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18 मार्च 2009

सरकार की छोटी सोच से चीनी कड़वी

केंद्रीय पूल में खाद्यान्न के भारी भंडार की उपलब्धता को अपनी कृषि केंद्रित नीतियों की सफलता में गिनाने में मशगूल केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने चीनी के मामले में उपभोक्ता, गन्ना किसान और चीनी उद्योग तीनों का जायका बिगाड़ दिया है। इसके पीछे सरकार की छोटी और तात्कालिक फायदे वाली सोच जिम्मेदार रही है। सिर्फ अगले कुछ माह को ध्यान में रखकर लिये गए पिछले दो साल के सरकार के फैसलों ने चीनी के मामले में हालात को बेकाबू कर दिया है। जिसके चलते अब न तो आयात इसकी मदद कर सकता है और न ही स्टॉक सीमा लगाने का कारोबार पर अंकुश लगाने वाला फैसला। असल में सरकार समस्या को सीधे हल करने की बजाय शार्ट कट में लग गई है। जिसके लिए इसका एक सूत्रीय मकसद है कि चीनी की खुदरा कीमत 25 रुपये प्रति किलो बनी रहे। दो साल पहले इसके लिए कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार 20 रुपये प्रति किलो की सीमा बांध रहे थे।सरकार की इन नीतिगत खामियों के चलते ही चालू पेराई सीजन (2008-09) में देश में चीनी का उत्पादन करीब 150 लाख टन पर सिमटने वाला है जो पिछले साल 263 लाख टन रहा था और 2006-07 में 282 लाख टन रहा था। चीनी उत्पादन का दो साल के भीतर करीब 50 फीसदी गिर जाना किसी को भी चौंका सकता है। वह भी तब जब देश में मानसून सामान्य रहा है। दो साल पहले जब महंगाई बढ़ रही थी तो चीनी ही एक ऐसा कृषि उत्पाद था जिसकी कीमत देश में गिर रही थी क्योंकि अधिक उत्पादन के बावजूद सरकार ने चीनी का निर्यात रोक दिया था। उस समय वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की जिद और कृषि मंत्रालय के गलत आंकड़ों के सामने कृषि मंत्री शरद पवार ने आत्मसमर्पण कर दिया था। गलत फैसले का विरोध कर किसानों और उद्योग के बचाने की जिम्मेदारी उन्होंने नहीं निभाई। जिसके चलते देश में चीनी की थोक कीमतें 1200 रुपये प्रति क्विंटल से भी नीचे आ गई थी। नतीजतन किसानों और चीनी मिलों के बीच गन्ना मूल्य को लेकर रस्साकसी चली। किसानों का चीनी मिलों पर बकाया रिकार्ड स्तर तक पहुंचा। तीन साल से गन्ना मूल्य के मामले सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। इन सब दिक्कतों के बीच किसानों के लिए एक बेहतर विकल्प सामने आया और वह विकल्प था, गेहूं और धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में भारी बढ़ोतरी का। बड़ी संख्या में किसानों ने गन्ना क्षेत्रफल घटाया और उसी का नतीजा है कि सरकार के चालू पेराई सीजन के 220 लाख टन चीनी उत्पादन के झूठे दावों के बीच वास्तविक उत्पादन 150 लाख टन की ओर बढ़ रहा है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में चीनी का उत्पादन 41 लाख टन और महाराष्ट्र में 47 लाख टन रहने का अनुमान है।कर्नाटक और तमिलनाडु में चीनी उत्पादन 17-17 लाख टन, उत्तराखंड में नौ लाख टन, पंजाब और हरियाणा में कुल मिलाकर पांच लाख टन से कम, मध्य प्रदेश में 6.5 लाख टन और बिहार में 2.2 लाख टन पर अटकने वाला है। दूसरी ओर आयात का हथकंडा भी इस बार सरकार के पक्ष में काम करने वाला नहीं है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में लंदन डेली प्राइस में चीनी की कीमत 425 डॉलर प्रति टन चल रही है। अगर यह आयात थाइलैंड से भी होता है तो वहां की 400 डॉलर प्रति टन की कीमत पर 25 डॉलर का प्रीमियम देना होगा। जबकि कम से कम 20 डॉलर प्रति टन समुद्री भाड़ा लगेगा। बंदरगाह के खर्च जोड़ने पर देश में आयातित चीनी 450 डॉलर प्रति टन पड़ेगी। यानी आयातित चीनी भी 25 रुपये किलो ही पड़ेगी। वहीं रॉ शुगर (गैर-रिफाइंड चीनी) का आयात भी अब महंगा पड़ रहा है। अभी तक भारत के लिए मात्र नौ लाख टन रॉ शुगर के आयात सौदे हुए हैं। इस तरह से सारी परिस्थितियां सरकार के खिलाफ जा रही है। गुरुवार को सरकार ने चीनी की स्टॉक लिमिट की अधिसूचना भी जारी कर दी। जबकि सरकार के पास चीनी को बाजार में बेचने के लिए पहले से ही तमाम तरह के नियंत्रण हैं। हर पखवाड़े चीनी मिलों को सरकार द्वारा जारी कोटे के मुताबिक चीनी ही बेचनी होती है। इसके बावजूद एक नया नियंत्रण लगाया गया है। जबकि दीर्घकालिक हित में किसानों को गन्ने के बेहतर दाम सुनिश्चित करने के लिए कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की गन्ने का एसएमपी 125 रुपये प्रति क्विंटल करने की सिफारिश को सरकार एक साल से दबाए बैठी है। दिलचस्प बात यह है कि चालू सीजन में गन्ने की उपलब्धता का संकट झेल रहा उद्योग भी अब गन्ने के एसएमपी में बढ़ोतरी के पक्ष में है। इस फैसले को लटकाने के पीछे हो सकता है अभी भी शरद पवार महाराष्ट्र की सहकारी चीनी लॉबी के हित में कुछ देख रहे हों। पिछले पांच साल में शरद पवार का चीनी उद्योग और गन्ने से जुड़ा हर फैसला महाराष्ट्र केंद्रित ही रहा है। बेहतर होगा कि सरकार अब इस मुद्दे पर दीर्घकालिक नीतिगत फैसले ले ताकि गन्ना किसान, चीनी उद्योग और उपभोक्ता तीनों के हित सुरक्षित रहें और देश चीनी उत्पादन में आत्मनिर्भर बना रहे। (Business Bhaskar)

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