 3,760 करोड़ रुपये आवंटित किए गए लेकिन राज्यों ने इसमें से केवल 1,122 करोड़ रुपये ही खर्च किए।
स्वामीनाथन ने कहा, “यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे पास अवसर है लेकिन हम उनका उपयोग नहीं कर रहे हैं। इन योजनाओं के बावजूद कृषि में कोई वृद्धि नहीं हुई है।” (आईएएनएस)
देश में 1970 और 1980 के दशक में आई हरित क्रांति के जनक माने जाने वाले स्वामीनाथन ने कहा कि देश का कृषि क्षेत्र गतिहीनता की स्थिति झेल रहा है और उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि किए बिना खाद्य सुरक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
स्वामीनाथन ने आईएएनएस से कहा, “खाद्य सुरक्षा विधेयक में आपूर्ति की समस्या का समाधान होना चाहिए, यह छोटे किसानों की आर्थिक परेशानी को भी कम करने वाला होना चाहिए। हमारे 80 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत हैं, वे जब तक ज्यादा उत्पादन नहीं करेंगे देश का उत्पादन भी नहीं बढ़ेगा।”
गरीबों के लिए खाद्य पदार्थो पर सब्सिडी की गारंटी देने वाला खाद्य सुरक्षा विधेयक तैयार होने में अभी कुछ समय और लगेगा। सरकार इसके लिए पूरे देश के हितग्राहियों के आंकड़ों का संकलन कर रही है।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) की अध्यक्ष सोनिया गांधी इस विधेयक से जुड़े मसलों पर ध्यान दे रही हैं और वह अगले महीने एक जुलाई को होने जा रही बैठक में अपनी अनुशंसाएं देंगी। एनएसी हितग्राही लोगों की पहले तय की गई संख्या बढ़ाने के लिए इस विधेयक में बदलाव कर रही है।
पिछले वित्त वर्ष में कृषि क्षेत्र की विकास दर 0.2 प्रतिशत रही है यह पिछले पांच साल की सबसे कम विकास दर है। दिसंबर में घरेलू उत्पादन में कमी और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ऊंची कीमतों के चलते खाद्य पदार्थों की महंगाई दर बढ़कर 19.95 प्रतिशत तक पहुंच गई थी।
स्वामीनाथन ने कहा, “मुझे उम्मीद है कि मौजूदा खाद्य महंगाई दर से यह समझ बढ़ेगी कि विदेशों से खाद्य सामग्री खरीदना आसान नहीं है क्योंकि पूरा विश्व समस्याओं से घिरा है। हम अपने 1.1 अरब लोगों की खाद्य सुरक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रह सकते।”
कृषि वैज्ञानिक ने कहा, “मैं जवाहरलाल नेहरू के 1947 के बयान की याद दिलाना चाहता हूं उन्होंने कहा था कि हर क्षेत्र इंतजार कर सकता है लेकिन कृषि नहीं, यदि हम इस क्षेत्र में आपात कदम नहीं उठाएंगे तो हमें यह गतिहीनता झेलनी पड़ेगी।”
सरकार द्वारा कृषि के लिए एक मुख्य पहल, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना 2007 में शुरू की गई थी, कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल इसके लिए 3,760 करोड़ रुपये आवंटित किए गए लेकिन राज्यों ने इसमें से केवल 1,122 करोड़ रुपये ही खर्च किए।
स्वामीनाथन ने कहा, “यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे पास अवसर है लेकिन हम उनका उपयोग नहीं कर रहे हैं। इन योजनाओं के बावजूद कृषि में कोई वृद्धि नहीं हुई है।” (आईएएनएस)
खाद्य सुरक्षा
नई दिल्ली। खाद्य सुरक्षा को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की गठित रंगराजन कमेटी ने यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) की सिफारिश खारिज कर दी है। रंगराजन समिति ने बृहस्पतिवार को प्रधानमंत्री को सौंपी अपनी रिपोर्ट में दो टूक कहा है कि देश की 75 फीसदी आबादी को सस्ती दर पर अनाज उपलब्ध करा पाना संभव नहीं है। एनएसी के खाद्य सुरक्षा कानून मसौदे को वस्तुतः अव्यवहारिक साबित करते हुए रंगराजन समिति ने इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्रों की 46 और शहरी क्षेत्रों की 28 फीसदी आबादी को ही सस्ते दर पर राशन उपलब्ध करने की कानूनी गारंटी देने की सिफारिश की है।
प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार रंगराजन की पीएमओ की इस समिति के इस बेबाक रुख से यूपीए दो के सोनिया गांधी के सबसे प्रिय सामाजिक एजेंडे को झटका माना जा रहा है। हालांकि एनएसी के सदस्य अपने मसौदे को ठुकराए जाने की सिफारिश पर फिलहाल कुछ कहने से बच रहे हैं। मनमोहन सिंह ने एनएसी के राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे पर सुझाव देने के लिए रंगराजन को यह जिम्मेदारी सौंपी थी। इस रिपोर्ट में समिति ने साफ कहा है कि सस्ती दर पर गेहूं और चावल सिर्फ गरीबों को ही मुहैया कराया जा सकता है। सामान्य श्रेणी के लोगों को यह सुविधा देने से मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। क्योंकि जरूरत भर सस्ता अनाज उपलब्ध नहीं है जबकि एनएसी ने सरकार से देश की 72 से 75 फीसदी आबादी को कानूनी तौर पर सस्ता राशन उपलब्ध कराने की सिफारिश की थी।
सरकार को सुझाव दिया गया था कि इसके लिए दो श्रेणियां बनाई जा सकती हैं। गरीबों को प्रति परिवार 35 किलो और सामान्य श्रेणी के परिवारों को 20 किलो अनाज दिया जाए। खाद्य सुरक्षा सोनिया गांधी के प्रिय विषयों में से एक रहा है, और पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने आम लोगों से खाद्य सुरक्षा को लेकर कानून बनाने का वादा किया था। लेकिन अब रंगराजन कमेटी ने कहा है कि मौजूदा आबादी और अनाज की उपलब्धता को देखते हुए एनएसी की इस सिफारिश पर अमल कर पाना संभव नहीं है। इस विधेयक में गरीबों को दो रुपये किलो गेहूं और तीन रुपये किलो की दर से चावल उपलब्ध कराने का प्रस्ताव है।
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सीके रंगराजन की अध्यक्षता में गठित इस विशेषज्ञकमेटी ने कहा कि गरीबों के लिए दो रुपये किलो गेहूं और तीन रुपये किलो की दर से चावल उपलब्ध कराने के प्रस्ताव का तो पक्ष लिया, लेकिन यह भी कहा कि अनाज उपलब्ध होने पर ही बाकी लोगों के लिए यह प्रावधान हो सकता है। कमेटी ने एनएसी की तरह ग्रामीण क्षेत्रों की 46 और शहरी क्षेत्रों की 28 फीसदी आबादी को सस्ती सदर पर राशन उपलब्ध करने की कानूनी गारंटी देने की सिफारिश की है। समिति का आकलन है कि सरकार को प्राथमिकता प्राप्त परिवारों के लिए राशन, अनाज के बफर स्टॉक और कल्याणकारी योजनाओं के लिए इस साल 509.60 लाख टन और 2014 में 519.30 लाख टन अनाज की जरूरत होगी। जबकि सरकार की खरीद क्षमता 2011-12 में 563.5 लाख टन और 2013-14 में 576.10 लाख टन होगी। समिति ने कहा है कि यदि एनएसी की सिफारिश पर पूरी तरह से अमल किया जाता है तो वर्ष 2011 यानी पहले चरण में 687.6लाख टन और अंतिम चरण यानी 2014 में 719.8 लाख टन अनाज की जरूरत होगी।
प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार रंगराजन की पीएमओ की इस समिति के इस बेबाक रुख से यूपीए दो के सोनिया गांधी के सबसे प्रिय सामाजिक एजेंडे को झटका माना जा रहा है। हालांकि एनएसी के सदस्य अपने मसौदे को ठुकराए जाने की सिफारिश पर फिलहाल कुछ कहने से बच रहे हैं। मनमोहन सिंह ने एनएसी के राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे पर सुझाव देने के लिए रंगराजन को यह जिम्मेदारी सौंपी थी। इस रिपोर्ट में समिति ने साफ कहा है कि सस्ती दर पर गेहूं और चावल सिर्फ गरीबों को ही मुहैया कराया जा सकता है। सामान्य श्रेणी के लोगों को यह सुविधा देने से मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। क्योंकि जरूरत भर सस्ता अनाज उपलब्ध नहीं है जबकि एनएसी ने सरकार से देश की 72 से 75 फीसदी आबादी को कानूनी तौर पर सस्ता राशन उपलब्ध कराने की सिफारिश की थी।
सरकार को सुझाव दिया गया था कि इसके लिए दो श्रेणियां बनाई जा सकती हैं। गरीबों को प्रति परिवार 35 किलो और सामान्य श्रेणी के परिवारों को 20 किलो अनाज दिया जाए। खाद्य सुरक्षा सोनिया गांधी के प्रिय विषयों में से एक रहा है, और पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने आम लोगों से खाद्य सुरक्षा को लेकर कानून बनाने का वादा किया था। लेकिन अब रंगराजन कमेटी ने कहा है कि मौजूदा आबादी और अनाज की उपलब्धता को देखते हुए एनएसी की इस सिफारिश पर अमल कर पाना संभव नहीं है। इस विधेयक में गरीबों को दो रुपये किलो गेहूं और तीन रुपये किलो की दर से चावल उपलब्ध कराने का प्रस्ताव है।
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सीके रंगराजन की अध्यक्षता में गठित इस विशेषज्ञकमेटी ने कहा कि गरीबों के लिए दो रुपये किलो गेहूं और तीन रुपये किलो की दर से चावल उपलब्ध कराने के प्रस्ताव का तो पक्ष लिया, लेकिन यह भी कहा कि अनाज उपलब्ध होने पर ही बाकी लोगों के लिए यह प्रावधान हो सकता है। कमेटी ने एनएसी की तरह ग्रामीण क्षेत्रों की 46 और शहरी क्षेत्रों की 28 फीसदी आबादी को सस्ती सदर पर राशन उपलब्ध करने की कानूनी गारंटी देने की सिफारिश की है। समिति का आकलन है कि सरकार को प्राथमिकता प्राप्त परिवारों के लिए राशन, अनाज के बफर स्टॉक और कल्याणकारी योजनाओं के लिए इस साल 509.60 लाख टन और 2014 में 519.30 लाख टन अनाज की जरूरत होगी। जबकि सरकार की खरीद क्षमता 2011-12 में 563.5 लाख टन और 2013-14 में 576.10 लाख टन होगी। समिति ने कहा है कि यदि एनएसी की सिफारिश पर पूरी तरह से अमल किया जाता है तो वर्ष 2011 यानी पहले चरण में 687.6लाख टन और अंतिम चरण यानी 2014 में 719.8 लाख टन अनाज की जरूरत होगी।
सोनिया को पीएम की ना!
सस्ते राशन की कानूनी गांरटी का फायदा केवल निर्धन परिवारों तक ही सीमित रखे जाने की सिफारिश
प्रधानमंत्री द्वारा गठित एक समिति ने प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत सस्ते राशन की कानूनी गांरटी का फायदा केवल निर्धन परिवारों तक ही सीमित रखे जाने की सिफारिश की है.
समिति ने इस मामले में संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के इस सुझाव को अव्यावहारिक बताया है कि इस गारंटी का लाभ 75 प्रतिशत आबादी तक पहुंचाया जाए.प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सी रंगराजन की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति ने सरकार के पास खाद्य भंडार की सीमाओं का हवाला देते हुए कहा है कि 75 प्रतिशत आबादी को दो रूपये किलो गेहूं और तीन रूपये किलो चावल देने का कानूनी अधिकार देना संभव नहीं होगा. समिति की सिफारिशें गुरुवार को सार्वजनिक की गई.समिति का मानना है कि सरकार गरीबों के अलावा यदि दूसरे वर्ग के लोगों को भी रियायती दर पर राशन देना चाहती है तो वह इस कानून के बजाय अधिशासी आदेश के जरिये ऐसा करे. उसकी राय में गैर. प्राथमिकता वाले परिवारों को सरकारी स्टॉक की उपलब्धता को देखते हुए रियायती राशन का आवंटन किया जा सके.सोनिया की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने प्राथमिक और आम दोनों परिवारों को रियायती खाद्यान्न कानूनी तौर पर उपलब्ध कराने की सिफारिश की है. जिसके तहत 2011-12 से शुरू होने वाले पहले चरण में कम से कम 72 फीसदी आबादी और दूसरे चरण में 2013-14 तक 75 प्रतिशत आबादी को इस कानूनी गारंटी के लाभ के दायरे में लाने का सुझाव दिया गया है.राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पर प्रधानमंत्री की विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया जाता है, तो सरकार का खाद्य सब्सिडी बिल 2,000 करोड़ रुपये बढ़कर 83,000 करोड़ रुपये पर पहुंच जाएगा। वहीं राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सिफारिशों के तहत यदि 75 फीसदी आबादी को प्रस्तावित खाद्य विधेयक के दायरे में लाया जाता है, तो सरकार पर 11,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और यह 92,060 करोड़ रुपये पर पहुंच जाएगा. वित्त वर्ष 2010-11 में खाद्य बिल बढ़कर 81,000 करोड़ रुपये पर पहुंच जाने की संभावना है, जो इससे पिछले साल 72,000 करोड़ रुपये रहा था. (Samay Live)
प्रधानमंत्री द्वारा गठित एक समिति ने प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत सस्ते राशन की कानूनी गांरटी का फायदा केवल निर्धन परिवारों तक ही सीमित रखे जाने की सिफारिश की है.
समिति ने इस मामले में संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के इस सुझाव को अव्यावहारिक बताया है कि इस गारंटी का लाभ 75 प्रतिशत आबादी तक पहुंचाया जाए.प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सी रंगराजन की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति ने सरकार के पास खाद्य भंडार की सीमाओं का हवाला देते हुए कहा है कि 75 प्रतिशत आबादी को दो रूपये किलो गेहूं और तीन रूपये किलो चावल देने का कानूनी अधिकार देना संभव नहीं होगा. समिति की सिफारिशें गुरुवार को सार्वजनिक की गई.समिति का मानना है कि सरकार गरीबों के अलावा यदि दूसरे वर्ग के लोगों को भी रियायती दर पर राशन देना चाहती है तो वह इस कानून के बजाय अधिशासी आदेश के जरिये ऐसा करे. उसकी राय में गैर. प्राथमिकता वाले परिवारों को सरकारी स्टॉक की उपलब्धता को देखते हुए रियायती राशन का आवंटन किया जा सके.सोनिया की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने प्राथमिक और आम दोनों परिवारों को रियायती खाद्यान्न कानूनी तौर पर उपलब्ध कराने की सिफारिश की है. जिसके तहत 2011-12 से शुरू होने वाले पहले चरण में कम से कम 72 फीसदी आबादी और दूसरे चरण में 2013-14 तक 75 प्रतिशत आबादी को इस कानूनी गारंटी के लाभ के दायरे में लाने का सुझाव दिया गया है.राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पर प्रधानमंत्री की विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया जाता है, तो सरकार का खाद्य सब्सिडी बिल 2,000 करोड़ रुपये बढ़कर 83,000 करोड़ रुपये पर पहुंच जाएगा। वहीं राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सिफारिशों के तहत यदि 75 फीसदी आबादी को प्रस्तावित खाद्य विधेयक के दायरे में लाया जाता है, तो सरकार पर 11,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और यह 92,060 करोड़ रुपये पर पहुंच जाएगा. वित्त वर्ष 2010-11 में खाद्य बिल बढ़कर 81,000 करोड़ रुपये पर पहुंच जाने की संभावना है, जो इससे पिछले साल 72,000 करोड़ रुपये रहा था. (Samay Live)
खाद्य सुरक्षा की राह में कौन अटका रहा है रोड़े
खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे पर यू.पी.ए सरकार और एन.ए.सी के बीच खींचतान जारी है. इस सिलसिले में सबसे ताजा उदाहरण यह है कि एन.ए.सी द्वारा सरकार को भेजे गए खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे की जांच कर रही समिति के मुखिया और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सी. रंगराजन ने साफ तौर पर कह दिया है कि एन.ए.सी का प्रस्ताव अव्यावहारिक है और इसे लागू करना संभव नहीं है. कहने को रंगराजन समिति के इस निष्कर्ष से ‘हैरान’ एन.ए.सी अब अपना जवाब तैयार करने में लगी है लेकिन उसके रक्षात्मक रवैये से साफ है कि वह अब पीछे हटने और सरकार की चिंताओं को भी ध्यान में रखने के नामपर लीपापोती की तैयारी कर रही है. साफ है कि खाद्य सुरक्षा के प्रावधानों को हल्का और सीमित करने की जमीन तैयार की जा रही है. रंगराजन समिति की रिपोर्ट से साफ है कि सरकार एन.ए.सी द्वारा खाद्य सुरक्षा को लेकर सुझाये गए सीमित प्रस्तावों को भी मानने के लिए तैयार नहीं है. जबकि एन.ए.सी ने पहले ही खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे को सरकार के मंत्रियों और अफसरों से चर्चा के बाद काफी हल्का और सीमित कर दिया है. इसके बावजूद रंगराजन समिति ने जिन आधारों पर उसके प्रस्ताव को ख़ारिज किया है, उससे स्पष्ट है कि उसने एन.ए.सी की लंबी-चौड़ी कसरत और सीमित प्रस्ताव को भी कोई खास भाव नहीं दिया. यही कारण है कि एन.ए.सी के एक महत्वपूर्ण सदस्य ज्यां द्रेज को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया है कि एन.ए.सी अब नेशनल एडवाइजरी काउन्सिल नहीं बल्कि नोशनल यानी दिखावटी एडवाइजरी काउन्सिल बनती जा रही है. उल्लेखनीय है कि एन.ए.सी ने खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर सबसे पहले भोजन के अधिकार को एक सार्वभौम कानूनी अधिकार बनाने की घोषणा से शुरुआत की थी लेकिन इस सवाल पर खुद एन.ए.सी के अंदर और बाहर सरकार के प्रतिनिधियों के साथ मतभेद होने के कारण पीछे हटते हुए उसने बीच का एक प्रस्ताव तैयार किया जिसमें देश की कुल ७५ फीसदी आबादी को सीमित खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने का प्रावधान किया था. इस प्रस्ताव में भी एन.ए.सी ने इस कानून के तहत खाद्य सुरक्षा के लाभार्थियों को दो समूहों में बाँट दिया था. पहले समूह को प्राथमिक समूह कहा गया जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों की ४६ प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों की २८ प्रतिशत आबादी शामिल करने का प्रस्ताव था जिन्हें हर महीने तीन रूपये किलो चावल, दो रूपये किलो गेहूं और एक रूपये किलो मोटा अनाज के भाव से ३५ किलोग्राम खाद्यान्न देने का प्रावधान किया गया था. दूसरी ओर, सामान्य समूह में ग्रामीण क्षेत्रों से ४४ फीसदी और शहरी क्षेत्रों से २२ फीसदी आबादी को हर महीने खाद्यान्नों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी) की आधी कीमत पर २० किलोग्राम खाद्यान्न देने का प्रस्ताव किया गया था. कहने की जरूरत नहीं है कि एन.ए.सी का यह प्रस्ताव भी उम्मीदों से काफी कम और बहुत सीमित था. प्राथमिक और सामान्य समूह का विभाजन काफी हद तक मौजूदा गरीबी रेखा के नीचे (बी.पी.एल) और ऊपर (ए.पी.एल) के विभाजन की लाइन पर ही था. यहां तक कि योजना आयोग तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के बाद बी.पी.एल परिवारों की संख्या में १० से १५ फीसदी तक बढ़ोत्तरी करने पर राजी हो गया था. इसी तरह, सामान्य समूह को ऊँची कीमत पर और वह भी सिर्फ २० किलोग्राम अनाज देने का प्रस्ताव खाद्य सुरक्षा का मजाक उड़ने जैसा ही था. लेकिन एन.ए.सी के इस सीमित और आधा-अधूरे प्रस्ताव का उससे भी बड़ा मजाक यू.पी.ए सरकार द्वारा नियुक्त रंगराजन समिति ने उड़ाया है. रंगराजन समिति का कहना है कि यह प्रस्ताव लागू करना संभव नहीं है क्योंकि लाभार्थियों को कानूनी अधिकार देने के लिए जरूरी अनाज उपलब्ध नहीं है. समिति के मुताबिक, इस अधिकार को एन.ए.सी के सुझावों के अनुसार लागू करने के लिए २०१४ में ७.४ करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी जबकि खादयान्नों की पैदावार और खरीद के मौजूदा ट्रेंड के आधार पर सरकार के पास अधिकतम ५.७६ करोड़ टन अनाज ही उपलब्ध होगा. समिति का यह भी तर्क है कि भोजन का कानूनी अधिकार देने के बाद सरकार को अपना वायदा हर हाल में यहां तक कि लगातार दो सालों तक सूखा पड़ने की स्थिति में भी पूरा करने में सक्षम होना चाहिए. समिति के अनुसार, मौजूदा परिस्थितियों में आयात के जरिये इस कानूनी वायदे को पूरा करना संभव नहीं है. समिति का यह भी कहना है कि इस वायदे को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा भारी मात्रा में अनाज की खरीद से खुले बाजार में अनाजों की कीमतें बढ़ जाएंगी. इन तर्कों के आधार पर रंगराजन समिति का सुझाव है कि खाद्य सुरक्षा का कानूनी अधिकार सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों की ४६ फीसदी और शहरी इलाकों की २८ फीसदी आबादी को दिया जाए जो कि एन.ए.सी के कथित प्राथमिक समूह के करीब है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि भोजन के अधिकार के सीमित और आधे-अधूरे प्रस्ताव पर भी रंगराजन समिति के तर्कों में नया कुछ भी नहीं है. इस तरह की राय नव उदारवादी आर्थिक सुधार के समर्थक और पैरोकार बहुत पहले से व्यक्त करते रहे हैं. वे भोजन के सार्वभौम अधिकार के विरोध को जायज ठहराने के लिए जानबूझकर अनाज और इस कारण सब्सिडी की मांग को इतना अधिक बढ़ा-चढाकर दिखाते रहे हैं कि वह असंभव दिखने लगे. जबकि सच्चाई यह है कि न सिर्फ देश में अनाज की कोई कमी नहीं है बल्कि सरकार चाहे तो इस अधिकार को लागू करने के लिए जरूरी अनाज खरीद सकती है. इसके लिए उसे सिर्फ अनाज खरीद के मौजूदा दायरे को और बढ़ाना होगा. इससे न सिर्फ किसानों को बिचौलियों से निजात मिलेगी बल्कि उनकी फसलों की उचित कीमत भी मिल पायेगी. इससे किसानों को पैदावार बढ़ाने का प्रोत्साहन भी मिलेगा. दूसरे, सरकार के बड़े पैमाने पर अनाज खरीदने से कीमतें बढ़ने की आशंका इसलिए बेमानी है क्योंकि अनाज खरीदकर अगर उसे लोगों तक पहुँचाया गया तो कीमतें बढेंगी नहीं, उल्टे उनपर लगाम लगेगी. कीमतें तब बढ़ती हैं जब सरकार अनाज दबाकर बैठ जाती है जैसीकि जमाखोरी उसने अभी कर रखी है. साफ है कि सरकार की मंशा वास्तविक और व्यापक खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने की नहीं है. वह अधिक से अधिक थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ मौजूदा प्रावधानों को ही खाद्य सुरक्षा के नामपर थोपना चाहती है. (anand Pardhan)
बांटने के लिए चाहिए 6.2 करोड़ टन खाद्यान्न
प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत देश के कम से कम 75 प्रतिशत आबादी को इसके दायरे में लेने के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) की सिफारिशों को लागू करने हेतु संप्रग सरकार को हर साल करीब 6.2 करोड़ टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। खाद्यान्नों की आवश्यकता सरकार के द्वारा पिछले वर्ष की गई 5.4 करोड़ टन की खरीद से कहीं अधिक है।
हाल में संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुवाई वाली एनएसी की बैठक में प्रस्तावित कानून के बारे में सिफारिशों को अंतिम रूप दिया गया था तथा मोटे तौर पर दो श्रेणी़ 'प्राथमिक और सामान्य' बनाई गई। इन्हें रियायती (सब्सिडीप्राप्त) खाद्यान्न पाने का कानूनी अधिकार देने की सिफारिश की गई। इसके तहत ग्रामीण आबादी के 90 प्रतिशत और शहरी आबादी के 50 प्रतिशत लोगों को इसके दायरे में लिया जाना है। सूत्रों के अनुसार एनएसी के प्रस्तावों के अनुरूप प्राथमिक श्रेणी के तहत करीब 9.68 करोड़ परिवार को इसके दायरे में लिया जायेगा और सामान्य श्रेणी के तहत 8.92 करोड़ लोगों को दायरे में लिया जायेगा। जिसके बाद कुल लाभ पाने वालों की संख्या 18.6 करोड़ परिवार होगी। मौजूदा समय में सरकार सस्ते खाद्यान्न 18.04 करोड़ परिवारों को उपलब्ध कराती है जिसमें गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले (बीपीएल) 6.52 करोड़ परिवार हैं जबकि 11.5 करोड़ गरीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) के परिवार है। पिछले वित्तवर्ष में पीडीएस के तहत उठान 4.24 करोड़ टन का था।
सूत्रों ने बताया कि प्राथमिक और सामान्य श्रेणी के तहत खाद्यान्नों की जरूरत क्रमश: चार करोड़ टन और 2.1 करोड़ टन प्रतिवर्ष होगी।
यह आकलन प्राथमिक श्रेणी में आने वाले परिवारों को एक रूपये प्रति किलोग्राम की दर से मोटे अनाज और दो रूपये प्रति किलोग्राम की दर से गेहूं तथा तीन रूपये प्रति किलोग्राम की दर से चावल एवं कुल 35 किलोग्राम खाद्यान्न उपलब्ध कराने के प्रस्ताव के आधार पर व्यक्त किया गया है। सामान्य श्रेणी के लिए एनएसी ने 20 किलोग्राम खाद्यान्न की आपूर्ति करने का सुझाव दिया है जिसकी कीमत मौजूदा समर्थन मूल्य के 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो। इसके तहत कीमत गेहूं के लिए 5.50 रूपये और चावल के लिए 7.70 रूपये प्रति किलोग्राम बैठती है। एनएसी ने अनुमान लगाया है कि अगर उसकी सिफारिशों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के रूप में लागू किया जाता है तो सरकार का खाद्य सब्सिडी का खर्च 23,231 करोड़ रूपये बढ़ जायेगा। मौजूदा समय में सरकार खाद्य सब्सिडी के बतौर हर साल 56,700 करोड़ रूपये का खर्च करती है। (Hindustan hindi)
हाल में संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुवाई वाली एनएसी की बैठक में प्रस्तावित कानून के बारे में सिफारिशों को अंतिम रूप दिया गया था तथा मोटे तौर पर दो श्रेणी़ 'प्राथमिक और सामान्य' बनाई गई। इन्हें रियायती (सब्सिडीप्राप्त) खाद्यान्न पाने का कानूनी अधिकार देने की सिफारिश की गई। इसके तहत ग्रामीण आबादी के 90 प्रतिशत और शहरी आबादी के 50 प्रतिशत लोगों को इसके दायरे में लिया जाना है। सूत्रों के अनुसार एनएसी के प्रस्तावों के अनुरूप प्राथमिक श्रेणी के तहत करीब 9.68 करोड़ परिवार को इसके दायरे में लिया जायेगा और सामान्य श्रेणी के तहत 8.92 करोड़ लोगों को दायरे में लिया जायेगा। जिसके बाद कुल लाभ पाने वालों की संख्या 18.6 करोड़ परिवार होगी। मौजूदा समय में सरकार सस्ते खाद्यान्न 18.04 करोड़ परिवारों को उपलब्ध कराती है जिसमें गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले (बीपीएल) 6.52 करोड़ परिवार हैं जबकि 11.5 करोड़ गरीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) के परिवार है। पिछले वित्तवर्ष में पीडीएस के तहत उठान 4.24 करोड़ टन का था।
सूत्रों ने बताया कि प्राथमिक और सामान्य श्रेणी के तहत खाद्यान्नों की जरूरत क्रमश: चार करोड़ टन और 2.1 करोड़ टन प्रतिवर्ष होगी।
यह आकलन प्राथमिक श्रेणी में आने वाले परिवारों को एक रूपये प्रति किलोग्राम की दर से मोटे अनाज और दो रूपये प्रति किलोग्राम की दर से गेहूं तथा तीन रूपये प्रति किलोग्राम की दर से चावल एवं कुल 35 किलोग्राम खाद्यान्न उपलब्ध कराने के प्रस्ताव के आधार पर व्यक्त किया गया है। सामान्य श्रेणी के लिए एनएसी ने 20 किलोग्राम खाद्यान्न की आपूर्ति करने का सुझाव दिया है जिसकी कीमत मौजूदा समर्थन मूल्य के 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो। इसके तहत कीमत गेहूं के लिए 5.50 रूपये और चावल के लिए 7.70 रूपये प्रति किलोग्राम बैठती है। एनएसी ने अनुमान लगाया है कि अगर उसकी सिफारिशों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के रूप में लागू किया जाता है तो सरकार का खाद्य सब्सिडी का खर्च 23,231 करोड़ रूपये बढ़ जायेगा। मौजूदा समय में सरकार खाद्य सब्सिडी के बतौर हर साल 56,700 करोड़ रूपये का खर्च करती है। (Hindustan hindi)
खाद्य सुरक्षा विधेयक में हैं कई छेद
January 13, 2011
गरीबों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने और इससे जुड़ी बाधाओं को खत्म करने के लिए प्रतिबद्व राष्टï्रीय सलाहकार परिषद् (एनएसी) की मांग से इतर प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख सी रंगराजन ने कई मुद्दे उठाए हैं जिनकी वजह से खाद्य सुरक्षा योजना पर अमल करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। नाम न बताने की शर्त पर एनएसी के एक सदस्य का कहना है कि एनएसी का नेतृत्व करने वाली सोनिया गांधी खाद्य सुरक्षा के मसले पर काफी मुखर हैं और मुमकिन है कि उनकी राय पर अमल किया जाए। खाद्य सुरक्षा से जुड़ी रंगराजन की रिपोर्ट को गुरुवार को जारी किया गया और इसमें एनएसी की सिफारिशों की समीक्षा की गई है। इस रिपोर्ट में यह कहा गया है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) पर जोर देकर ही खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को पाया जा सकता है। दिलचस्प बात है कि इस रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ में पीडीएस में सुधार के प्रयासों की काफी तारीफ की गई है। वहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। समिति ने हरियाणा और दिल्ली को छोड़कर कांग्रेस प्रशासित किसी राज्य की पीडीएस व्यवस्था में सुधार के लिए अपना समर्थन नहीं दिया है। इस रिपोर्ट में तमिलनाडु सरकार को ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम के जरिये पीडीएस व्यवस्था में प्रयोग, गुजरात द्वारा बार कोड वाले अनाज की बोरी का इस्तेमाल किए जाने और उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में एसएमएस अलर्ट सिस्टम की काफी तारीफ की है। इन सभी राज्यों में कांग्रेस की सरकार नहीं है।यह रिपोर्ट विशेष तौर पर प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा पहल के खाद्य सब्सिडी से जुड़े असर को लेकर चिंतित है। समिति का कहना है कि एनएसी ने जितना अनुमान लगाया है उसके मुकाबले कुल सब्सिडी खर्च ज्यादा होगा। समिति का कहना है कि एनएसी के मुताबिक पहले चरण में कुल सब्सिडी 71,837 करोड़ रुपये होगा और अंतिम चरण में 79,931 करोड़ रुपये का खर्च होगा। लेकिन रंगराजन ने इन अनुमानों को चुनौती दी है। उनका कहना है कि इस आंकड़े में संशोधन की पूरी गुंजाइश है और सब्सिडी बढ़कर 85,584 करोड़ रुपये और 92,060 करोड़ रुपये हो जाएगी। इसके अलावा मौजूदा खरीद और भंडार की क्षमता भी 4.25 करोड़ टन से थोड़ा ही ज्यादा है। ऐसे में पहले चरण में 6.87 करोड़ टन और अंतिम चरण में 7.39 करोड़ टन अनाज मुहैया कराने के लिए कई तरह के खर्च बढ़ेंगे जिसका आकलन अभी नहीं किया गया है। इस रिपोर्ट में यह संकेत दिया गया है कि कानून बनने पर अनाज खरीद बाध्यता होगी और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) या आयात में भी बढ़ोतरी करनी होगी। समिति का कहना है कि ये विकल्प राजकोषीय बोझ को और बढ़ा सकते हैं। प्रधानमंत्री द्वारा गठित विशेषज्ञों की समिति ने इस विधेयक के जरिये केवल गरीबों के लिए सस्ते गेहूं और चावल का प्रावधान किए जाने की सिफारिश की है। समिति को लगता है कि सामान्य श्रेणी के लोगों को भी ऐसी सहूलियत के लिए शामिल करने में दिक्कतें होंगी। समिति ने कहा है कि रिपोर्ट में न केवल गरीबों बल्कि कुछ सीमांत परिवारों को प्रस्तावित कानून के दायरे में शामिल करने की सिफारिश की गई है। रंगराजन का कहना है कि एनएसी की सोच सही और सराहनीय है लेकिन खाद्य सुरक्षा को कानूनी मान्यता दी जाती है तो इसके सभी पहलुओं पर गौर करना ही होगा। (BS Hindi)
गरीबों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने और इससे जुड़ी बाधाओं को खत्म करने के लिए प्रतिबद्व राष्टï्रीय सलाहकार परिषद् (एनएसी) की मांग से इतर प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख सी रंगराजन ने कई मुद्दे उठाए हैं जिनकी वजह से खाद्य सुरक्षा योजना पर अमल करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। नाम न बताने की शर्त पर एनएसी के एक सदस्य का कहना है कि एनएसी का नेतृत्व करने वाली सोनिया गांधी खाद्य सुरक्षा के मसले पर काफी मुखर हैं और मुमकिन है कि उनकी राय पर अमल किया जाए। खाद्य सुरक्षा से जुड़ी रंगराजन की रिपोर्ट को गुरुवार को जारी किया गया और इसमें एनएसी की सिफारिशों की समीक्षा की गई है। इस रिपोर्ट में यह कहा गया है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) पर जोर देकर ही खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को पाया जा सकता है। दिलचस्प बात है कि इस रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ में पीडीएस में सुधार के प्रयासों की काफी तारीफ की गई है। वहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। समिति ने हरियाणा और दिल्ली को छोड़कर कांग्रेस प्रशासित किसी राज्य की पीडीएस व्यवस्था में सुधार के लिए अपना समर्थन नहीं दिया है। इस रिपोर्ट में तमिलनाडु सरकार को ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम के जरिये पीडीएस व्यवस्था में प्रयोग, गुजरात द्वारा बार कोड वाले अनाज की बोरी का इस्तेमाल किए जाने और उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में एसएमएस अलर्ट सिस्टम की काफी तारीफ की है। इन सभी राज्यों में कांग्रेस की सरकार नहीं है।यह रिपोर्ट विशेष तौर पर प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा पहल के खाद्य सब्सिडी से जुड़े असर को लेकर चिंतित है। समिति का कहना है कि एनएसी ने जितना अनुमान लगाया है उसके मुकाबले कुल सब्सिडी खर्च ज्यादा होगा। समिति का कहना है कि एनएसी के मुताबिक पहले चरण में कुल सब्सिडी 71,837 करोड़ रुपये होगा और अंतिम चरण में 79,931 करोड़ रुपये का खर्च होगा। लेकिन रंगराजन ने इन अनुमानों को चुनौती दी है। उनका कहना है कि इस आंकड़े में संशोधन की पूरी गुंजाइश है और सब्सिडी बढ़कर 85,584 करोड़ रुपये और 92,060 करोड़ रुपये हो जाएगी। इसके अलावा मौजूदा खरीद और भंडार की क्षमता भी 4.25 करोड़ टन से थोड़ा ही ज्यादा है। ऐसे में पहले चरण में 6.87 करोड़ टन और अंतिम चरण में 7.39 करोड़ टन अनाज मुहैया कराने के लिए कई तरह के खर्च बढ़ेंगे जिसका आकलन अभी नहीं किया गया है। इस रिपोर्ट में यह संकेत दिया गया है कि कानून बनने पर अनाज खरीद बाध्यता होगी और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) या आयात में भी बढ़ोतरी करनी होगी। समिति का कहना है कि ये विकल्प राजकोषीय बोझ को और बढ़ा सकते हैं। प्रधानमंत्री द्वारा गठित विशेषज्ञों की समिति ने इस विधेयक के जरिये केवल गरीबों के लिए सस्ते गेहूं और चावल का प्रावधान किए जाने की सिफारिश की है। समिति को लगता है कि सामान्य श्रेणी के लोगों को भी ऐसी सहूलियत के लिए शामिल करने में दिक्कतें होंगी। समिति ने कहा है कि रिपोर्ट में न केवल गरीबों बल्कि कुछ सीमांत परिवारों को प्रस्तावित कानून के दायरे में शामिल करने की सिफारिश की गई है। रंगराजन का कहना है कि एनएसी की सोच सही और सराहनीय है लेकिन खाद्य सुरक्षा को कानूनी मान्यता दी जाती है तो इसके सभी पहलुओं पर गौर करना ही होगा। (BS Hindi)
राष्ट्रपति , खाद्य सुरक्षा विधेयक
नई दिल्ली। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने सोमवार को कहा कि प्रास्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक पर राज्यों से परामर्श लिया जा रहा है, क्योंकि जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) में सुधारों को लेकर राज्यों की प्रतिबद्धता पर इसकी सफलता निर्भर करेगी।संसद के संयुक्त सत्र को सम्बोधित करते हुए प्रतिभा पाटील ने कहा, "मैंने पहले ही घोषणा की थी कि मेरी सरकार खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर प्रतिबद्ध है और इसके तहत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को रियायती दर पर खाद्यान्न मुहैया कराएगी।"पाटील ने कहा, "राष्ट्रीय सलाहकार परिषद से इस सम्बंध में महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त हुई हैं। इस मसले पर राज्यों से सलाह ली जा रही है और पीडीएस में सुधारों को लेकर राज्यों की प्रतिबद्धता पर ही इसकी सफलता निर्भर करेगी।"राष्ट्रपति पाटील ने कहा कि महंगाई दर से निपटने के लिए उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि करना ही इस दीर्घकालिक उपाय है और इसके लिए सरकार द्वारा किसानों को प्रोत्साहित किया गया है।पाटील ने कहा कि सरकार ने छह वर्षो में धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य को 550 रुपये से बढ़ाकर 1,000 प्रति क्विंटल तथा गेहूं का समर्थन मूल्य 630 रुपये से बढ़ाकर 1,100 रुपये कर दिया है।उन्होंने कहा कि गन्ने के समर्थन मूल्य में 50 फीसदी से अधिक का इजाफा किया गया है और खादों पर सब्सिडी दी जा रही है।
सत्तर फीसदी आबादी को मिलेगा सस्ता अनाज!
नई दिल्ली. सोनिया गांधी के ‘ड्रीम-प्रोजेक्ट’ का स्वरूप खाद्य सुरक्षा विधेयक के रूप में लगभग तैयार हो गया है। खाद्य मंत्री केवी थॉमस ने शनिवार को बताया कि इस विधेयक के कानून बनते ही देश की दो-तिहाई गरीब जनता को सस्ते दाम पर अनाज उपलब्ध हो सकेगा। यह बात अलग है कि सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) की सिफारिशों से विधेयक का स्वरूप थोड़ा भिन्न रहेगा। इससे देश की ७० फीसदी आबादी को सस्ते अनाज की सुविधा मिल सकेगी। जबकि एनएसी ने देश की ७५ फीसदी जनता के लिए खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने की अनुशंसा की थी। थॉमस ने कहा, ‘हम खाद्य सुरक्षा विधेयक संसद में लाने को तैयार हैं। विधेयक का प्रारूप लगभग अंतिम चरण में है।’ वे यहां ‘अनाज भंडारण और ढुलाई की नीति पर आयोजित राष्टï्रीय परिचर्चा में हिस्सा लेने के बार पत्रकारों से बात कर रहे थे। उल्लेखनीय है कि एनएसी की सिफारिश पर कई मंचों पर बहस के बाद सामने आया था कि अनाज की कमी को ध्यान में रखते हुए सिफारिश के अनुसार योजना को लागू करना संभव नहीं है। ऐसे में रंगराजन कमेटी को अनाज की उपलब्धता पर विस्तृत रिपोर्ट देने को कहा गया था। (Business Bhaskar)
कब मिलेगा भारत को भर पेट भोजन
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे को अंतिम रूप दे दिया है। देश की कुल 75 फीसदी आबादी को इसके तहत लाने का प्रयास किया गया है। विधेयक के पिछले ड्राफ्ट में आमूलचूल परिवर्तन करने के बाद अब गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले हर परिवार को प्रतिमाह 35 किलोग्राम अनाज उपलब्ध कराने की सिफारिश की गई है। गैर बीपीएल परिवारों को हर माह 20 किलो अनाज न्यूनतम समर्थन मूल्य की आधी कीमत पर मिलेगा। इस मसौदेे के सभी प्रस्तावों को हू-ब-हू लागू किया जाता है तो अगले वर्ष से गरीबों को दो रुपये किलो गेहूं, तीन रुपये किलो चावल और एक रुपये किलो की दर से बाजरा मिलने का रास्ता साफ हो गया है। इस योजना का लाभ देश की 80 करोड़ जनता को मिलेगा। भोजन का अधिकार विधेयक में बच्चों, गर्भवती और प्रसूता महिलाओं, मिड-डे स्कूल के बच्चों तथा अनाथ और वंचित समुदाय के लोगों को भी कानूनी रूप से अनाज सस्ते दर पर देने का प्रावधान किया गया है। इस योजना को शुरू में देश के 150 सबसे पिछड़े जिलों में ही लागू करने की बात है। पूरे देश में यह 31 मार्च 2014 तक लागू हो जाएगी। प्रस्तावित विधेयक की सबसे खास बात यह है कि इसमें पहली बार यह माना गया है कि भोजन प्राप्त करना हर नागरिक का कानूनी अधिकार है। निस्संदेह यह एक स्वागत योग्य पहल है। पर सबसे अहम सवाल यह है कि 35 किलो अनाज लोगों के भूखे पेट भरने में कितना सहायक होगा। क्या हमें सचमुच यह मान लेना चाहिए कि यह अनाज भारत को भुखमरी गरीबी एवं कुपोषण जैसी गंभीर समस्याओं से निजात दिलाने में सहायक होगा? जमीनी मुश्किलें सरकार यह दावा कैसे करेगी कि उसने सभी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर दी? प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के तहत जितना अनाज देने की बात की गई है, वह किसी भी गरीब परिवार के लिए ऊंट के मुंह में जीरे जैसा होगा। यदि सरकार सचमुच अपने इरादों को लेकर गंभीर है तो उसे भूख व कुपोषण की समस्या की गंभीरता को समझना होगा। आज देश में करीब 26 करोड़ लोग को एक वक्त भूखे ही सोना पड़ता है। आजादी के छह दशक बाद भारत का अंतराष्ट्रीय रुतबा काफी बढ़ गया है। हाल ही में अमेरिका की नेशनल इंटलिजेंस काउंसिल (एनसीए) और यूरोपीय संघ की संस्था यूरोपीयन यूनियन इंस्टिट्यूट फॉर सिक्युरिटीज स्टडीज (ईयूआईएसएस) के अध्ययन में कहा गया कि अमेरिका और चीन के बाद भारत विश्व का तीसरा सबसे शक्तिशाली राष्ट्र है, लेकिन दुनिया के सबसे अधिक भूखे और कुपोषणग्रस्त लोग भारत में ही रहते हैं। दुनिया में अत्यधिक भुखमरी का शिकार हर पांचवां व्यक्ति भारतीय है। बीते माह अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) द्वारा जारी वैश्विक भुखमरी सूचकांक, में भूख से लड़ रहे 84 देशों की सूची में भारत को 67वां स्थान दिया गया है, जबकि चीन इसमें नवें और पाकिस्तान 52वें स्थान पर है। गरीबों के नाम पर हमारे देश में योजनाएं ढेर सारी है लेकिन वितरण व्यवस्था में गड़बडि़यों और भ्रष्टाचार के कारण आर्थिक असमानता की खाई चौड़ी होती जा रही है। भारत में हर साल लगभग 25 लाख शिशुओं की अकाल मृत्यु होती है और यहां के 42 प्रतिशत बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं। गर्भवती महिलाओं को न्यूनतम भोजन देने की कोई समन्वित योजना नहीं है। अनाज सड़ता रहता है लेकिन सरकार उसे भूखों को मुक्त बांटने को तैयार नहीं है। इस तर्क के साथ कि मुक्त या सस्ता अनाज उपलब्ध कराने से किसान हतोत्साहित होंगे। सरकार किसानों को सीधे अधिक सब्सिडी देने की योजना क्यों नहीं क्रियान्वित करती? अमेरिका और यूरोप में अनाज सस्ता होने के बावजूद वहां के किसानों को अपनी सरकार से कोई शिकायत क्यों नहीं है? ऐसा नहीं है कि देश में मौजूदा गरीबों को पेट भर खाना देने के लिए हमारे पास खाद्यान्न की कमी है। एक अनुमान के अनुसार, हमारे यहां फसल की कटाई से लेकर उसको गोदाम में पहुंचाने तक जितने अनाज की बर्बादी होती, उतनी ऑस्ट्रेलिया में फसल की उपज होती है। सुप्रीम कोर्ट सरकार से बार-बार कह रहा है कि अनाज को खुले आसमान में सड़ने के लिए छोड़ने से बेहतर है कि गरीब का पेट भरा जाए। कोर्ट का यह भी कहना है कि सिर्फ नीति बनाने से काम नहीं चलेगा। उन्हें जमीनी स्तर पर लागू करना जरूरी है। किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए खाद्यान्न की खरीद सरकार करती है, लेकिन अनाज का सुरक्षित भंडारण भी उतना ही आवश्यक है। जब यह संभव न हो, तब अनाज को सीधे पीडीएस के जरिए गरीबों तक भेजा जा सकता है। बोगस पीडीएस पीडीएस, यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली आज पूरे देश में लागू है, लेकिन इसके कुशल संचालन को लेकर हमेशा सवाल खड़े होते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनी जस्टिस बधवा कमेटी ने पीडीएस को बोगस और कई राज्यों में एकदम फेल करार दिया है। उनके मुताबिक यह प्रणाली भ्रष्ट, दोषपूर्ण और अपर्याप्त है। पिछले छह दशकों में हुए पीडीएस घोटालों में पिछले साल अगस्त में उजागर हुआ अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री गेगांग अपांग का 1000 करोड़ रुपये का पीडीएस घोटाला भी जुड़ गया है। अत: सार्वजनिक वितरण प्रणाली केवल ठीक-ठाक करने से कारगर नहीं हो सकती, इसे आमूल-चूल बदलने की जरूरत है। महज अन्न की उपलब्धता से लोगों को संतुलित भोजन नहीं मिल पाएगा। असल समस्या यह है कि अनाज आम लोगों तक पहुंच नहीं रहा है। इसलिए हमें एक ऐसी व्यवस्था पर जोर देना होगा जो अन्न को जरूरतमंद लोगों तक समय रहते पहुंचा सके। इसके लिए जरूरी है कि सरकारी तंत्र अपनी व्यवस्था को तर्कसंगत और प्रभावी बनाए। यह तभी हो पाएगा जब सरकार इसे अपनी सर्वोच्च प्राथमिकताओं में एक मानकर चलेगी। (Navabharat Hindi)
मोटे अनाज का महत्त्व
February 09, 2011
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए मोटे अनाज की आपूर्ति की जो पेशकश रखी है उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह एक ऐसा विचार है जिस पर कई वजहों से गौर किया जाना चाहिए। पोषक होने के अलावा मोटा अनाज उस अंतर को भी पाट सकता है जिसके खाद्य सुरक्षा अधिनियम के लागू होने के बाद पैदा होने का अंदेशा है। गेहूं और चावल का मौजूदा भंडार खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बाद देशभर की जरूरतों को शायद पूरा नहीं कर पाएगा। ऐसे में मोटे अनाज को इसमें शामिल करना कई वजहों से बेहतर होगा। ज्वार, बाजरा, रागी तथा अन्य मोटे अनाज उदाहरण के लिए मक्का, जौ, जई आदि भले ही गुणवत्ता में गेहूं और चावल के समान न हों लेकिन पोषण स्तर के मामले में वे उनसे बीस ही साबित होते हैं। दरअसल, अब इन्हें पोषक अनाज कहकर भी पुकारा जाने लगा है। एक ओर जहां कई मोटे अनाजों में प्रोटीन का स्तर गेहूं के नजदीक ठहरता है, वे विटामिन (खासतौर पर विटामिन बी), लौह, फॉस्फोरस तथा अन्य कई पोषक तत्त्वों के मामले में उससे बेहतर हैं। इसके अलावा बारीक अनाजों की तुलना में भी बेहतर होते हैं और यही वजह है कि देश के अनेक हिस्सों खासतौर पर गांवों में लोग इन्हें प्राथमिकता से अपने भोजन में शामिल करते हैं। दुखद बात यह है कि ये अनाज धीरे धीरे खाद्य श्रृंखला से बाहर होते गए क्योंकि सरकार ने बेहद रियायती दरों पर गेहूं और चावल की आपूर्ति शुरू कर दी। नीतिगत उपेक्षा और सब्सिडी की कमी के चलते मोटे अनाज के रकबे में कमी जरूर आई लेकिन पशुओं तथा पक्षियों के भोजन तथा औद्योगिक इस्तेमाल बढऩे के कारण इनका अस्तित्व बचा रहा। इनका औद्योगिक इस्तेमाल स्टार्च और शराब आदि बनाने में होता है।इन फसलों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उन्हें चावल तथा गेहूं की तुलना में बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है। इसके अलावा इन्हें कमजोर पोषण वाली मिट्टी में तथा अद्र्घ उष्णकटिबंधीय इलाकों में भी सफलतापूर्वक पैदा किया जा सकता है। इनके पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह है कि ये फसलें स्वाभाविक रूप से ऊर्जा और पौधों के पोषक तत्त्वों को जैवभार में अधिक किफायत से बदलती हैं। यही वजह है कि इनमें से अनेक प्रति हेक्टेयर गेहूं और चावल की तुलना में अधिक पैदावार देती हैं। जबकि गेहूं-चावल की खेती में आधुनिक तकनीक और नवीनतम हाइब्रिड किस्मों का इस्तेमाल किया जाता है जो अब भारी संख्या में उपलब्ध हैं। इन फायदों के अलावा मोटे अनाज को बढ़ावा देना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि सिंचित क्षेत्र में उपज का स्तर लगभग स्थिर हो गया है। अगर भारत को पोषक खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांग से निपटना है और अगर वर्षा आधारित कृषि की उत्पादकता में क्रांति लानी है तो कृषि शोध और कीमत नीति को इस दिशा में केंद्रित करना चाहिए। सरकार को इस दिशा में शोध और विकास संबंधी कार्यों पर निवेश बढ़ाना चाहिए। आज यह वक्त की जरूरत बन गई है। इसके साथ ही ऐसे कदम उठाए जाएं जिसके जरिए यह तय हो कि चावल और गेहूं जैसी अत्यधिक पानी चाहने वाली फसलों की जगह उन इलाकों में मोटे अनाज की खेती की जाए जहां भूजल से सिंचाई होती है। इससे कई तरह के फायदे होंगे। ऐसा करने से पानी की बचत होगी और आज के हमारे अनाज के भंडार कल मरुस्थल में बदलने से बचे रहेंगे। (BS Hindi)
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए मोटे अनाज की आपूर्ति की जो पेशकश रखी है उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह एक ऐसा विचार है जिस पर कई वजहों से गौर किया जाना चाहिए। पोषक होने के अलावा मोटा अनाज उस अंतर को भी पाट सकता है जिसके खाद्य सुरक्षा अधिनियम के लागू होने के बाद पैदा होने का अंदेशा है। गेहूं और चावल का मौजूदा भंडार खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बाद देशभर की जरूरतों को शायद पूरा नहीं कर पाएगा। ऐसे में मोटे अनाज को इसमें शामिल करना कई वजहों से बेहतर होगा। ज्वार, बाजरा, रागी तथा अन्य मोटे अनाज उदाहरण के लिए मक्का, जौ, जई आदि भले ही गुणवत्ता में गेहूं और चावल के समान न हों लेकिन पोषण स्तर के मामले में वे उनसे बीस ही साबित होते हैं। दरअसल, अब इन्हें पोषक अनाज कहकर भी पुकारा जाने लगा है। एक ओर जहां कई मोटे अनाजों में प्रोटीन का स्तर गेहूं के नजदीक ठहरता है, वे विटामिन (खासतौर पर विटामिन बी), लौह, फॉस्फोरस तथा अन्य कई पोषक तत्त्वों के मामले में उससे बेहतर हैं। इसके अलावा बारीक अनाजों की तुलना में भी बेहतर होते हैं और यही वजह है कि देश के अनेक हिस्सों खासतौर पर गांवों में लोग इन्हें प्राथमिकता से अपने भोजन में शामिल करते हैं। दुखद बात यह है कि ये अनाज धीरे धीरे खाद्य श्रृंखला से बाहर होते गए क्योंकि सरकार ने बेहद रियायती दरों पर गेहूं और चावल की आपूर्ति शुरू कर दी। नीतिगत उपेक्षा और सब्सिडी की कमी के चलते मोटे अनाज के रकबे में कमी जरूर आई लेकिन पशुओं तथा पक्षियों के भोजन तथा औद्योगिक इस्तेमाल बढऩे के कारण इनका अस्तित्व बचा रहा। इनका औद्योगिक इस्तेमाल स्टार्च और शराब आदि बनाने में होता है।इन फसलों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उन्हें चावल तथा गेहूं की तुलना में बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है। इसके अलावा इन्हें कमजोर पोषण वाली मिट्टी में तथा अद्र्घ उष्णकटिबंधीय इलाकों में भी सफलतापूर्वक पैदा किया जा सकता है। इनके पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह है कि ये फसलें स्वाभाविक रूप से ऊर्जा और पौधों के पोषक तत्त्वों को जैवभार में अधिक किफायत से बदलती हैं। यही वजह है कि इनमें से अनेक प्रति हेक्टेयर गेहूं और चावल की तुलना में अधिक पैदावार देती हैं। जबकि गेहूं-चावल की खेती में आधुनिक तकनीक और नवीनतम हाइब्रिड किस्मों का इस्तेमाल किया जाता है जो अब भारी संख्या में उपलब्ध हैं। इन फायदों के अलावा मोटे अनाज को बढ़ावा देना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि सिंचित क्षेत्र में उपज का स्तर लगभग स्थिर हो गया है। अगर भारत को पोषक खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांग से निपटना है और अगर वर्षा आधारित कृषि की उत्पादकता में क्रांति लानी है तो कृषि शोध और कीमत नीति को इस दिशा में केंद्रित करना चाहिए। सरकार को इस दिशा में शोध और विकास संबंधी कार्यों पर निवेश बढ़ाना चाहिए। आज यह वक्त की जरूरत बन गई है। इसके साथ ही ऐसे कदम उठाए जाएं जिसके जरिए यह तय हो कि चावल और गेहूं जैसी अत्यधिक पानी चाहने वाली फसलों की जगह उन इलाकों में मोटे अनाज की खेती की जाए जहां भूजल से सिंचाई होती है। इससे कई तरह के फायदे होंगे। ऐसा करने से पानी की बचत होगी और आज के हमारे अनाज के भंडार कल मरुस्थल में बदलने से बचे रहेंगे। (BS Hindi)
नरेगा के बाद राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा पर सोनिया का फोकस
देश में गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे लोगों के लिए एक अत्यंत अच्छी खबर है। इस खबर का वास्ता सही अर्थे में काफी गरीब माने जाने वाले लोगों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने से है। हाल ही में संपन्न आम चुनाव के दौरान किए गए इस वादे को पूरा कराने का जिम्मा किसी और ने नहीं, बल्कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने लिया है। सोनिया के ताजा कदम से इसकी पुष्टि होती है। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखकर गरीबों को हर माह तीन रुपये प्रति किलो की दर से 35 किलो अनाज दिए जाने की पुरजोर वकालत की है। असल में, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट (नरेगा) स्कीम के बाद अब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम बनाने के महत्वाकांक्षी प्रस्ताव पर फोकस कर रही हैं। वह चाहती हैं कि यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में यह उसकी प्रमुख (फ्लैगशिप) स्कीम के रूप में उभर कर सामने आए। सोनिया ने अपने पत्र में प्रधानमंत्री से कहा है कि वह इस तरह का कानून बनाने के कांग्रेस के वादे को पूरा करने पर ध्यान दें। यही नहीं, सोनिया ने अपने पत्र में प्रस्तावित कानून की मोटी रूपरेखा भी पेश की है। यूपीए की नई सरकार बनने के बाद यह सोनिया द्वारा प्रधानमंत्री को लिखा गया संभवत: पहला पत्र है। वैसे तो पार्टी ने आम चुनाव के दौरान गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे प्रत्येक परिवार को हर महीने तीन रुपये प्रति किलो की दर से 25 किलो चावल या गेहूं मुहैया कराने का वादा किया था, लेकिन सोनिया ने अपने इस पत्र में उन्हें इसी दर पर हर माह 35 किलो अनाज उपलब्ध कराने का जिक्र किया है। सोनिया ने इस स्कीम का दायरा बढ़ाकर कई और संभावित लाभार्थियों को भी इसमें शामिल करने की बात कही है। इन लाभार्थियों में गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे परिवारों और अंत्योदय योजना के दायरे में आने वाले परिवारों के अलावा किसी संकट की स्थिति में भारी मुसीबत में पड़ जाने वाले परिवारों को भी शामिल किया गया है। इस कानून के मसौदे में राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण के बाद सभी जरूरतमंदों को फोटो पहचान कार्ड जारी करने का भी प्रस्ताव किया गया है ताकि उनकी पहचान करने में आसानी हो सके। इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं और सांप्रदायिक हिंसा से प्रभावित लोगों को भी विशेष पहचान कार्ड जारी करने का प्रावधान इसमें है। इसके अलावा सभी राज्यों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के कंप्यूटरीकरण का प्रस्ताव भी इसमें किया गया है ताकि उस पर कड़ी नजर रखी जा सके। हालांकि, सरकारी कवायद के बावजूद एक खास बात को ध्यान में रखने की जरूरत है। इस कानून को लागू करने के लिए सरकार राशन प्रणाली का सहारा लेगी, लेकिन यह वही राशन प्रणाली है जिसके जरिए वितरित हो रहे खाद्यान्न का करीब 50 फीसदी तक हिस्सा कई राज्यों में कालाबाजारी की भेंट चढ़ जाता है। दूसरे, इस योजना का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि सरकार इस समय गरीबों के लिए जो सब्सिडी दे रही है उसमें बढ़ोतरी के बजाय बचत का रास्ता साफ होगा। यानी खाद्य सुरक्षा का यह फामरूला सरकार के लिए फायदे की सौगात लेकर आ रहा है। असल में इसे बहुत सावधानी से तैयार किया गया है।इस समय सरकार गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) के लोगों को 4.15 रुपये किलो की दर से हर माह 35 किलो गेहूं मुहैया कराती है। वहीं, चावल के लिए यह कीमत 5.65 रुपये प्रति किलो है। लेकिन देश के कुल 6.52 करोड़ बीपीएल परिवारों में से ढाई करोड़ निर्धनतम परिवार ऐसे हैं जो अंत्योदय अन्न योजना के तहत आते हैं। इन परिवारों के लिए गेहूं की कीमत दो रुपये किलो और चावल की मौजूदा कीमत तीन रुपये किलो है जबकि मात्रा 35 किलो है। इस तरह से देखा जाए तो सरकार का खाद्य सुरक्षा अधिनियम का गणित उसके पक्ष में जाता है, न कि गरीबों के पक्ष में। प्रस्तावित मात्रा के आधार पर सरकार को सालाना करीब 200 लाख टन खाद्यान्न की जरूरत पड़ेगी, जबकि मौजूदा व्यवस्था में इसके लिए 274 लाख टन खाद्यान्न की जरूरत है। (Business Bhaskar)
खाद्य सुरक्षा विधेयक तैयार : थॉमस
तिरूवनंतपुर: केंद्रीय मंत्री के.वी. थॉमस ने शनिवार को कहा कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के दूसरे कार्यकाल का महात्वाकांक्षी खाद्य सुरक्षा विधेयक तैयार है।प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार की मंत्रिपरिषद में हाल ही में हुए फेरबदल में उपभोक्ता मामलों, खाद्य एवं जन वितरण मंत्रालय की जिम्मेदारी पाने वाले थॉमस ने पत्रकारों से कहा कि खाद्य सुरक्षा विधेयक को लेकर उनका मंत्रालय तैयार है।उन्होंने कहा, "अगले महीने की शुरुआत में विधेयक पर चर्चा के लिए इसे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के पास ले जाया जाएगा और इसके बाद यह बिल केंद्रीय मंत्रिमंडल के समक्ष उपस्थित होगा।"थॉमस ने कहा कि इस विधेयक के लागू हो जाने के बाद भारत इस तरह का कार्यक्रम पेश करने वाला विश्व का अकेला देश बन जाएगा।उन्होंने कहा कि इस विधेयक के जरिए सरकार का मुख्य उद्देश्य किसानों को उनके उत्पादों का उचित मूल्य दिलाना और लोगों को महत्वपूर्ण सामग्रियां उचित कीमत पर उपलब्ध कराना है।थॉमस ने कहा, "विधेयक को किस रूप में पारित होना चाहिए इसे लेकर कुछ प्रस्ताव मिले हैं जिन पर चर्चा की जा रही है। ये प्रस्ताव लोगों के वर्गीकरण को लेकर हैं।"उन्होंने बताया, "एक प्रस्ताव में कहा गया है कि विधेयक में एक प्राथमिकता वाले आवास और एक सामान्य आवास की श्रेणी होनी चाहिए।"थॉमस ने कहा, "संसद के आगामी सत्र में इस विधेयक को लाना मुश्किल है, इसे बजट सत्र के बाद के सत्र में पेश किया जा सकता है।" (24 dunia)
25 फ़रवरी 2011
ऊंचे दाम पर चांदी की बिक्री 25 फीसदी घटी
बढ़ती कीमत का असर22फरवरी को दिल्ली में भाव बढ़कर 49,600 रुपये प्रति किलोअंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम 33.91 डॉलर प्रति औंस तक पहुंच गएदस ग्राम सिक्के का भाव 540 रुपये, दीपावली पर था 360 रुपये 22 से 25 हजार के डिनर सेट की कीमत हुई 55 से 60 हजार रुपये चांदी के दाम ऐतिहासिक ऊंचाई पर होने के कारण गहनों, बर्तनों और सिक्कों की बिक्री 25 फीसदी तक कम हो गई है। दिल्ली सराफा बाजार में 22 फरवरी को चांदी का भाव बढ़कर 49,600 रुपये प्रति किलो के रिकार्ड स्तर पर पहुंच गया था। अंतरराष्ट्रीय बाजार में इस दौरान दाम बढ़कर 33.91 डॉलर प्रति औंस के स्तर पर पहुंच गए थे। जालान एंड कंपनी के डायरेक्टर विनय जालान ने बताया कि चांदी की कीमतों में आई तेजी का असर गहनों, बर्तनों और सिक्कों की बिक्री पर पड़ रहा है। ग्राहक इस समय हल्के वजन के गहने, बर्तन और सिक्कों की ज्यादा मांग कर रहे हैं। चांदी के दस ग्राम के सिक्का का भाव बढ़कर इस समय 540 रुपये हो गया है जबकि दीपावली पर इसका भाव 360 रुपये था। उन्होंने बताया कि चांदी का डिनर सैट 22 से 25 हजार रुपये में बन जाता था जबकि इस समय 55 से 60 हजार रुपये लग जाते हैं। पर्ल इंडिया इंटरनैशनल के मैनेजिंग डायरेक्टर एस के पारिक ने बताया कि चांदी के गहनों की कीमतें बढऩे से निर्यात आर्डर भी पहले की तुलना में 20 से 25 फीसदी तक कम हो गए हैं। उन्होंने बताया कि इस समय शादियों का सीजन चल रहा है इसीलिए गहनों में घरेलू मांग तो बराबर है लेकिन बर्तन, मूतियों और सिक्कों में मांग कम आ रही है। दिल्ली बुलियन वैलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष वी के गोयल ने बताया कि चांदी का भाव बढऩे से आभूषण, बर्तन, सिक्कों और मूर्तियों की कुल बिक्री पहले की तुलना में कम हो गई है। घरेलू बाजार में चांदी का भाव विदेशी तेजी-मंदी के आधार पर तय होता है। मिस्र में शुरू हुई राजनीतिक उथल-पुथल दूसरे अरब देशों में भी फैल रही है। इसी वजह से निवेशक कीमती धातुओं में जमकर निवेश कर रहे हैं। सोने के मुकाबले चांदी के दाम अब भी कम है इसीलिए निवेशक चांदी की खरीद को प्राथमिकता दे रहे हैं। दिल्ली सराफा बाजार में चांदी की कीमतों में बुधवार को 300 रुपये की नरमी आकर भाव 49,300 रुपये प्रति किलो रह गए। घरेलू बाजार में चालू महीने में चांदी के दाम 13 फीसदी बढ़ चुके हैं। 31 जनवरी को दिल्ली में चांदी का भाव 43,600 रुपये प्रति किलो था। एंजेल कमोडिटी के बुलियन विश£ेषक अनुज गुप्ता ने बताया कि चालू महीने में अंतरराष्ट्रीय बाजार में चांदी की कीमतों में 18.1 फीसदी की तेजी आ चुकी है। पहली फरवरी को विदेशी बाजार में चांदी का भाव 28.10 डॉलर प्रति औंस था जबकि बुधवार को 33.21 डॉलर प्रति औंस पर कारोबार करते देखा गया। विश्व स्तर पर राजनीतिक उठा-पटक के कारण चांदी की कीमतों में और भी तेजी की ही संभावना है। (Business Bhaskar.....R S Rana)
निर्यात बढऩे से मक्के मे तेजी की संभावना
-->विदेश में मांग का असरपहली फरवरी को दाम 260-270 डॉलर प्रति टन थाअब इसके दाम हो गए हैं 300-303 डॉलर प्रति टननिर्यात मांग बढऩे से मार्च-अप्रैल में मक्का की कीमतों तेजी की संभावना है। विदेशी बाजार में चालू महीने में इसकी कीमतों में 33-40 डॉलर प्रति टन की तेजी आ चुकी है। मक्का का भाव वियतनाम (सीएंडएफ) में पहली फरवरी को 260-270 डॉलर प्रति टन था जो बढ़कर इस समय 300 से 303 डॉलर प्रति टन हो गया है। विश्व स्तर पर मक्का के उत्पादन में कमी आने की आशंका है लेकिन भारत में पैदावार ज्यादा होने का अनुमान है। इसीलिए भारत से निर्यात बढ़ रहा है। अमेरिकी कृषि विभाग (यूएसडीए) में भारत के प्रतिनिधि अमित सचदेव ने बताया कि इस समय वियतनाम, इंडोनेशिया और मलेशिया की आयात मांग अच्छी बनी हुई है। चालू सीजन में अक्टूबर-2010 से अभी तक मक्का के करीब 12 लाख टन के निर्यात सौदे हो चुके हैं तथा इसमें से लगभग 8 लाख टन की शिपमेंट भी हो चुकी है।मार्च-अप्रैल में बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल की मांग बढऩे का अनुमान है। बंाग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल की खरीद करीब 10 लाख टन की आने की संभावना है। इसीलिए मक्का की कीमतों में तेजी की संभावना है।लक्ष्मी ओवरसीज के डायरेक्टर दलीप काबरा ने बताया कि विश्व स्तर पर मक्का का उत्पादन कम होने से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मक्का की कीमतों में तेजी बनी हुई है। शिकागो बोर्ड ऑफ ट्रेड (सीबॉट) में अप्रैल महीने के वायदा अनुबंध में मक्का की कीमतों में सप्ताहभर में ही 7.01 फीसदी की तेजी आकर भाव 282.34 डॉलर प्रति टन हो गए। इसीलिए दक्षिण एशियाई देशों की मांग भारत से बढ़ रही है। बीते फसल सीजन (अक्टूबर-09 से सितंबर-10) के दौरान देश से मक्का का 8 लाख टन का निर्यात हुआ था। लेकिन चालू सीजन में निर्यात बढ़कर 24-25 लाख टन होने की संभावना है। गोपाल ट्रेडिंग कंपनी के पार्टनर राजेश अग्रवाल ने बताया कि आंध्रप्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में मक्का की आवक पहले की तुलना में कम हो गई है। कर्नाटक और महाराष्ट्र में भी मार्च-अप्रैल में आवक कम हो जायेगी। जबकि इस समय पोल्ट्री निर्माताओं के साथ स्टार्च मिलों की मांग बराबर बनी हुई है। इसलिए आगामी दिनों में दाम बढऩे का अनुमान है। आंध्रप्रदेश की मंडियों में मक्का का भाव 1,070 रुपये, कर्नाटक की मंडियों में 1,040 रुपये, महाराष्ट्र की मंडियों में 1,030 रुपये प्रति क्विंटल चल रहा है।दिल्ली में मक्का का भाव 1,160-1,170 रुपये और कांडला बंदरगाह पर 1,120-1,130 प्रति क्विंटल चल रहा है। कृषि मंत्रालय के दूसरे आरंभिक अनुमान के अनुसार वर्ष 2010-11 में मक्का का उत्पादन बढ़कर 200.3 लाख टन होने का अनुमान है जबकि वर्ष 2009-10 में इसका उत्पादन 167.2 लाख टन का हुआ था। (Business Bhaskar...R S Rana)
दाल मिलों की मांग घटने से गिर सकते हैं चने के दाम
बात पते की :- चालू रबी में चने की बुवाई 95.12 लाख हैक्टेयर में हुई है। जबकि पिछले साल इस समय तक 85.55 लाख हैक्टेयर क्षेत्रफल में ही बुवाई हुई थी। राजस्थान में चालू रबी के दौरान चने की बुवाई पिछले साल के 8.62 लाख हैक्टेयर से बढ़कर 16.42 लाख हैक्टेयर हो गई है।चने की नई फसल की आवक के चलते दाल मिलों ने पहले की तुलना में खरीद कम कर दी है जिससे इसकी कीमतों में 100-150 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आने का अनुमान है। घरेलू फसल को देखते हुए आयात सौदे भी नहीं हो रहे हैं। कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र में चने की नई फसल की आवक शुरू हो गई है। और १५ मार्च के बाद मध्य प्रदेश और अप्रैल में राजस्थान में नई फसल की आवक शुरू हो जायेगी। चालू रबी में चने की बुवाई 95.12 लाख हैक्टेयर में हुई है। जबकि पिछले साल इस समय तक 85.55 लाख हैक्टेयर क्षेत्रफल में ही बुवाई हुई थी। राजस्थान और महाराष्ट्र में चालू सीजन के दौरान बुवाई क्षेत्र बढ़ा है। राजस्थान में चालू रबी के दौरान चने की बुवाई पिछले साल के 8.62 लाख हैक्टेयर से बढ़कर 16.42 लाख हैक्टेयर हो गई है। जबकि महाराष्ट्र में पिछले साल के 9.93 लाख हैक्टेयर के मुकाबले 13.73 लाख हैक्टेयर क्षेत्रफल में बुवाई हुई है। कृषि मंत्रालय के दूसरे आरंभिक अनुमान के अनुसार चने का उत्पादन 73.7 लाख टन होने की संभावना है। जो पिछले साल के 74.8 लाख टन से थोड़ा कम है। ग्लोबल दाल इंडस्ट्रीज के मैनेजिंग डायरेक्टर चंद्रशेखर एस नादर ने बताया कि कर्नाटक की मंडियों में नए चने की 20 से 25 हजार क्विंटल, आंध्रप्रदेश की अन्नागिरी लाईन में 28 से 30 हजार क्विंटल और महाराष्ट्र की मंडियों में 60 से 65 हजार क्विंटल आवक शुरू हो गई है। इन राज्यों की उत्पादक मंडियों में चने की कीमतों में भी पिछले पंद्रह दिनों में करीब 125 -150 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आ चुकी है। उत्पादक मंडियों में चने के दाम घटकर 2,300 -2,425 रुपये प्रति क्विंटल रह गए हैं। दलहन आयातक संतोष उपाध्याय ने बताया कि घरेलू फसल को देखते हुए आयातक आस्ट्रेलिया से चने के आयात सौदे भी नहीं कर रहे हैं। इसीलिए चालू महीने में आस्ट्रेलियाई चने की कीमतों में करीब 140-150 डॉलर प्रति टन की गिरावट आ चुकी है। इसका भाव मुंबई में घटकर 500 डॉलर प्रति टन रह गया है लेकिन इन भावों में भी मांग नहीं आ रही है। अजय इंडस्ट्रीज के डायरेक्टर सुनील अग्रवाल ने बताया कि मध्य प्रदेश में चने की नई फसल की आवक 15 मार्च के बाद और राजस्थान में अप्रैल में शुरू होगी। इसीलिए स्टॉकिस्टों की बिकवाली भी पहले के मुकाबले बढ़ गई है। मध्य प्रदेश की उत्पादक मंडियों में चने का भाव घटकर 2,300-2,325 रुपये प्रति क्विंटल और इंदौर मंडी में 2,400-2,425 रुपये प्रति क्विंटल रह गया। राजस्थान की अलवर मंडी में इसका भाव घटकर 2,450 रुपये और दिल्ली में भाव घटकर 2,615-2,620 रुपये प्रति क्विंटल रह गए। दिल्ली में चने की आवक 20 -25 ट्रक प्रतिदिन चल रही है। वायदा बाजार में पिछले पंद्रह दिनों में चने की कीमतों में 7.9 फीसदी की गिरावट आ चुकी है। एनसीडीईएक्स पर मार्च महीने के वायदा अनुबंध में इसका भाव 10 फरवरी को 2,746 रुपये प्रति क्विंटल था जबकि गुरुवार को भाव घटकर 2,527 रुपये प्रति क्विंटल रह गया। (Business Bhaskar...R S Rana)
भविष्य का सोना बनती जा रही है चांदी
पिछले पांच साल के दौरान चांदी ने निवेशकों को 240 फीसदी रिटर्न दिया है। भारतीय समाज में इसकी मांग लगातार बढ़ रही और आगे निवेश माध्यम के तौर पर भी इसकी चमक बरकरार रहेगी। क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि पिछले पांच साल में निवेशकों को 240 फीसदी का निवेश किस चीज ने दिया होगा? सोने, इक्विटी, म्यूचुअल फंड या क्रूड ने। इस पर ज्यादा अनुमान लगाने की जरूरत है। चांदी इन पांच सालों में 240 फीसदी का जबरदस्त रिटर्न दिया है। वह धातु जिसका उपभोग या इस्तेमाल सोने जैसी धातु के सस्ते विकल्प के तौर पर किया जाता है। दिल्ली के बाजारों में मंगलवार को चांदी ने प्रति किलो 50,000 रुपये के स्तर को छू लिया। चांदी में इस तेजी की कई वजहें हैं। पहली बात तो यह कि दुनिया भर में शेयर बाजारों में उथलपुथल से सोना और चांदी निवेश के ज्यादा सुरक्षित विकल्प हो गए हैं। लंबी अवधि के निवेश के तौर पर लोग अब सोने और चांदी को पसंद कर रहे हैं। चांदी इसलिए भी कि यह सोना की तुलना में काफी सस्ता है। दस ग्राम सोना की कीमत इस समय दिल्ली के बाजार में 21,240 रुपये है लेकिन 50,000 रुपये में एक किलो चांदी खरीदी जा सकती है। सवाल यह है कि क्या चांदी की कीमतों में और इजाफा होगा। क्या निवेशकों को इस मूल्य पर भी इसमें निवेश करना चाहिए। क्या निकट भविष्य में इसमें गिरावट की आशंका है? क्या चांदी आगे भी इतना ही शानदार रिटर्न देती रहेगी? जहां तक भारत का सवाल है तो यहां चांदी की मांग बने रहने की पूरी संभावना है। देश में कई उद्योगों में निर्माण प्रक्रिया के दौरान चांदी का इस्तेमाल होता है। ऑटो, फार्मास्यूटिकल्स और अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में चांदी का इस्तेमाल होता है। ऑटो इंडस्ट्री लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रही है। फार्मास्यूटिकल्स (खास कर आयुर्वेदिक दवा का बाजार भी बढ़ रहा है) और सोलर ऊर्जा के क्षेत्र में काफी तरक्की हो रही है। सोलर पैनलों में चांदी का काफी इस्तेमाल है। इनकी मांग बढऩे से भी चांदी की कीमत बढ़ रही है। इसके साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढऩे के साथ ही लोगों की आय में इजाफा हो रहा है और समाज में आभूषणों समेत चांदी के दूसरे सजावटी और लग्जरी चीजों की मांग बढ़ रही है। चांदी की मूर्तियां, शो-पीस और आभूषणों की मांग में इजाफा हो रहा है। ऐसे में घरेलू बाजार में चांदी की कीमत में आने वाले दिनों में बहुत ज्यादा गिरावट के आसार कम ही हैं। इसलिए निवेश की दृष्टि से चांदी की अहमियत बनी रहेगी। खास कर रिटर्न देने के मामले में जब यह सोना से भी आगे निकल चुकी है तो फिर अहमियत तो बनी ही रहनी है। अगर ईटीएफ के जरिये भी चांदी में निवेश का विकल्प दिया जाए तो इसकी भी लोकप्रियता काफी बढ़ जाएगी। अर्थव्यवस्था में जब भी अनिश्चितता का माहौल होता और इक्विटी बाजार में अच्छा रिटर्न नहीं दे रहा है तो लोग सोना और चांदी जैसी महंगी धातुओं में निवेश करते हैं। निवेश पर महंगाई के असर को कम करने और दीर्घकालीन रिटर्न देने की इनकी क्षमता की वजह से निवेशक इस ओर आकर्षित होते हैं। अब चांदी ने पिछले कुछ साल में निवेशकों को जिस तरह का बेहतरीन रिटर्न मुहैया कराया है, उसमें इसकी मांग में इजाफे की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। इसलिए चांदी भविष्य का सोना बनती जा रही है। (Business Bhaskar)
एटमा ने की शुल्क में कटौती की मांग
कोच्चि February 24, 2011
टायर उद्योग ने घरेलू खपत और उत्पादन के बीच की खाई पाटने के लिए वित्त मंत्री से साल 2011-12 में 2 लाख टन प्राकृतिक रबर के आयात की अनुमति की मांग की है। वित्त मंत्री को सौंपे बजट पूर्व ज्ञापन में ऑटोमोटिव टायर मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (एटमा) ने ब्यूटाइल रबर और स्टाइरिन ब्यूटाडाइन रबर जैसे कच्चे माल पर सीमा शुल्क माफी की भी मांग की है। उनका कहना है कि ऐसे कच्चे माल का घरेलू उत्पादन नहीं होता है। इसके अलावा उन्होंने स्टील टायर कॉर्ड, रबर केमिकल और पॉलिएस्टर टायर कॉर्ड जैसे कच्चे माल पर सीमा शुल्क में कटौती की मांग की है क्योंकि इसका उत्पादन घरेलू मांग के मुकाबले कम होता है। फिलहाल ब्यूटाइल रबर पर 5 फीसदी शुल्क लगता है और जिन कच्चे माल का उत्पादन देश में नहीं होता है उस पर 10 फीसदी शुल्क चुकाना पड़ता है। एटमा ने नायलॉन टायर कॉर्ड पर शुल्क को 10 से घटाकर 5 फीसदी करने और ब्यूटाडाइन रबर व स्टील टायर कॉर्ड (10 से 5 फीसदी), रबर केमिकल्स (7.5 से 2.5 फीसदी) करने की मांग की है। (BS Hindi)
टायर उद्योग ने घरेलू खपत और उत्पादन के बीच की खाई पाटने के लिए वित्त मंत्री से साल 2011-12 में 2 लाख टन प्राकृतिक रबर के आयात की अनुमति की मांग की है। वित्त मंत्री को सौंपे बजट पूर्व ज्ञापन में ऑटोमोटिव टायर मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (एटमा) ने ब्यूटाइल रबर और स्टाइरिन ब्यूटाडाइन रबर जैसे कच्चे माल पर सीमा शुल्क माफी की भी मांग की है। उनका कहना है कि ऐसे कच्चे माल का घरेलू उत्पादन नहीं होता है। इसके अलावा उन्होंने स्टील टायर कॉर्ड, रबर केमिकल और पॉलिएस्टर टायर कॉर्ड जैसे कच्चे माल पर सीमा शुल्क में कटौती की मांग की है क्योंकि इसका उत्पादन घरेलू मांग के मुकाबले कम होता है। फिलहाल ब्यूटाइल रबर पर 5 फीसदी शुल्क लगता है और जिन कच्चे माल का उत्पादन देश में नहीं होता है उस पर 10 फीसदी शुल्क चुकाना पड़ता है। एटमा ने नायलॉन टायर कॉर्ड पर शुल्क को 10 से घटाकर 5 फीसदी करने और ब्यूटाडाइन रबर व स्टील टायर कॉर्ड (10 से 5 फीसदी), रबर केमिकल्स (7.5 से 2.5 फीसदी) करने की मांग की है। (BS Hindi)
दालों, खाद्य तेलों पर जारी रहे सब्सिडी
मुंबई February 24, 2011
केंद्रीय खाद्य व उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने दालों व खाद्य तेलों पर 31 मार्च 2011 के बाद भी सब्सिडी जारी रखने की सिफारिश की है। इस बारे में एक उच्च अधिकारी ने बताया कि खाद्य तेलों के अलावा केंद्र सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत राज्यों के लिए स्टॉक सीमा लगाने का प्रस्ताव रखा है।अधिकारी ने बताया कि एक ओर जहां दलहन का उत्पादन बेहतर रहने का अनुमान है, वहीं इस तरह की तैयारी अनावश्यक रूप से कीमतें बढऩे और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की योजना जारी रखने के लिए जरूरी है। साल 2008-09 में प्रस्तावित इस योजना का मकसद आयातित कीमतें या बाजार की उच्च कीमतों के बाद भी पीडीएस के तहत आवश्यक वस्तु की अबाध आपूर्ति सुनिश्चित करना था। दालों व खाद्य तेलों पर सब्सिडी की यह योजना 31 मार्च 2011 को समाप्त हो रही है। वैसे भारत खाद्य तेल खास तौर से पाम तेल व सोयाबीन का शुद्ध आयातक है। सब्सिडी की इस योजना के तहत खाद्य मंत्रालय दालों व खाद्य तेलों का वितरण पीडीएस के जरिए करता है और इस पर क्रमश: 10 रुपये प्रति किलोग्राम व 15 रुपये प्रति लीटर की सब्सिडी देता है। दूसरे अग्रिम अनुमान के तहत कृषि मंत्रालय ने साल 2010-11 में रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन (गेहूं व दाल) का संकेत दिया है। सूत्रों ने कहा कि हालांकि दालों के लिए अनुमान बेहतर है, लेकिन वित्त मंत्रालय द्वारा इस कदम पर सहमति जताया जाना अभी बाकी है, वहीं खाद्य मंत्रालय सब्सिडी को कम से कम छह महीने और जारी रखने पर जोर दे रहा है।वैश्विक बाजार में ऊंची कीमत के चलते खाद्य तेल का आयात प्रभावित हो रहा है, लिहाजा खाद्य मंत्रालय ने कच्चे खाद्य तेल के आयात पर शून्य आयात शुल्क व खाद्य पाम तेल पर 7.5 फीसदी आयात शुल्क जारी रखने की वकालत की है। दूसरे अग्रिम अनुमान के मुताबिक, साल 2010-11 में दलहन का उत्पादन 165 लाख टन पर पहुंचने की संभावना है। हालांकि खाद्य मंत्रालय ने दालों के आयात व खुले बाजार में उसका वितरण आयातित कीमत से कम पर करने के लिए ट्रेडिंग कॉरपोरेशन को दी जाने वाली सब्सिडी को जारी रखने का कोई प्रस्ताव नहीं सौपा है। इस सब्सिडी के तहत स्थानीय व वैश्विक कीमत में 15 फीसदी तक के अंतर की भरपाई की जाती है। पीडीएस के तहत वित्त वर्ष 2009-10 में सरकार ने दालों की मात्रा 3 लाख टन से बढ़ाकर 6 लाख टन कर दी थी। पिछले साल दलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए मंत्रालय ने दालों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के विरोध में अपनी सिफारिशें दी थी। बाजार कीमत के लिए एमएसपी बेंचमार्क की तरह काम करता है और मौजूदा समय में एमएसपी सबसे ज्यादा है। मंत्रालय ने दालों के निर्यात पर पाबंदी और शुल्क मुक्त आयात को जारी रखने की भी सिफारिश की थी। काबुली चने को छोड़कर दलहन के निर्यात पर पाबंदी पहले ही 31 मार्च 2011 तक बढ़ाई जा चुकी है। (BS Hindi)
केंद्रीय खाद्य व उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने दालों व खाद्य तेलों पर 31 मार्च 2011 के बाद भी सब्सिडी जारी रखने की सिफारिश की है। इस बारे में एक उच्च अधिकारी ने बताया कि खाद्य तेलों के अलावा केंद्र सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत राज्यों के लिए स्टॉक सीमा लगाने का प्रस्ताव रखा है।अधिकारी ने बताया कि एक ओर जहां दलहन का उत्पादन बेहतर रहने का अनुमान है, वहीं इस तरह की तैयारी अनावश्यक रूप से कीमतें बढऩे और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की योजना जारी रखने के लिए जरूरी है। साल 2008-09 में प्रस्तावित इस योजना का मकसद आयातित कीमतें या बाजार की उच्च कीमतों के बाद भी पीडीएस के तहत आवश्यक वस्तु की अबाध आपूर्ति सुनिश्चित करना था। दालों व खाद्य तेलों पर सब्सिडी की यह योजना 31 मार्च 2011 को समाप्त हो रही है। वैसे भारत खाद्य तेल खास तौर से पाम तेल व सोयाबीन का शुद्ध आयातक है। सब्सिडी की इस योजना के तहत खाद्य मंत्रालय दालों व खाद्य तेलों का वितरण पीडीएस के जरिए करता है और इस पर क्रमश: 10 रुपये प्रति किलोग्राम व 15 रुपये प्रति लीटर की सब्सिडी देता है। दूसरे अग्रिम अनुमान के तहत कृषि मंत्रालय ने साल 2010-11 में रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन (गेहूं व दाल) का संकेत दिया है। सूत्रों ने कहा कि हालांकि दालों के लिए अनुमान बेहतर है, लेकिन वित्त मंत्रालय द्वारा इस कदम पर सहमति जताया जाना अभी बाकी है, वहीं खाद्य मंत्रालय सब्सिडी को कम से कम छह महीने और जारी रखने पर जोर दे रहा है।वैश्विक बाजार में ऊंची कीमत के चलते खाद्य तेल का आयात प्रभावित हो रहा है, लिहाजा खाद्य मंत्रालय ने कच्चे खाद्य तेल के आयात पर शून्य आयात शुल्क व खाद्य पाम तेल पर 7.5 फीसदी आयात शुल्क जारी रखने की वकालत की है। दूसरे अग्रिम अनुमान के मुताबिक, साल 2010-11 में दलहन का उत्पादन 165 लाख टन पर पहुंचने की संभावना है। हालांकि खाद्य मंत्रालय ने दालों के आयात व खुले बाजार में उसका वितरण आयातित कीमत से कम पर करने के लिए ट्रेडिंग कॉरपोरेशन को दी जाने वाली सब्सिडी को जारी रखने का कोई प्रस्ताव नहीं सौपा है। इस सब्सिडी के तहत स्थानीय व वैश्विक कीमत में 15 फीसदी तक के अंतर की भरपाई की जाती है। पीडीएस के तहत वित्त वर्ष 2009-10 में सरकार ने दालों की मात्रा 3 लाख टन से बढ़ाकर 6 लाख टन कर दी थी। पिछले साल दलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए मंत्रालय ने दालों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के विरोध में अपनी सिफारिशें दी थी। बाजार कीमत के लिए एमएसपी बेंचमार्क की तरह काम करता है और मौजूदा समय में एमएसपी सबसे ज्यादा है। मंत्रालय ने दालों के निर्यात पर पाबंदी और शुल्क मुक्त आयात को जारी रखने की भी सिफारिश की थी। काबुली चने को छोड़कर दलहन के निर्यात पर पाबंदी पहले ही 31 मार्च 2011 तक बढ़ाई जा चुकी है। (BS Hindi)
23 फ़रवरी 2011
जमीन में दोबारा जान डालने के लिए आरंभ हो अभियान
February 22, 2011
जमीन की उर्वरता कम होना फसल की पैदावार बढ़ाने में सबसे बड़ी समस्या के रूप में सामने आया है। देश में अधिकांश कृषि योग्य भूमि पर दशकों से खेती की जा रही है। कुछ मामलों में तो यह आंकड़ा सदियों पुराना है। इस प्रक्रिया में हर वर्ष बड़ी मात्रा में भूमि के पोषक तत्त्व इस्तेमाल में आ जाते हैं, जिनकी भरपाई जैविक अथवा रासायनिक उर्वरकों की मदद से उतनी तेजी से नहीं की जा सकती जितनी तेजी से इनका क्षरण हो रहा है। इसके अलावा अन्य प्राकृतिक तथा मानवजनित कारणों से हर वर्ष भूमि का एक बड़ा हिस्सा अपनी उर्वरता खो रहा है। यह बहुत बड़ी चिंता का विषय है।भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने अपने नवीनतम दस्तावेज 'विजन 2030' में कहा है कि देश की कुल 14 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से 12 करोड़ हेक्टेयर से अधिक भूमि की उत्पादकता में क्षरण के कारण कमी आई है। इसके अलावा करीब 84 लाख हेक्टेयर भूमि मृदा में लवणता तथा पानी जमा हो जाने की समस्या से जूझ रही है। ज्यादा बुरी बात यह है कि इन तमाम कारणों से देश को हर वर्ष करीब 80 लाख टन नाइट्रोजन, 18 लाख टन फॉस्फोरस और 2.6 करोड़ टन पोटेशियम का नुकसान हो रहा है। पोषकों के असंतुलित इस्तेमाल से समस्या में और इजाफा ही हो रहा है। इसके अलावा खनिज पदार्थों का अत्यधिक खनन भी मृदा के तमाम तरह के पोषक तत्त्वों पर नकारात्मक असर डालता है जिसका आखिकार फसल की पैदावार पर नकारात्मक असर होता है। वानस्पतिक खाद के अलावा अन्य प्रकार की खाद तथा जैविक उर्वरकों की उपलब्धता बहुत कम है जो कि चिंताजनक बात है। इसके परिणामस्वरूप मृदा की प्रकृति में हर तरह से गिरावट देखने को मिल रही है। अच्छी बात यह है कि किसान इस बात से पूरी तरह अवगत हैं, हालांकि आर्थिक तथा कुछ अन्य कारणों से उनके हाथ बंधे हुए हैं और वे इससे पूरी तरह निपटने की स्थिति में नहीं है। ये तमाम बातें हाल ही में पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले संगठन 'ग्रीनपीस' द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण में सामने आई हैं। यह सर्वेक्षण असम, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और पंजाब में कराया गया। सर्वेक्षण के निष्कर्ष में कहा गया है, 'भारतीय किसान मृदा की स्थिति को लेकर बहुत चिंतित हैं और वे मृदा के उपजाऊपन में आ रही कमी से निपटने के लिए पर्यावरण के अनुकूल उर्वरकों के इस्तेमाल को लेकर बहुत उत्सुक हैं। बहरहाल, वे पर्याप्त सरकारी सहायता उपलब्ध न हो पाने के कारण ऐसा कर पाने में असमर्थ हैं।' महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जिन 1000 किसानों को सर्वेक्षण में शामिल किया गया उनमें से 98 फीसदी जैविक उर्वरकों का इस्तेमाल करने के लिए तैयार हैं अगर इनकी उपलब्धता आसान बनाई जाए और इन्हें छूट पर उपलब्ध कराया जाए।मृदा की उर्वरता के हालात का एक और संकेत है उसमें जीवों की मौजूदगी। इसमें छोटे जीव, केंचुए तथा अन्य जीव शामिल हो सकते हैं। वे मृदा की उर्वरता, जलधारण क्षमता तथा उर्वरता आदि को मजबूत बनाए रखते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि वर्षों से रसायनों के लगातार इस्तेमाल के कारण मिट्टïी में रहने वाले अधिकांश जीव नष्ट हो चुके हैं। किसानों ने इस बात की पुष्टिï की है कि मृदा में रहने वाले जीवों की संख्या समाप्तप्राय है। सर्वेक्षण में शामिल किए गए अधिकांश किसानों ने कहा कि अब उन्हें जमीन में जिंदा जीव देखने को नहीं मिलते हालांकि 1980 से पहले आमतौर पर ये जीव देखने को मिलते थे। बहरहाल इन किसानों में से 80 फीसदी ने वर्ष 2000 तक इन जीवों को मिट्टी में देखा है। इसका साफ मतलब है कि मिट्टïी की गुणवत्ता में यह कमी पिछले एक दशक के दौरान आई है।्रहालात में आई इस खराबी को बेहद गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। हालांकि अल्पावधि में शायद तमाम जरूरतों के लायक जैविक खाद का उत्पादन कर पाना संभव नहीं होगा इसलिए समस्या से निपटने के लिए अन्य रणनीतियों को अपनाने की जरूरत है। एक संभावित विकल्प यह हो सकता है कि जैव उर्वरकों और इसके जरिए संवर्धित की गई वानस्पतिक खाद के के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाए। आईसीएआर द्वारा कराए गए अध्ययनों ने भी संकेत दिया है कि जैव उर्वरकों के मिश्रण का इस्तेमाल करके फसल की पैदावार तो बढ़ाई ही जा सकती है साथ ही इससे मिट्टïी की स्थिति में भी सुधार होता होगा। इन प्रयोगों में इस्तेमाल किए गए जैव उर्वरक मिश्रण में नाइट्रोजन-फिक्सिंग जीवाणु अजोस्पिरिलम युक्त चावल की भूसी और रॉक फॉस्फेट का मिश्रण तथा फॉस्फेट को जल में घुलनशील बनाने वाले एक अन्य जीवाणु का इस्तेमाल किया गया था। इस खाद के प्रयोग ने तिलहन की फसल वाले क्षेत्रों में चावल की पैदावार में 23 फीसदी का इजाफा किया। इसके अलावा चावल गेहूं के परिवर्तित फसल चक्र वाले इलाकों में भी इसने उत्पादन में 10 फीसदी का इजाफा किया। अतीत में कई किसान ऐसी हरी फसलों की खेती करते थे जो खाद का काम करती थीं। इसमें तेजी से बढऩे वाली फलीदार फसलें मसलन, काउपी यानी सूखी लोबिया और सन-हेम्प या ढैंच्या शामिल थीं। ये फसलें मिट्टी में ही मिलकर नष्टï हो जाती थीं और पोषक खाद में तब्दील हो जाती थीं। लेकिन अधिकांश राज्यों में अब ऐसा नहीं होता। मध्य प्रदेश और असम इस मामले में अपवाद हैं जहां कुछ हद तक यह प्रक्रिया अभी जारी है। इस उपयोगी प्रक्रिया को यथा संभव दोबारा शुरू किए जाने की आवश्यकता है। इसके अलावा आधुनिक वर्मीकल्चर (चयनित प्रजाति के केंचुओं का पालन) भी एक अत्यंत प्रभावी तरीका है जिसके जरिए मृदा में जीवों की उपस्थिति को दोबारा बढ़ाया जा सकता है। केचुओं से संवर्धित वर्मीकंपोस्ट मिट्टी को नया जीवन देती है और पौधों की पैदावार बढ़ाती है। ऐसी तकनीक को हरसंभव बढ़ावा दिया जाना चाहिए। (BS Hindi)
जमीन की उर्वरता कम होना फसल की पैदावार बढ़ाने में सबसे बड़ी समस्या के रूप में सामने आया है। देश में अधिकांश कृषि योग्य भूमि पर दशकों से खेती की जा रही है। कुछ मामलों में तो यह आंकड़ा सदियों पुराना है। इस प्रक्रिया में हर वर्ष बड़ी मात्रा में भूमि के पोषक तत्त्व इस्तेमाल में आ जाते हैं, जिनकी भरपाई जैविक अथवा रासायनिक उर्वरकों की मदद से उतनी तेजी से नहीं की जा सकती जितनी तेजी से इनका क्षरण हो रहा है। इसके अलावा अन्य प्राकृतिक तथा मानवजनित कारणों से हर वर्ष भूमि का एक बड़ा हिस्सा अपनी उर्वरता खो रहा है। यह बहुत बड़ी चिंता का विषय है।भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने अपने नवीनतम दस्तावेज 'विजन 2030' में कहा है कि देश की कुल 14 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से 12 करोड़ हेक्टेयर से अधिक भूमि की उत्पादकता में क्षरण के कारण कमी आई है। इसके अलावा करीब 84 लाख हेक्टेयर भूमि मृदा में लवणता तथा पानी जमा हो जाने की समस्या से जूझ रही है। ज्यादा बुरी बात यह है कि इन तमाम कारणों से देश को हर वर्ष करीब 80 लाख टन नाइट्रोजन, 18 लाख टन फॉस्फोरस और 2.6 करोड़ टन पोटेशियम का नुकसान हो रहा है। पोषकों के असंतुलित इस्तेमाल से समस्या में और इजाफा ही हो रहा है। इसके अलावा खनिज पदार्थों का अत्यधिक खनन भी मृदा के तमाम तरह के पोषक तत्त्वों पर नकारात्मक असर डालता है जिसका आखिकार फसल की पैदावार पर नकारात्मक असर होता है। वानस्पतिक खाद के अलावा अन्य प्रकार की खाद तथा जैविक उर्वरकों की उपलब्धता बहुत कम है जो कि चिंताजनक बात है। इसके परिणामस्वरूप मृदा की प्रकृति में हर तरह से गिरावट देखने को मिल रही है। अच्छी बात यह है कि किसान इस बात से पूरी तरह अवगत हैं, हालांकि आर्थिक तथा कुछ अन्य कारणों से उनके हाथ बंधे हुए हैं और वे इससे पूरी तरह निपटने की स्थिति में नहीं है। ये तमाम बातें हाल ही में पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले संगठन 'ग्रीनपीस' द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण में सामने आई हैं। यह सर्वेक्षण असम, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और पंजाब में कराया गया। सर्वेक्षण के निष्कर्ष में कहा गया है, 'भारतीय किसान मृदा की स्थिति को लेकर बहुत चिंतित हैं और वे मृदा के उपजाऊपन में आ रही कमी से निपटने के लिए पर्यावरण के अनुकूल उर्वरकों के इस्तेमाल को लेकर बहुत उत्सुक हैं। बहरहाल, वे पर्याप्त सरकारी सहायता उपलब्ध न हो पाने के कारण ऐसा कर पाने में असमर्थ हैं।' महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जिन 1000 किसानों को सर्वेक्षण में शामिल किया गया उनमें से 98 फीसदी जैविक उर्वरकों का इस्तेमाल करने के लिए तैयार हैं अगर इनकी उपलब्धता आसान बनाई जाए और इन्हें छूट पर उपलब्ध कराया जाए।मृदा की उर्वरता के हालात का एक और संकेत है उसमें जीवों की मौजूदगी। इसमें छोटे जीव, केंचुए तथा अन्य जीव शामिल हो सकते हैं। वे मृदा की उर्वरता, जलधारण क्षमता तथा उर्वरता आदि को मजबूत बनाए रखते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि वर्षों से रसायनों के लगातार इस्तेमाल के कारण मिट्टïी में रहने वाले अधिकांश जीव नष्ट हो चुके हैं। किसानों ने इस बात की पुष्टिï की है कि मृदा में रहने वाले जीवों की संख्या समाप्तप्राय है। सर्वेक्षण में शामिल किए गए अधिकांश किसानों ने कहा कि अब उन्हें जमीन में जिंदा जीव देखने को नहीं मिलते हालांकि 1980 से पहले आमतौर पर ये जीव देखने को मिलते थे। बहरहाल इन किसानों में से 80 फीसदी ने वर्ष 2000 तक इन जीवों को मिट्टी में देखा है। इसका साफ मतलब है कि मिट्टïी की गुणवत्ता में यह कमी पिछले एक दशक के दौरान आई है।्रहालात में आई इस खराबी को बेहद गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। हालांकि अल्पावधि में शायद तमाम जरूरतों के लायक जैविक खाद का उत्पादन कर पाना संभव नहीं होगा इसलिए समस्या से निपटने के लिए अन्य रणनीतियों को अपनाने की जरूरत है। एक संभावित विकल्प यह हो सकता है कि जैव उर्वरकों और इसके जरिए संवर्धित की गई वानस्पतिक खाद के के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाए। आईसीएआर द्वारा कराए गए अध्ययनों ने भी संकेत दिया है कि जैव उर्वरकों के मिश्रण का इस्तेमाल करके फसल की पैदावार तो बढ़ाई ही जा सकती है साथ ही इससे मिट्टïी की स्थिति में भी सुधार होता होगा। इन प्रयोगों में इस्तेमाल किए गए जैव उर्वरक मिश्रण में नाइट्रोजन-फिक्सिंग जीवाणु अजोस्पिरिलम युक्त चावल की भूसी और रॉक फॉस्फेट का मिश्रण तथा फॉस्फेट को जल में घुलनशील बनाने वाले एक अन्य जीवाणु का इस्तेमाल किया गया था। इस खाद के प्रयोग ने तिलहन की फसल वाले क्षेत्रों में चावल की पैदावार में 23 फीसदी का इजाफा किया। इसके अलावा चावल गेहूं के परिवर्तित फसल चक्र वाले इलाकों में भी इसने उत्पादन में 10 फीसदी का इजाफा किया। अतीत में कई किसान ऐसी हरी फसलों की खेती करते थे जो खाद का काम करती थीं। इसमें तेजी से बढऩे वाली फलीदार फसलें मसलन, काउपी यानी सूखी लोबिया और सन-हेम्प या ढैंच्या शामिल थीं। ये फसलें मिट्टी में ही मिलकर नष्टï हो जाती थीं और पोषक खाद में तब्दील हो जाती थीं। लेकिन अधिकांश राज्यों में अब ऐसा नहीं होता। मध्य प्रदेश और असम इस मामले में अपवाद हैं जहां कुछ हद तक यह प्रक्रिया अभी जारी है। इस उपयोगी प्रक्रिया को यथा संभव दोबारा शुरू किए जाने की आवश्यकता है। इसके अलावा आधुनिक वर्मीकल्चर (चयनित प्रजाति के केंचुओं का पालन) भी एक अत्यंत प्रभावी तरीका है जिसके जरिए मृदा में जीवों की उपस्थिति को दोबारा बढ़ाया जा सकता है। केचुओं से संवर्धित वर्मीकंपोस्ट मिट्टी को नया जीवन देती है और पौधों की पैदावार बढ़ाती है। ऐसी तकनीक को हरसंभव बढ़ावा दिया जाना चाहिए। (BS Hindi)
खेती के लिए नुकसानदेह है खाद: इफ्को एमडी
इफ्को के एमडी उदयशंकर अवस्थी ने खाद के बेतहाशा इस्तेमाल पर चिंता जताते हुए खादों की बढ़ती कीमतों को जायज ठहराया है। उनका कहना है कि कम कीमत होने के कारण किसान अधिक खाद डाल रहे हैं जिससे खेतों की उर्वरता कम हो रही है और यह भविष्य के लिए अच्छी बात नही है।इंडियन फारमर्स फर्टिलाइजर कोऑपरेटिव लिमिटेड दिल्लीClick here to see more news from this city के प्रबंध निदेशक (एमडी) अवस्थी ने पत्रकारों से कहा कि इफ्को देश में उर्वरकों का उत्पादन और विपणन करने वाली सबसे बड़ी संस्था है। पिछले साल इफ्को ने 81.98 लाख टन उर्वरकों का उत्पादन और 118.27 लाख टन उर्वरकों का वितरण किसानों को कराया था। जबकि इस वर्ष अब तक 113 लाख टन उर्वरक किसानों को उपलब्ध कराए जा चुके हैं जबकि इस वर्ष में 125 लाख टन उर्वरक किसानों को उपलब्ध कराएँ जाने का लक्ष्य है।एक सवाल के जवाब में उन्होंने खाद की बढ़ती कीमतों को जायज ठहराते हुए कहा कि आज किसान बिना सोचे-समझे अपने खेतों में अंधाधुंध खाद का उपयोग कर रहे हैं, क्योंकि इसके बारे में उन्हें पर्याप्त जानकारी नहीं है। इसका परिणाम है कि अधिक खाद डालने से कुछ वर्ष भले ही किसानों को अच्छी फसल मिल रही है और उनकी उत्पादकता बढ़ रही है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम खतरनाक है। खेतों में ज्यादा खाद के इस्तेमाल से धीरे-धीरे जमीन की उर्वरता समाप्त हो जाएँगी और फिर कहाँ से खेतों में फसल उगेंगी।अवस्थी ने कहा कि किसानों को खेतों में खाद डालते समय रासायनिक और जैविक खाद के बीच संतुलन बैठाना चाहिए और खाद पर होने वाले खर्च का प्रबंधन भी सूझबूझ के साथ करना चाहिए। इसीलिए जैविक खाद के प्रयोग को बढ़ावा देने की मंशा सरकार की भी है। उन्होंने कहा कि जैविक खाद के प्रति जागरूकता लाने के लिए किसानों को जैविक खाद तैयार करने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है तथा इसके लिए किसानों को अनुदान भी दिया जा रहा है ताकि वह अधिक से अधिक जैविक खाद का उत्पादन कर उसका इस्तेमाल करें।उत्तर प्रदेश में इफ्को के कार्यो के बारे में पूछे जाने पर अवस्थी ने बताया कि उत्तर प्रदेश राज्य में अब तक उर्वरको की कुल खपत 74.27 लाख टन के विरुद्ध इफको द्वारा लगभग 31 लाख टन उर्वरक किसानों को उपलब्ध कराया गया है जो कुल उपलब्ध कराए गए उर्वरक का लगभग 43 प्रतिशत है। इस तरह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में किसानों द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे उर्वरकों के प्रत्येक ढाई बोरे में से एक बोरा इफको का है।उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश में अब तक 675 किसान सभाओं का आयोजन किया गया जिसमें 35 हजार किसानों की भागीदारी हो गई।उन्होंने इफ्को द्वारा चलाई जा रही विभिन्न बीमा योजनाओं के बारे में भी विस्तार से जानकारी दी जिसमें किसानों से संबंधित बीमा भी शामिल थी। (Web Dunia)
हीरे के आभूषण की मांग बढ़ेगी
मुंबई February 22, 2011
देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में एक निजी कंपनी में काम करने वाले लात्विक मिश्रा पिछले शुक्रवार से पहले काफी चिंतित थे, लेकिन जब उनकी मुलाकात शहर के हीरे के आभूषण निर्माता कंपनी के अधिकारियों से हुई तो उनकी चिंता दूर हो गई। दरअसल 2 लाख रुपये के बजट में मिश्रा अपनी बहन की शादी की खातिर सोने का आभूषण खरीदना चाहते थे। लेकिन उन्होंने अपना मन बदल लिया। अब वह सोने के आभूषण की बजाय उसी बजट में हीरे के आभूषण खरीदने के इच्छुक हैं। मिश्रा को लगता है कि सोने के आभूषण के बजाय रंगारंग रत्नजडि़त हीरे के आभूषण पहनकर उनकी बहन ज्यादा गौरवान्वित महसूस करेंगी, जो कि पहले असंभव था। हीरे के आभूषण की खरीद के साथ अब बायबैक की पेशकश की पेशकश की जा रही है और इस बाबत इसकी पुनर्खरीद कीमत 90 फीसदी दी जा रही है। उपभोक्ताओं का भरोसा जीतने के लिए आभूषण निर्माता धातुओं व कीमती रत्नों की शुद्धता के प्रमाणपत्र की भी पेशकश कर रहे हैं। मिश्रा ने कहा कि पहले कुछ मशहूर लोगों तक सीमित हीरे के आभूषण आम लोगों तक पहुंच पाएंगे और आपातकाल में सोने के आभूषण की तरह इसे बेचने का विकल्प भी उपलब्ध होगा।जेम्स ऐंड ज्वैलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (जीजेईपीसी) के चेयरमैन और संभव जेम्स लिमिटेड के प्रबंध निदेशक राजीव जैन कहते हैं - हीरे के आभूषण की दुकान पहुंचने के बाद मिश्रा की तरह दूसरे लोग भी अपना नजरिया बदल रहे हैं। जैन ने कहा कि यही वजह है कि भारत में जेम्स ऐंड ज्वैलरी इंडस्ट्री की चमक वैसे समय में वापस लौट आई है, जब भारत व विश्व के दूसरे उद्योग अभी भी साल 2008 के आर्थिक संकट से उबरने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।साल 2010 में हीरा आभूषण उद्योग में 30 फीसदी की बढ़त आई है क्योंकि उपभोक्ता फैशन के साथ-साथ निवेश के विकल्प के तौर पर इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। जैन ने कहा कि इन दोनों वजहों से हीरे के आभूषण की बिक्री बढ़ी है। इस साल भी हीरा आभूषण उद्योग में इसी तरह का रफ्तार जारी रहने की संभावना है। साल 2011 में हीरा आभूषण उद्योग 20 फीसदी की बढ़त हासिल कर सकता है, बावजूद इसके कि कच्चे माल मसलन कीमती धातुओं व रत्नों की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है। (BS Hindi)
देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में एक निजी कंपनी में काम करने वाले लात्विक मिश्रा पिछले शुक्रवार से पहले काफी चिंतित थे, लेकिन जब उनकी मुलाकात शहर के हीरे के आभूषण निर्माता कंपनी के अधिकारियों से हुई तो उनकी चिंता दूर हो गई। दरअसल 2 लाख रुपये के बजट में मिश्रा अपनी बहन की शादी की खातिर सोने का आभूषण खरीदना चाहते थे। लेकिन उन्होंने अपना मन बदल लिया। अब वह सोने के आभूषण की बजाय उसी बजट में हीरे के आभूषण खरीदने के इच्छुक हैं। मिश्रा को लगता है कि सोने के आभूषण के बजाय रंगारंग रत्नजडि़त हीरे के आभूषण पहनकर उनकी बहन ज्यादा गौरवान्वित महसूस करेंगी, जो कि पहले असंभव था। हीरे के आभूषण की खरीद के साथ अब बायबैक की पेशकश की पेशकश की जा रही है और इस बाबत इसकी पुनर्खरीद कीमत 90 फीसदी दी जा रही है। उपभोक्ताओं का भरोसा जीतने के लिए आभूषण निर्माता धातुओं व कीमती रत्नों की शुद्धता के प्रमाणपत्र की भी पेशकश कर रहे हैं। मिश्रा ने कहा कि पहले कुछ मशहूर लोगों तक सीमित हीरे के आभूषण आम लोगों तक पहुंच पाएंगे और आपातकाल में सोने के आभूषण की तरह इसे बेचने का विकल्प भी उपलब्ध होगा।जेम्स ऐंड ज्वैलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (जीजेईपीसी) के चेयरमैन और संभव जेम्स लिमिटेड के प्रबंध निदेशक राजीव जैन कहते हैं - हीरे के आभूषण की दुकान पहुंचने के बाद मिश्रा की तरह दूसरे लोग भी अपना नजरिया बदल रहे हैं। जैन ने कहा कि यही वजह है कि भारत में जेम्स ऐंड ज्वैलरी इंडस्ट्री की चमक वैसे समय में वापस लौट आई है, जब भारत व विश्व के दूसरे उद्योग अभी भी साल 2008 के आर्थिक संकट से उबरने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।साल 2010 में हीरा आभूषण उद्योग में 30 फीसदी की बढ़त आई है क्योंकि उपभोक्ता फैशन के साथ-साथ निवेश के विकल्प के तौर पर इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। जैन ने कहा कि इन दोनों वजहों से हीरे के आभूषण की बिक्री बढ़ी है। इस साल भी हीरा आभूषण उद्योग में इसी तरह का रफ्तार जारी रहने की संभावना है। साल 2011 में हीरा आभूषण उद्योग 20 फीसदी की बढ़त हासिल कर सकता है, बावजूद इसके कि कच्चे माल मसलन कीमती धातुओं व रत्नों की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है। (BS Hindi)
बीटी कपास के बीज का उत्पादन घटा
हैदराबाद February 22, 2011
ऊंची उत्पादन लागत की वजह से आंध्र प्रदेश में बीटी कपास के बीज का उत्पादन 30 से 35 फीसदी घट गया है। नैशनल सीड्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एनएसएआई) के मुताबिक, इसके परिणामस्वरूप एक ओर जहां राज्य में सालाना करीब 4.50 करोड़ पैकेट कपास के बीज की मांग है, वहीं उत्पादकों ने इस साल सिर्फ 3.5 करोड़ पैकेट बीज की ही आपूर्ति की है। एनएसएआई के सदस्य और विभा एग्रोटेक लिमिटेड के प्रबंध निदेशक विद्यासागर राव ने कहा - उत्पादन लागत में काफी ज्यादा बढ़ोतरी हो गई है, लेकिन सरकार ने पिछले साल कीमतें बढ़ाने से इनकार कर दिया था। हम एक बार फिर प्रदेश के मुख्य मंत्री से संपर्क करेंगे और इस मुद्दे पर अपनी बात रखेंगे।इंडियन सीड्स कांग्रेस 2011 के बाद बिजनेस स्टैंडर्ड से बातचीत में राव ने कहा कि एसोसिएशन महाराष्ट्र व गुजरात सरकार से भी इस मुद्दे का अध्ययन करने को कहेगा और इसके मुताबिक बीटी कपास के बीज की कीमतें बढ़ाने की मांग करेगा। फरवरी 2010 में एनएसएआई ने आंध्र प्रदेश सरकार से संपर्क कर बीटी कपास के बीज की कीमत 30 फीसदी बढ़ाने की मांग की थी। हालांकि राज्य सरकार ने आदेश जारी कर कीमत नहीं बढ़ाने को कहा था। मौजूदा समय में बीटी कपास के बीज की कीमत 650 से 750 रुपये प्रति पैकेट है। एनएसएआई ने इसे बढ़ाकर 850 से 1050 रुपये करने की मांग की है। राव ने कहा कि उर्वरक, कीटनाशक व मजदूरी समेत कृषि की लागत में साल 2006 से अब तक 31 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई है, वहीं बीटी कपास के बीज की कीमत साल 2006 के 925 रुपये प्रति पैकेट से घटकर 750 रुपये प्रति पैकेट पर आ गई है यानी इसमें 16 फीसदी की कमी आई है। आंध्र प्रदेश में देश के कुल बीज उत्पादन का 75 फीसदी होता है और प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से 25 लाख लोगों को रोजगार मुहैया कराता है। बीज उद्योग करीब 7000 करोड़ रुपये का है और इसमें बीटी कपास के बीज का बाजार 2000 करोड़ रुपये का है। (BS Hindi)
ऊंची उत्पादन लागत की वजह से आंध्र प्रदेश में बीटी कपास के बीज का उत्पादन 30 से 35 फीसदी घट गया है। नैशनल सीड्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एनएसएआई) के मुताबिक, इसके परिणामस्वरूप एक ओर जहां राज्य में सालाना करीब 4.50 करोड़ पैकेट कपास के बीज की मांग है, वहीं उत्पादकों ने इस साल सिर्फ 3.5 करोड़ पैकेट बीज की ही आपूर्ति की है। एनएसएआई के सदस्य और विभा एग्रोटेक लिमिटेड के प्रबंध निदेशक विद्यासागर राव ने कहा - उत्पादन लागत में काफी ज्यादा बढ़ोतरी हो गई है, लेकिन सरकार ने पिछले साल कीमतें बढ़ाने से इनकार कर दिया था। हम एक बार फिर प्रदेश के मुख्य मंत्री से संपर्क करेंगे और इस मुद्दे पर अपनी बात रखेंगे।इंडियन सीड्स कांग्रेस 2011 के बाद बिजनेस स्टैंडर्ड से बातचीत में राव ने कहा कि एसोसिएशन महाराष्ट्र व गुजरात सरकार से भी इस मुद्दे का अध्ययन करने को कहेगा और इसके मुताबिक बीटी कपास के बीज की कीमतें बढ़ाने की मांग करेगा। फरवरी 2010 में एनएसएआई ने आंध्र प्रदेश सरकार से संपर्क कर बीटी कपास के बीज की कीमत 30 फीसदी बढ़ाने की मांग की थी। हालांकि राज्य सरकार ने आदेश जारी कर कीमत नहीं बढ़ाने को कहा था। मौजूदा समय में बीटी कपास के बीज की कीमत 650 से 750 रुपये प्रति पैकेट है। एनएसएआई ने इसे बढ़ाकर 850 से 1050 रुपये करने की मांग की है। राव ने कहा कि उर्वरक, कीटनाशक व मजदूरी समेत कृषि की लागत में साल 2006 से अब तक 31 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई है, वहीं बीटी कपास के बीज की कीमत साल 2006 के 925 रुपये प्रति पैकेट से घटकर 750 रुपये प्रति पैकेट पर आ गई है यानी इसमें 16 फीसदी की कमी आई है। आंध्र प्रदेश में देश के कुल बीज उत्पादन का 75 फीसदी होता है और प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से 25 लाख लोगों को रोजगार मुहैया कराता है। बीज उद्योग करीब 7000 करोड़ रुपये का है और इसमें बीटी कपास के बीज का बाजार 2000 करोड़ रुपये का है। (BS Hindi)
सटोरियों की मेहरबानी से चांदी बनी रानी
मुंबई February 22, 2011
विदेशी बाजारों के नक्शे कदम पर चलते हुए घरेलू बाजार में भी चांदी की कीमतें नई ऊंचाइयां छू रही हैं। चांदी की बढ़ती चमक की प्रमुख वजह वैश्विक राजनीतिक उथल-पुथल के कारण कीमती धातुओं की बढ़ती निवेश मांग, तेज औद्योगिक मांग और आभूषणों में चांदी की बढ़ती अहमियत को बताई जा रही है। दूसरी तरफ घरेलू मांग पिछले साल की अपेक्षा कम होने के बावजूद कीमतें बढऩे को कारोबारी सटोरियों का खेल बता रहे हैं। मांग की अपेक्षा कीमतों ज्यादा होने से चांदी की कीमतों में गिरावट की उम्मीद की जा रही है।अब तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए सोमवार को चांदी 50,000 रुपये प्रति किलोग्राम के पार पहुंच गई। आंकड़ों पर गौर करें तो एक साल के अंदर चांदी की कीमतें करीब दोगुनी हो गई हैं। पिछले साल बजट सीजन के दौरान चांदी 26,000 रुपये प्रति किलोग्राम बिक रही थी। इस साल चांदी की कीमतों में अभी तक करीबन 15 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है, जबकि महज फरवरी में चांदी की कीमतों में 7 फीसदी से अधिक की तेजी आई है। चांदी की बढ़ती चमक की प्रमुख वजह वैश्विक राजनीतिक उथल-पुथल को माना जा रहा है। विश्लेषक अमर सिंह का कहना है कि मिस्त्र में शुरू हुआ राजनीतिक तूफान दूसरे अरब देशों में भी फैल रहा है जिस वजह से निवेशक कीमती धातुओं में जमकर निवेश कर रहे हैं। सोने की अपेक्षा चांदी की कीमतें कम होने से निवेशक चांदी को ज्यादा तव्वजो दे रहे हैं जिसके चलते कीमतें बढ़ रही हैं। हालांकि कीमतें बढऩे की वजह कारोबारियों के गले नहीं उतर रही है। बंबई बुलियन एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश हुंडिया कहते हैं कि पिछले साल की अपेक्षा इस बार मांग कम है और इस वजह से कीमतें ऊपर जा रही हैं। कीमतों में तेजी की वजह निवेश की बढ़ती मांग बताई जा रही है, जबकि हकीकत यह है सटोरियों की वजह से कीमतें बढ़ रही हैं। हुंडिया कहते हैं कि इस स्तर पर कीमतें ज्यादा दिन तक टिकने वाली नहीं हैं और जल्दी ही चांदी में बिकवाली का दौर शुरू होगा। इसलिए इस समय चांदी में निवेश करना भी घाटे का सौदा साबित हो सकता है। दरअसल बाजार में घबराहट का माहौल है जिसे देखते हुए निवेशक एक्सचेंजों में हेजिंग कर रहे हैं जिससे कीमतें बढ़ रही हैं। मुंबई ज्वैलर्स एसोसिएशन के उपाध्यक्ष कुमार जैन कहते हैं कि यह सच है कि पहले की अपेक्षा अब लोग चांदी की ज्वैलरी ज्यादा पसंद करते हैं लेकिन इस समय मांग बहुत ज्यादा नहीं है, दरअसल यह पूरा खेल वायदा बाजार का है। वायदा सौदों में जब तेजी आती है तो उसके नक्शे कदम पर चलते हुए हाजिर बाजार भी उबलने लगता है। दूसरी बात कच्चे तेल में ऊबाल को देखते हुए निवेशकों को लग रहा है कि मौजूदा माहौल में कच्चा तेल अपने सभी पुराने रिकॉर्डों तोड़ सकता है जो चांदी की कीमतों को समर्थन दे रहा है। कुमार की माने तो देसी निवेशक फिलहाल बुलियन बाजार से दूरी बना रहे हैं, जबकि विदेशी निवेशकों को यह बाजार पसंद आ रहा है। विदेशी निवेशक शेयर बाजार की जगह चांदी को प्राथमिकता दे रहे हैं जिससे कीमतें बढ़ रही हैं।चांदी के प्रमुख कारोबारी कांती भाई कहते हैं कि दरअसल चांदी की औद्योगिक मांग बढ़ रही है और आम लोग भी चांदी में निवेश करना चाह रहे हैं। यह सिर्फ घरेलू बाजार की बात नहीं है, बल्कि वैश्विक रुझान भी यही हैं। बड़े औद्योगिक घरानों को लग रहा है कि वैश्विक कारणों से कही आपूर्ति बाधित न हो जाए जिससे वे हेङ्क्षजग का सहारा ले रहे हैं और यही से कृत्रिम मांग पैदा हो रही हैं। इसको नकली मांग भी कहा जा सकता है लेकिन सच्चाई यह है कि चांदी की चमक में निखार की प्रमुख वजह कीमतों को लेकर फैली घबराहट है। (BS Hindi)
विदेशी बाजारों के नक्शे कदम पर चलते हुए घरेलू बाजार में भी चांदी की कीमतें नई ऊंचाइयां छू रही हैं। चांदी की बढ़ती चमक की प्रमुख वजह वैश्विक राजनीतिक उथल-पुथल के कारण कीमती धातुओं की बढ़ती निवेश मांग, तेज औद्योगिक मांग और आभूषणों में चांदी की बढ़ती अहमियत को बताई जा रही है। दूसरी तरफ घरेलू मांग पिछले साल की अपेक्षा कम होने के बावजूद कीमतें बढऩे को कारोबारी सटोरियों का खेल बता रहे हैं। मांग की अपेक्षा कीमतों ज्यादा होने से चांदी की कीमतों में गिरावट की उम्मीद की जा रही है।अब तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए सोमवार को चांदी 50,000 रुपये प्रति किलोग्राम के पार पहुंच गई। आंकड़ों पर गौर करें तो एक साल के अंदर चांदी की कीमतें करीब दोगुनी हो गई हैं। पिछले साल बजट सीजन के दौरान चांदी 26,000 रुपये प्रति किलोग्राम बिक रही थी। इस साल चांदी की कीमतों में अभी तक करीबन 15 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है, जबकि महज फरवरी में चांदी की कीमतों में 7 फीसदी से अधिक की तेजी आई है। चांदी की बढ़ती चमक की प्रमुख वजह वैश्विक राजनीतिक उथल-पुथल को माना जा रहा है। विश्लेषक अमर सिंह का कहना है कि मिस्त्र में शुरू हुआ राजनीतिक तूफान दूसरे अरब देशों में भी फैल रहा है जिस वजह से निवेशक कीमती धातुओं में जमकर निवेश कर रहे हैं। सोने की अपेक्षा चांदी की कीमतें कम होने से निवेशक चांदी को ज्यादा तव्वजो दे रहे हैं जिसके चलते कीमतें बढ़ रही हैं। हालांकि कीमतें बढऩे की वजह कारोबारियों के गले नहीं उतर रही है। बंबई बुलियन एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश हुंडिया कहते हैं कि पिछले साल की अपेक्षा इस बार मांग कम है और इस वजह से कीमतें ऊपर जा रही हैं। कीमतों में तेजी की वजह निवेश की बढ़ती मांग बताई जा रही है, जबकि हकीकत यह है सटोरियों की वजह से कीमतें बढ़ रही हैं। हुंडिया कहते हैं कि इस स्तर पर कीमतें ज्यादा दिन तक टिकने वाली नहीं हैं और जल्दी ही चांदी में बिकवाली का दौर शुरू होगा। इसलिए इस समय चांदी में निवेश करना भी घाटे का सौदा साबित हो सकता है। दरअसल बाजार में घबराहट का माहौल है जिसे देखते हुए निवेशक एक्सचेंजों में हेजिंग कर रहे हैं जिससे कीमतें बढ़ रही हैं। मुंबई ज्वैलर्स एसोसिएशन के उपाध्यक्ष कुमार जैन कहते हैं कि यह सच है कि पहले की अपेक्षा अब लोग चांदी की ज्वैलरी ज्यादा पसंद करते हैं लेकिन इस समय मांग बहुत ज्यादा नहीं है, दरअसल यह पूरा खेल वायदा बाजार का है। वायदा सौदों में जब तेजी आती है तो उसके नक्शे कदम पर चलते हुए हाजिर बाजार भी उबलने लगता है। दूसरी बात कच्चे तेल में ऊबाल को देखते हुए निवेशकों को लग रहा है कि मौजूदा माहौल में कच्चा तेल अपने सभी पुराने रिकॉर्डों तोड़ सकता है जो चांदी की कीमतों को समर्थन दे रहा है। कुमार की माने तो देसी निवेशक फिलहाल बुलियन बाजार से दूरी बना रहे हैं, जबकि विदेशी निवेशकों को यह बाजार पसंद आ रहा है। विदेशी निवेशक शेयर बाजार की जगह चांदी को प्राथमिकता दे रहे हैं जिससे कीमतें बढ़ रही हैं।चांदी के प्रमुख कारोबारी कांती भाई कहते हैं कि दरअसल चांदी की औद्योगिक मांग बढ़ रही है और आम लोग भी चांदी में निवेश करना चाह रहे हैं। यह सिर्फ घरेलू बाजार की बात नहीं है, बल्कि वैश्विक रुझान भी यही हैं। बड़े औद्योगिक घरानों को लग रहा है कि वैश्विक कारणों से कही आपूर्ति बाधित न हो जाए जिससे वे हेङ्क्षजग का सहारा ले रहे हैं और यही से कृत्रिम मांग पैदा हो रही हैं। इसको नकली मांग भी कहा जा सकता है लेकिन सच्चाई यह है कि चांदी की चमक में निखार की प्रमुख वजह कीमतों को लेकर फैली घबराहट है। (BS Hindi)
22 फ़रवरी 2011
बजट पूर्व विश्लेषण: 2011-12
किसी भी व्यापार संगठन, किराने की दुकान, गृहिणी, छात्र या विनम्र दिहाड़ी मजदूर की तरह सरकार को भी अपने लिए वित्तीय योजना बनानी होती है। हालांकि, महान जिम्मेदारियों को उठाते हुए राष्ट्र राज्यों पर विश्वास करता है। सरकार का वार्षिक बजट उसके राजस्व और व्यय के अनुमान का संक्षिप्त रूप होता है। समाज के हित के लिए ,सीमित संसाधनों के अधिकतम उपयोग की योजना बनाने का, यह एक नाजुक अभ्यास होता है। लाभों के शुद्व अर्थशास्त्र का देश पर बढ़ते बोझ के साथ संतुलन बनाना भी इसका महत्वपूर्ण अंग है।
भारत में बजट की प्रक्रिया स्वतंत्रता पूर्व ही शुरू हो चुकी थी। भारतीय प्रशासन के ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश क्राउन को हस्तांतरण के दो वर्ष बाद 7 अप्रैल 1860 को पहली बार बजट पेश किया गया। पहले वित्त सदस्य, जिन्होंने बजट पेश किया, श्री जेम्स विल्सन थे।
स्वतंत्रता के पश्चात, देश के पहले वित्त मंत्री श्री आर के शामुकम चेट्टी ने , 26 नवंबर 1947 को बजट पेश किया। तब से, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 112 के अनुसार भारत का केन्द्रीय वित्त मंत्री “वार्षिक वित्तीय विवरण” तैयार करता है और हर साल , आमतौर पर फरवरी के अंतिम कार्यदिवस के दौरान, संसद के समक्ष प्रस्तुत करता है।
यह बजट नए वित्तीय वर्ष के आरंभ में 1 अप्रैल से प्रभाव में आता है और पिछले छह दशको के विकास के दौरान हमारी अर्थव्यवस्था को आकार देने में हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की शक्ति को दर्शाता है।
केन्द्रीय बजट
भारत में सार्वजनिक वित्त पर संसदीय नियंत्रण होता है जो कि केन्द्रीय बजट - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं के अनुमोदन के माध्यम से मुख्य रूप से नियंत्रित होता है। सार्वजनिक धन खर्च करने की यह भारी जिम्मेदारी सरकार और संसद - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं दोनों की होती है। सार्वजनिक धन को खर्च करने की योजना बनाने की जिम्मेदारी जहां सरकार की होती है, वहीं लोगों के प्रतिनिधी निकाय के रूप में संसद का यह कर्तव्य है कि सरकार के प्रस्तावों और नीतियों पर समझ और ध्यान बनाए रखे।
केन्द्रीय बजट की तैयारी वित्त मंत्रालय - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं, योजना आयोग - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं और अन्य मंत्रालयों के बीच चलने वाली एक प्रक्रिया है। यह द्विपक्षीय संप्रेषण का एक संयोजन है जहां वित्त् मंत्रालय और योजना आयोग के द्वारा अन्य मंत्रालयों को दिशानिर्देश जारी किये जाते हैं , वहीं दूसरी ओर अन्य मंत्रालय बजट आवंटन के लिए योजना आयोग और वित्त मंत्रालय से अनुरोध करते हैं।
बजट की मूल संरचना
सरकार अपने वित्तीय प्रबंधन के लिए संसद के प्रति जवाबदेह है। द्विसदनीय संसद के संवैधानिक प्रभुत्व के साथ, विशेष तौर पर लोकसभा - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं में, प्रत्येक वित्तीय कानून, नियम एवं नीतियां जनता के प्रतिनिधियों द्वारा पारित की जाती है। हालांकि, बजट लगान करों के निर्माण एवं सरकारी खातों और व्यय का निर्धारण करने के लिए प्रस्ताव, सरकारी मंत्रालयों द्वारा तैयार किये जाते है और वित्तीय मंत्रालय द्वारा समेकित किये जाते हैं।
केन्द्रीय बजट के तहत आम बजट और रेल बजट प्रस्तुत होते हैं। इसके अलावा अनुदान, पूरक मांगों के लिए अनुदान, विनियोग विधेयक और वित्त विधेयक भी केन्द्रीय बजट के भाग होते हैं।
वार्षिक वित्तीय विवरण मुख्य बजट दस्तावेज है। सरकारी खातों - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं जैसे संचित निधि, आकस्मिकता निधि और सार्वजनिक खाते की प्राप्ति और भुगतान की जानकारी का यह एक विस्तृत विवरण है।
सरकार के द्वारा प्राप्त किया गया समस्त राजस्व, ऋण और वसूली से प्राप्ति संचित निधि के रूप में होती है। सभी सरकारी व्यय संचित निधि में से किये जाते हैं और कोई भी राशि संसद से अधिकृत हुए बिना कोष से नहीं निकाली जा सकती।
दूसरी ओर आकस्मिकता निधि भारत के राष्ट्रपति - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं के पास संरक्षित करके रखी जाती है। इस निधि का उपयोग सरकार के जरूरी एवं अप्रत्याशित खर्चों के भुगतान जैसे अवसरों पर किया जाता है। इस तरह के खर्च और संचित निधि से इसकी प्रतिपूर्ति के लिए संसदीय अनुमोदन प्राप्त किया जाता है। खर्च की गई राशि की क्षतिपूर्ति बाद में आकस्मिकता निधि से की जाती है।
सामान्य सरकारी व्यय ,जो कि संचित निधि से संबंधित है, के अलावा कुछ अन्य लेनदेन जो सरकारी खातों में दर्ज किये जाते हैं जैसे भविष्य निधियां, सूक्ष्म बचत संग्रह एवं अन्य जमा आदि से संबंधित लेनदेन के संबंध में सरकार एक बैंकर की तरह भूमिका निभाता है। इस प्रकार जो पैसा प्राप्त होता है वह सार्वजनिक खाते में जमा होता है और उससे संबंधित वितरण भी वहीं से बनाया जाता है। इस प्रकार, सार्वजनिक खाते में धन सरकार से संबंध नहीं रखता है और जिन अधिकारियों एवं व्यक्तियों ने इसे जमा किया है उन्हें इसका भुगतान किया जाता है।
वार्षिक वक्तव्य के तुरंत बाद वित्त विधेयक लोकसभा में वित्त मंत्री द्वारा पेश किया जाता है। वित्त विधेयक संविधान के अनुच्छेद 110(1)(क) में दिए गए आरोपण, उन्मूलन, छूट या बजट में प्रस्तावित करों के विनियमन परिवर्तनों के ब्यौरों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रस्तुत किया जाता है। विनियोग विधेयक के पारित होने के बाद वित्त विधेयक पर विचार किया जाता है और एक धन विधेयक के रूप में संसद द्वारा पारित किया जाता है
आर्थिक सर्वेक्षण
वार्षिक बजट की प्रस्तुति से कुछ दिन पहले वार्षिक आर्थिक सर्वेक्षण - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं संसद में प्रस्तुत किया जाता है। सर्वेक्षण आगामी वर्ष के लिए देश की आर्थिक स्थिति का विस्तृत विश्लेषण है। सर्वेक्षण में केन्द्र और राज्य सरकारों की बजटीय लेनदेन की स्थिति के बारे में एक वक्तव्य और उनके कुल अधिशेष/चालू वर्ष में घाटे की स्थिति और पिछले वर्ष के रूझान भी शामिल होते हैं।
आर्थिक सर्वेक्षण में, देश की आर्थिक स्थिति के विश्लेषण के साथ, चालू वर्ष में कृषि, उद्योग, बुनियादी ढ़ांचे, रोजगार, पैसे की आपूर्ति, आयात, निर्यात, मूल्य, विदेशी मुद्रा भंडार, भुगतान का संतुलन आदि प्रवृतियों की चुने हुए पिछले वर्षों से तुलना कर विस्तृत विश्लेषण किया जाता है। यह दस्तावेज आगामी वर्ष के लिए संसाधन जुटाने और बजटीय आवंटन के प्रस्ताव बनाने में उपयोगी है और इसलिए इसे बजट की प्रस्तुति के बाद संसद में प्रस्तुत किया जाता है।
राज्यों के बजट
देश में शासन की संघीय व्यवस्था के कारण , केन्द्र द्वारा तैयार किये जाने वाले केन्द्रीय बजट के अलावा , प्रत्येक राज्य सरकार भी अपने स्वंय के बजट अलग से तैयार करती है।
राज्य बजट राज्यों के वित्त मंत्री, केंद्र सरकार के संबंधित विभागों के परामर्श से तैयार करते हैं। वित्तीय मामलों के संबंध में जिस तरह के मानदंडों का पालन केंद्र में किया जाता है ठीक उसी तरह से संबंधित राज्य की विधान सभाएं अपने राज्य में वित्तीय मामलों की देखरेख करती है।
हालांकि, अभी भी केन्द्र सरकार के पास नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं के माध्यम से राज्य वित्त पर नियंत्रण की बागडोर रहती है। महालेखा परीक्षक का यह कार्य है कि वो वार्षिक आधार पर राज्य सरकार के खातों की समीक्षा करे और राज्य के विधान मंडल के अनुसार मूल्यांकन के लिए रिपोर्ट राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत करे।
बजट विश्लेषण एवं अनुमान
1957-58 के बाद से , वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं बजट को आर्थिक विश्लेषण का एक उपयोगी उपकरण बनाने के लिए केन्द्र सरकार के बजटीय लेनदेनों का एक आर्थिक वर्गीकरण तैयार करते हैं।
देश में आर्थिक नियोजन के परिप्रेक्ष्य में, वार्षिक योजना परिव्यय को बजट परिव्यय के साथ एकीकृत किया गया है जिसे कार्यात्मक श्रेणियों में भविष्य के लिए बजट परिव्यय का विश्लेषण कहते हैं। इस तरह के कार्यात्मक वर्गीकरण यह विश्लेषण करने में मदद प्रदान करते हैं कि केन्द्र सरकार द्वारा पंचवर्षीय योजनाओं - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं में निर्धारित प्राथमिकताओं के अनुसार अलग-अलग कार्य या उद्देशय के लिए कितना बजट आवंटित किया गया है।
इसके अतिरिक्त परिणाम बजट - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं 2005-06 के बाद से बजट प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग बन गए हैं। यह दस्तावेज प्रत्येक मंत्रालय एवं विभाग द्वारा अलग से तैयार किया जाता है। मोटे तौर पर इस दस्तावेज में वित्तीय बजट के भौतिक आयाम, प्रारंभिक नौ महीनों का वास्तविक प्रदर्शन और अगले वित्तीय वर्ष के लक्ष्यों को दर्शाया जाता है।
वित्तीय वर्ष 2010-2011 की दूसरी तिमाही के अंत में बजट के संबंध में प्राप्ति और व्यय की प्रवृतियों की समीक्षा - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं की गई। इस समीक्षा में साल 2008 की वैश्विक वित्तीय मंदी के परिणामों के बाद अर्थव्यवस्था के फिर से मजबूत होने के कारणों पर पर भी प्रकाश डाला गया।
आर्थिक सुधार, राजकोषीय विस्तार के एक विचार और वैश्विक संकट के तुरंत बाद के दौरान, प्रेरित किया गया और इसे मौद्रिक नीति के द्वारा आसानी से समर्थन दिया गया। एक व्यापक आधार वाली वसूली चल के साथ, भारत ने हाल ही के दिनों में जिस लचीलेपन का प्रदर्शन किया है वह देश के आर्थिक प्रबंधन के परिपक्व होने और हमारे उद्यमों की बढ़ती प्रतिस्पर्धा को दर्शाता है।
इस वित्तीय वर्ष में बजट को प्रभावित करने वाले प्रमुख तत्व
2010-11 की पहली छमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में समग्र सकल घरेलू उत्पाद में 8.9 फीसदी की रिकार्ड वृद्धि दर्ज की गई है।
कृषि, उद्योग एवं सेवा क्षेत्रों के विकास की गति में समेकित योगदान से वूसली का आधार क्षेत्र व्यापक हो गया है।
वैश्विक आर्थिक सुधारों के नाजुक बने होने से, वित्तीय स्थिरता व्यापक आर्थिक उद्देशयों और नीति का एक अभिन्न अंग बन गई है।
वित्तीय स्थिरता को मजबूत बनाये रखने एवं संस्थागत तंत्र की प्रक्रिया के विकास के लिए एक शीर्ष स्तर की वित्तीय स्थिरता और विकास परिषद (एफएसडीसी) को स्थापित किया गया है।
2009-10 में सामान्य मानसून ने कृषि और संबंधित क्षेत्रों में महत्वपूर्ण बदलाव करने में अग्रणी भूमिका निभाई है।
मध्यम अवधि में राजकोषीय नीति में दिये गए बयान की प्रतिबद्वता के साथ वर्ष 2010-11 में राजकोषीय घाटे को कम करने की प्रगति लगातार जारी है।
बढ़ती खाद्य कीमतों के साथ, अंतराष्ट्रीय कच्चे तेल और अन्य कमोडिटी की कीमतों में सतत बढ़ोत्तरी ने मुद्रास्फीति के दबावों को प्रेरित किया है।
समग्र विकास की प्रतिबद्धता लगातार जारी है, विशेष रूप से सस्ती एवं उपयोगी वित्तीय सेवाओं को सशक्त करने के लिए और समाज के गरीब वर्ग को समृद्ध करने के लिए। (बजट kya hain....)
भारत में बजट की प्रक्रिया स्वतंत्रता पूर्व ही शुरू हो चुकी थी। भारतीय प्रशासन के ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश क्राउन को हस्तांतरण के दो वर्ष बाद 7 अप्रैल 1860 को पहली बार बजट पेश किया गया। पहले वित्त सदस्य, जिन्होंने बजट पेश किया, श्री जेम्स विल्सन थे।
स्वतंत्रता के पश्चात, देश के पहले वित्त मंत्री श्री आर के शामुकम चेट्टी ने , 26 नवंबर 1947 को बजट पेश किया। तब से, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 112 के अनुसार भारत का केन्द्रीय वित्त मंत्री “वार्षिक वित्तीय विवरण” तैयार करता है और हर साल , आमतौर पर फरवरी के अंतिम कार्यदिवस के दौरान, संसद के समक्ष प्रस्तुत करता है।
यह बजट नए वित्तीय वर्ष के आरंभ में 1 अप्रैल से प्रभाव में आता है और पिछले छह दशको के विकास के दौरान हमारी अर्थव्यवस्था को आकार देने में हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की शक्ति को दर्शाता है।
केन्द्रीय बजट
भारत में सार्वजनिक वित्त पर संसदीय नियंत्रण होता है जो कि केन्द्रीय बजट - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं के अनुमोदन के माध्यम से मुख्य रूप से नियंत्रित होता है। सार्वजनिक धन खर्च करने की यह भारी जिम्मेदारी सरकार और संसद - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं दोनों की होती है। सार्वजनिक धन को खर्च करने की योजना बनाने की जिम्मेदारी जहां सरकार की होती है, वहीं लोगों के प्रतिनिधी निकाय के रूप में संसद का यह कर्तव्य है कि सरकार के प्रस्तावों और नीतियों पर समझ और ध्यान बनाए रखे।
केन्द्रीय बजट की तैयारी वित्त मंत्रालय - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं, योजना आयोग - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं और अन्य मंत्रालयों के बीच चलने वाली एक प्रक्रिया है। यह द्विपक्षीय संप्रेषण का एक संयोजन है जहां वित्त् मंत्रालय और योजना आयोग के द्वारा अन्य मंत्रालयों को दिशानिर्देश जारी किये जाते हैं , वहीं दूसरी ओर अन्य मंत्रालय बजट आवंटन के लिए योजना आयोग और वित्त मंत्रालय से अनुरोध करते हैं।
बजट की मूल संरचना
सरकार अपने वित्तीय प्रबंधन के लिए संसद के प्रति जवाबदेह है। द्विसदनीय संसद के संवैधानिक प्रभुत्व के साथ, विशेष तौर पर लोकसभा - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं में, प्रत्येक वित्तीय कानून, नियम एवं नीतियां जनता के प्रतिनिधियों द्वारा पारित की जाती है। हालांकि, बजट लगान करों के निर्माण एवं सरकारी खातों और व्यय का निर्धारण करने के लिए प्रस्ताव, सरकारी मंत्रालयों द्वारा तैयार किये जाते है और वित्तीय मंत्रालय द्वारा समेकित किये जाते हैं।
केन्द्रीय बजट के तहत आम बजट और रेल बजट प्रस्तुत होते हैं। इसके अलावा अनुदान, पूरक मांगों के लिए अनुदान, विनियोग विधेयक और वित्त विधेयक भी केन्द्रीय बजट के भाग होते हैं।
वार्षिक वित्तीय विवरण मुख्य बजट दस्तावेज है। सरकारी खातों - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं जैसे संचित निधि, आकस्मिकता निधि और सार्वजनिक खाते की प्राप्ति और भुगतान की जानकारी का यह एक विस्तृत विवरण है।
सरकार के द्वारा प्राप्त किया गया समस्त राजस्व, ऋण और वसूली से प्राप्ति संचित निधि के रूप में होती है। सभी सरकारी व्यय संचित निधि में से किये जाते हैं और कोई भी राशि संसद से अधिकृत हुए बिना कोष से नहीं निकाली जा सकती।
दूसरी ओर आकस्मिकता निधि भारत के राष्ट्रपति - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं के पास संरक्षित करके रखी जाती है। इस निधि का उपयोग सरकार के जरूरी एवं अप्रत्याशित खर्चों के भुगतान जैसे अवसरों पर किया जाता है। इस तरह के खर्च और संचित निधि से इसकी प्रतिपूर्ति के लिए संसदीय अनुमोदन प्राप्त किया जाता है। खर्च की गई राशि की क्षतिपूर्ति बाद में आकस्मिकता निधि से की जाती है।
सामान्य सरकारी व्यय ,जो कि संचित निधि से संबंधित है, के अलावा कुछ अन्य लेनदेन जो सरकारी खातों में दर्ज किये जाते हैं जैसे भविष्य निधियां, सूक्ष्म बचत संग्रह एवं अन्य जमा आदि से संबंधित लेनदेन के संबंध में सरकार एक बैंकर की तरह भूमिका निभाता है। इस प्रकार जो पैसा प्राप्त होता है वह सार्वजनिक खाते में जमा होता है और उससे संबंधित वितरण भी वहीं से बनाया जाता है। इस प्रकार, सार्वजनिक खाते में धन सरकार से संबंध नहीं रखता है और जिन अधिकारियों एवं व्यक्तियों ने इसे जमा किया है उन्हें इसका भुगतान किया जाता है।
वार्षिक वक्तव्य के तुरंत बाद वित्त विधेयक लोकसभा में वित्त मंत्री द्वारा पेश किया जाता है। वित्त विधेयक संविधान के अनुच्छेद 110(1)(क) में दिए गए आरोपण, उन्मूलन, छूट या बजट में प्रस्तावित करों के विनियमन परिवर्तनों के ब्यौरों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रस्तुत किया जाता है। विनियोग विधेयक के पारित होने के बाद वित्त विधेयक पर विचार किया जाता है और एक धन विधेयक के रूप में संसद द्वारा पारित किया जाता है
आर्थिक सर्वेक्षण
वार्षिक बजट की प्रस्तुति से कुछ दिन पहले वार्षिक आर्थिक सर्वेक्षण - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं संसद में प्रस्तुत किया जाता है। सर्वेक्षण आगामी वर्ष के लिए देश की आर्थिक स्थिति का विस्तृत विश्लेषण है। सर्वेक्षण में केन्द्र और राज्य सरकारों की बजटीय लेनदेन की स्थिति के बारे में एक वक्तव्य और उनके कुल अधिशेष/चालू वर्ष में घाटे की स्थिति और पिछले वर्ष के रूझान भी शामिल होते हैं।
आर्थिक सर्वेक्षण में, देश की आर्थिक स्थिति के विश्लेषण के साथ, चालू वर्ष में कृषि, उद्योग, बुनियादी ढ़ांचे, रोजगार, पैसे की आपूर्ति, आयात, निर्यात, मूल्य, विदेशी मुद्रा भंडार, भुगतान का संतुलन आदि प्रवृतियों की चुने हुए पिछले वर्षों से तुलना कर विस्तृत विश्लेषण किया जाता है। यह दस्तावेज आगामी वर्ष के लिए संसाधन जुटाने और बजटीय आवंटन के प्रस्ताव बनाने में उपयोगी है और इसलिए इसे बजट की प्रस्तुति के बाद संसद में प्रस्तुत किया जाता है।
राज्यों के बजट
देश में शासन की संघीय व्यवस्था के कारण , केन्द्र द्वारा तैयार किये जाने वाले केन्द्रीय बजट के अलावा , प्रत्येक राज्य सरकार भी अपने स्वंय के बजट अलग से तैयार करती है।
राज्य बजट राज्यों के वित्त मंत्री, केंद्र सरकार के संबंधित विभागों के परामर्श से तैयार करते हैं। वित्तीय मामलों के संबंध में जिस तरह के मानदंडों का पालन केंद्र में किया जाता है ठीक उसी तरह से संबंधित राज्य की विधान सभाएं अपने राज्य में वित्तीय मामलों की देखरेख करती है।
हालांकि, अभी भी केन्द्र सरकार के पास नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं के माध्यम से राज्य वित्त पर नियंत्रण की बागडोर रहती है। महालेखा परीक्षक का यह कार्य है कि वो वार्षिक आधार पर राज्य सरकार के खातों की समीक्षा करे और राज्य के विधान मंडल के अनुसार मूल्यांकन के लिए रिपोर्ट राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत करे।
बजट विश्लेषण एवं अनुमान
1957-58 के बाद से , वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं बजट को आर्थिक विश्लेषण का एक उपयोगी उपकरण बनाने के लिए केन्द्र सरकार के बजटीय लेनदेनों का एक आर्थिक वर्गीकरण तैयार करते हैं।
देश में आर्थिक नियोजन के परिप्रेक्ष्य में, वार्षिक योजना परिव्यय को बजट परिव्यय के साथ एकीकृत किया गया है जिसे कार्यात्मक श्रेणियों में भविष्य के लिए बजट परिव्यय का विश्लेषण कहते हैं। इस तरह के कार्यात्मक वर्गीकरण यह विश्लेषण करने में मदद प्रदान करते हैं कि केन्द्र सरकार द्वारा पंचवर्षीय योजनाओं - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं में निर्धारित प्राथमिकताओं के अनुसार अलग-अलग कार्य या उद्देशय के लिए कितना बजट आवंटित किया गया है।
इसके अतिरिक्त परिणाम बजट - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं 2005-06 के बाद से बजट प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग बन गए हैं। यह दस्तावेज प्रत्येक मंत्रालय एवं विभाग द्वारा अलग से तैयार किया जाता है। मोटे तौर पर इस दस्तावेज में वित्तीय बजट के भौतिक आयाम, प्रारंभिक नौ महीनों का वास्तविक प्रदर्शन और अगले वित्तीय वर्ष के लक्ष्यों को दर्शाया जाता है।
वित्तीय वर्ष 2010-2011 की दूसरी तिमाही के अंत में बजट के संबंध में प्राप्ति और व्यय की प्रवृतियों की समीक्षा - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं की गई। इस समीक्षा में साल 2008 की वैश्विक वित्तीय मंदी के परिणामों के बाद अर्थव्यवस्था के फिर से मजबूत होने के कारणों पर पर भी प्रकाश डाला गया।
आर्थिक सुधार, राजकोषीय विस्तार के एक विचार और वैश्विक संकट के तुरंत बाद के दौरान, प्रेरित किया गया और इसे मौद्रिक नीति के द्वारा आसानी से समर्थन दिया गया। एक व्यापक आधार वाली वसूली चल के साथ, भारत ने हाल ही के दिनों में जिस लचीलेपन का प्रदर्शन किया है वह देश के आर्थिक प्रबंधन के परिपक्व होने और हमारे उद्यमों की बढ़ती प्रतिस्पर्धा को दर्शाता है।
इस वित्तीय वर्ष में बजट को प्रभावित करने वाले प्रमुख तत्व
2010-11 की पहली छमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में समग्र सकल घरेलू उत्पाद में 8.9 फीसदी की रिकार्ड वृद्धि दर्ज की गई है।
कृषि, उद्योग एवं सेवा क्षेत्रों के विकास की गति में समेकित योगदान से वूसली का आधार क्षेत्र व्यापक हो गया है।
वैश्विक आर्थिक सुधारों के नाजुक बने होने से, वित्तीय स्थिरता व्यापक आर्थिक उद्देशयों और नीति का एक अभिन्न अंग बन गई है।
वित्तीय स्थिरता को मजबूत बनाये रखने एवं संस्थागत तंत्र की प्रक्रिया के विकास के लिए एक शीर्ष स्तर की वित्तीय स्थिरता और विकास परिषद (एफएसडीसी) को स्थापित किया गया है।
2009-10 में सामान्य मानसून ने कृषि और संबंधित क्षेत्रों में महत्वपूर्ण बदलाव करने में अग्रणी भूमिका निभाई है।
मध्यम अवधि में राजकोषीय नीति में दिये गए बयान की प्रतिबद्वता के साथ वर्ष 2010-11 में राजकोषीय घाटे को कम करने की प्रगति लगातार जारी है।
बढ़ती खाद्य कीमतों के साथ, अंतराष्ट्रीय कच्चे तेल और अन्य कमोडिटी की कीमतों में सतत बढ़ोत्तरी ने मुद्रास्फीति के दबावों को प्रेरित किया है।
समग्र विकास की प्रतिबद्धता लगातार जारी है, विशेष रूप से सस्ती एवं उपयोगी वित्तीय सेवाओं को सशक्त करने के लिए और समाज के गरीब वर्ग को समृद्ध करने के लिए। (बजट kya hain....)
बजट 2009-10 : मुख्य बिन्दु
*अप्रत्यक्ष करों से सरकार को 2000 करोड़ रुपए की सालाना अतिरिक्त आय।*आयकर रिटर्न फार्म सरल और यूजर फ्रेंडली बनाने के लिए सरल-2 फार्म।*कानूनी प्रैक्टिस करने वालों पर सेवाकर।*निर्यात संगठनों को सेवाकर से छूट।*आयकर कानून के प्रावधानों के तहत मिनरल ऑइल की रिफाइनिंग और प्राकृतिक गैस क्षेत्र को खनिज तेल की तरह कर रियायत।*40 लाख रुपए के कारोबार वाले व्यवसायियों को आठ प्रतिशत की दर से कर चुकाकर औपचारिकाओं से बचने की छूट।*शैक्षिक ऋण अब हर क्षेत्र के लिए उपलब्ध। वोकेशनल शिक्षा भी शामिल।*सोने की छड़ पर आयात शुल्क 100 रुपए प्रति दस ग्राम से बढ़ाकर 200 रुपए और स्वर्ण आभूषण पर आयात शुल्क 250 रुपए प्रति दस ग्राम से बढ़ाकर 500 रुपए।*सोने पर आयात शुल्क बढ़ा।*ब्रांडेड ज्वैलरी पर उत्पाद शुल्क पूरी तरह समाप्त।*पेट्रोल, ट्रकों पर आयात शुल्क घटाकर आठ प्रतिशत।*ट्रक परिवहन क्षेत्र को सेवाकर में राहत।*विनिर्माण क्षेत्र के लिए प्री फैब्रीकेटेड कांक्रीट स्लैब पर उत्पाद शुल्क में छूट।*बायो डीजल पर आयात शुल्क 7.5 प्रतिशत से घटाकर 2.5 प्रतिशत।*खाद्य वस्तुओं, फार्मा, दवाइयों, पेपर, कलाकृतियों, प्रेशर कुकर, वाटर फिल्टर, प्यूरीफायर, वाटर पंप को छोड़कर बाकी वस्तुओं पर उत्पाद शुल्क चार से बढ़ाकर आठ प्रतिशत।*रद्दी, ऊन और कपास पर आयात शुल्क 15 से घटाकर दस प्रतिशत।*कृत्रिम कपड़े और धागों पर केन्द्रीय उत्पाद शुल्क आठ प्रतिशत।*कॉटन टेक्सटाइल पर उत्पाद शुल्क चार प्रतिशत।*हृदयरोग के इलाज में इस्तेमाल होने वाले कुछ उपकरणों पर सीमा और अन्य शुल्क समाप्त।*स्तन कैंसर सहित कुछ बीमारियों की दवाइयों पर सीमा शुल्क दस से घटाकर पाँच प्रतिशत। इन पर उत्पाद शुल्क पूरी तरह माफ।*सेट टाप बाक्स पर आयात शुल्क पाँच प्रतिशत।*पर्यावरण संरक्षण में लगे ट्रस्टों को रियायत।*चुनाव ट्रस्ट में चंदे को शत प्रतिशत कर छूट।*कमोडिटी लेनदेन कर समाप्त।*विदेशी कंपनियों के साथ होने वाले कर विवादों से निपटने के लिए वैकल्पिक तंत्र आयकर विभाग में। केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड को इस संबंध में और नियम बनाने के अधिकार।*नयी पेंशन स्कीम ट्रस्ट में जमा राशि पर कर छूट।*निगमित कंपनियों को निवेश से संबद्ध कर रियायत का प्रस्ताव।*कोल चेन और गैस परिवहन के क्षेत्र में निवेश आधारित कर रियायत की घोषणा।*निगमित क्षेत्र को अनुसंधान एवं विकास कार्यों में व्यय पर 150 प्रतिशत की कटौती।*एफबीटी को समाप्त करने का प्रस्ताव।*निर्यात पर कर रियायत एक और वर्ष के लिए बढ़ी। *प्रत्यक्ष करों पर सरचार्ज चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने का प्रस्ताव।*व्यक्तिगत आयकर पर दस प्रतिशत का अधिभार समाप्त।*वरिष्ठ नागरिकों के लिए आयकर छूट सीमा बढ़कर 2,40,000। महिलाओं के लिए 1,90,000 रुपए। अन्य सभी के लिए 1,60,000 रुपए।निगमित कर अपरिवर्तित।*जीएसटी दो स्तर पर। केन्द्रीय और राज्य स्तर पर लगाया जाएगा। राज्यों के वित्तमंत्री जीएसटी को लेकर मौलिक ढाँचे पर सहमत।*आयकर की नयी संहिता 45 दिन में।*प्रत्यक्ष कर अनुपात बढ़कर 56 प्रतिशत।*पिछले वित्तवर्ष केन्द्रीय कर-जीडीपी अनुपात बढ़कर 11.5 प्रतिशत रहा।*राजस्व घाटा 6.8 प्रतिशत रहने का अनुमान।*सकल कर राजस्व 6,41,000 करोड़ रुपए।*राज्यों को इस वर्ष 21,000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त ऋण जुटाने की छूट।*सब्सिडी 2008-09 के 71,431 करोड़ रुपए से बढ़कर 1,11,276 करोड़ रुपए *रक्षा क्षेत्र का परिव्यय बढ़ाकर 1,41,703 करोड़ रुपए।*गैर योजना खर्च में 36 प्रतिशत की बढ़ोतरी*पहली बार हमने कुल खर्च का 10,00,000 करोड़ रुपए के आँकड़े को पार किया।*कुल बजट 10,20,838 करोड़ रुपये का जिसमें गैर योजना खर्च 6.95 लाख करोड़ रुपए।*आइला प्रभावित क्षेत्रों के पुनर्निर्माण के लिए 1000 करोड़ रुपए।*श्रीलंकाई तमिलों के पुनर्वास के लिए 500 करोड़ रुपए।*अलीगढ़ मुस्लिम विवि के पश्चिम बंगाल और केरल परिसरों के लिए 25-25 करोड़ रुपए का आवंटन।*अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के लिए आवंटन बढ़ाकर 1740 करोड़ रुपए।*राष्ट्रमंडल खेलों के लिए आवंटन 2112 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 3472 करोड़ रुपए।*चंडीगढ़ विवि के लिए 50 करोड रुपए।*सभी राज्यों में केन्द्रीय विश्वविद्यालय योजना के लिए 827 करोड़ रुपए का प्रावधान।*पॉलिटेक्निक के उन्नयन के लिए 495 करोड़ रुपए की राशि।*भूतपूर्व सैनिकों (जवानों और जेसीओ) के लिए एक रेंक एक पेंशन के तहत पेंशन राशि में बढ़ोतरी। यह फैसला एक जुलाई 2009 से लागू होगा। 12 लाख से अधिक जवानों को इससे फायदा।*केन्द्रीय अर्धसैनिक बलों के लिए एक लाख आवास बनेंगे।*120 करोड़ रुपए यूनिक आइडेंटिफिकेशन कार्ड योजना के लिए। 12 से 18 महीने में पहला कार्ड।*राष्ट्रीय पहचान पत्र सार्वजनिक सेवाओं की आपूर्ति में महत्वपूर्ण। यह परियोजना ऐसे युग की शुरुआत करेगी, जिसमें निजी क्षेत्र को राष्ट्रीय महत्व की परियोजनाओं में शामिल किया जा सकेगा।*वन संस्थान देहरादून को 1000 करोड़ रुपए की एकमुश्त सहायता।*स्मार्ट कार्ड योजना में सभी बीपीएल को शामिल करेंगे।*राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में 257 करोड़ रुपए आवंटन बढ़ा।*पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में मेगा पावरलूम क्लस्टर और राजस्थान में हैंडलूम क्लस्टर। श्रीनगर और मिर्जापुर में कालीन क्लस्टर।*कुशल श्रमिकों के रोजगार के अवसरों के लिए राष्ट्रीय वेब पोर्टल।*असंगठित मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना के लिए पर्याप्त धन मुहैया कराएँगे।*उच्च शिक्षा के लिए शिक्षा ऋण पर ब्याज सब्सिडी चार लाख छात्रों को लाभ का अनुमान। *2012 तक सभी बच्चों को एकीकृत बाल विकास योजना का लाभ।*महिला साक्षरता के लिए राष्ट्रीय मिशन।*अगले पाँच साल में देश के ग्रामीण इलाकों की 50 प्रतिशत महिलाओं को स्वयं सहायता समूहों से जोड़ने का लक्ष्य।*राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन की शुरुआत।*अनुसूचित जाति बहुल गाँवों के लिए प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना। 100 करोड़ रुपए के आवंटन से होगी इस साल चालू।*ग्रामीण आवास कोष के लिए 2000 करोड़ रुपए का प्रावधान।*भारत निर्माण में 45 प्रतिशत आवंटन बढ़ा। प्रधानमंत्री सड़क योजना के तहत आवंटन 59 प्रतिशत बढ़ा। 7000 करोड़ रुपए राजीव गाँधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के तहत। 63 प्रतिशत इंदिरा आवास योजना के आवंटन में बढ़ोतरी।*नरेगा के लिए आवंटन में 144 प्रतिशत की बढ़ोतरी। राशि 39,100 करोड़ रुपए।*नरेगा में अब और योजनाओं को भी शामिल करने की पहल।*नरेगा जबरदस्त सफल स्कीम। 100 रुपए प्रतिदिन मेहनताना देने के लिए प्रतिबद्ध।*संप्रग सरकार ने विकास की प्रक्रिया को अधिक समावेशी बनाने का प्रयास किया। *सरकार प्रतिस्पर्धी निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध।*सभी विकासखंडों में बैंक खोलने के लिए सहायता देगी सरकार।*सरकारी बैंकों को ऑफ साइट एटीएम बिना पूर्व अनुमति के खोलने की मंजूरी।*सूचीबद्ध कंपनियों में गैर प्रवर्तक शेयरों का अनुपात बढ़ाया जाएगा।*सूचीबद्ध कंपनियों में औसत सार्वजनिक धन प्रवाह 15 प्रतिशत से कम।*पीएसयू में 51 प्रतिशत हिस्सेदारी बरकरार रखते हुए विनिवेश कार्यक्रम में जनता की भागीदारी को बढ़ावा देने का प्रस्ताव।*सरकार विशेषज्ञ समिति बनाएगी, जो तेल की कीमतों के निर्धारण के बारे में सुझाव देगी।*किसानों को सीधे कृषि सब्सिडी का प्रस्ताव।*राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के तहत उर्वरकों के संतुलित वितरण के लिए पोषण आधारित, सब्सिडी आधारित व्यवस्था।*13वें वित्त आयोग की रपट अक्टूबर तक।*एफआरबीएम लक्ष्य को जल्द से जल्द पूरा करने की कोशिश करेंगे।*प्रिंट मीडिया के लिए प्रोत्साहन पैकेज की अवधि छह महीने बढ़ी।*लघु एवं मध्यम उद्योगों के लिए विशेष फंड।*रोजगारोन्मुख निर्यात क्षेत्र के लिए विशेष राहत। ब्याज सबवेंशन योजना की अवधि मार्च 2010 तक बढ़ी।*निर्यात पर दबाव के मद्देनजर निर्यात ऋण गारंटी स्कीम का विस्तार 2010 तक।*राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के बजट में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी।*किसानों को महाजन कर्ज से मुक्ति दिलाने के लिए कार्यबल।*मानसून के देर से आने से किसानों के लिए ऋण अदायगी की सीमा छह महीने और बढ़ी।*छह प्रतिशत ब्याज दर किसानों के लिए ऋण पर। अतिरिक्त बजट प्रावधान 411 करोड़ रुपए।*कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर चार प्रतिशत से अधिक। 2008-09 में कृषि ऋण 2,87,000 करोड़। 2009-10 के लिए 3,25,000 करोड़ रुपए।*बिजली क्षेत्र के लिए 2080 करोड़ रुपए का आवंटन। *देश को पाँच साल में स्लममुक्त बनाने की राजीव आवास योजना। *बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिए नीतिगत, नियामक एवं संस्थागत बाधाओं को दूर करने का निर्देश।*घरेलू बाजार में सुधार के संकेत, विदेशी निवेश बाजार में लौटने लगे हैं। *वर्ष 2008-09 में राजकोषीय घाटा जीडीपी का 6.2 फीसदी रहा एवं आर्थिक वृद्धि दर 6.7 फीसद रही।*पहली चुनौती अर्थव्यवस्था को तेज आर्थिक वृद्धि दर की पटरी पर लाना। *केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 2009-10 के लिए बजट को आज मंजूरी दी।*प्रणब मुखर्जी का बजट भाषण एक घंटा 40 मिनट चला।*वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने 2009 का वित्त विधेयक लोकसभा में पेश किया।*प्रणब के भाषण के दौरान राजद प्रमुख लालूप्रसाद ने की टोकाटाकी।*सेंसेक्स आज कारोबार के दौरान 12 बजे 379.22 अंक गिरकर 14,533.80 अंक के स्तर पर आया।*मुखर्जी ने अपने भाषण के दौरान कौटिल्य का कई बार उल्लेख किया। (R S Rana...बजट 2009-10 : मुख्य बिन्दु)
कैस्टरसीड उत्पादन में वृद्धि संभव
नई दिल्ली देश में कैस्टरसीड का उत्पादन इस साल 22 फीसदी बढ़कर 11.90 लाख टन तक पहुंचने की संभावना है। सॉल्वेंट एक्सट्रेक्टर्स एसोसिएशन (एसईए) के अनुसार पिछले साल इसका उत्पादन 9.78 लाख टन रहा था। एसईए की तरफ से नीलसन इंडिया ने एक सर्वे किया था।सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार कैस्टरसीड के उत्पादन में सर्वाधिक बढ़ोतरी आंध्र प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में होने की संभावना है। आंध्र प्रदेश में उत्पादन करीब 62 फीसदी बढ़कर 1.38 लाख टन तक पहुंचने की उम्मीद है। पिछले साल यहां 85,000 टन उत्पादन रहा था। इसी तरह राजस्थान में उत्पादन 1.26 लाख टन के मुकाबले करीब 27 फीसदी बढ़कर 1.61 लाख टन हो सकता है। गुजरात में उत्पादन 17 फीसदी बढ़कर 8.60 लाख टन तक पहुंचने की संभावना है। एसईए के अनुसार देश में कैस्टरसीड का रकबा इस साल करीब 14 फीसदी बढ़कर 8.59 लाख टन तक पहुंच गया था। इसकी पैदावार भी करीब 7 फीसदी बढ़कर 1385 किलो प्रति हैक्टेयर होने की उम्मीद है। पिछले साल पैदावार 1297 किलो प्रति हैक्टेयर रही थी। (Business Bhaskar)
जौ में मूल्य वृद्धि की संभावना
माल्ट कंपनियों की मांग बढऩे से जौ की कीमतों में करीब आठ से दस फीसदी तेजी आने की संभावना है। चालू महीने में इसकी कीमतों में 3.7 फीसदी की तेजी आ चुकी है। सोमवार को जौ का भाव बढ़कर 1,400 रुपये प्रति क्विंटल हो गया। उधर उत्पादक मंडियों में स्टॉक सीमित मात्रा में बचा हुआ है जबकि नई फसल आने में अभी करीब एक महीने का समय शेष है। इसीलिए जौ में तेजी की संभावना बन रही है। इम्पीरियल माल्ट लिमिटेड के डायरेक्टर संजय यादव ने बताया कि माल्ट कंपनियों के पास स्टॉक सीमित मात्रा में ही बचा हुआ है। जबकि नई फसल करीब एक महीना बाद आयेगी। इसीलिए माल्ट कंपनियों की खरीद पहले की तुलना में बढ़ गई है। वैसे भी विश्व स्तर पर जौ का उत्पादन कम होने की आशंका से दाम ऊंचे बने हुए है।श्रीगिरी राज ट्रेडिंग कार्पोरेशन के डायरेक्टर सीताराम शर्मा ने बताया कि राजस्थान की मंडियों में जौ का स्टॉक साढ़े चार-पांच लाख बोरी (एक बोरी-80 किलो) का ही बचा हुआ है। जबकि हरियाणा की मंडियों में भी स्टॉक साढ़े तीन से चार लाख बोरियों का ही होने का अनुमान है। बीयर की मांग बढऩे से माल्ट कंपनियों की खरीद जौ में पहले की तुलना में बढ़ गई है। जबकि पशु आहार वालों की मांग भी जौ में अच्छी बनी हुई है। इसीलिए उत्पादक मंडियों में पिछले पंद्रह-बीस दिनों में ही इसकी कीमतों में 50 रुपये की तेजी आकर भाव 1,350 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। मार्च के आखिर में नई फसल की आवक होने की संभावना है। ऐसे में मौजूदा कीमतों में और भी 100-150 रुपये प्रति क्विंटल की तेजी आने का अनुमान है। कुंदन लाल परस राम एंड कंपनी के पार्टनर राजीव बंसल ने बताया कि उत्पादक मंडियों में जौ का स्टॉक कम बचा हुआ है जिससे स्टॉकिस्ट नीचे भाव में बिकवाली नहीं कर रहे है। पिछले बीस दिनों में इसकी कीमतों में 50-60 रुपये की तेजी आ चुकी है। सोमवार को गुडग़ांव पहुंच जौ के दाम बढ़कर 1,400-1,410 रुपये प्रति क्विंटल हो गए। कृषि मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2010-11 में जौ का उत्पादन बढ़कर 160 लाख टन होने का अनुमान है। वर्ष 2009-10 में इसका उत्पादन 135 लाख टन का ही हुआ था। (Business Bhaskar...R S Rana)
आपूर्ति बढऩे से चीनी के दाम घटे
मुंबई February 22, 2011
हाजिर बाजार में आपूर्ति बढऩे के चलते चीनी के दामों में 20 रुपये प्रति क्विंटल तक की नरमी आई है। कारोबारियों के मुताबिक चीनी मिलों से उठान सुस्त पडऩे और बाजार में इसकी आपूर्ति बढऩे से इसके दामों में गिरावट आई है।
बाजार जानकारों का कहना है कि आने वाले दिनों में इसके भाव में और नरमी आ सकती है। हाजिर बाजर में एम-10 किस्म की चीनी की कीमत 2,940 से 3,065 रुपये प्रति क्विंटल दर्ज हुई। इसके अलावा एस-30 किस्म की चीनी की कीमत 2,915 से 2,940 रुपये प्रति क्विंटल बोली गई। (BS Hindi)
हाजिर बाजार में आपूर्ति बढऩे के चलते चीनी के दामों में 20 रुपये प्रति क्विंटल तक की नरमी आई है। कारोबारियों के मुताबिक चीनी मिलों से उठान सुस्त पडऩे और बाजार में इसकी आपूर्ति बढऩे से इसके दामों में गिरावट आई है।
बाजार जानकारों का कहना है कि आने वाले दिनों में इसके भाव में और नरमी आ सकती है। हाजिर बाजर में एम-10 किस्म की चीनी की कीमत 2,940 से 3,065 रुपये प्रति क्विंटल दर्ज हुई। इसके अलावा एस-30 किस्म की चीनी की कीमत 2,915 से 2,940 रुपये प्रति क्विंटल बोली गई। (BS Hindi)
राष्ट्रपति का महँगाई पर काबू पाने, लोकतांत्रिक मूल्यों पर ज़ोर
सोमवार को भारतीय संसद का बजट सत्र लोकसभा और राज्यसभा को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से संबोधन के साथ शुरु हो गया है.
दोनों सदनों को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने कहा है कि केंद्र सरकार वामपंथी हिंसा, विदेशी बैंकों में छिपाकर रखे गए भारतीय धन और महँगाई के मुद्दों पर चिंतित है और कारगर क़दम उठा रही है.
राष्ट्रपति ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में स्थिति में सुधार हुआ है और वार्ताकार सफलतापूर्वक वहाँ अपना काम कर रहे हैं.
उन्होंने कहा, "महँगाई को रोकना और खाद्य पदार्थों की कीमतों पर काबू पाना सरकार की प्राथमिकता है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिए गेहूँ और चावल की कीमतों में पिछले आठ साल में कोई वृद्धि नहीं की गई है. साथ ही लोगों को बढ़ती कीमतों से राहत पहुँचाने के लिए दालों और सब्ज़ियों को कम दरों पर लोगों तक पहुँचाया जा रहा है."
उनका कहना था कि देश की आंतरिक स्थिति को देखा जाए तो पुणे और वाराणसी की घटनाओं के अलावा देश में शांतिपूर्ण माहौल बना रहा है. राष्ट्रपति का कहना था कि वामपंथी उग्रवाद का सामना करने के लिए नौ राज्यों मे चुने गए 60 ज़िलों की एकीकृत कल्याण योजना के तहत काम जारी है.
ग़ौरतलब है कि सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच 2जी मामले पर संयुक्त संसदीय समिति की जाँच पर रविवार को सहमति बनने के संकेतों के बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के संबोधन के दौरान सदन में शांति रही.
लोकतांत्रिक शुरुआत का स्वागत
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने कहा, "हम पाकिस्तान के साथ सार्थक बातचीत के साथ सभी मुद्दों को सुलझाना चाहते है, बशर्ते पाकिस्तान भारत के ख़िलाफ़ उग्रवादी गतिविधियों के लिए अपनी भूमि का इस्तेमाल न होने दे."
उन्होंने कहा कि उनके चीन, लाओस, कंबोडिया के दौरे महत्वपूर्ण रहे हैं. उन्होंने ये भी कहा कि खाड़ी देशों और पश्चिम एशिया में बसे लाखों भारतीयों के साथ सरकार करीबी संबंध जारी रखना चाहती है.
राष्ट्रपति का कहना था, "मिस्र में महत्वपूर्ण घटनाएँ घटी हैं. एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते हम किसी भी देश में लोकतांत्रित शुरुआत का स्वागत करते हैं."
कृषि क्षेत्र पर ध्यान
राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में ख़ासा समय कृषि क्षेत्र पर केंद्रित किया. उन्होंने कहा कि धान और गेहूँ के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में वृद्धि की गई है ताकि किसानों को राहत मिल सके.
सरकार की उपलब्धियाँ गिनाते हुए उन्होंने कहा कि पिछले छह साल में धान का समर्थन मूल्य 550 रुपए प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 1000 रुपए किया गया है जबकि गेहूँ का समर्थन मूल्य 630 रुपए प्रति क्विंटल से बढाकर 1100 प्रति क्विंटल कर दिया गया है.
उनका कहना था कि राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत विभिन्न कार्यक्रमों के ज़रिए इस क्षेत्र में लगभग 35 हज़ार करोड़ रुपए का निवेश किया गया है.
प्रतिभा पाटिल ने दोनों सदनों को सूचित किया कि केंद्र सरकार ने कृषि क्षेत्र में ऋण सुविधाओं में वृद्धि होगी और एक करोड़ हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई की व्यवस्था सुनिश्चित की जा रही है.
उन्होंने कहा कि सरकार शासन में पारदर्शिता और सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी के प्रति प्रतिबद्ध है. उन्होंने चुनाव सुधारों की भी बात की और उम्मीद जताई कि इस संदर्भ में सभी राजनीतिक दल सरकार का समर्थन केरेंगे.
विकास के लिए मूलभूत ढांचा बनाए जाने पर बल देते हुए राष्ट्रपति का कहना था कि उनकी सरकार ने 11वीं पंच वर्षीय योजना में 20 लाख करोड़ रुपए निवेश के लिए रखें हैं जो 10वी पंच वर्षीय योजना के मुकाबले में दोगुना राशि है.
उनका कहना था कि इसके लिए निजी क्षेत्र से पूँजी निवेश की ज़रूरत है और पिछले साल तक मूलभूत ढांचे के क्षेत्र में निजी क्षेत्र का पूँजी निवेश लगभग 34 प्रतिशत तक पहुँच गया था. (BBC Hindi)
दोनों सदनों को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने कहा है कि केंद्र सरकार वामपंथी हिंसा, विदेशी बैंकों में छिपाकर रखे गए भारतीय धन और महँगाई के मुद्दों पर चिंतित है और कारगर क़दम उठा रही है.
राष्ट्रपति ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में स्थिति में सुधार हुआ है और वार्ताकार सफलतापूर्वक वहाँ अपना काम कर रहे हैं.
उन्होंने कहा, "महँगाई को रोकना और खाद्य पदार्थों की कीमतों पर काबू पाना सरकार की प्राथमिकता है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिए गेहूँ और चावल की कीमतों में पिछले आठ साल में कोई वृद्धि नहीं की गई है. साथ ही लोगों को बढ़ती कीमतों से राहत पहुँचाने के लिए दालों और सब्ज़ियों को कम दरों पर लोगों तक पहुँचाया जा रहा है."
उनका कहना था कि देश की आंतरिक स्थिति को देखा जाए तो पुणे और वाराणसी की घटनाओं के अलावा देश में शांतिपूर्ण माहौल बना रहा है. राष्ट्रपति का कहना था कि वामपंथी उग्रवाद का सामना करने के लिए नौ राज्यों मे चुने गए 60 ज़िलों की एकीकृत कल्याण योजना के तहत काम जारी है.
ग़ौरतलब है कि सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच 2जी मामले पर संयुक्त संसदीय समिति की जाँच पर रविवार को सहमति बनने के संकेतों के बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के संबोधन के दौरान सदन में शांति रही.
लोकतांत्रिक शुरुआत का स्वागत
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने कहा, "हम पाकिस्तान के साथ सार्थक बातचीत के साथ सभी मुद्दों को सुलझाना चाहते है, बशर्ते पाकिस्तान भारत के ख़िलाफ़ उग्रवादी गतिविधियों के लिए अपनी भूमि का इस्तेमाल न होने दे."
उन्होंने कहा कि उनके चीन, लाओस, कंबोडिया के दौरे महत्वपूर्ण रहे हैं. उन्होंने ये भी कहा कि खाड़ी देशों और पश्चिम एशिया में बसे लाखों भारतीयों के साथ सरकार करीबी संबंध जारी रखना चाहती है.
राष्ट्रपति का कहना था, "मिस्र में महत्वपूर्ण घटनाएँ घटी हैं. एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते हम किसी भी देश में लोकतांत्रित शुरुआत का स्वागत करते हैं."
कृषि क्षेत्र पर ध्यान
राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में ख़ासा समय कृषि क्षेत्र पर केंद्रित किया. उन्होंने कहा कि धान और गेहूँ के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में वृद्धि की गई है ताकि किसानों को राहत मिल सके.
सरकार की उपलब्धियाँ गिनाते हुए उन्होंने कहा कि पिछले छह साल में धान का समर्थन मूल्य 550 रुपए प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 1000 रुपए किया गया है जबकि गेहूँ का समर्थन मूल्य 630 रुपए प्रति क्विंटल से बढाकर 1100 प्रति क्विंटल कर दिया गया है.
उनका कहना था कि राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत विभिन्न कार्यक्रमों के ज़रिए इस क्षेत्र में लगभग 35 हज़ार करोड़ रुपए का निवेश किया गया है.
प्रतिभा पाटिल ने दोनों सदनों को सूचित किया कि केंद्र सरकार ने कृषि क्षेत्र में ऋण सुविधाओं में वृद्धि होगी और एक करोड़ हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई की व्यवस्था सुनिश्चित की जा रही है.
उन्होंने कहा कि सरकार शासन में पारदर्शिता और सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी के प्रति प्रतिबद्ध है. उन्होंने चुनाव सुधारों की भी बात की और उम्मीद जताई कि इस संदर्भ में सभी राजनीतिक दल सरकार का समर्थन केरेंगे.
विकास के लिए मूलभूत ढांचा बनाए जाने पर बल देते हुए राष्ट्रपति का कहना था कि उनकी सरकार ने 11वीं पंच वर्षीय योजना में 20 लाख करोड़ रुपए निवेश के लिए रखें हैं जो 10वी पंच वर्षीय योजना के मुकाबले में दोगुना राशि है.
उनका कहना था कि इसके लिए निजी क्षेत्र से पूँजी निवेश की ज़रूरत है और पिछले साल तक मूलभूत ढांचे के क्षेत्र में निजी क्षेत्र का पूँजी निवेश लगभग 34 प्रतिशत तक पहुँच गया था. (BBC Hindi)
फिर उम्मीद पर टिकी कृषि
पिछले छह-सात साल के बजट पर निगाह डालें तो लगता है कि सरकार खाद्य और कृषि पर विशेष ध्यान दे रही है। तमाम वित्त मंत्री कृषि क्षेत्र को लेकर उदासीनता पर यह कहकर पर्दा डालते रहे है कि उनका बजट किसानों की आजादी लेकर आया है या फिर यह बजट कृषि क्षेत्र की जीवनरेखा है। हालांकि सच्चाई यह है कि हालिया वर्षो के तमाम बजट में किसानों की दशा में बदलाव लाने वाले निवेश से कन्नी काटकर कृषि की घोर उपेक्षा की गई है। इस साल का बजट भी पिछले बजटों का अपवाद नहीं होगा। वित्त मंत्री ने बजट पूर्व वार्ताओं में उद्योगपतियों और उद्योग जगत द्वारा प्रायोजित कृषि संगठनों से विमर्श किया है। इससे लगता है कि बजट में उन्हीं के हित सुरक्षित रखे जाएंगे। मैं आगामी बजट में कृषि क्षेत्र और किसानों के कल्याण को लेकर अधिक आशान्वित नहीं हूं। उन्हे केवल उम्मीद पर ही जिंदा रहना होगा।
अतीत की तरह यह बजट भी किसानों के नाम पर कृषि व्यापार उद्योग को बढ़ावा देगा। मुझे पूरा यकीन है कि पिछले काफी समय से खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों के कारण इस साल उद्योग जगत सरकारी खजाने से बड़ी राशि निकालने में कामयाब रहेगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि जब भी कोई संकट खड़ा होता है या देश किसी आपदा से घिर जाता है तो उद्योग जगत इसे अवसर के रूप में भुनाता है। यदि वास्तव में वित्त मंत्री किसानों के हालात सुधारना चाहते है तो उन्हे कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने चाहिए। सबसे पहले तो सरकार को कृषि क्षेत्र में चार प्रतिशत संवृद्धि दर की रट छोड़नी चाहिए। कृषि संवृद्धि दर दो फीसदी हो या चार फीसदी, इससे मुसीबत में फंसे करोड़ों किसानों को कोई लाभ नहीं होगा। इसके बजाय वित्त मंत्री को किसानों की आय पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन 2003-04 के अनुसार भारत में कृषक परिवार की औसत आय महज 2115 रुपये है। 2011 में हम इतना ही सोच सकते है कि यह आय बढ़कर 2400 हो जाए। इसका मतलब यह है कि भारत में किसान गरीबी रेखा के नीचे रह रहे है। मूलभूत सवाल यह है कि कृषि आय में बढ़ोतरी क्यों नहीं होती। इस संबंध में मुझे अधिक उम्मीद नजर नहीं आती। मैं बस यह आशा कर रहा हूं कि इस साल कृषि क्षेत्र के लिए ऋण की वर्तमान राशि 3.7 लाख करोड़ को बढ़ाकर चार लाख करोड़ या इससे कुछ अधिक किया जा सकता है। पिछले साल सरकार ने सूखे क्षेत्रों में साठ हजार गांवों में दाल के उत्पादन के लिए राशि आवंटित की थी। इस अवसर का उद्योग जगत, जिसमें उपकरण आपूर्तिकर्ता भी शामिल है, ने पूरा फायदा उठाया। उन्होंने एक गुट बनाकर 10 गांवों के लिए जारी धनराशि हड़प ली। असलियत में, दलहन उत्पादन में वृद्धि के लिए सुनिश्चित बाजार बेहद जरूरी है। यद्यपि सरकार दलहन के लिए सरकारी खरीद की दर निर्धारित करती है, लेकिन दलहन की सरकारी खरीद की कोई व्यवस्था ही नहीं है। अगर गेहूं और चावल की तर्ज पर दलहन की भी सरकारी खरीद होने लगे तो धीरे-धीरे इसका उत्पादन बढ़ जाएगा और विदेशों पर निर्भरता खत्म हो जाएगी।
सब्जियों की कीमतों के आसमान छूने के कारण वित्त मंत्री इन्हे नीचे लाने पर पूरा ध्यान देंगे। अनेक वर्षो से हमें बताया जा रहा है कि 40 फीसदी फल व सब्जियां फसल के बाद होने वाले नुकसान की भेंट चढ़ जाती हैं। मैं इस नुकसान के आकलन के आधार को लेकर सुनिश्चित नहीं हूं। फल और सब्जी के क्षेत्र में निगरानी और पूर्वानुमान के आधार पर नीति बनाना बहुत जरूरी है। इसके अलावा फसल और मौसम बीमा के माध्यम से भी किसानों के हित सुरक्षित किए जा सकते है। दुर्भाग्य से, फसल बीमा की प्रगति प्रयोग के स्तर तक ही हुई है।
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा बिल के आलोक में खाद्य सुरक्षा भी वित्त मंत्री का ध्यान आकर्षित करेगी। खाद्य सुरक्षा के नाम पर और यह जानते हुए कि खाद्य पदार्थो की पहुंच निम्न आय वर्ग के लोगों के हाथ से निकलती जा रही है, यह उम्मीद की जा सकती है वित्त मंत्री इसके लिए अधिक राशि का प्रावधान करेगे। दूसरे शब्दों में भ्रष्ट सार्वजनिक वितरण प्रणाली में और धनराशि झोंकी जाएगी। आवश्यकता इस बात की है कि देश भर में ग्रामीण खाद्यान्न बैंकों की स्थापना के लिए तत्काल वित्तीय व्यवस्था की जाए। प्रत्येक राज्य में इन बैंकों को क्षेत्रीय अन्न बैंकों के साथ जोड़ा जाए।
ग्रामीण विकास मंत्रालय पहले ही प्रत्येक पंचायत में पंचायत घरों के निर्माण के लिए संसाधन मुहैया करा रहा है। पंचायत घरों के निर्माण से भी अधिक जरूरी है प्रत्येक पंचायत में अन्न बैंकों का निर्माण। इससे न केवल अन्न की बर्बादी कम होगी, बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी। देश में करीब छह लाख गांव है, जिनमें से चार लाख गांवों में खाद्यान्न का उत्पादन होता है। इससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बोझ कम होगा और इसे अधिक प्रभावी बनाने में सहायता मिलेगी।
आजकल दूसरी हरित क्रांति के माध्यम से खाद्यान्न जरूरतों को पूरा करने की बहुत चर्चा है। पिछले बजट में सरकार ने हरित क्रांति के पूर्वोत्तर राज्यों तक विस्तार के लिए चार सौ करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। सरकार इस बात पर कतई ध्यान नहीं दे रही है कि सघन कृषि क्षेत्रों जैसे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित क्रांति ने खेती को कितना नुकसान पहुंचाया है। पहले ही हरित क्रांति से मिट्टी और भूमिगत जलस्तर विषैले हो चुके है। इसके कारण भूमिगत जलस्तर काफी गिर गया है और रासायनिक कीटनाशकों से खाद्यान्न विषैले हो गए है।
आज परंपरागत कृषि के टिकाऊ मॉडल को अपनाने की आवश्यकता है। इसी से किसानों की दशा सुधरेगी और वे आत्महत्या करने को मजबूर नहीं होंगे। इससे पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को भी नुकसान नहीं होगा तथा ग्लोबल वार्मिग में भी कमी आएगी। इस प्रकार का मॉडल पहले ही आंध्र प्रदेश में जारी है। यहां 23 में से 21 जिलों में एक तरह से कृषि का कीटनाशक विहीन प्रबंधन चल रहा है। 28 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में किसान रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं कर रहे है। साथ ही चरणबद्ध तरीके से रासायनिक खाद को भी तिलांजलि दे रहे है।?इसके बावजूद वहां फसल की पैदावार में कोई गिरावट नहीं हुई है, मिट्टी का स्वास्थ्य सुधरा है और बीमारी पर होने वाले खर्च में करीब 40 फीसदी की कमी आई है। यही नहीं, इस क्षेत्र में कृषि आमदनी बढ़ी है और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हुई है। यह आंध्र प्रदेश सरकार का कार्यक्रम है। प्रणब मुखर्जी को इस कार्यक्रम के देश के अन्य भागों में विस्तार के लिए धनराशि का प्रावधान करना चाहिए। इसी में खाद्य सुरक्षा और लाभदायक कृषि का भविष्य निहित है।
[देविंदर शर्मा: लेखक कृषि नीतियों के विश्लेषक है] (Dainik Jagarn)
अतीत की तरह यह बजट भी किसानों के नाम पर कृषि व्यापार उद्योग को बढ़ावा देगा। मुझे पूरा यकीन है कि पिछले काफी समय से खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों के कारण इस साल उद्योग जगत सरकारी खजाने से बड़ी राशि निकालने में कामयाब रहेगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि जब भी कोई संकट खड़ा होता है या देश किसी आपदा से घिर जाता है तो उद्योग जगत इसे अवसर के रूप में भुनाता है। यदि वास्तव में वित्त मंत्री किसानों के हालात सुधारना चाहते है तो उन्हे कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने चाहिए। सबसे पहले तो सरकार को कृषि क्षेत्र में चार प्रतिशत संवृद्धि दर की रट छोड़नी चाहिए। कृषि संवृद्धि दर दो फीसदी हो या चार फीसदी, इससे मुसीबत में फंसे करोड़ों किसानों को कोई लाभ नहीं होगा। इसके बजाय वित्त मंत्री को किसानों की आय पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन 2003-04 के अनुसार भारत में कृषक परिवार की औसत आय महज 2115 रुपये है। 2011 में हम इतना ही सोच सकते है कि यह आय बढ़कर 2400 हो जाए। इसका मतलब यह है कि भारत में किसान गरीबी रेखा के नीचे रह रहे है। मूलभूत सवाल यह है कि कृषि आय में बढ़ोतरी क्यों नहीं होती। इस संबंध में मुझे अधिक उम्मीद नजर नहीं आती। मैं बस यह आशा कर रहा हूं कि इस साल कृषि क्षेत्र के लिए ऋण की वर्तमान राशि 3.7 लाख करोड़ को बढ़ाकर चार लाख करोड़ या इससे कुछ अधिक किया जा सकता है। पिछले साल सरकार ने सूखे क्षेत्रों में साठ हजार गांवों में दाल के उत्पादन के लिए राशि आवंटित की थी। इस अवसर का उद्योग जगत, जिसमें उपकरण आपूर्तिकर्ता भी शामिल है, ने पूरा फायदा उठाया। उन्होंने एक गुट बनाकर 10 गांवों के लिए जारी धनराशि हड़प ली। असलियत में, दलहन उत्पादन में वृद्धि के लिए सुनिश्चित बाजार बेहद जरूरी है। यद्यपि सरकार दलहन के लिए सरकारी खरीद की दर निर्धारित करती है, लेकिन दलहन की सरकारी खरीद की कोई व्यवस्था ही नहीं है। अगर गेहूं और चावल की तर्ज पर दलहन की भी सरकारी खरीद होने लगे तो धीरे-धीरे इसका उत्पादन बढ़ जाएगा और विदेशों पर निर्भरता खत्म हो जाएगी।
सब्जियों की कीमतों के आसमान छूने के कारण वित्त मंत्री इन्हे नीचे लाने पर पूरा ध्यान देंगे। अनेक वर्षो से हमें बताया जा रहा है कि 40 फीसदी फल व सब्जियां फसल के बाद होने वाले नुकसान की भेंट चढ़ जाती हैं। मैं इस नुकसान के आकलन के आधार को लेकर सुनिश्चित नहीं हूं। फल और सब्जी के क्षेत्र में निगरानी और पूर्वानुमान के आधार पर नीति बनाना बहुत जरूरी है। इसके अलावा फसल और मौसम बीमा के माध्यम से भी किसानों के हित सुरक्षित किए जा सकते है। दुर्भाग्य से, फसल बीमा की प्रगति प्रयोग के स्तर तक ही हुई है।
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा बिल के आलोक में खाद्य सुरक्षा भी वित्त मंत्री का ध्यान आकर्षित करेगी। खाद्य सुरक्षा के नाम पर और यह जानते हुए कि खाद्य पदार्थो की पहुंच निम्न आय वर्ग के लोगों के हाथ से निकलती जा रही है, यह उम्मीद की जा सकती है वित्त मंत्री इसके लिए अधिक राशि का प्रावधान करेगे। दूसरे शब्दों में भ्रष्ट सार्वजनिक वितरण प्रणाली में और धनराशि झोंकी जाएगी। आवश्यकता इस बात की है कि देश भर में ग्रामीण खाद्यान्न बैंकों की स्थापना के लिए तत्काल वित्तीय व्यवस्था की जाए। प्रत्येक राज्य में इन बैंकों को क्षेत्रीय अन्न बैंकों के साथ जोड़ा जाए।
ग्रामीण विकास मंत्रालय पहले ही प्रत्येक पंचायत में पंचायत घरों के निर्माण के लिए संसाधन मुहैया करा रहा है। पंचायत घरों के निर्माण से भी अधिक जरूरी है प्रत्येक पंचायत में अन्न बैंकों का निर्माण। इससे न केवल अन्न की बर्बादी कम होगी, बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी। देश में करीब छह लाख गांव है, जिनमें से चार लाख गांवों में खाद्यान्न का उत्पादन होता है। इससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बोझ कम होगा और इसे अधिक प्रभावी बनाने में सहायता मिलेगी।
आजकल दूसरी हरित क्रांति के माध्यम से खाद्यान्न जरूरतों को पूरा करने की बहुत चर्चा है। पिछले बजट में सरकार ने हरित क्रांति के पूर्वोत्तर राज्यों तक विस्तार के लिए चार सौ करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। सरकार इस बात पर कतई ध्यान नहीं दे रही है कि सघन कृषि क्षेत्रों जैसे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित क्रांति ने खेती को कितना नुकसान पहुंचाया है। पहले ही हरित क्रांति से मिट्टी और भूमिगत जलस्तर विषैले हो चुके है। इसके कारण भूमिगत जलस्तर काफी गिर गया है और रासायनिक कीटनाशकों से खाद्यान्न विषैले हो गए है।
आज परंपरागत कृषि के टिकाऊ मॉडल को अपनाने की आवश्यकता है। इसी से किसानों की दशा सुधरेगी और वे आत्महत्या करने को मजबूर नहीं होंगे। इससे पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को भी नुकसान नहीं होगा तथा ग्लोबल वार्मिग में भी कमी आएगी। इस प्रकार का मॉडल पहले ही आंध्र प्रदेश में जारी है। यहां 23 में से 21 जिलों में एक तरह से कृषि का कीटनाशक विहीन प्रबंधन चल रहा है। 28 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में किसान रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं कर रहे है। साथ ही चरणबद्ध तरीके से रासायनिक खाद को भी तिलांजलि दे रहे है।?इसके बावजूद वहां फसल की पैदावार में कोई गिरावट नहीं हुई है, मिट्टी का स्वास्थ्य सुधरा है और बीमारी पर होने वाले खर्च में करीब 40 फीसदी की कमी आई है। यही नहीं, इस क्षेत्र में कृषि आमदनी बढ़ी है और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हुई है। यह आंध्र प्रदेश सरकार का कार्यक्रम है। प्रणब मुखर्जी को इस कार्यक्रम के देश के अन्य भागों में विस्तार के लिए धनराशि का प्रावधान करना चाहिए। इसी में खाद्य सुरक्षा और लाभदायक कृषि का भविष्य निहित है।
[देविंदर शर्मा: लेखक कृषि नीतियों के विश्लेषक है] (Dainik Jagarn)
खेती में छिपे हैं वोटों के बीज
नई दिल्ली भारत में खेती के क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति न होने के कारण इसके विकास और आधुनिकीकरण का सारा दारोमदार सरकार पर है। जाहिर है, इस बार के बजट में भी कृषि की बढ़ती चुनौतियों का सामना करने के लिए वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को कई ठोस उपाय करने होंगे। उन्हें चुनावी गणित को ध्यान में रखते हुए इस बात के इंतजाम भी करने होंगे कि खाद्य पदार्थों की कीमत और किल्लत विकास के तमाम दावों पर भारी न पड़ जाए। जाहिर है, वित्त मंत्री के सामने खेतों में छिपे वोटों के बीज सींचने की भी चुनौती है। सीमांत किसान देश में 80 फीसदी से ज्यादा किसानों के पास दो एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं है। ऐसे किसानों या खेतिहर मजदूरों की तादाद भी कम नहीं है, जिनके पास कोई जमीन ही नहीं है। ऐेसे किसानों की तादाद भी कम नहीं है जो हर साल फसल खराब होने के कारण मौत को गले लगा लेते हैं। साफ है कि इस विशाल आबादी को ध्यान में रखे बगैर खेती के नाम पर नीतियां बनाने और बजटीय प्रावधान करने का कोई मतलब नहीं है। इस तबके की इस बार के बजट से भी यही उम्मीद है कि उसके दर्द को समझा जाए। उसे अच्छी क्वॉलिटी के बीज, उर्वरक और अन्य जरूरी सामान सस्ते दामों पर मिल जाएं। जरूरत पड़ने पर कम दरों पर लोन मिल जाए और उसकी उपज की खरीद का कोई पुख्ता तंत्र बन जाए, ताकि उसे दो रुपये किलो के हिसाब से प्याज न बेचना पड़े या खेत में खड़े गन्ने को जलाना न पड़े। पिछले बजट में उर्वरकों पर सब्सिडी कम कर दी गई थी। इसे इस बार बढ़ाया जाएगा। जलवायु परिवर्तन हाल के एक अध्ययन में पाया गया है कि पिछले सीजन में तापमान में 2 डि.से. की बढ़ोतरी से देश के उत्तरी इलाकों में पैदावार में 4 फीसदी की कमी आ गई थी। वैज्ञानिकों को आशंका है कि बढ़ता तापमान हर तरह की फसलों पर असर डाल सकता है। इससे मॉनसून पैटर्न पर भी असर पड़ रहा है। संकेत हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरों को महसूस करते हुए इस बार के बजट में ऐसे बीजों के विकास के लिए अच्छा प्रावधान किया जाएगा जो विपरीत मौसम में भी अच्छी फसल दे सकें। बढ़ते पेट, घटती जमीन खेती की जमीन का कम होते जाना समस्याएं खड़ी कर सकता है। इस बात के इंतजाम जरूरी हंै कि कम जमीन से अधिक से अधिक फसल कैसे हासिल की जाए। इसके लिए देश में ही उन्नत किस्म के बीजों के विकास के साथ ही पेस्ट कंट्रोल और उर्वरकों के इस्तेमाल पर बड़े निवेश की जरूरत है। समझा जाता है इस मामले की गंभीरता को महसूस करते हुए सरकार कृषि क्षेत्र में रिसर्च के लिए मोटी धनराशि देने का इरादा रखती है। बढ़ सकती है लोन की रकम खेती के लिए दिए जाने वाले लोन की दरें पिछली बार 5 प्रतिशत कर दी गई थीं। किसान चाहते हैं कि इस दर को और कम किया जाए। उम्मीद है कि इसमें एक प्रतिशत की कटौती की जा सकती है। पिछली बार कृषि क्षेत्र के ऋण के लिए 3.75 लाख करोड़ रुपये रखे गए थे। इस बार यह राशि सवा चार लाख करोड़ तक हो सकती है। और भी हैं उम्मीदें फूड प्रोसेसिंग : इसके लिए पिछले बजट में 400 करोड़ रुपये का इंतजाम किया गया था। कृषि उपज की बर्बादी न हो , किसानों को अपने उत्पाद औने - पौने दामों में न बेचने पड़ जाएं , इसके लिए फूड प्रोसेसिंग सेक्टर के बजटीय प्रावधानों को दोगुना किया जा सकता है। भंडारण : भंडारण की समुचित सुविधाएं न होने के कारण हर साल लाखों टन अनाज और फल सड़ जाते हैं। सरकार भंडारण और कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं को बढ़ाने के लिए इस बजट में नए उपाय करने और समुचित धनराशि देने का इरादा रखती है। दलहन , तिलहन : दालों और तेलों की मांग और आपूर्ति में भारी अंतर बरकरार है। पिछली बार दलहन विकास के लिए अलग से 300 करोड़ का प्रावधान किया गया था। इसमें कम से कम 20 फीसदी की बढ़ोतरी की जा सकती है। तिलहनों की उपज बढ़ाने के लिए भी नए उपायों की घोषणा हो सकती है। बागवानी : देश के कई राज्यों में फलों की खेती वहां की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाती है। इसके साथ ही देश में फूलों , चाय और विदेशी सब्जियां उगाने को बढ़ावा दिया जा रहा है। इनके उत्पादक इस बार भी सरकार से उम्मीदें लगाए हुए हैं। आशा है बागवानी के लिए आवंटन बढ़ाया जाएगा। ग्रामीण इलाकों में सड़क संपर्कों की बेहतरी के लिए भी अच्छे प्रावधान किए जाने के संकेत हैं। पशुधन : उन्नत प्रजाति के पशुधन , मछली पालन और पोल्ट्री क्षेत्र के विकास और रिसर्च के लिए भी इस बजट में धनराशि बढ़ाए जाने के आसार हैं। साथ ही कृषि उपज की खपत वाली औद्योगिक इकाइयों के लिए पिछले बजट की ही तरह इस बार भी कई नई राहतों की घोषणा किए जाने के पूरे चांस हैं। वित्त मंत्री कृषि क्षेत्र को इस बजट में क्या और कितना देंगे यह तो नहीं बता सकता , लेकिन देश की चिंताओं और उम्मीदों से उनको अवगत करा दिया है। आशा है जो भी प्रावधान होंगे , किसानों और देश के हित में अच्छे ही होंगे। - शरद पवार , केंद्रीय कृषि मंत्री अगर सरकार चाहती है कि किसान जान न दें और खेती का पेशा जीवन की चुनौतियों का सामना करने की ताकत दे सके तो उसे अपनी नीतियों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। उसे कृषि क्षेत्र के लिए बजटीय प्रावधान इस तरह करने चाहिए कि देश का गरीब किसान सम्मान की जिंदगी जी सके। - देवेन्द्र शर्मा , कृषि विशेषज्ञ कृषि उपज में कई कारणों से आ रही कमी से पूरी दुनिया में खाद्य पदार्थों के दामों में कम से 2015 तक तेजी जारी रख सकती है। सभी देशों , खासकर विकासशील मुल्कों ने कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए अब भी कमर नहीं कसी तो दुनिया की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। - रॉबर्ट बी . जोलिक , प्रेजिडेंट , विश्व बैंैंक साल 2050 तक दुनिया की आबादी 9 अरब से ज्यादा हो जाएगी और इस आबादी का पेट भरने के लिए आज से 70 फीसदी ज्यादा खाद्य पदार्थों की जरूरत पड़ेगी। विकासशील देश , खासकर दक्षिण एशिया के मुल्क , कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए जुट जाएं , वरना आने वाला समय मुश्किलों से भरा हो सकता है। - संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि स ंगठन (Navbharat times)
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