एक तरफ सरकार जहां अनाज के बदले लोगों को नकद राशि देने की योजना को अमली जामा पहनाने पर विचार कर रही है वहीं दूसरी तरफ पीडीएस यानी जन वितरण प्रणाली में सुधार कर उसे अधिक सशक्त बनाने का अभियान भी जोर पकड़ रहा है। क्या देश की करीब 60 साल पुरानी पीडीएस को खत्म कर राशन के बदले नकद पैसा दिया जाना आम आदमी के हक में है? इस सवाल पर बेहद गंभीरता से विश्लेषण करने की जरूरत है। क्या अनाज के बदले नकद की योजना पीडीएस से अधिक कारगर साबित हो सकती है? वह भी उन हालातों में जब विधवा पेंशन जैसी नकद राशि देने वाली कई योजनाओं का पैसा लक्षित समूह तक नहीं पहुंच रहा हो। इसलिए अनाज के बदले नकद देने की इस नीति को लागू करने से पहले यह जानना अधिक जरूरी है कि पीडीएस की विफलता का मुख्य कारण क्या हैं? फिर तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ के राज्यों में यही पीडीएस अन्य राज्यों की अपेक्षा सफल कैसे रहा?
पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के दूरदराज के अंदरूनी इलाकों का दौरा करने से पता चला कि वजह कुछ भी हो पर यहां आम आदमी को सस्ता राशन मिल रहा है। हांलाकि शहर के लोगों में खासकर जो वर्ग पीडीएस प्रणाली का हिस्सा नहीं इस बात को लेकर क्षोभ भी है कि अगर हर गरीब आदमी को एक या दो रुपए में 35 किलो अनाज मिल जाएगा तो वह काम पर क्यों जाएगा? लेकिन मुख्यमंत्री रमन सिंह इसे शहरी मध्यवर्गीय सोच का परिचायक मानते हुए कहते हैं अगर आज बस्तर के अभुजमाड़ और टोंडवाल जैसे जंगली इलाकों के गरीब लोगों को भी पीडीएस का चावल मिल रहा है तो यह उनकी सोची समझी नीति का नतीजा है। ‘‘गोदाम में अनाज को सड़ने दें लेकिन किफायत पर न दंे यह कहां की समझदारी है।’’
आखिर वह सोचा-समझा कौन सा फार्मूला है जिसे देश के अन्य राज्यों में भी लागू करने की योजनाएं चल रही है? इसे जानने के लिए मैंने एक बार छतीसगढ़ के पीडीएस को विस्तार से जानने की कोशिश की तो पता चला कि इसे प्रभावी बनाने के लिए कईं स्तर पर प्रयास किए गए। ज्ञात हो कि राष्ट्रीय स्तर पर भोजन के अधिकार के अधिनियम को लागू करने में भी इसकी मदद ली जा रही है।
साल 2004 में छत्तीसगढ़ की सरकार ने राशन की दुकानों पर अनाज न मिलने की बढ़ती शिकायतों के मद्देनजर नया पीडीएस नियंत्रण आदेश जारी किया था। इसके तहत् तीन स्तरों पर नए सुधारात्मक आदेश लागू किए गए।
अति गरीबों और आदिवासियों को घर के नजदीक आटा, चावल, और तेल मुहैया कराने के लिए सरकार ने उचित मूल्यों की दुकानों के लाइंसेस निजी व्यापारियों की बजाए स्थानीय समुदाय जैसे वन कोपोरेटिव, ग्राम पंचायत, ग्राम परिषदों और स्वयं सहायता समूहों को सौंप दिए। इसके लिए 2872 निजी व्यापारियों के लाइसेंस रद्द किए गए। इसका फायदा यह हुआ कि स्थानीय लोगों की भागीदारी से दुकानें पूरा दिन खुली रहने लगी और गांव वाले अपनी सुविधानुसार राशन लेने लगे। पूरे राज्य में ऐसी 2297 राशन की दुकानें हैं जो स्वयं सहायता समूहों द्वारा चलाई जा रही हैं। स्थानीय लोगों की भागीदारी ने जवाबदेही को भी बढ़ाने का काम किया। अब निजी व्यापारी की तरह दुकान चलाने वाले समूह जल्द दुकान बंद करने और राशन खत्म होने का बहाना नहीं कर सकते थे। संरचनात्मक स्तर पर अगला सुधार राशन की दुकानों की गिनती बढ़ाना था। दुकानों की गिनती 8492 से बढ़ाकर 10465 कर दी गई। इसके तहत् हर ग्राम पंचायत में एक दुकान खोली गई। इससे राशन लेने की लंबी कतारों में कमी आई और कम समय में ही राशन मिलने लगा।
इसका स्पष्ट उदाहरण आंदा है। बस्तर के अंदरूनी इलाके चित्रकोट के आदिवासी आंदा की खुशी उसकी झुर्रियों से साफ झलक रही थी। आदिवासी आंदा के लिए इससे संतोष की अधिक क्या बात हो सकती है कि महीने की छह तारीख को ही उसे महीने भर का चावल, तेल और शक्कर मिल गया। आंदा ने दिखाया कि उसने 35 किलो चावल खरीदा है और वह भी केवल एक रुपए किलो के हिसाब से। आंदा को यह राशन अपने गांव के यमुना स्वयं सहायता समूह द्वारा चलाई जा रही उचित मूल्य की दुकान से मिला। आंदा के पास लाल रंग का कार्ड है जो अति गरीब लोगों को एक रुपए प्रति किलो अनाज मुहैया कराने के लिए दिए गए हैं।
इसके बाद सबसे बड़ा सुधार राशन को गोदामों से दुकानों तक पहुंचाने के लिए ट्रांसपोटेशन प्रणाली में बदलाव कर किया गया। अभी तक निजी व्यापारी अपने कोटे का राशन उठाकर दुकान तक पहुंचने से पहले ही ओपन मार्किट में उसे ऊंचे दामों पर बेच देते थे। लेकिन नए सिस्टम के तहत् सिविल सप्लाई कारपोरेशन ने सभी उचित मूल्यों की दुकानों पर बिना किसी अतिरिक्त लागत के राशन की सप्लाई करने की शुरुआत की। इसके लिए हर महीने की छह तारीख तक पीले रंग के विशेष ट्रकों में पूरी सप्लाई पहुंचाई जाती है। सारी सप्लाई सीधा दुकान तक पहुचने से ब्लैक मार्किटिंग की संभावना में कमी हुई।
अधिकतर राशन की दुकानें घाटे में चलने के कारण व्यापारी अक्सर राशन का चावल या आटा मिल मालिकों को अधिक दामों में बेचकर अपना मुनाफा बढ़ाने की फिराक में रहता था। ऐसे भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए पीडीएस की कमीशन 8 रुपए प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 30 रुपए प्रति क्ंिवटल की गई। इस प्रोत्साहन ने आम आदमी का आटा-चावल बाजार में बेचे जाने की प्रवृति पर कुछ हद तक रोक लगाने का काम किया। इसके लिए 40 करोड़ रुपए प्रति वर्ष की अतिरिक्त लागत राज्य सरकार को सहनी पड़ी। पीडीएस चलाने के लिए ब्याज रहित 75 हजार रुपए तक के ऋण देने की योजना ने भी लोगों को पीडीएस की बागडोर अपने हाथों में लेने के लिए प्रोत्साहित किया। पीडीएस के अलावा दूसरी चीजें बेचने की अनुमति ने भी स्थानीय लोगों को पीडीएस की जिम्मेदारी लेने के लिए प्रेरित किया। इससे पीडीएस की दुकान चलाने वालों का मुनाफा 700 रुपए प्रति माह से बढ़कर 2500 रुपए हो गया।
किसी भी राज्य में पीडीएस की असफलता का सबसे बड़ा कारण फर्जी कार्ड हैं। हाल ही में कर्नाटक और महाराष्ट्र में लाखों की संख्या में फर्जी कार्ड पकड़े जाने का मामला सामने आया। छत्तीसगढ़ में भी ऐसे कार्डों से छुटकारा पाना एक बड़ी चुनौती थी। अधिक लोगों तक राशन पहुुंचाने के लिए सरकार ने पुराने कार्डों को खत्म कर नए प्रकार के कार्ड जारी किए। इस प्रक्रिया में तीन लाख के करीब फर्जी कार्डों को रद्द किया गया। बीपीएल के अलावा बूढ़े, विकलांग, अति गरीब लोगों को भी पीडीएस में शामिल करने के लिए पांच प्रकार के नए कार्ड जारी किए गए जिसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के परिवारों को भी शामिल किया गया और अति गरीबों को एक रुपए प्रति किलो चावल देने के कार्ड दिए गए। इससे करीब 80 प्रतिशत लोगों को कवर किया गया। कुल मिलाकर राज्य सरकार इस नई प्रणाली को जारी रखने के लिए फिलहाल प्रति वर्ष 1440 करोड़ रुपए की सब्सिडी प्रदान कर रही है।
रमन सिंह सरकार का दावा है कि इन सुधारांे ने हर घर में अनाज पहुंचा कर राज्य की मातृत्व मृत्यु दर को 407 प्रति लाख से कम कर 337 प्रति लाख और नवजात शिशु मृत्यु दर को 76 प्रति हजार से कम कर 56 प्रति हजार तक पहुंचा दिया है। भले ही इन सुधारों के जरिए राज्य सरकार अधिक से अधिक लोगों तक अनाज पहुंचाने में काफी हद तक सफल रही हो लेकिन आलोचकों का मानना है कि 35 किलो अनाज का काफी हिस्सा महंगे दामों में मार्किट में बिक रहा है। जैसे कि राज्य के कांग्रेस नेता अजित जोगी का मानना है कि एपीएल परिवारों के हिस्सों का अनाज सीमावर्ती राज्यों में बेचा जा रहा है।
दूसरी बड़ी आलोचना का कारण यह है कि छत्तीसगढ़ का पीडीएस एक महंगा मॉडल माना जा रहा है जिन्हें अन्य राज्यों में लागू करना संभव नहीं। इसके लिए अधिक संसाधनों और बजट की जरूरत है। छत्तीसगढ़ के पास बजट भी अधिक है और अनाज भी जो कि अन्य राज्यों के लिए संभव नहीं। इसके अलावा इस मॉडल में भी दुकानों तक सप्लाई पहुंचाकर सरकार ने काफी हद तक गरीबों के हिस्से का अनाज ओपन मार्किट तक पहुंचने पर रोक लगा दी है लेकिन दुकानों से परिवारों तक अनाज पहुंच रहा है कि नहीं इसकी मॉनिटरिंग में अभी सुधार की जरूरत है। (First News live)
09 फ़रवरी 2012
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें