मुंबई November 14, 2010
भारी-भरकम मुनाफे की उम्मीद लगाए कपास निर्यातकों को झटका लग सकता है क्योंंकि बाजार में कपास पहुंचने की शुरुआत होने से काफी पहले सौदा करने के बावजूद उन्हें कम कीमत पर कपास की खरीद में दिक्कत हो रही है। पिछले तीन महीने में कपास की कीमतें 50 फीसदी तक बढ़ गई हैं और अभी भी 52 लाख गांठ कपास का निर्यात संभव नहीं हो पाया है। समस्या यहींं खत्म नहीं हो जाती, अब निर्यातकों को इस बात का डर सता रहा है कि ऊंची कीमतें और जरूरत से कम आपूर्ति व अन्य बाधाओं की वजह से तय समय पर वह शायद माल नहीं भेज पाएंगे।पिछले अगस्त में केंद्र सरकार ने ऐलान किया था कि अक्टूबर महीने से कपास निर्यात की अनुमति दी जाएगी और इसके लिए सितंबर महीने में पंजीकरण का काम शुरू होगा। बाद में पंजीकरण व निर्यात की तारीख एक महीने के लिए टाल दी गई थी। हालांकि निर्यात की संभावना को देखते हुए कुछ निर्यातकों ने कपास प्रसंस्कृत करने वालों से भविष्य का सौदा करना शुरू कर दिया था। कपास प्रसंस्कृत करने वाले ये लोग कच्चे कपास से बीज अलग करते हैं और उसे बाजार में बेचते हैं। इन्हें लग रहा था कि जब बाजार में कपास की आवक शुरू होगी तो वे इसकी खरीद कर लेंगे और फिर निर्यातकों के साथ हुए समझौते के मुताबिक उन्हें माल दे देंगे। इनमें से ज्यादातर समझौते 25 हजार से 40 हजार प्रति कैंडी (356 किलो) के हिसाब से हुई थी। निर्यातक सामान्यत: फॉरवर्ड डील के जरिए ही कपास की खरीद करते हैं।जब अक्टूबर महीने में कपास की आवक शुरू हुई तो कीमतों में तेजी से बढ़ोतरी होने लगी और प्रसंस्कृत करने वालों को कपास किसानों से उस भाव पर माल नहीं मिल पाया, जिससे कि वे निर्यातकों से किया गया वादा पूरा कर सकें। इस तरह से वह डिफॉल्टर होने लगे। हालांकि ऐसे डिफॉल्ट केबाद विवाद पैदा होता है, लेकिन निर्यातकों ने पाया कि वे फंस गए हैं, लिहाजा उन्होंने खुले बाजार से कपास की खरीद शुरू कर दी और इस वजह से भी कीमतों में और मजबूती आई।इसके बाद निर्यातकों ने या तो अनुबंध पर सीधे-सीधे फिर से बातचीत की या ऐसे डिफॉल्टर की शिकायत कॉटन एसोसिएशन ऑफ इंडिया से की। एसोसिएशन के सूत्र बताते हैं कि उन्हें इस तरह की शिकायतें मिली हैं और मामला अभी मध्यस्थता के दायरे में है। यहां एक विकल्प यह भी है कि निर्यातक और प्रसंस्करण करने वाले (गिनर्स) कीमत पर फिर से बातचीत करते हुए अनुबंध का निपटारा करें।चूंकि वैश्विक स्तर पर कीमतें बढ़ी हैं, लिहाजा निर्यातकों ने स्थानीय बाजारों से उच्च कीमतों पर कपास की खरीद जारी रखी। निर्यातकों की संख्या हालांकि कम है, लेकिन उनके पास काफी ज्यादा ऑर्डर हैं और उन्हें 52 लाख गांठ कपास की जरूरत है। हालांकि कपड़ा मिलें वही कपास खोज रही हैं क्योंकि यह अब स्टॉक में नहीं है। बाजार में अभी भी 52 लाख गांठ कपास नहीं पहुंच पाया है। निर्यातकों को निर्यात की इजाजत मिलने के 45 दिन के भीतर माल भेजना होगा और ऐसी इजाजत 10 अक्टूबर को मिली थी। इसका मतलब यह हुआ कि 25 दिसंबर तक उन्हें अपना शिपमेंट पूरा करना होगा।निर्यातकों को डर है कि 52 लाख गांठ कपास का निर्यात नहीं हो पाएगा क्योंकि बाजार में अब तक पर्याप्त कपास की आवक नहीं हुई है। हमें बंदरगाहों से शिपमेंट की क्षमता का भी ध्यान रखना होगा। बंदरगाह हर महीने 25 लाख गांठ कपास ही भेज सकता है और नवंबर महीने में कई छुट्टियां भी हैं। भाईदास करसनदास ऐंड कंपनी के पार्टनर शिरीष शाह कहते हैं कि इसे देखते हुए और आपूर्ति के संकट को देखते हुए तय समय में 52 लाख गांठ कपास का निर्यात करना मुश्किल है।देश की मंडियों में अब तक 37.5 लाख गांठ कपास ही पहुंचा है और कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के अनुमान के मुताबिक, रोजाना 2-2.25 लाख गांठ कपास ही मंडियों में पहुंचता है, ऐसे में नवंबर महीने में 75-80 लाख गांठ से ज्यादा कपास नहीं पहुंच पाएगा। 10 दिसंबर तक यह आंकड़ा एक करोड़ गांठ तक पहुंच सकता है। बाजार पहुंचने वाले ऐसे कपास की खरीद कपड़ा कंपनियां भी करती हैं और कपड़ा मिलों की मांग प्रति माह 20-22 लाख गांठ होती है।निर्यातकों का कहना है कि वे इसमें ज्यादा रकम नहींं कमा पाएंगे। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मौजूदा समय में कीमतों के अंतर को देखते हुए निर्यात मार्जिन सिर्फ 5-8 फीसदी रहेगा।सरकार के पास विकल्प यह है कि वह शिपमेंट का समय बढ़ाए या फिर 15 दिसंबर के बाद स्थिति की समीक्षा करे और मौजूदा मांग-आपूर्ति की स्थिति को ध्यान में रखे। अच्छी खबर यह है कि पिछले दो दिनों में कपास की कीमतें 47 हजार से 43 हजार पर आ गई हैं और कीमतों में गिरावट जारी रही तो गिनर्स अपना वादा निभा सकते हैं। समझा जाता है कि उत्तर भारत के गिनर्स ने कीमतों में गिरावट के बाद निर्यातकों से फिर से बातचीत शुरू कर दी है। (BS Hindi)
15 नवंबर 2010
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