मल्टीब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश को कैबिनेट की मंजूरी के बाद अब सरकार इस मुहिम में जुट गई है कि कैसे सभी लोग इस निर्णय को मानें, क्योंकि मल्टीब्रांड में निवेश तभी आएगा जब इस पर राजनीतिक एक राय होगी और राज्य कंपनियों को स्टोर खोलने की इजाजत देंगे।
सरकार के दिग्गज बार-बार यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि इससे मझोले उमक्रमों, किसानों और उपभोक्ताओं को कैसे फायदा होगा। लेकिन सरकार की इस कथनी और हकीकत में जमीन-आसमान का अंतर है। इसी असलियत को उजागर करने के लिए हम इसके पीछे छिपे कुछ मिथकों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं।
मिथक 1 : रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) से फंड और कंपनियां भारत में भारी मात्रा में निवेश करेंगी।वास्तविकता : बहुराष्ट्रीय रिटेल कंपनियां सिर्फ इसलिए भारत दौड़ी नहीं आएंगी कि सरकार ने मल्टीब्रांड में उन्हें निवेश की इजाजत दे दी है या सिंगल ब्रांड रिटेल में उनके निवेश की सीमा बढ़ा दी है। वे तब तक नहीं आएंगी जब तक इस बात पर राजनीतिक एक राय नहीं होती कि वे यहां खुलेआम धंधा कर सकेंगी। दुनिया की सबसे बड़ी रिटेल कंपनी वालमार्ट का भारती ग्रुप के साथ साझा उपक्रम है।
भविष्य में वालमार्ट भारतीय प्रमोटर की हिस्सेदारी खरीदकर इस उपक्रम में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाएगी। प्रमोटर अपनी हिस्सेदारी बेचकर लाभ कमाने की कोशिश करेंगे। इसमें निवेश भी ज्यादा नहीं होगा। अनुमान है कि अगले तीन से पांच साल में वालमार्ट अधिकतम 25 करोड़ डॉलर का निवेश करेगी। कारफूर और टेस्को जैसी कंपनियों ने अब तक भारत में निवेश नहीं किया है, ना ही उनका कोई साझा उपक्रम है। वे यह देखने को बाद ही निवेश करेंगी कि उन्हें हर प्रदेश में हर जगह मल्टीब्रांड रिटेल स्टोर खोलने की इजाजत है।
मिथक 2 : एफडीआई से किसानों को उत्पाद के अच्छे दाम मिलेंगे।वास्तविकता : कॉरपोरेट लॉबिस्ट की तरफ से सबसे बड़ा तर्क यही दिया जा रहा है कि इस कदम से किसानों को फायदा होगा। सच्चाई यह है कि बिचौलियों और अक्षम सप्लाई चेन की वजह से किसानों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है।
भारत में कृषि उत्पादों से जुड़े नियम काफी पुराने हैं और इसी वजह से बिचौलिए भी मौजूद हैं। संगठित रिटेल से इस समस्या का समाधान नहीं होगा। इसके अलावा होलसेल खरीदार कभी इस दिशा में काम नहीं करते कि छोटे विक्रेताओं को अच्छी कीमत मिल सके। अधिक कीमत पर खरीद संगठित रिटेल के मॉडल का आधार नहीं है और ऐसा हो भी नहीं सकता।
मिथक 3 : संगठित रिटेल में एफडीआई से महंगाई कम होगी।वास्तविकता : यह मिथक ग्लोबल थिंक टैंक की तरफ से आया है और भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने भी इसकी पुष्टि की है। भारत खाद्य महंगाई की समस्या से जूझ रहा है। ग्लोबल सप्लाई चेन से यहां खाद्य वस्तुओं का आयात नहीं होता। खाद्य पदार्थ स्थानीय स्तर पर खरीदे-बेचे जाते हैं। आप अफ्रीका से सब्जियां नहीं आयात कर सकते।
दूसरी बात, अगर संगठित रिटेल महंगाई को काबू में कर सकता तो वह ऐसा कर चुका होता। भारतीय रिटेल बाजार में इनकी हिस्सेदारी करीब दस फीसदी है। तीसरी बात, अगर ग्लोबल सप्लाई चेन के जरिए भारत में चीन में बने उत्पाद आएंगे तो इससे भारत की एसएमई बर्बाद हो जाएंगी।
मिथक 4 : मैन्युफैक्चरर्स को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आने में मदद मिलेगी।वास्तविकता : विदेशी रिटेलर्स दावा करते हैं कि वे अपने ग्लोबल ऑपरेशन के लिए स्थानीय स्तर पर उत्पाद खरीदेंगे और इससे भारतीय निर्माताओं को फायदा होगा। अगर यह सच है तो एक अमेरिकी कंपनी होने के नाते वालमार्ट के ग्लोबल ऑपरेशन से अमेरिका के निर्माताओं को फायदा क्यों नहीं हुआ। विदेशी रिटेलर्स की सबसे अधिक आलोचना इस बात के लिए की जाती है कि वे छोटी और मझोली कंपनियों को नष्ट कर देते हैं।
ये रिटेलर ज्यादातर उत्पाद चीन से खरीदते हैं और इस तरह इन्होंने पूरी दुनिया में एसएमई मैन्युफैक्चरर्स को दरकिनार कर दिया है। भारत में रिटेल सेक्टर को खोलने के बाद एसएमई के लिए यही सबसे बड़ा जोखिम होगा। यह एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से कई देश अपने यहां विदेशी रिटेल कंपनियों को प्रवेश की इजाजत नहीं दे रहे हैं। जापान में अभी तक विदेशी रिटेलर्स नहीं हैं। सिंगल ब्रांड रिटेल के मामले में भी उसके शर्तें काफी कठोर हैं।मिथक 5 : एफडीआई से भारतीय उपभोक्ताओं को फायदा होगा।वास्तविकता : विदेशी रिटेल बिजनेस मॉडल बड़े रिटेल स्टोर फॉर्मेट पर आधारित है। ये स्टोर 50 हजार से पांच लाख वर्ग फुट तक के होते हैं। यह फॉर्मेट भारत के बड़ी आबादी वाले शहरों में सफल नहीं हो सकता। यही वजह है कि भारती ने सिर्फ छोटे स्टोर खोले हैं। उसके बड़े स्टोर की संख्या बहुत कम है। बड़े स्टोर में ऊर्जा की खपत बहुत होती है। यह जरूरी है कि लोग यहां बड़ी संख्या में खरीदारी के लिए आएं। यह अमीरी और तेल पर निर्भरता वाली जीवनशैली को बढ़ावा देता है।
जीने और शॉपिंग करने का यह अमेरिकी अंदाज है, भारतीय नहीं। किसी भी राज्य सरकार को ऐसे स्टोर की इजाजत नहीं देनी चाहिए क्योंकि लंबे समय में वे राज्यों पर ही बोझ बनेंगे। विदेशी रिटेलर्स को इजाजत देने से पहले राज्यों को उनकी योजनाओं पर बारीकी से ध्यान देना चाहिए। यूरोप में शहर के दायरे में बड़े फॉर्मेट वाले स्टोर खोलने की इजाजत नहीं है। कई देश तो इसकी बिल्कुल इजाजत नहीं देते। (Business Bhaskar)
28 नवंबर 2011
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