खाद्य एवं कृषि संगठन एफ.ए.ओ. के अनुसार खाद्य सुरक्षा से आशय सभी व्यक्तियों को सही समय पर उनके लिए आवश्यक बुनियादी भोजन के लिए भौतिक एवं आर्थिक दोनों रूप में उपलब्धि की गारंटी है । विश्व विकास रिपोर्ट की भी इसीसे मिलती जुलती अवधारणा है । कुल मिलाकर इसका आशय यह है कि भेजन की उपलब्धता सुनिश्चित होने के साथ साथ व्यक्तियों की पर्याप्त य शक्ति भी सुनिश्चित होना चाहिए तथा खाद्य उपलब्धता के लिए प्रभावी संस्थागत ढांचा भी होना चाहिए।
भारत में खाद्य सुरक्षा मिशन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न खरीदी, बफर स्टाक तथा आईसीडीएस आदि कार्यमों के माध्यम से खाद्य सुरक्षा उपलब्ध करवाई जा रही है । अभी हाल में ही मंत्रीमंडल द्वारा अनुमोदित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल 2011 इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम कहा जा सकता है । राष्ट्रीय खाद्या सुरक्षा के माध्यम से आम भारतीय को जीने का अधिकार प्रदान किया गया है । यह एक अलग बात है कि कृषि मंत्री शरद पवार को चिन्ता है कि यह बिल कानून बनने पर लागू किस प्रकार से हो सकेगाा। वित्त मंत्री को चिन्ता है कि इतनी बड़ी धनराशि कहां से आएगी । इस संबंध में विचारणीय बात यह है कि 1991 में अपनाई गई नव-उदारवादी नीतियों के कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली लक्षित वर्ग समूह तक सीमित कर दी गई थी तथा खाद्य सब्सिडी देश की जीडीपी का एक प्रतिशत से भी कम रही है । इस लिए सरकार का दायित्व बनता है कि समावेशीकरण के लिए खाद्या सुरक्षा हेतु जीडीपी का कम से कम 2 प्रतिशत अतिरिक्त व्यय होना ही चाहिए ।
यदि हम इटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीटयूट की वर्ष 2008 रिपोर्ट में प्रकाशित ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार भारत विश्व में 66 वे स्थान पर अफ्रीकी देश घाना एवं निकारागुआ के समकक्ष है। इंडियन स्टेट हंगर इंडेक्स के अनुसार भारत के 17 राय भुखमरी एवं कुपोषण की स्थिति अफ्रीका के इथोपिया से भी बुरी हैं जो बहुत ही चिन्ता का विषय है । इस पृष्ठभूमि में खाद्य सुरक्षा की महत्व बढ़ जाता है। खाद्य सुरक्षा को कुपोषण की सुरक्षा की दृष्टि से भी देखना चाहिए।
यद्यपि वर्तमान में खाद्य स्फीति नियंत्रण में बताई जा रही है किन्तु यह पुन: कब अपना सिर उठा ले कहा नही जा सकता है। इसलिए कृषि उत्पादन में वृध्दि बहुत जरूरी है। भूमि का क्षेत्र सीमित हाने के कारण कृषि उत्पादकता में वृध्दि से ही खाद्य पदार्थो की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है। इसके लिए कृषि में निवेश, किसानों को उचित न्यूनतम समर्थन की सुनिश्चितता तथा विभिन्न सरकारी कार्यमों के माध्यम से खाद्य सुरक्षा दिया जाना जरूरी हैं। खाद्य सुरक्षा हेतु खाद्य उत्पादन के साथ साथ खाद्य प्रबंधन तथा खाद्यान्नों को सड़ने गनले तथा कीटों से बचाव भी अति आवश्यक है । यहां यह भी रेखांकित करना जरूरी है कि भूमि की उत्पादकता में वृध्दि के लिए किसी भी लागत पर उत्पादन में वृध्दि की बजाय कृषि उत्पादन में प्रयुक्त होनेवाले हर एक साधन की उत्पादकता में वृध्दि से ही साधनों के अनुकूलतम उपयोग द्वारा कृषि कुशलता में वृध्दि कर खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयास किया जाना चाहिए। यह इसलिए कि देश के पास संसाधन सीमित है । देश में स्वास्थ्य सेवाओं, कमजोर समूहों के कल्याण तथा सामान्य शिक्षा भी बहुत जरूरी है। भारत में रायों में लक्षित समूह के कल्याण के लिए जो योजनाओं की भरमार है किन्तु दुख की बात है कि उसका समूह के आम व्यक्ति को फायदा नही मिल पा रहा है तथा वर्ग भुखमरी की स्थिति में है। इसलिए आवश्यकता आधारित कार्यक्रमों को खाद्य सुरक्षा से जोड़ कर योजनाओं को प्रभावी ढंग से कार्यान्वयन किया जाना चाहिए।
इसके साथ ही देश के सामाजिक एवं आर्थिक ढांचे में बदलाव हेतु प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन समाज के हाथों में दिया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में ग्रामीण क्षेत्र में सहकारी व सामुहिक कृषि व उपमों द्वारा ही दीर्धकाल में खाद्या सुरक्षा तथा समावेशी विकास सम्भव है। खाद्य सुरक्षा के लिए पर्यावरण सुरक्षा भी बहुत आवश्यक हैं। इसलिए अंधाधुंध औद्योगीकरण पर अंकुश आवश्यक है। विश्व के अनेक देशों में खाद्य प्रबंधन एवं खाद्य वितरण इतना कठिन हो गया हे कि बात भले ही हल्की फु ल्की लगे किन्तु विश्व स्तर पर भुखमरी एवं कुपोषण नियंत्रण हेतु यदि विश्व के वैज्ञानिक कोई ऐसी सस्ती कीमत की गोली विकसित कर सके जो सुबह शाम दो दो गोली लेने से व्यक्ति की भूख शान्त करते हुए उसकी कार्यक्षमता बनाए रखे। (Deshbandhu)
22 फ़रवरी 2012
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