02 मार्च 2009
रॉ कॉटन निर्यात पर छूट के बावजूद तेजी की गुंजाइश नगण्य
पास की मौजूदा फसल आने के समय सरकार द्वारा तय किए गए खासे ऊंचे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का असर खुले बाजार में काफी हद तक समाप्त हो चुका है। पिछले दिनों रॉ कॉटन के निर्यात पर रियायत देने के बाद भी अब तेजी की गुंजाइश नहीं है। दरअसल पहले भारतीय कॉटन विदेशी मूल्यों से काफी ऊंचे मूल्य पर बिक रही थी। इससे निर्यात काफी कम रहा। अब निर्यात प्रोत्साहन के बाद तेजी की संभावना बताना ठीक नहीं होगा। वैसे भारतीय कपास अभी भी विदेशी बाजार के मुकाबले महंगी है लेकिन अंतर काफी घट चुका है। व्यापारिक समुदाय की मानें तो कपास की कीमतों में मौजूदा गिरावट का कारण वैश्विक मंदी के साथ वित्त वर्ष की आखिरी तिमाही है। वित्त वर्ष की समाप्ति नजदीक आने से देनदारियां निपटाने के लिए व्यापरियों द्वारा बिकवाली बढ़ा दी गई है। लेकिन निर्यात प्रोत्साहन और आम चुनाव के बाद समीकरण बदलने से अप्रैल से कपास की कीमतों में सुधार देखने को मिल सकता है। दूसरी तरफ विश्लेषकों का कहना है कि मंदी के कारण कपास का निर्यात तो घटा ही, सूती धागों तथा कपड़ों की मांग में भी भारी गिरावट दर्ज की जा रही है। सूती धागों का निर्यात 60 फीसदी तक कम हो गया है। वहीं चीन, टर्की, पेरू तथा मिस्र जैसे खरीदार इस साल भारत से कपास की खरीद कम कर रहे हैं। हालांकि विशेष कृषि एवं ग्रामोद्योग योजना में रॉ कॉटन को शामिल करने से इसके निर्यात पर पांच फीसदी ड्यूटी क्रेडिट मिलेगा। इससे कपास निर्यात में सुधार हो सकता है। मौजूदा कपास सीजन 2008-09 (अक्टूबर से सितंबर) के दौरान देश से 50 से 52 लाख गांठ ही कपास निर्यात की संभावना है, जो पिछले सीजन में 85 लाख गांठ तक पहुंच गया था। सरकार के संशोधित आंकड़ों के अनुसार कपास उत्पादन पिछले वर्ष के 315 लाख गांठ से घटकर 290 लाख गांठ रह जाने का अनुमान है। इसके बावजूद घरलू मांग और निर्यात जरूरतों को पूरा करने के बाद भी अगले वर्ष देश में साठ लाख गांठ कपास का कैरी फॉरवर्ड स्टॉक रहने की संभावना है। भारतीय निर्यातक अब तक 9.5 लाख गांठ के ही निर्यात सौदे कर पाए हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी मांग कम होने से कपास के भाव पिछले वर्ष की समानावधि के मुकाबले 74 सेंट से घटकर 53 से 54 सेंट प्रति पौंड रह गए हैं। यह देखते हुए कॉटन कारपोरशन ऑफ इंडिया भी अब एमएसपी से कम कीमत पर कपास बेचने पर विचार कर रही है। इसका एक कारण यह भी है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार के मुकाबले भारतीय बाजार में कपास अब भी करीब छह-सात फीसदी महंगी होने के कारण आयातक देश भारत का रुख नहीं कर रहे हैं। दुनियाभर में कपास की खपत में कमी को देखते हुए इसकी कीमतों में तेजी की उम्मीद नहीं है। (Business Bhaskar)
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