January 05, 2011
किसी भी जिंस को किस आधार पर उत्पाद का दर्जा मिलता है? इस प्रश्न का उत्तर खोजना आसान नहीं है। उदाहरण के तौर पर लौह अयस्क, कोयला और बिजली से इस्पात का निर्माण किया जाता है। जबकि दुनिया भर के बाजारों में ये सभी जिंस की तरह ही खरीदे-बेचे जाते हैं। यहां तक कि इस्पात के मामले में भी यह बात सही साबित हुई है कि यह कमोडिटी के अलावा और कुछ नहीं है। हमारे देश की कुछ बड़ी इस्पात निर्माता कंपनियां जिनमें टाटा स्टील सर्वप्रमुख हैं, अपने बिजनेस में इस्पात के कमोडिटी हिस्से को घटा रही हैं जबकि ग्राहकों की मांग के अनुरूप इसके डिजाइन पक्ष पर अधिक जोर दिया जा रहा है। यही स्थिति एल्युमीनियम के साथ भी है। एल्युमीनियम से कई तरह के उत्पाद तैयार किए जाते हैं जबकि सभी के सभी जिंस के तहत आते हैं। इसी तरह तांबे को तो जिंस माना ही जाता है जबकि इससे तैयार कैथोड और वायर रोड स्टेज भी जिंस के अंतर्गत आते हैं। लेकिन आप कार्पेट के बारे में क्या कहेंगे? इसमें कलाकारी और डिजाइन किए गए कार्पेट को कलाकार ऊंचे दामों पर बेचते हैं। और इसे अमीर लोग इसके कला पक्ष को देखते हुए शौकिया तौर पर इसकी महंगी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर सदबी और क्रिस्टी जैसीे नीलामी कंपनियां कालीन और कार्पेट के लिए अलग से खंड क्यों रखते। या फिर कहें कि नवंबर 2005 में पूर्वी फारस में सफविड कार्पेट की नीलामी पर इसे 20.32 लाख डॉलर की भारी कीमत कैसे मिलती। लेकिन हम यहां इस तरह के कार्पेट के दामों की चर्चा नहीं कर रहे हैं। हम तो यहां केवल जूट, ऊन, नायलॉन और कमोडिटी से तैयार कार्पेट के बारे बात कर रहे हैं। कार्पेट के निर्यात के मामले में भारत सबसे बड़ा देश है। खास बात यह है कि निर्यात में सबसे ज्यादा योगदान हस्तनिर्मित कार्पेट और कालीन का है। जिसमें आकर्षक कलाकारी की गई होती है और विदेशों में इसकी भारी मांग भी है। हालांकि विदेशी बाजारों में आजकल चीन में मशीन द्वारा तैयार कार्पेट की बाढ़ आ गई है। जिसने भारतीय कलीन की मांग को कुछ हद तक तोड़ा है। चूंकि यह हस्तनिर्मित कालीन की तुलना में कुछ हद तक आकर्षक और कम दाम का होने की वजह से विदेशी ग्राहकों का इस ओर झुकाव बढ़ रहा है। आश्चर्यजनक रूप से चीन ही नहीं ईरान व अन्य देशों में भी मशीन निर्मित कालीन विदेशी बाजारों में दस्तक दे रही है। इससे यही लग रहा है कि कार्पेट उद्योग एक उभरते उद्योग के रूप में दुनिया के सामने आ रहा है। इसमें खास बात यह है कि वैश्विक स्तर पर कार्पेट इंडस्ट्री में भारत, चीन, पाकिस्तान, ईरान आदि एशियाई देशों का दबदबा कायम है। यही कारण है कि सभी देशों ने मिलकर संयुक्त रूप से कार्पेट फेयर (कार्पेट मेला) का आयोजन किया है। सौभाग्य की बात है कि इस तरह के संयुक्त मेले की पहली मेजबानी भारत को ही मिली है। दिल्ली में मार्च 2011 में कार्पेट मेले का आयोजन होना है जिसमें दुनिया के आकर्षक कार्पेट की प्रदशर्नी लगाई जाएगी। इसके बाद पेइचिंग में कार्पेट मेले का आयोजन करने की योजना है। इसका उद्देश्य कार्पेट उत्पादों को लेकर लोगों में जागृति पैदा करना है। पश्चिमी देशों में वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते पिछले एक-दो सालों में वहां इसकी मांग में गिरावट आई थी। यही कारण है कि पिछले साल भारत से कार्पेट का निर्यात करीब 12 फीसदी गिरकर 52.5 लाख डॉलर रहा था। चूंकि देश का 70 फीसदी कार्पेट निर्यात अमेरिका और यूरोपीय देशों को किया जाता है, ऐसे में वहां मंदी की वजह से पिछले साल कार्पेट निर्यात को भारी क्षति पहुंची थी। इसको देखते हुए कालीन निर्यात संवद्र्घन परिषद ने नए बाजारों की तलाश शुरू कर दी है। इसका असर अभी से ही दिखने लगा है। इस साल अब तक कार्पेट निर्यात में करीब 20 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो चुकी है। आश्चर्यजनक रूप से घरेलू बाजार में भी कालीन की मांग अभी भी कुल निर्यात के 10वां हिस्से से भी कम है। माना जा रहा है कि इस तरह की प्रदर्शनी या कार्पेट मेले से घरेलू स्तर पर भी उपभोक्ताओं में जागरूकता आएगी और आने वाले समय में घरेलू बाजार में कालीन की मांग में तेजी से वृद्घि होगी। हम यहां बड़े कार्पोरेट्स हाउस में उपयोग होने वाले कार्पेट की बात कर रहे हैं। देखा जा रहा है कि पश्चिमी देशों की तुलना में उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में कर्पेट की मांग में बढ़ोतरी हुई है। यहां बड़े पैमाने पर सतह को ढकने वाले कार्पेट की की मांग बढ़ी है। (BS Hindi)
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