चीनी उद्योग के प्रमुख संगठन इस्मा ने आज कहा कि सरकार का 6,000 करोड़
रुपये का ब्याज मुक्त ऋण देने का निर्णय सार्थक नहीं होगा क्योंकि इससे
अधिशेष भंडार की समस्या तथा चीनी की कम कीमत के मुद्दे का समाधान नहीं
होगा। इस्मा के महानिदेशक अविनाश वर्मा ने कहा, 'सरकार ने चीनी उद्योग के
लिए एक साल की छूट के साथ 6,000 करोड़ रुपये के ऋण की घोषणा की है। यह
सार्थक नहीं होगा। इससे अधिशेष भंडार की समस्या तथा चीनी की कम कीमत के
मुद्दे का समाधान नहीं होगा।' उन्होंने कहा कि गन्ना किसानों का मौजूदा
21,000 करोड़ रुपये बकाया है जिसमें 6,000 करोड़ रुपये की कमी अएगी लेकिन
इस बाद भी बड़ी राशि बकाया रह जाएगी।
वर्मा ने कहा कि इसकी जगह केंद्र को सार्वजनिक क्षेत्र की एजेंसियों को 25 से 30 लाख टन चीनी खरीदने के लिए सरकारी एजेंसियों को रिण देना चाहिए। उन्होंने कहा, 'सरकार ने केवल एक साल के लिए ब्याज मुक्त ऋण देने की निर्णय किया है जबकि इससे पहले फरवरी 2014 में घोषित योजना में पांच साल की छूट थी।' वर्मा का मानना है कि उद्योग के लिए एक साल में 6,000 करोड़ रुपये लौटाने के लिए इतनी कमाई करना असंभव है। महाराष्ट्र की चीनी मिलें भी केंद्र के फैसले से नहीं हुईं खुश महाराष्टï्र का सहकारी चीनी उद्योग भी चीनी मिलों को 6,000 करोड़ रुपये ब्याजमुक्त ऋण मुहैया कराने के केंद्र सरकार के फैसले से बहुत खुश नहीं है। इसके बजाय उद्योग ने केंद्र से प्रति टन 850 रुपये की वित्तीय मदद, 50 लाख टन का बफर स्टॉक बनाने और कच्ची चीनी प्रोत्साहन (हाल में 4,000 रुपये प्रति टन की राशि घोषित की गई) को 2019-20 तक विस्तारित करने की मांग की है।
कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी से संबंध रखने वाले सहकारी चीनी उद्योग के नेताओं ने तर्क दिया कि 6,000 करोड़ रुपये ब्याजमुक्त ऋण देने से गन्ना किसानों को भुगतान, ब्याज का पुनर्भुगतान करने का मसला नहीं सुलझेगा। महाराष्टï्र की सहकारी और निजी चीनी मिलों को गन्ना किसानों का 3,400 करोड़ रुपये का भुगतान करना है। इसमें से सहकारी मिलों पर कुल 1,900 करोड़ रुपये बकाया है। उनका कहना है कि उनकी खराब वित्तीय स्थिति की सबसे प्रमुख वजह उत्पादन की लागत और चीनी की गिरती कीमतों के बीच बढ़ता अंतर है। चीनी की मौजूदा कीमतें 2,100-2,300 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि उत्पादन लागत 3,200-3,400 रुपये प्रति क्विंटल के बीच हैं। वर्ष 2014-15 के पेराई सीजन में सभी 178 चीनी मिलों ने हिस्सा लिया और 105 लाख टन से भी अधिक चीनी का उत्पादन किया।
महाराष्ट्र में सहकारी चीनी मिलों के संघ के प्रबंध निदेशक संजीव बाबर ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया, 'केंद्र सरकार के इस फैसले से वित्तीय संकट से जूझ रही सहकारी चीनी मिलों को जरूरी राहत नहीं मिलेगी। इन मिलों का नुकसान से उबर पाना मुश्किल होगा। सरकार को 850 रुपये प्रति टन की वित्तीय मदद मुहैया कराने की जरूरत है और ऋण पुनर्गठन के लिए कदम उठाने की जरूरत है।' उन्होंने बताया कि ज्यादातर सहकारी चीनी मिलों को डर है कि बैंक उन्हें ऋण नहीं देंगे। इस बीच सहकारी चीनी मिलों को बेसब्री से 2,000 करोड़ रुपये के ब्याजमुक्त ऋण का इंतजार है जिसकी घोषणा मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने मॉनसून सत्र के दौरान की थी। राज्य सरकार पहले ही यह संकेत दे चुकी है कि चीनी उद्योग को आगे सरकार से किसी तरह की सब्सिडी की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। (BS Hindi)
वर्मा ने कहा कि इसकी जगह केंद्र को सार्वजनिक क्षेत्र की एजेंसियों को 25 से 30 लाख टन चीनी खरीदने के लिए सरकारी एजेंसियों को रिण देना चाहिए। उन्होंने कहा, 'सरकार ने केवल एक साल के लिए ब्याज मुक्त ऋण देने की निर्णय किया है जबकि इससे पहले फरवरी 2014 में घोषित योजना में पांच साल की छूट थी।' वर्मा का मानना है कि उद्योग के लिए एक साल में 6,000 करोड़ रुपये लौटाने के लिए इतनी कमाई करना असंभव है। महाराष्ट्र की चीनी मिलें भी केंद्र के फैसले से नहीं हुईं खुश महाराष्टï्र का सहकारी चीनी उद्योग भी चीनी मिलों को 6,000 करोड़ रुपये ब्याजमुक्त ऋण मुहैया कराने के केंद्र सरकार के फैसले से बहुत खुश नहीं है। इसके बजाय उद्योग ने केंद्र से प्रति टन 850 रुपये की वित्तीय मदद, 50 लाख टन का बफर स्टॉक बनाने और कच्ची चीनी प्रोत्साहन (हाल में 4,000 रुपये प्रति टन की राशि घोषित की गई) को 2019-20 तक विस्तारित करने की मांग की है।
कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी से संबंध रखने वाले सहकारी चीनी उद्योग के नेताओं ने तर्क दिया कि 6,000 करोड़ रुपये ब्याजमुक्त ऋण देने से गन्ना किसानों को भुगतान, ब्याज का पुनर्भुगतान करने का मसला नहीं सुलझेगा। महाराष्टï्र की सहकारी और निजी चीनी मिलों को गन्ना किसानों का 3,400 करोड़ रुपये का भुगतान करना है। इसमें से सहकारी मिलों पर कुल 1,900 करोड़ रुपये बकाया है। उनका कहना है कि उनकी खराब वित्तीय स्थिति की सबसे प्रमुख वजह उत्पादन की लागत और चीनी की गिरती कीमतों के बीच बढ़ता अंतर है। चीनी की मौजूदा कीमतें 2,100-2,300 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि उत्पादन लागत 3,200-3,400 रुपये प्रति क्विंटल के बीच हैं। वर्ष 2014-15 के पेराई सीजन में सभी 178 चीनी मिलों ने हिस्सा लिया और 105 लाख टन से भी अधिक चीनी का उत्पादन किया।
महाराष्ट्र में सहकारी चीनी मिलों के संघ के प्रबंध निदेशक संजीव बाबर ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया, 'केंद्र सरकार के इस फैसले से वित्तीय संकट से जूझ रही सहकारी चीनी मिलों को जरूरी राहत नहीं मिलेगी। इन मिलों का नुकसान से उबर पाना मुश्किल होगा। सरकार को 850 रुपये प्रति टन की वित्तीय मदद मुहैया कराने की जरूरत है और ऋण पुनर्गठन के लिए कदम उठाने की जरूरत है।' उन्होंने बताया कि ज्यादातर सहकारी चीनी मिलों को डर है कि बैंक उन्हें ऋण नहीं देंगे। इस बीच सहकारी चीनी मिलों को बेसब्री से 2,000 करोड़ रुपये के ब्याजमुक्त ऋण का इंतजार है जिसकी घोषणा मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने मॉनसून सत्र के दौरान की थी। राज्य सरकार पहले ही यह संकेत दे चुकी है कि चीनी उद्योग को आगे सरकार से किसी तरह की सब्सिडी की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। (BS Hindi)
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