राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल (एनएफएसबी) 2011 के तहत देश के 75 फीसदी ग्रामीण और 50 फीसदी शहरी आबादी को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराई जाएगी। लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस)के तहत इस लाभ को हासिल करने वालों को प्राथमिकता वाले और आम परिवारों के तहत वर्गीकृत किया जाएगा।
खाद्य सुरक्षा बिल के तहत ग्रामीण इलाके की 46 और शहरी आबादी की 28 फीसदी आबादी कवर हो जाएगी। प्राथमिकता के तहत आने वाली आबादी के तहत हर परिवार में प्रत्येक व्यक्ति को हर महीने सात किलोग्राम खाद्यान्न मिलेगा।
जबकि आम परिवार के दायरे में आने वालों को हर महीने तीन किलोग्राम अनाज दिया जाएगा। चावल तीन रुपये, गेहूं दो और एक रुपये प्रति किलो के हिसाब से खाद्यान्न दिया जाएगा। आम परिवार के दायरे में आने वालों को गेहूं और मोटे अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य के पचास फीसदी से ज्यादा का भुगतान नहीं करना होगा।
ऊपर बताई गई श्रेणियों के अलावा एनएफएसबी के तहत महिलाओं और बच्चों के लिए चलाए जाने वाले सामाजिक कार्यक्रमों को समाहित करके इन्हें वैधानिक दर्जा दे दिया गया है। इनमें मिड डे मिल स्कीम और समेकित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) शामिल हैं। स्थानीय आंगनबाड़ी के तहत छह महीने से लेकर छह साल तक के बच्चों को पोषण मुहैया कराने का प्रावधान पहले से है।
इसी तरह छुट्टियों के दिनों को छोड़कर स्थानीय निकायों, सरकारों के और सरकार समर्थित स्कूलों के छह से चौदह साल के बच्चों को मिड डे मिल के तहत भी पोषण मुहैया कराया जाता है। तीसरी श्रेणी वंचितों, बेघर, आपदा और आपातकालीन परिस्थितियों से ग्रस्त इलाकों और भुखमरी से ग्रसित लोगों की है। इन लोगों को भी मुफ्त या वाजिब दाम पर भोजन मुहैया कराने का भी प्रावधान है।
एनएफएसबी में पीडीएस, वर्गीकरण और अर्हता पर काफी जोर दिया गया है और मेरे ख्याल से इनका विश्लेषण जरूरी है। इस बिल का सबसे अहम पक्ष यह है कि यह भोजन के सार्वभौम अधिकार को नकारने पर कानूनी मुहर लगा देता है।
अब तक भारत सरकार की ओर से बीपीएल श्रेणी के लोगों को स्कीमों के तहत भोजन मुहैया कराने के कदम को कानूनी अधिकार नहीं था। एनएफएसबी इन स्कीमों को इसके कवरेज पर लगे प्रतिबंधों को हटाए बिना इसे एक कानूनी दर्जा मुहैया करा देता है। लेकिन भोजन एक ऐसी चीज है, जिसे लक्षित नहीं किया जा सकता है।
बुजुर्ग हों या युवा या फिर श्रमिक और गैर-श्रमिक, स्वस्थ और बीमार, धनी और गरीब सभी को जीवित रहने के लिए भोजन चाहिए। सार्वभौमिकता के सिद्धांत के तहत हर किसी को भोजन मुहैया कराया जाना चाहिए। लेकिन एनएफएसबी के तहत सार्वभौमिकता के इस सिद्धांत को शामिल नहीं किया गया है। यहां यह जानना जरूरी है कि सार्वभौमिक अधिकार के तहत भोजन का अधिकार की अवधारणा भारत में नहीं है।
तमिलनाडु सरकार सार्वभौैम पीडीएस का इस्तेमाल करती है। यहां एपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर) और बीपीएल जैसी श्रेणियां नहीं हैं। पीडीएस पर वाधवा कमेटी की सुप्रीम कोर्ट को सौंपी रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य के पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम में कोई निजी कारोबारी शामिल नहीं है। केरल के पीडीएस पर भी जस्टिस वाधवा की रिपोर्ट में माना गया है कि यूनिवर्सल पीडीएस लागू किए जाने की वजह से यह अच्छे तरीके से काम कर रहा है।
एनएफएसबी भारतीय आबादी में मौजूद गरीबों और कमजोर तक पहुंचने के सिद्धांत पर जोर देता है। खाद्य सुरक्षा की डिलीवरी प्राथमिकता और आम श्रेणी के सफल वर्गीकरण पर निर्भर करती है। साथ ही यह इस पर भी जोर देती है कि लोग इस वर्ग के तहत लाभ पाने की अपनी योग्यता साबित करें। कई लोगों का कहना है कि बिल लोगों की ओर से इस लाभ को हासिल करने के लिए योग्यता साबित करने के तरीकों पर जोर नहीं देता।
बिल यह नहीं बताता कि लोग किस तरीके से अपनी योग्यता साबित करें। हालांकि इस तर्क से इस बात पर जोर पड़ता है कि अगर प्राथमिकता वालों और आम वर्ग के लोगों का सही वर्गीकरण हो जाए तो बिल सफल हो सकता है। यह राज्य की ओर से सामाजिक कल्याण या खाद्य सुरक्षा के लिए अपने लोगों को लक्षित करने के सिद्धांत पर सवाल नहीं उठाता है।
दरअसल लोगों को किसी कल्याण या सामाजिक योजना के लिए लक्षित करना राज्य की विकास नीति या नजरिये से निकले रेजिजुअल सामाजिक पॉलिसी का उदाहरण है। इस पॉलिसी के तहत कमजोर आर्थिक वर्ग के लोगों या वंचितों की सामाजिक जरूरतें पूरी करने के लिए राज्य के हस्तक्षेप को सीमित कर दिया जाता है। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए बाजार के सिस्टम को प्राथमिकता दी जाती है। जबकि सामाजिक नीतियों के बारे में सांस्थानिक नजरिये से देखें तो राज्य के सभी नागिरकों को सार्वभौम अधिकार के तहत सामाजिक सेवाएं मिलनी चाहिए।
बहरहाल, सामाजिक और कल्याणकारी योजनाओं का लाभ हासिल करने वालों को लक्षित करने के असर पर गंभीर अध्ययन नहीं हुआ है लेकिन यह लोगों का एक ऐसा वर्ग बना देता है, जिसे कुछ सहानुभूति और कुछ निंदा के नजरिये से देखा जाता है। इस तरह यह दो लोगों का समूह बना देता था। एक जो इन सामाजिक और कल्याणकारी कार्यक्रमों का लाभ लेते हैं और दूसरे वो जो इसमें योगदान देते हैं।
उन्हें आप कथित कर देने वाले कह सकते हैं जो सरकार पर इस तरह का लाभ लेने वालों की तादाद में कटौती करने या फिर लाभ का आकार कम करने का दबाव डालते हैं। चूंकि यह लॉबी देश के अमीर वर्ग के लोगों की होती है और मीडिया से उनका अच्छा कनेक्शन होता है।
इसलिए लाभ लेने वालों के खिलाफ अभियान चलाना आसान होता है। एनएफएसबी को लक्षित कार्यक्रम बनाने की वजह से एक अहम हिस्सा इसके दायरे से बाहर हो गया है। ये पोषण कार्यक्रमों का लाभ लेने वाले बच्चों का वर्ग है। इसने बाल श्रम (नियमन और प्रतिबंध) 1986 और शिक्षा के अधिकार कानून, 2008 के तहत बच्चों की उम्र निर्धारित करने वाली गलती ही दोहराई है। दोनों कानूनों में सिर्फ 14 साल के कम उम्र के बच्चों पर विचार किया गया है।
इस तर्क में कोई दम नहीं है कि नौवीं और दसवीं क्लास में पढऩे वाले बच्चों को पोषण की जरूरत नहीं है। इन दोनों कानूनों में यह माना गया कि आठवीं के बाद बच्चे अपने भोजन की व्यवस्था खुद कर लेंगे। इस तरह के कानूनों की वजह से आठवीं के बाद ड्रॉपआउट की तादाद बढऩे की आशंका बड़ी हो जाती है।
और आखिर में यही कहा जा सकता है कि यूपीए सरकार गरीबी और सामाजिक विकास के लिए एक ऐसा बिल ला रही है जो लक्षित समूह तैयार करने में विश्वास करती है। यूपीए सरकार ने सार्वभौमिक अधिकार के तौर पर कल्याणकारी योजनाओं का लाभ हर किसी तक पहुंचाने का एक सुनहरा मौका खो चुकी है। इस तरह के कदमों से भारतीय संविधान में हर किसी तक सामाजिक न्याय पहुंचाने के लक्ष्य से हम और दूर हो जाएंगे।
जे जॉन
लेखक लेबर फाइल के संपादक हैं। खाद्य सुरक्षा बिल की कमी बताता उनका लेख। (Business Bhaskar)
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