30 नवंबर 2011
उत्तर प्रदेश में करीब 20 फीसदी डिस्टिलरी बंद
उत्तर प्रदेश सरकार के राज्य उत्पाद शुल्क विभाग द्वारा नियमित छापेमारी तेज किए जाने से करीब 20 फीसदी डिस्टिलरी ने अपनी इकाइयां बंद कर दी हैं। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 55 डिस्टिलरी चालू स्थिति में हैं, जिनकी स्थापित क्षमता 11.09 लाख टन है। इनमें से ज्यादातर निजी क्षेत्र की हैं। उत्तर प्रदेश शुगर मिल्स एसोसिएशन के अध्यक्ष एस एल गुप्ता ने कहा कि सरकार ने गन्ना पेराई की पूरी प्रक्रिया में कुछ छोटी गड़बडिय़ां होने का पता चलने पर करीब 20 फीसदी इकाइयों को क्लोजर नोटिस भेजा है। लखीमपुर, मेरठ, बलरामपुर और सीतापुर में स्थित ज्यादातर इकाइयां बंद हैं।डिस्टिलरीज रेक्टिफाइड स्पिरिट का उत्पादन करती हैं, जो चीनी का एक उपोत्पाद होता है और इसे पीने योग्य एल्कोहल और एथेनॉल के उत्पादन के लिए शोधित किया जाता है। इन इकाइयों पर शीरे का संग्रह करने पर मात्रात्मक सीमा लगी हुई है। उत्पाद शुल्क विभाग द्वारा कार्रवाई करने से पश्चिम उत्तर प्रदेश की कुछ इकाइयां बंद हो गई हैं। इसके अलावा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा भी इन इकाइयों की नियमित जांच की जा रही है। एक प्रमुख चीनी उत्पादक कंपनी के अधिकारी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि 'उत्पाद शुल्क विभाग ने कुछ डिस्टिलरीज के खिलाफ कार्रवाई की है।' सूत्रों के अनुसार हाल ही में उत्पाद शुल्क विभाग द्वारा की गई कार्रवाई से कम से कम तीन डिस्टिलरीज बंद हुई हैं, जिनमें से प्रत्येक मवाना, बलरामपुर और बजाज हिंदुस्तान समूह से संबंधित है। एक अन्य प्रमुख चीनी उत्पादक कंपनी के अधिकारी ने कहा, 'डिस्टिलरीज पर दबाव बढ़ाने के लिए उत्पाद शुल्क विभाग की यह सालाना गतिविधि है।' उन्होंने कहा कि मेरठ डिविजन की डिस्टिलरीज के खिलाफ भी इसी तरह की कार्रवाई की जा रही है। वहीं, चीनी मिलों द्वारा उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार द्वारा राज्य परामर्श मूल्य (सैप) तय करने के तरीके को चुनौती देते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है और इसकी सुनवाई तीसरी बार टली है। मिलों को उम्मीद है कि अदालत 2006-07 की मिसाल सामने रखेगा, जब उत्तर प्रदेश सरकार ने सैप 105 रुपये से बढ़ाकर 125 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया था। तब अदालत ने अंतरिम राहत देते हुए गन्ने की कीमतें 110 रुपये प्रति क्विंटल तय कर दी थी। मिलों को उम्मीद है कि इस बार भी अदालत से उन्हें ऐसी ही अंतरिम राहत मिलेगी। (BS Hindi)
29 नवंबर 2011
डॉलर लगातार मजबूत होने से केमिकल के मूल्य में बढ़ोतरी
एफ डीआई ने मुश्किलें बढ़ाईं
नीतिगत मसलों पर पिछले काफी समय से छाई सुस्ती को दूर करने के लिए सरकार ने व्यापक सुधार कार्यक्रम की शुरुआत कर दी है। लेकिन दिलचस्प है कि सुधार कार्यक्रम की शुरुआत के महज तीन दिन बाद ही सरकार चौतरफा आलोचना का शिकार हो रही है। हाल ही में बहुब्रांड खुदरा क्षेत्र में 51 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने के मसले पर सरकार विपक्षी दल ही नहीं बल्कि प्रमुख सहयोगियों और बाहर से समर्थन देने वाले दलों की आलोचना का भी शिकार हो रही है। लेकिन प्रधानमंत्री आलोचकों को इस बात के लिए राजी करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं कि नीति बिल्कुल सही है और ये सुधार छोटी अवधि के लिए नहीं हैं।इस मसले पर संसद में जारी गतिरोध समाप्त करने की कोशिशों के तहत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सभी दलों की बैठक बुलाई है, जो आमतौर पर नहीं बुलाई जाती है। इस बीच वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने भी अपनी तरफ से विपक्षी दलों को मनाने की कवायद शुरू कर दी है। शर्मा ने कहा है कि खुदरा में एफडीआई को तभी अनुमति मिलेगी, जब विदेशी कंपनियां अपनी 30 फीसदी खरीद देश के सूक्ष्म एवं लघु उद्योग (एमएसई) से करेंगी। दिलचस्प है कि दो दिन पहले ही इस मसले पर शर्मा द्वारा दिए गए कैबिनेट नोट में कहा गया था कि विदेशी कंपनियों को उनकी 30 फीसदी खरीद किसी भी देश के एमएसई से करनी होगी और इसमें भारतीय एमएसई के बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा गया था। खुदरा में एफडीआई को अनुमति देने के सरकारी फैसले के बाद शर्मा आज नुकसान की भरपाई करने के मूड में दिखे। कंपनियों द्वारा खरीद पर रवैया बदलने के अलावा उन्होंने कई सांसदों को पत्र लिखकर इस नीति के फायदों से अवगत कराया। सप्ताहांत के दौरान वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने राष्ट्रीय दैनिक अखबारों में खुदरा में एफडीआई के फायदों पर पूरे पृष्ठ के विज्ञापन भी जारी किए।हालंाकि सोमवार को इस मसले पर नकारात्मक राजनीतिक मनोभावों के कारण रिटेल कंपनियों के शेयरों में गिरावट दर्ज की गई। लेकिन सरकार के सूत्रों ने एफडीआई नीति के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाते हुए स्पष्ट कहा कि वह इसे वापस नहीं लेगी। बहु-ब्रांड खुदरा में 51 फीसदी एफडीआई और एकल ब्रांड खुदरा में 100 फीसदी एफडीआई पर हुए कैबिनेट फैसले पर अभी अधिसूचना जारी नहीं की गई है। एक मंत्री ने बताया कि सरकार खुदरा एफडीआई नीति में 30 फीसदी खरीद प्रावधान में ही बदलाव कर सकती है, इससे ज्यादा नहीं। अधिसूचना में स्पष्ट कहा जाएगा कि विदेशी कंपनियों को देसी एमएसई से ही अपनी 30 फीसदी खरीद करनी होगी, न कि दुनिया के किसी और देश के एमएसई से। केंद्र सरकार ने शुक्रवार को ही देश के बहु ब्रांड खुदरा कारोबार में एफडीआई को अनुमति देने का राजनीतिक रूप से संवेदनशील फैसला किया था। अभी तक इस श्रेणी में स्थानीय किराना स्टोरों का दबदबा है। उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले लिए गए इस फैसले पर कांग्रेस में भी मतभेद हैं। उत्तर प्रदेश में तो सरकार के इस फैसले के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रदर्शन भी शुरू हो चुके हैं।एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने बताया कि खुदरा क्षेत्र में निवेश करने से पहले विदेशी कंपनियां इन राज्यों में चुनाव संपन्न होने का इंतजार करेंगी। जबकि विपक्षी दलों ने साफ कह दिया है कि जब तक सरकार इस फैसले को वापस नहीं लेती है, तब तक वे संसद की कार्रवाई नहीं चलने देंगे। हालांकि विपक्ष द्वारा खुदरा में एफडीआई पर स्थगनादेश लाने से सरकार के गिरने की आशंका नहीं है। (BS Hindi)
बढ़ती आयात लागत से महंगा हो सकता है खाद्य तेल
आयात की लागत में इजाफा होने से खाद्य तेल की कीमतें अगली तिमाही के आखिर तक 10 फीसदी बढऩे की संभावना है। डॉलर के मुकाबले रुपये में आई भारी गिरावट ने इस जिंस को महंगा बना दिया है, जिसकी डिलिवरी अगले दो महीने में होनी है।भारत 155 लाख टन (अनुमानित) खाद्य तेल की कुल जरूरतों का करीब 45 फीसदी आयात करता है क्योंकि इसकी खपत में बढ़ोतरी की रफ्तार के मुकाबले घरेलू उत्पादन करीब-करीब स्थिर है। यानी घरेलू उत्पादन खपत में बढ़ोतरी के साथ-साथ चलने में नाकाम रहा है। पिछले कुछ सालों से खाद्य तेल की खपत सालाना 6-7 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है।वैश्विक स्तर पर खाद्य तेल में हुई बढ़ोतरी के चलते सरसों तेल की हाजिर कीमतें पिछले तीन महीने में 8.37 फीसदी बढ़ी हैं। 26 नवंबर को मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज में सरसों तेल की कीमतों में बढ़ोतरी दर्ज की गई और इसकी मौजूदा कीमतें 699.30 रुपये प्रति 10 किलोग्राम हैं, जबकि 2 सितंबर को कीमतें 645.30 रुपये प्रति 10 किलोग्राम थीं। इस अवधि में हालांकि रुपये में 14.13 फीसदी की भारी गिरावट आई है और डॉलर के मुकाबले तीन महीने के पहले के 45.79 के मुकाबले यह शुक्रवार को 52.26 पर था।भारत में पाम तेल के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक गोदरेज इंडस्ट्रीज लिमिटेड के प्रबंध निदेशक नादिर गोदरेज ने कहा - रुपये में आई गिरावट से घरेलू रिफाइनरी को भारी झटका लगा है क्योंकि भारतीय मुद्रा में आई गिरावट ने उस हद तक आयात उन्मुख जिंसों की कीमतें बढ़ाने में मदद की है। ऐसे में उपभोक्ताओं पर इस बढ़ोतरी का भार डालने में अक्षम स्वतंत्र रिफाइनरियां बंद होने के कगार पर पहुंच जाएंगी।मुंबई में 10 से 13 दिसंबर तक चलने वाले चार दिवसीय कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए बेसिक केमिकल, फार्मास्युटिकल ऐंड कॉस्मेटिक्स एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल के चेयरमैन सतीश वाघ ने कहा - रुपये में आई गिरावट के साथ कॉस्मेटिक, साबुन और सर्फ आदि उत्पादों की लागत बढ़ेगी। इस कार्यक्रम का आयोजन ऑयल टेक्नोलॉजी एसोसिएशन ऑफ इंडिया और इंडियन होम ऐंड पर्सनल केयर इंडस्ट्री एसोसिएशन कर रहा है और इसमें दुनिया भर के करीब 500 प्रतिभागियों के हिस्सा लेने की संभावना है।रिफाइंड सरसों तेल की कीमतें वाशी एपीएमसी में शनिवार को 720 रुपये प्रति 10 किलोग्राम थीं, जबकि तीन महीने पहले यह 695 रुपये प्रति 10 किलोग्राम के भाव पर बिक रहा था, यानी इसमें 3.6 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। सोमवार को भी सरसों तेल में मामूली बढ़ोतरी दर्ज की गई। दिल्ली में यह 20 रुपये बढ़कर 1075-1175 रुपये प्रति टिन (16 किलोग्राम) पर पहुंच गई। इसकी मांग हालांकि कम रही क्योंकि इसके विकल्प की काफी ज्यादा आपूर्ति को देखते हुए स्टॉकिस्टों ने बाजार से हाथ खींच लिया।खरीफ की तिलहन की पेराई इन दिनों जोरों पर है। ऐसे में रिफाइंड सोया तेल, मूंगफली तेल और तिल के तेल की आपूर्ति पिछले एक पखवाड़े से लगातार बढ़ रही है। इसके परिणामस्वरूप इन तेलों की कीमतें घटी हैं जबकि विशेषज्ञों को लगता है कि एक महीने के अंदर इसकी कीमतें बढ़ेंगी।करगिल इंडिया लिमिटेड के प्रबंध निदेशक (खाद्य तेल) सिराज चौधरी के मुताबिक, रुपये में आई कमजोरी ने खाद्य तेल की रिफाइनिंग करने वालों को मुश्किल में डाल दिया है। लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि बाजार की रणनीति नहीं बदली है। आयात पर आश्रित यह जिंस घरेलू बाजार में महंगी हो गई है और आने वाले दिनों में ऐसा रुख जारी रहने की संभावना है।पिछले तेल वर्ष (नवंबर 2010-अक्टूबर 2011) में भारत में कुल 86.67 लाख टन खाद्य तेल का आयात हुआ, जो इससे पूर्व वर्ष के 92.41 लाख टन के मुकाबले करीब 6 फीसदी कम है। इसमें कच्चे पाम तेल की हिस्सेदारी करीब 60 लाख टन की रही। चूंकि गोदरेज इंटरनैशनल के निदेशक दोराब मिस्त्री ने भविष्यवाणी की है कि इस साल कच्चे पाम तेल का आयात 25 फीसदी बढ़ेगा, लिहाजा आयात पर आश्रित यह जिंस इसी अनुपात में आगे बढ़ेगा।सामान्य तौर पर खाद्य तेल की रिफाइनरी चलाने वाले कच्चे पाम तेल का आयात करते हैं और देश में इसकी रिफाइनिंग करते हैं। इससे खाने लायक पाम तेल का उत्पादन होता है और यह दूसरे तेलों में मिलावट के लिए उपलब्ध होता है।सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन के कार्यकारी निदेशक बी वी मेहता ने कहा - खाद्य तेल की रिफाइनिंग करने वाले कीमतों में बढ़ोतरी और रुपये में गिरावट का असर एक सीमा तक ही झेल पाएंगे और उसके बाद वे इसका भार उपभोक्ताओं पर डाल देंगे। उन्होंने कहा - अगर यह रुख जारी रहता है तो खाद्य तेल की कीमतें आगे और बढ़ेंगी। मेहता ने हालांकि कहा कि पेराई का सीजन जोरों चलने के चलते लिहाजा मौसमी खाद्य तेल की कीमतें घटी हैं। सोमवार को मूंगफली तेल की कीमतें 16.67 फीसदी घटकर 850 रुपये प्रति 10 किलोग्राम पर आ गईं जबकि रिफाइंड सोयाबीन व सूरजमुखी की कीमतें क्रमश: 3.72 व 3.03 फीसदी गिरकर 621 रुपये व 640 रुपये प्रति 10 किलोग्राम रहीं। (BS Hindi)
कपास खरीद में हो सकती है देरी
एक ओर जहां निकाय चुनावों के बाद महाराष्ट्र कपास उत्पादकों के लिए प्रोत्साहन के प्रस्ताव की समीक्षा करेगा वहीं, भारतीय कपास निगम (सीसीआई) ने अभी तक कपास की खरीद शुरू नहीं की है, जबकि नवंबर का महीना बीत चुका है। निगम की कीमतों पर इंतजार करो और देखो (वेट ऐंड वॉच) की नीति अपनाने से खरीदारी में और देर हो सकती है। अंतरराष्ट्रीय और घरेलू कीमतों में रोजाना गिरावट रही है, लेकिन घरेलू कीमतें अब भी सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से ऊपर बनी हुई हैं। इस बारे में जानकारी रखने वाले एक स्रोत ने कहा कि 'पिछले साल हमने रिकॉर्ड कीमतों पर कपास की खरीद की थी और किसानों को फायदा पहुंचाने का यह वाणिज्यिक निर्णय था। उसी तरह इस साल भी हम एक वाणिज्यिक निर्णय के रूप में खरीद शुरू करने से पहले बाजार कीमतों के स्थिर होने का इंतजार करेंगे। जब कीमतों के नीचे आने के संकेत दिखाई दे रहे हैं तो इस समय ऊंची कीमतों पर खरीदारी करना उचित नहीं होगा। इसके अलावा खरीदारी कभी भी एमएसपी से नीचे नहीं होगी। ऊंची कीमतों पर फसल की खरीद करने की हमारे लिए कोई वजह नहीं है।.स्र्रोत ने कहा, 'इससे खरीदारी में देरी हो सकती है, लेकिन पहले कीमतों का कम से कम एमएसपी के आसपास स्थिर होना जरूरी है। वहीं, कपास उत्पादक हेक्टेयर के हिसाब से प्रोत्साहन मिलने की उम्मीद में अपना माल नहीं बेच रहे हैं, जिसके बारे में विचार करने का महाराष्ट्र सरकार ने आश्वासन दिया है। दूसरी ओर कपास निर्यातक जब तक बिक्री नहीं कर रहे हैं तब तक उन्हें अच्छा ऑर्डर और खरीदार नहीं मिलता, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मांग की स्थिति बहुत अधिक उत्साहजनक नहीं है।. इससे चलते आपूर्ति बढ़ रही है और इसकी कोई वजह नहीं है कि सीसीआई को ऊंची कीमतों पर खरीदारी क्यों करनी चाहिए। यहां तक की बिनौले की कीमतें नीचे आ रही हैं।. (BS Hindi)
विपक्ष को पत्र भेज एफडीआई पर मनाने की जुगत
लोकसभा और राज्यसभा सदस्यों को भेजे पत्र में शर्मा ने कहा है, ‘मैं इसे अपना कर्तव्य समझता हूं कि कुछ राजनीतिक दलों ने जो आशंकाएं जताई हैं, उन पर स्थिति स्पष्ट करूं।’ शर्मा ने वरिष्ठ भाजपा नेता एवं लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, राज्य सभा में नेता विपक्ष अरुण जेटली, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी, कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद डी. राजा, राष्ट्रीय जनता दल पार्टी प्रमुख लालू प्रसाद यादव, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को पत्र भेजकर स्थिति स्पष्ट करने का प्रयास किया।
शर्मा ने कहा कि पार्टियों को संकीर्ण राजनीति से उपर उठकर भारतीय राजनीतिक प्रणाली को मजबूत बनाना चाहिए। हालांकि, उन्होंने कहा कि निर्णय लेने से पहले व्यापक विचार विमर्श किया गया। बहुब्रांड खुदरा कारोबार में 51 प्रतिशत एफडीआई की अनुमति देने के सरकार के फैसले का व्यापक राजनीतिक विरोध हो रहा है। माना जा रहा है कि खुदरा कारोबार में बड़ी विदेशी कंपनियों के आने से छोटी-छोटी किराना दुकानों के समक्ष संकट खड़ा हो जाएगा।
विपक्ष के साथ साथ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की भागीदार तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक ने सरकार से निर्णय वापस लेने की मांग की है। यह फैसला केंद्रीय मंत्रिमंडल की 24 नवंबर को हुई बैठक में लिया गया था। शर्मा ने स्पष्ट किया कि नीति तैयार करते समय लाखों छोटे खुदरा व्यापारियों की रोजीरोटी का भी ध्यान रखा गया है। उन्होंने कहा कि खाद्यान्न की खरीद में पहला अधिकार सुरक्षित रखते हुये सरकार ने गरीबों की खाद्य सुरक्षा को भी ध्यान में रखा है।
खुदरा क्षेत्र में बढ़ाचढ़ाकर मूल्य तय करने की चिंता पर शर्मा ने कहा कि इस मामले में प्रतिस्पर्धा आयोग निगरानी रखेगा। मैंने इस मुद्दे पर विशेष तौर से प्रतिस्पर्धा आयोग के अध्यक्ष के साथ चर्चा की है। खुदरा क्षेत्र में नियामक लाकर जरूरी निगरानी और संतुलन रखा जा सकता है। (Z news)
28 नवंबर 2011
रिटेल में एफडीआई से आटा व दाल मिलों को भी नुकसान
स्थानीय दाल एवं आटा मिलर्स के मुताबिक वर्तमान में खुदरा बाजार की कुल मांग की 70 से 80 फीसदी आपूर्ति मिलों द्वारा की जा रही है। ऐसे में एफडीआई में विदेशी रिटेल स्टोरों को मात्र 30 फीसदी खरीद एसएमई से करने का निर्णय सही नहीं कहा जा सकता है।
इससे यहां की दाल एवं आटा मिलों को 40-50 फीसदी घाटा होगा। लारेंस रोड स्थित दाल एवं बेसन मिलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक गुप्ता ने कहा कि सरकार की ओर से 30 फीसदी खरीद एसएमई से करने के निर्णय का दाल एवं बेसन मिलों को कोई लाभ नहीं होगा बल्कि इससे मिलों को घाटा होने की संभावना अधिक लग रही है। इनके मुताबिक वर्तमान में खुदरा बाजार में दालों, बेसन व आटे की जो 70-80 फीसदी आपूर्ति मिलों द्वारा की जा रही है, वह सरकार के मुताबिक रिटेल में एफडीआई लागू होने से घटकर 30 फीसदी रह जाएगी। जिससे मिलों को स्वाभाविक रूप से घाटा होना तय है।
राजधानी रोलर फ्लोर मिल्स प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंधक रविन्द्र शर्मा ने भी रिटेल में एफडीआई के तहत 30 फीसदी खरीद छोटे एवं मझोले उद्योगों से करने के निर्णय को सही नहीं बताया। इनका कहना है कि इससे मिलों को कोई लाभ नहीं होगा। वर्तमान में छोटे किराना स्टोरों पर एसएमई के उत्पादों की बिक्री अधिक हो रही है।
रिटेल में एफडीआई लागू होने व एसएमई से 30 फीसदी खरीद होने की स्थिति में एसएमई के उत्पादों की बिक्री बढऩे की बजाय घटेगी। शर्मा के मुताबिक यदि विदेशी कंपनियां 30 फीसदी खरीद एसएमई से करती भी हैं तो अंतरराष्ट्रीय मानकों को आधार बनाकर वे स्थानीय एसएमई से खरीद के लिए सर्टिफिकेशन व लेबर के नए नियम बनाएंगी।
कंपनी विशेष के नियमों को पूरा नहीं करने पर स्थानीय एसएमई से 30 फीसदी की खरीद नहीं हो सकेगी ऐसे में उन कंपनियों के स्वयं के छोटे व मझोले उद्यमों से इस 30 फीसदी खरीद को पूरा किए जाने की संभावना बढ़ जाएगी। इससे स्थानीय दाल, बेसन व आटा मिलों को होने वाले नुकसान में बढ़ोतरी होगी। (Business Bhaskar)
चीन और भारत में गहनों की मांग ने बढ़ाई सोने की कीमत
सस्ती कमोडिटी से जगी उम्मीद
कर्ज संकट जारी रहने से अल्यूमीनियम में बनी रहेगी नरमी
लंदन मेटल एक्सचेंज में अल्यूमीनियम की कीमतों में पिछले एक महीने के दौरान 30 डॉलर प्रति टन तक की गिरावट दर्ज की गई है। जानकारों के मुताबिक यूरो जोन के कर्ज संकट के समाधान के लिए वहां के नेताओं का रुख स्पष्ट नहीं होने के कारण आगे भी इसकी कीमतों में गिरावट जारी रह सकती है। वैश्विक बाजार में गिरावट के असर से घरेलू एमसीएक्स में भी अल्यूमीनियम नीचे गिर रहा है।
लंदन मेटल एक्सचेंज 29 सितंबर को अल्यूमीनियम 2,222 डॉलर प्रति टन के स्तर पर दर्ज किया गया था जबकि 20 अक्टूबर को इसकी तीन माह की खरीद का भाव 2195 डॉलर प्रति टन दर्ज किया गया। घरेलू एमसीएक्स पर पिछले एक महीने से गिरावट का दौर देखा जा रहा है। 22 अक्टूबर को एमसीएक्स पर अक्टूबर वायदा 106.35 रुपये प्रति किलोग्राम दर्ज किया गया।
अल्यूमीनियम एसोसिएशन फॉर दिल्ली के अध्यक्ष सतीश कुमार गर्ग का कहना है कि घरेलू बाजार में मांग में कमी के कारण अल्यूमीनियम के दाम नीचे गिरे हैं। वैश्विक स्तर पर यूरो जोन के संकट के कारण भी अल्यूमीनियम की कीमतों में गिरावट आई है। कारोबारी नन्नू भाई का कहना है कि दीवाली के बाद का महीना यानी नवंबर महीने की शुरूआत में मांग निकलने की उम्मीद की जा रही थी जिससे कीमतों में बढ़ोतरी दर्ज की जा सकती है।
फिलहाल घरेलू मांग की कमी व अंतरराष्ट्रीय बाजार की अस्थिरता के कारण अल्यूमीनियम की कीमतों में मंदी देखने को मिल रही है। नन्नू भाई ने बताया कि मांग में कमी के कारण ही पिछले एक सप्ताह से अल्यूमीनियम वायर 129 रुपये प्रति किलो, अल्यूमीनियम कास्टिंग 103 रुपये प्रति किलो व अल्यूमीनियम इंगट के भाव 130 रुपये प्रति किलो के स्तर पर चल रहे हैं। (Business Bhaskar)
'विदेशी दुकान' पर दंगल से सरकार के होश उड़े
रिटेल में एफडीआई की वास्तविकताएं
सरकार के दिग्गज बार-बार यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि इससे मझोले उमक्रमों, किसानों और उपभोक्ताओं को कैसे फायदा होगा। लेकिन सरकार की इस कथनी और हकीकत में जमीन-आसमान का अंतर है। इसी असलियत को उजागर करने के लिए हम इसके पीछे छिपे कुछ मिथकों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं।
मिथक 1 : रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) से फंड और कंपनियां भारत में भारी मात्रा में निवेश करेंगी।वास्तविकता : बहुराष्ट्रीय रिटेल कंपनियां सिर्फ इसलिए भारत दौड़ी नहीं आएंगी कि सरकार ने मल्टीब्रांड में उन्हें निवेश की इजाजत दे दी है या सिंगल ब्रांड रिटेल में उनके निवेश की सीमा बढ़ा दी है। वे तब तक नहीं आएंगी जब तक इस बात पर राजनीतिक एक राय नहीं होती कि वे यहां खुलेआम धंधा कर सकेंगी। दुनिया की सबसे बड़ी रिटेल कंपनी वालमार्ट का भारती ग्रुप के साथ साझा उपक्रम है।
भविष्य में वालमार्ट भारतीय प्रमोटर की हिस्सेदारी खरीदकर इस उपक्रम में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाएगी। प्रमोटर अपनी हिस्सेदारी बेचकर लाभ कमाने की कोशिश करेंगे। इसमें निवेश भी ज्यादा नहीं होगा। अनुमान है कि अगले तीन से पांच साल में वालमार्ट अधिकतम 25 करोड़ डॉलर का निवेश करेगी। कारफूर और टेस्को जैसी कंपनियों ने अब तक भारत में निवेश नहीं किया है, ना ही उनका कोई साझा उपक्रम है। वे यह देखने को बाद ही निवेश करेंगी कि उन्हें हर प्रदेश में हर जगह मल्टीब्रांड रिटेल स्टोर खोलने की इजाजत है।
मिथक 2 : एफडीआई से किसानों को उत्पाद के अच्छे दाम मिलेंगे।वास्तविकता : कॉरपोरेट लॉबिस्ट की तरफ से सबसे बड़ा तर्क यही दिया जा रहा है कि इस कदम से किसानों को फायदा होगा। सच्चाई यह है कि बिचौलियों और अक्षम सप्लाई चेन की वजह से किसानों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है।
भारत में कृषि उत्पादों से जुड़े नियम काफी पुराने हैं और इसी वजह से बिचौलिए भी मौजूद हैं। संगठित रिटेल से इस समस्या का समाधान नहीं होगा। इसके अलावा होलसेल खरीदार कभी इस दिशा में काम नहीं करते कि छोटे विक्रेताओं को अच्छी कीमत मिल सके। अधिक कीमत पर खरीद संगठित रिटेल के मॉडल का आधार नहीं है और ऐसा हो भी नहीं सकता।
मिथक 3 : संगठित रिटेल में एफडीआई से महंगाई कम होगी।वास्तविकता : यह मिथक ग्लोबल थिंक टैंक की तरफ से आया है और भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने भी इसकी पुष्टि की है। भारत खाद्य महंगाई की समस्या से जूझ रहा है। ग्लोबल सप्लाई चेन से यहां खाद्य वस्तुओं का आयात नहीं होता। खाद्य पदार्थ स्थानीय स्तर पर खरीदे-बेचे जाते हैं। आप अफ्रीका से सब्जियां नहीं आयात कर सकते।
दूसरी बात, अगर संगठित रिटेल महंगाई को काबू में कर सकता तो वह ऐसा कर चुका होता। भारतीय रिटेल बाजार में इनकी हिस्सेदारी करीब दस फीसदी है। तीसरी बात, अगर ग्लोबल सप्लाई चेन के जरिए भारत में चीन में बने उत्पाद आएंगे तो इससे भारत की एसएमई बर्बाद हो जाएंगी।
मिथक 4 : मैन्युफैक्चरर्स को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आने में मदद मिलेगी।वास्तविकता : विदेशी रिटेलर्स दावा करते हैं कि वे अपने ग्लोबल ऑपरेशन के लिए स्थानीय स्तर पर उत्पाद खरीदेंगे और इससे भारतीय निर्माताओं को फायदा होगा। अगर यह सच है तो एक अमेरिकी कंपनी होने के नाते वालमार्ट के ग्लोबल ऑपरेशन से अमेरिका के निर्माताओं को फायदा क्यों नहीं हुआ। विदेशी रिटेलर्स की सबसे अधिक आलोचना इस बात के लिए की जाती है कि वे छोटी और मझोली कंपनियों को नष्ट कर देते हैं।
ये रिटेलर ज्यादातर उत्पाद चीन से खरीदते हैं और इस तरह इन्होंने पूरी दुनिया में एसएमई मैन्युफैक्चरर्स को दरकिनार कर दिया है। भारत में रिटेल सेक्टर को खोलने के बाद एसएमई के लिए यही सबसे बड़ा जोखिम होगा। यह एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से कई देश अपने यहां विदेशी रिटेल कंपनियों को प्रवेश की इजाजत नहीं दे रहे हैं। जापान में अभी तक विदेशी रिटेलर्स नहीं हैं। सिंगल ब्रांड रिटेल के मामले में भी उसके शर्तें काफी कठोर हैं।मिथक 5 : एफडीआई से भारतीय उपभोक्ताओं को फायदा होगा।वास्तविकता : विदेशी रिटेल बिजनेस मॉडल बड़े रिटेल स्टोर फॉर्मेट पर आधारित है। ये स्टोर 50 हजार से पांच लाख वर्ग फुट तक के होते हैं। यह फॉर्मेट भारत के बड़ी आबादी वाले शहरों में सफल नहीं हो सकता। यही वजह है कि भारती ने सिर्फ छोटे स्टोर खोले हैं। उसके बड़े स्टोर की संख्या बहुत कम है। बड़े स्टोर में ऊर्जा की खपत बहुत होती है। यह जरूरी है कि लोग यहां बड़ी संख्या में खरीदारी के लिए आएं। यह अमीरी और तेल पर निर्भरता वाली जीवनशैली को बढ़ावा देता है।
जीने और शॉपिंग करने का यह अमेरिकी अंदाज है, भारतीय नहीं। किसी भी राज्य सरकार को ऐसे स्टोर की इजाजत नहीं देनी चाहिए क्योंकि लंबे समय में वे राज्यों पर ही बोझ बनेंगे। विदेशी रिटेलर्स को इजाजत देने से पहले राज्यों को उनकी योजनाओं पर बारीकी से ध्यान देना चाहिए। यूरोप में शहर के दायरे में बड़े फॉर्मेट वाले स्टोर खोलने की इजाजत नहीं है। कई देश तो इसकी बिल्कुल इजाजत नहीं देते। (Business Bhaskar)
दुग्ध उत्पादन में 4%बढ़ोतरी का अनुमान
एफएओ की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में दूध और डेयरी उत्पादों की बढ़ रही मांग की वजह से यहां उत्पादन में बढ़ोतरी हो रही है। हालांकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत के डेयरी उत्पाद की उपस्थिति नदारद है। कृषि क्षेत्र के इस अंतरराष्ट्रीय संगठन के नवीनतम 'फूड आउटलुक' रिपोर्ट में भी वर्ष 2011 के दौरान वैश्विक स्तर पर दुग्ध उत्पादन दो फीसदी तक बढ़कर ७,२८० लाख टन होने की उम्मीद जताई है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अनुमान है कि एशिया में दुग्ध उत्पादन में बढ़ोतरी हो सकती है। और भारत में उत्पादन ५० लाख टन बढ़कर १,२१७ लाख टन रहने का अनुमान है। औद्योगिक संगठन एसोचैम के अनुसार, दुनिया में भारत दूध का सबसे बड़ा उत्पादक है और विश्व के कुल उत्पादन में करीब २० फीसदी के आसपास देश का योगदान रहता है।
हालांकि भारत के कुल दूध उत्पादन का सर्वाधिक हिस्सा घरेलू स्तर पर ही खप जाता है। एसोचैम के अध्ययन के मुताबिक घरेलू डेयरी उद्योग वर्ष २०१५ तक पांच लाख करोड़ रुपये तक पहुंच जाने का अनुमान है जबकि घरेलू दुग्ध उत्पादन इस समान अवधि की समाप्ति तक १,१९० लाख टन तक पहुंच जा सकता है। (Business Bhaskar)
दाम बहुत तेज, ग्राहकों का परहेज
पिछले एक पखवाड़े में सोने की बिक्री 50 फीसदी गिरी है। दरअसल, आगे कीमतों में गिरावट की उम्मीद में ग्राहक खरीदारी से दूरी बनाए हुए हैं। हालांकि इस धातु की आवक 10 से 15 फीसदी बढ़ी है, क्योंकि उपभोक्ताओं को सोने की वर्तमान ऊंची कीमतों पर अपने सोने को नकदी में बदलने का सुनहरा मौका नजर आ रहा है।मुंबई के एक प्रमुख आभूषण निर्माता ने कहा, 'ग्राहकों को कीमत में गिरावट का इतंजार है, जिससे खरीदारी बहुत कम रह गई है। आम दिनों में 300 किलोग्राम रहने वाली दैनिक औसत बिक्री घटकर 140 से 150 किलोग्राम पर आ गई है।' रुपये के मूल्य में गिरावट के कारण इस धातु की कीमतों में तेजी आ रही है। नीति-निर्माताओं ने पहले ही रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले नीचे लाने में रुचि दिखाई है। रुपये के मूल्य में बढ़ोतरी से आयात आधारित जिंसों की कीमतें निश्चित रूप से नीचे आएंगी। साफ है कि सबसे पहले इसका फायदा सोने को मिलेगा।पीली धातु की कीमत रुपये के लिहाज से शनिवार को 1.49 फीसदी गिरकर 28,470 रुपये प्रति 10 ग्राम रही, जबकि डॉलर के लिहाज से इसकी कीमत में 5.46 फीसदी गिरावट हुई। मुंबई के जवेरी बाजार में पीली धातु का भाव 28,900 रुपये प्रति 10 ग्राम रहा। लंदन के हाजिर बाजार में शुक्रवार को सोने की कीमतें गिरकर 1683.53 डॉलर प्रति औंस रहीं, जो 15 नवंबर को 1780.82 डॉलर प्रति औंस थीं।चांदी को भी ग्राहकों की बेरुखी का सामना करना पड़ रहा है। मुंबई में चांदी भी शनिवार को 3.88 फीसदी गिरकर 55,270 रुपये प्रति किलोग्राम रही, जो दो सप्ताह पहले 57,500 रुपये प्रति किलोग्राम थी। हालांकि डॉलर के लिहाज से चांदी 9.50 फीसदी की भारी गिरावट के साथ 31.81 डॉलर प्रति औंस रही जो दो सप्ताह पहले 34.54 डॉलर प्रति औंस थी। डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 3.14 फीसदी गिरकर शुक्रवार को 52.26 रही जो 15 नवंबर को 50.67 थी। मुंबई के सर्राफा कारोबारी पुष्पक बुलियन के निदेशक केतन श्रॉफ ने कहा, 'आने वाले समय में कीमतें गिरने की उम्मीद में ग्राहक ताजा खरीदारी से दूरी बनाए हुए हैं। भारत में कीमतों में गिरावट लंदन की तुलना में बहुत कम रही है। ग्राहकों को आने वाले दिनों में कीमतों में गिरावट की संभावना नजर आ रही है।' उन्होंने कहा कि रियल एस्टेट, इक्विटी, धातु और ऊर्जा समेत सभी क्षेत्रों में गिरावट आई है। ग्राहकों का मानना है कि इसी तरह का रुझान कीमती धातुओं में भी देखने को मिलेगा, जो अभी तक नहीं दिखाई दिया है। इसलिए कीमतों में भारी गिरावट की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।अगर यही रुझान आगे भी जारी रहा तो भारत में सोने की कुल खपत स्थिर रहेगी या घटेगी। वल्र्ड गोल्ड काउंसिल (डब्ल्यूजीसी) ने अपनी हालिया रिपोर्ट में कहा था कि भारत में वैवाहिक सीजन की शुरुआत के साथ सोने की मांग बढ़ेगी।एक सर्राफा कंपनी नाकोड़ा बुलियंस के प्रोपराइटर ललित जागावत ने कहा, 'निवेश का एक बड़ा भाग कीमती धातुओं के बजाय सावधि जमा में जा रहा है, जो न केवल ज्यादा और सुनिश्चित रिटर्न देता है बल्कि ग्राहक जब चाहे तभी मूलधन की सुरक्षित निकासी कर सकता है। इसलिए ग्राहक वर्तमान ऊंची कीमतों पर अपने सोने के स्टॉक के एक भाग की बिक्री कर सावधि जमा का विकल्प आजमा रहे हैं। आभूषण निर्माताओं के लिए वैवाहिक सीजन की शुरुआत पहले ही हो चुकी है। (BS Hindi)
तिल उत्पादन में 25 फीसदी की गिरावट आएगी
केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय के निकाय शेलक ऐंड फॉरेस्ट प्रॉडक्ट्स एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (शीफेक्सिल) ने साल 2011-12 में तिल का उत्पादन घटने का अनुमान जाहिर किया है। काउंसिल का कहना है कि रकबे में कमी और पैदावार में गिरावट के चलते तिल का उत्पादन घटेगा।शीफेक्सिल ने देश भर में तिल की फसलों के विभिन्न चरणों का सर्वेक्षण कर रिपोर्ट तैयार किया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस साल उत्पादन 25 फीसदी घटकर 2,75,000 टन पर आ जाएगा जबकि 2010-11 में 3,60,000 टन तिल का उत्पादन हुआ था। रकबे में गिरावट को उत्पादन में कमी की वजह बताई गई है, जो इस साल 8.7 फीसदी घटा है। साथ ही पैदावार में करीब 18.9 फीसदी की गिरावट आई है।रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2010-11 में तिल का रकबा 13.1 लाख हेक्टेयर था, जो साल 2011-12 में घटकर 12 लाख हेक्टेयर रह गया है। इसके साथ ही इस साल पैदावार घटकर 210 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रह गई है जबकि पिछले साल 265 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की पैदावार हुई थी। पैदावार में गिरावट मुख्य रूप से पिछले मॉनसून में हुई भारी और देर तक हुई बारिश के चलते आई है।पिछले साल के मुकाबले तिल का रकबा, उत्पादन और पैदावार गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश समेत प्रमुख उत्पादक इलाकों में घटा है। गुजरात में भारी बारिश के चलते तिल की ज्यादातर फसल बर्बाद हो गई, इसके चलते किसानों ने वैकल्पिक फसलों मसलन कपास, अरंडी और मूंगफली का रुख कर लिया। गुजरात के किसान गर्मी के मौसम में तिल की फसल लगाना ज्यादा पसंद करते हैं। राजस्थान में भी जिलेवार तिल की फसल का प्रदर्शन असंगत रहा है। पाली और जोधपुर के किसानों ने पिछले साल के मुकाबले इस साल बेहतर फसल की खबर दी है।इस साल तिलहन के उत्पादन में गिरावट के अनुमान के बावजूद शीफेक्सिल और कारोबारियों को भारत से बेहतर निर्यात की उम्मीद है। इस साल अप्रैल से जुलाई के दौरान 1,50,000 टन तिल का निर्यात किया जा चुका है।रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2010-11 में तिल के निर्यात में 59 फीसदी की उछाल आई है। पूर्व के देशों को 1,55,000 टन तिल का निर्यात हुआ। यूरोपियन यूनियन भी भारत से तिल के बड़े आयातकों में से एक है और वहां पिछले साल 61,193 टन तिल का निर्यात हुआ।डी. एग्री एक्सपोर्ट लिमिटेड राजकोट के प्रबंध निदेशक सुरेश चंदराणा ने कहा - पिछले साल भारत से करीब 3.45 लाख तिल का निर्यात हुआ था। चंदराणा भारत में तिल के सबसे बड़े निर्यातक हैं और उन्होंने साल 2010-11 में 38,000 टन तिल का निर्यात किया था। (BS Hindi)
कपास की आवक बढ़ी, आने वाले दिनों में लुढ़केंगी कीमतें
बाजार में ताजा कपास की भरमार है और विदेशी खरीदारी नहीं हो रही है, लिहाजा हाल के समय में इसकी कीमतें कम हुई हैं। इसके अलावा बाजार के प्रतिभागियों का इस जिंस के बाजार में सन्नाटे का अनुमान है, लिहाजा बंपर उत्पादन के अनुमान के बीच कीमतों में गिरावट आ सकती है। इस साल देश में 360 लाख गांठ कपास के उत्पादन का अनुमान है जबकि पिछले साल 325 लाख गांठ कपास का उत्पादन हुआ था।गुजरात के बाजारों में रोजाना करीब 42,000 गांठ (प्रति गांठ 170 किलोग्राम) कपास की आवक हो रही है, वहीं राष्ट्रीय स्तर पर कुल आवक 1 लाख से 1.20 लाख गांठ रोजाना है। हालांकि गुजरात समेत कपास के प्रमुख उत्पादक इलाकों में आवक में करीब एक महीने की देरी हुई है और इसकी वजह इस सीजन में मॉनसून के टिका रहना है। लेकिन विदेशी खरीदार इस जिंस की खरीद में काफी सुस्ती बरत रहे हैं, जिसकी वजह से घरेलू बाजार में कपास की कीमतों पर अतिरिक्त दबाव है।गुजरात के बाजारों में कपास की कीमतें 36,200 से 36,500 रुपये प्रति कैंडी (प्रति कैंडी 356 किलोग्राम) हैं, जो जून के 39,000 रुपये प्रति कैंडी के भाव के मुकाबले करीब 10 फीसदी कम है। इस बीच, अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी कपास की कीमतों में तेज गिरावट आई है और यह 165-170 सेंट प्रति पाउंड से लुढ़ककर करीब 90-95 सेंट प्रति पाउंड पर आ गई हैं।अहमदाबाद के कपास का कारोबारी अरुण दलाल ने कहा - कमजोर निर्यात और घटती घरेलू मांग के चलते कपास की कीमतों पर भारी दबाव है। अंतरराष्ट्रीय कीमतें भी गिरी हैं, ऐसे में वैश्विक बाजार में भी कपास बेचना कम आकर्षक रह गया है। उन्होंने कहा - अगर ऐसा रुख जारी रहता है तो हम कपास की कीमतें दिसंबर अंत तक 30,000 से 32,000 रुपये प्रति कैंडी के निचले स्तर पर देख सकते हैं। उद्योग के विशेषज्ञों ने कहा कि आवक के दबाव के चलते शुरुआती दौर में कीमतों पर असर पड़ सकता है। कार्वी कॉमट्रेड लिमिटेड की शोध विश्लेषक विमला रेड्डी ने कहा - अल्पावधि में देशी व विदेशी बाजारों में कपास की कीमतें नरम रहने के आसार हैं। घरेलू बाजार में कीमतें घटने का अनुमान है और आईसीई एक्सचेंज पर कीमतें घटने के आसार हैं।हालांकि रेड्डी ने कहा - मौजूदा वर्ष में भारत के लिए बेहतर मौके उपलब्ध होंगे क्योंकि दुनिया के तीसरे सबसे बड़े उत्पादक राष्ट्र अमेरिका में उत्पादन पिछले साल के मुकाबले 10 फीसदी घटने का अनुमान है। उन्होंने कहा - भारत से निर्यात के बेहतर अवसर हैं क्योंकि प्रमुख उत्पादक देशों के पास शुरुआती स्टॉक काफी कम है, वहीं वैश्विक उत्पादन में 7 फीसदी की बढ़ोतरी के चलते कीमतों पर लगाम लग गया है। उच्च उत्पादन में उजबेकिस्तान, भारत और चीन की बड़ी हिस्सेदारी है। इस बीच, कीमतों में और गिरावट को थामने के लिए किसान केंद्र सरकार की एजेंसी कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और नेफेड से कपास की खरीद शुरू करने की मांग कर रहे हैं। मुंबई के एक कपास कारोबारी ने कहा - कपास की आवक बढ़ रही है और इस साल हमें बंपर उत्पादन की उम्मीद है, वहीं विदेशी बाजारों में भी सुधार के संकेत नहीं दिख रहे हैं। ऐसे में अगर कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया कपास की खरीदारी शुरू करता है तो इससे कीमतों में आ रही गिरावट को थामने में मदद मिलेगी।दूसरी ओर सीसीआई ने निकट भविष्य में खरीद शुरू करने का मन अभी नहीं बनाया है। सीसीआई के एक सूत्र ने कहा - हमने अभी कपास की खरीद शुरू नहीं की है और हम यह भी नहीं बता सकते कि खरीद कब शुरू होगी। सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुकाबले कपास की कीमतें ज्यादा हैं। शंकर-6 किस्म के कपास की एमएसपी 3150 रुपये प्रति क्विंटल तय की गई है, वहीं मौजूदा बाजार कीमतें करीब 4000 रुपये प्रति क्विंटल हैं। हालांकि विशेषज्ञों ने कहा कि कीमतों में सीमित रह सकती है और यह 30,000 रुपये प्रति कैंडी से नीचे नहीं जाएंगी।गुजरात स्टेट कोऑपरेटिव कॉटन फेडरेशन के प्रबंध निदेशक एन एम शर्मा ने कहा - देर तक हुई बारिश और मौसम की स्थिति ने कपास की पैदावार को नुकसान पहुंचाया है। कपास के पौधे के सही तरीके से विकसित होने के बावजूद पहली बार इससे कपास की तुड़ाई अभी तक संतोषजनक नहीं रही है, ऐसे में इस सीजन में कपास उत्पादन का अनुमान पूरा होना मुश्किल लग रहा है। उन्होंने कहा - इस वजह से कीमतें किसी खास स्तर से नीचे नहीं आएंगी और हम उम्मीद करते हैं कि यह 30,000 रुपये प्रति कैंडी से नीचे नहीं जाएंगी।अनुमानों से संकेत मिलता है कि इसकी पैदावार करीब 480 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहेगी। (BS HIndi)
खाद्य सुरक्षा मिशन की राशि खर्च करने में सुस्ती
केंद्र सरकार दूसरी हरित क्रांति की बात कर रही है लेकिन पहली हरित क्रांति में प्रमुख योगदान देने वाले राज्य ही राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम) के तहत जारी होने वाली राशि को खर्च करने में कोताही बरत रहे हैं।
चालू वित्त वर्ष 2011-12 में पंजाब को अभी तक 35.18 करोड़ रुपये की राशि जारी की जा चुकी है लेकिन पंजाब सरकार ने इसमें से एक रुपया भी खर्च नहीं किया है। इसी तरह से हरियाणा को इसके तहत 24.29 करोड़ रुपये जारी हो चुके हैं लेकिन राज्य सरकार खर्च केवल 0.82 करोड़ रुपये ही कर पाई है। देश में पहली हरित क्रांति में प्रमुख योगदान उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा का था।।
कृषि मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि सरकार एनएफएसएम के माध्यम से गेहूं, चावल, दलहन और तिलहनों के उत्पादन बढ़ाने पर जोर दे रही है और चालू वित्त वर्ष 2011-12 में 30 सितंबर तक एनएफएसएम के तहत देश के 18 राज्यों को 969.37 करोड़ रुपये जारी किए जा चुके हैं लेकिन इसमें से राज्यों ने मात्र 204.81 करोड़ रुपये ही खर्च किए हैं। चालू वित्त वर्ष के लिए एनएफएसएम के तहत 1,292.10 करोड़ रुपये का आवंटन किया जाना है।
उन्होंने बताया कि पंजाब, केरल और जम्मू और कश्मीर ने चालू वित्त वर्ष में की गई कुल आवंटित राशि में से एक रुपया भी खर्च नहीं किया है। जबकि अन्य राज्यों में मध्य प्रदेश को चालू वित्त वर्ष में 141.82 करोड़ रुपये का आवंटन हो चुका है लेकिन राज्य सरकार इसमें से केवल 23 करोड़ रुपये ही खर्च कर पाई है। इसी तरह से राजस्थान को 63.62 करोड़ रुपये जारी किए जा चुके हैं लेकिन राज्य सरकार इसमें से केवल 13.28 करोड़ रुपये ही खर्च कर पाई है।
चालू वित्त वर्ष में एनएफएसएम के तहत सबसे ज्यादा राशि उत्तर प्रदेश को 229.96 करोड़ रुपये जारी की गई है लेकिन 30 सितंबर तक राज्य सरकार ने इसमें से केवल 47.95 करोड़ रुपये ही खर्च किए हैं। अन्य राज्यों में आंध्रप्रदेश को चालू वित्त वर्ष में एनएफएसम के तहत 51.80 करोड़ रुपये जारी हो चुके हैं लेकिन खर्च केवल 37.37 करोड़ रुपये ही हुए हैं।
छत्तीसगढ़ ने 44.34 करोड़ की आवंटित राशि में से 3.34 करोड़ रुपये, गुजरात ने 23.96 करोड़ रुपये में से 7.21 करोड़, झारखंड ने 5.55 करोड़ रुपये की आवंटित राशि में से 1.94 करोड़, कर्नाटक ने 59.40 करोड़ में से मात्र 14.57 करोड़, महाराष्ट्र ने 98.36 करोड़ में से 13.27 करोड़, तमिलनाडु ने 27.20 करोड़ रुपये की आवंटित राशि में 5.59 करोड़ और पश्चिम बंगाल ने 30.80 करोड़ रुपये से केवल 9.92 करोड़ रुपये ही खर्च किए हैं। (Business Bhaskar....R S Rana)
यूपी के उद्योगों ने किया स्वागत
उत्तर प्रदेश के उद्योग जगत ने बहुब्रांड खुदरा व्यापार में 51 फीसदी की सीधे विदेशी निवेश तथा एकल ब्रांड में 100 फीसदी के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को केंद्र सरकार द्वारा मंजूरी दिए जाने का स्वागत किया है। उद्योगों ने कहा है कि इससे संगठित खुदरा क्षेत्र को फायदा होगा तथा समावेशी विकास को बढ़ावा मिलेगा। भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के उत्तर प्रदेश परिषद के चेयरमैन वेद कृष्ण ने बताया कि खुदरा क्षेत्र में एफडीआई आने से इस क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा तथा रोजगार के मौके भी पैदा होंगे। उन्होंने कहा, 'उत्तर प्रदेश जैसे कृषि आधारित राज्यों को इससे बेहद फायदा होगा क्योंकि इससे खेती में निवेश हासिल होगा। इससे राज्य अपने उत्पादों को राष्ट्रीय स्तर तक कुशलतापूर्वक पहुंचा पाएगा। इससे कृषि उत्पादों से जुड़े आधारभूत संरचनाओं जैसे शीतगृह, गोदाम, लॉजिस्टिक, ठेके पर खेती में विस्तार तथा छोटे और मध्यम उद्यमों आदि को विकास का मौका मिलेगा।' सीआईआई के राज्य इकाई के वाइस चेयरमैन आलोक सक्सेना ने कहा, 'इससे क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर होगा, क्योंकि खुदरा क्षेत्र में बिक्री से लेकर व्यवस्था तक में रोजगार के मौकों का सृजन होगा। इसके माध्यम से कृषि उत्पादों के विपणन तथा कच्चे माल को मंगाने की वैश्विक स्तर की सबसे अच्छी प्रणाली का चलन होगा।' (BS Hindi)
'छोटे कारोबारी हो जाएंगे एफडीआई से तबाह'
फेडरेशन सरकार के इस निर्णय का विरोध क्यों कर रहा है? वहीं इसके पीछे सरकार की दलील है कि इससे देश के खुदरा बाजार का कायाकल्प होगा। भारत सरकार देश को गुमराह कर रही है। इससे देश के खुदरा बाजार में भारी बदलाव तो आएगा लेकिन इससे छोटे व्यावसायी विशेषकर कपड़े के छोटे कारोबारी पूरी तरह बर्बाद हो जाएंगे। बहुराष्ट्रीय कंपनियां शुरुआत में ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए काफी कम दाम पर सामान बेचेंगी। बाद में जब बाजार पर इनका एकाधिकार हो जाएगा तो वे मनमाने तरीके से दाम बढ़ाएंगी। यानी इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों से पहले छोटे कारोबारियों को और बाद में ग्राहकों को भी नुकसान होगा। क्या आप सरकार के इस तर्क से सहमत नहीं हैं कि इससे देश में बेरोजगारी और विस्थापन की समस्या नहीं उत्पन्न होगी? इसमें कोई दो राय नहीं कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी कंपनियों के सीधे प्रवेश से बड़े पैमाने पर छोटे कारोबारियों का धंधा चौपट हो जाएगा और वे बेराजगारी के दलदल में फंस जाएंगे। इससे न केवल छोटे दुकानदारों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ेगी बल्कि इसका असर छोटे और मध्यम औद्योगिक इकाइयों, मजदूरों, कारीगरों और आखिरकार उपभोक्ताओं पर भी पड़ेगा। मुझे लगता है इस मामले में सरकार गलत आंकड़े पेश कर रही है। अमेरिका, यूरोप का हाल देखें, वहां छोटी दुकानें और कारोबार पूरी तरह से खत्म हो गए हैं। सरकार का मानना है कि इससे ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के निर्माण में मदद मिलेगी?सरकार किस तरह के बुनियादी ढांचे के निर्माण की बात कर रही है? ये कंपनियां देश में कितने कोल्ड स्टोर बनाएंगी? क्या आपको लगता है कि भारत के लोग कोल्ड स्टोर बनाने में सक्षम नहीं हैं सरकार का कहना है कि वे कृषि उत्पाद खरीदेंगी जिससे किसानों को फायदा होगा। हालांकि इससे छोटे करोबारियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस तर्क से आप कितने सहमत हैं? कंपनियां किसानों से कम दाम पर कृषि उत्पाद खरीदेंगी। शुरुआत में उसे कम दाम पर बाजार में बेचेंगी। जिससे छोटे दुकानदारों के लिए प्रतियोगिता कर पाना मुश्किल होगा। एकल ब्रांड खुदरा दुकानों में 51 फीसदी निवेश करने वाली विदेशी कंपनियों को अपने उत्पाद का काम से कम एक तिहाई हिस्सा छोटे घरेलू उद्योगों या ग्रामीण क्षेत्रों से खरीदना होगा। इस पर आपकी क्या अपत्ति है? केवल एक तिहाई हिस्सा, बाकी दो तिहाई हिस्से का क्या होगा? बाकी हिस्से का सामान कंपनियां अपने देश या किसी अन्य स्रोतों से लाएंगी। क्या इससे देश के छोटे और मझोले उद्योग प्रभावित नहीं होंगे? यानि सरकार के इस फैसले से अपने देश के छोटे कारोबारी समेत छोटे व मध्यम दर्जे के उद्योगों को भी नुकसान होगा। (BS Hindi)
खुदरा क्षेत्र में एफडीआई से फायदा: फिक्की
कुमार ने कहा कि खुदरा कारोबार में बड़े उद्योगों की अवैध गतिविधियों पर नजर रखने के लिये एक नियामक बनाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, खुदरा क्षेत्र के लिए नियामक संस्था होना एक बेहतर सोच होगी, इससे खुदरा कारोबार में बड़े उद्योगों की अवैध गतिविधियों पर नजर रखी जा सकेगी।
उल्लेखनीय कि कुमार ने इससे पहले दिल्ली की ही एक आर्थिक शोध संस्था इंडियन कौशिल फार रिसर्च एण्ड इंटरनेशल इकोनामिक रिलेशन्स (इक्रीएर) के निदेशक के रूप में खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश पर एक अध्ययन तैयार की थी। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय को दी गयी रिपोर्ट में इस क्षेत्र को विदेशी निवेशकों के लिए खोलने की सिफारिश की थी।
सरकार ने बहुब्रांड खुदरा क्षेत्र का दरवाजा खोलते हुए इसमें 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति देने का फैसला किया है। एकल ब्रांड में भी शतप्रतिशत एफडीआई खोल दिया गया है। सरकार के इस निर्णय को लेकर संसद में उसे भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। विपक्षी पार्टियों के साथ साथ सरकार के सहयोगी दल भी इस निर्णय के विरोध में हैं। (एजेंसी)
कुमार ने कहा कि खुदरा कारोबार में बड़े उद्योगों की अवैध गतिविधियों पर नजर रखने के लिये एक नियामक बनाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, खुदरा क्षेत्र के लिए नियामक संस्था होना एक बेहतर सोच होगी, इससे खुदरा कारोबार में बड़े उद्योगों की अवैध गतिविधियों पर नजर रखी जा सकेगी।
उल्लेखनीय कि कुमार ने इससे पहले दिल्ली की ही एक आर्थिक शोध संस्था इंडियन कौशिल फार रिसर्च एण्ड इंटरनेशल इकोनामिक रिलेशन्स (इक्रीएर) के निदेशक के रूप में खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश पर एक अध्ययन तैयार की थी। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय को दी गयी रिपोर्ट में इस क्षेत्र को विदेशी निवेशकों के लिए खोलने की सिफारिश की थी।
सरकार ने बहुब्रांड खुदरा क्षेत्र का दरवाजा खोलते हुए इसमें 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति देने का फैसला किया है। एकल ब्रांड में भी शतप्रतिशत एफडीआई खोल दिया गया है। सरकार के इस निर्णय को लेकर संसद में उसे भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। विपक्षी पार्टियों के साथ साथ सरकार के सहयोगी दल भी इस निर्णय के विरोध में हैं। (एजेंसी)
23 नवंबर 2011
कल मिल सकती बहुब्रांड रिटेल में एफडीआई को अनुमति
सरकार संभवत: कल बहु ब्रांड खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को अनुमति दे सकती है। इस फैसले से वैश्विक रिटेल श्रृंखलाएं वाल-मार्ट, टेस्को और कैरफोर भारत में अपने आउटलेट्स खोल सकेंगी। सूत्रों ने कहा कि एकल ब्रांड में एफडीआई की सीमा को मौजूदा के 51 फीसदी से बढ़ाकर 100 फीसदी किया जाना भी मंत्रिमंडल की बैठक के एजेंडा में है। सूत्रों ने कहा कि वित्त और कपड़ा सहित ज्यादातर मंत्रालय उद्योग मंत्रालय के राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील इस क्षेत्र को विदेशी खिलाडिय़ों के लिए खोले जाने के पक्ष में हैं और मंत्रिमंडल को इस पर अंतिम निर्णय लेना है। (BS Hindi)
बाजार में 24 कैरेट के आभूषण के नहीं हैं खरीदार
जुलाई-सितंबर की तिमाही के दौरान आभूषणों की बिक्री में आई भारी गिरावट के बाद आभूषण निर्माताओं ने अपने प्रतिनिधि संगठन के साथ मिलकर इसे पटरी पर लाने की कवायद शुरू कर दी है। इसकी अगुआई करते हुए शहर के आभूषण निर्माता त्रिभुवनदास भीमजी जवेरी ने पहली बार भारत में 24 कैरेट का स्वर्ण आभूषण पेश किया है। मशीन से तैयार यह आभूषण थोड़ा महंगा होगा क्योंकि इस पर 10-15 फीसदी गढ़ाई लगेगा। निवेश वाले उत्पादों पर हालांकि सोने की कीमत पर करीब 1 फीसदी का अतिरिक्त शुल्क लगता है। सोने के सिक्के व सिल्लियों की तरह यह निवेश उत्पाद का विकल्प बन सकेगा। वल्र्ड गोल्ड काउंसिल के प्रबंध निदेशक अजय मित्रा ने कहा - 'चीन में शुद्ध सोने का आभूषण काफी लोकप्रिय है। वैश्विक स्तर पर सोने की बिक्री में इजाफे के लिए हम हर तरह का समर्थन प्रदान करेंगे।'दुर्भाग्य से 24 कैरेट सोने के आभूषण के कोई खरीदार नहीं हैं क्योंकि इसे एक महीने पहले ही पेश किया गया है। चूंकि भारतीय उपभोक्ता सोने के वैसे आभूषणों की खरीदारी करने में दिलचस्पी रखते हैं जिसमें तांबा या फिर दूसरे धातुओं का मिश्रण हो। ऐसे मिश्रण से सोना थोड़ा ठोस हो जाता है। लिहाजा बाजार में फिलहाल 24 कैरेट सोने के खरीदार नहीं हैं। अब तक भारत में 22 कैरेट का हॉलमार्क आभूषण ज्यादा मशहूर है। सिक्के और सिल्लियों समेत निवेश उत्पाद तापरोधी पैकेट में जारी करने वालों के प्रमाणपत्र के साथ देश भर बेचे जाते हैं।समझा जाता है कि टीबीजेड ने डब्ल्यूजीसी से संपर्क कर लेटर ऑफ अथॉन्टिसिटी जारी करने का अनुरोध किया है ताकि खरीदारों को 24 कैरेट स्वर्ण आभूषण का आश्वासन मिल सके। शुद्ध सोने के आभूषण की तरफ उपभोक्ताओं के आकर्षण से इसकी बिक्री पर 100 फीसदी कीमत पाने में मदद मिलेगी। हालांकि ऑल इंडिया जेम्स ऐंड ज्वैलरी ट्रेड फेडरेशन (जीजेएफ) के चेयरमैन बी बामलवा ने कहा - मशीन के जरिए सिर्फ निश्चित किस्म के आभूषण (24 कैरेट) का निर्माण किया जा सकता है। भारत वैल्यू एडिशन के लिए मशहूर है और हाथ से बने आभूषणों की यहां भरमार है।शुद्ध सोने से बने आभूषण को बेचने पर इसके इस्तेमाल के अलावा 100 फीसदी कीमत वापस मिलेगी और यह सुविधा निवेश के दूसरे उत्पादों मसलन सिक्के, सिल्लियों और एक्सचेंज ट्रेडेड फंड में उपलब्ध नहीं हैं। एक बार जब उपभोक्ता इसे स्वीकार कर लेता है तो वे इसका इस्तेमाल निवेश के विकल्प के तौर पर भी कर सकेंगे।सोने के प्रति भारतीय उपभोक्ताओं का लगाव पीढिय़ों से रहा है, ऐसे में आभूषणों की बिक्री होती रही है। बामलवा ने कहा - हाल में मशहूर हुए निवेश उत्पादों में हालांकि उसके निचले आधार के चलते जोरदार बढ़त आई है, पर आभूषण आने वाले महीनों में इस पर कब्जा जमा सकता है।डब्ल्यूजीसी के मुताबिक, मौजूदा कैलेंडर वर्ष में तीसरी तिमाही के दौरान आभूषणों की बिक्री में 26 फीसदी की गिरावट आई है और यह 125.3 टन पर आ गया है जबकि निवेश उत्पादों में 18 फीसदी की गिरावट आई है और यह 78 टन पर आ गया है। तीसरी तिमाही में सोने की कुल बिक्री 23 फीसदी घटकर 203.3 टन रह गई है।जेम्स ऐंड ज्वैलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (जीजेईपीसी) के उपाध्यक्ष संजय कोठारी ने कहा - जेम्स ऐंड ज्वैलरी उद्योग के लिए सबसे बड़ी चिंता आभूषणों की बिक्री में आई गिरावट है। सोने के सिक्केव सिल्लियों की बिक्री में बढ़ोतरी से सिर्फ और सिर्फ खनन करने वालों को फायदा होगा, जो भारत के लिए अज्ञात है। ऐसे में हमें सिक्के व सिल्लियों की बजाय आभूषणों की बिक्री को प्रोत्साहित करने की दरकार है।परिषद जीजेएफ के साथ गठजोड़ कर भारत में आभूषणों की बिक्री को प्रोत्साहित करने की योजना बना रहा है। जीजेएफ ने भी सोने की बिक्री में इजाफा करने के लिए 100 करोड़ रुपये के निवेश की योजना बनाई है और मुख्य रूप से इसका ध्यान आभूषणों की बिक्री पर होगा। इसमें वैयक्तिक आभूषण निर्माताओं द्वारा निवेश प्रस्तावित है। उपभोक्ताओं तक सीधे पहुंचने के लिए यह सेमिनार का भी आयोजन करेगा। (BS Hindi)
रबर के बागान खरीद रहीं टायर कंपनियां
घरेलू बाजार में प्राकृतिक रबर की भारी किल्लत और देसी व वैश्विक बाजार के बीच कीमतों में बड़े अंतर के चलते टायर बनाने वाली अग्रणी कंपनियां थाईलैंड, कंबोडिया और वियतनाम जैसे प्रमुख उत्पादक देशों में रबर के बागान के अधिग्रहण का विकल्प तलाश रही हैं। अग्रणी कंपनी अपोलो टायर्स ने तो लाओस में बागान का अधिग्रहण कर भी लिया है और एमआरएफ व जे के टायर्स जैसी कंपनियां इसी राह पर चलने की योजना बना रही हैं।कच्चे माल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए अपोलो टायर्स ने दक्षिण पूर्व एशिया में प्राकृतिक रबर के और बागानों के अधिग्रहण की योजना बनाई है। टायर के उत्पादन कुल लागत में लागत प्राकृतिक रबर का हिस्सा 50 फीसदी से ज्यादा होता है। कंपनी लाओस में 10,000 हेक्टेयर का बागान पहले ही अधिग्रहित कर चुकी है और इसकी योजना और अधिग्रहण करने की है। लाओस के बागान में पौधों को फिर से लगाने का काम जोरों पर है और अगले 5-6 साल में इनसे टैपिंग शुरू हो जाएगी। कीमत के बजाय रबर की उपलब्धता अब चिंता का विषय बन गई है। ऐसे में कंपनियों ने कुल जरूरत का 25 फीसदी अपने बागानों से पूरा करने की योजना बनाई है और यह काम कुछ वर्षों में पूरा हो जाएगा, ताकि लगातार आपूर्ति बनी रह सके। अपोलो टायर्स औसतन 16,000 टन प्राकृतिक रबर का इस्तेमाल एक महीने में करती है। अपोलो विदेश में बागानों के अधिग्रहण करने वाली पहली टायर कंपनी है। भारत में सालाना 2 लाख टन रबर की कमी है और इसकी भरपाई आयात के जरिए होती है।टायर निर्माता कंपनी एमआरएफ भी थाईलैंड, कंबोडिया और वियतनाम जैसे देशों में रबर के बागानों का अधिग्रहण करना चाहती है ताकि कच्चे माल की बढ़ती लागत पर लगाम कसी जा सके। कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी ने यह जानकारी दी। बढ़ती लागत को देखते हुए कंपनी रबर की खरीद के अलावा विदेश में अधिग्रहण और रबर के बागानों का प्रबंधन करने की योजना बना रही है। मौजूदा समय में एमआरएफ ज्यादातर रबर की खरीद या तो घरेलू बाजार में करती है या फिर इसका आयात करती है। कंपनी के एक अधिकारी ने कहा - अगर हम विदेश में रबर के बागान का प्रबंधन कर पाएंगे तो हम इसका फायदा भी उठा सकेंगे। यह पूछे जाने पर किस देश की तरफ कंपनी की नजरें हैं, तो उन्होंने कहा कि हमारी नजर थाईलैंड, कंबोडिया और वियतनाम पर है। हालांकि उन्होंने इसकी समयावधि और सौदे के आकार समेत दूसरी सूचनाएं देने से मना कर दिया।लागत घटाने के लिए जेके टायर भी विदेश में बागानों के अधिग्रहण की संभावनाएं गंभीरता से तलाश रही हैं। कंपनी के आला अधिकारी ने कहा - हमारी योजना विदेश में बागानों का अधिग्रहण करने की है। हालांकि उन्होंने इस बाबत निवेश का ब्योरा नहीं दिया। आरपीजी ग्रुप की कंपनी सीएट टायर्स की भी योजना विदेश में बागानों के अधिग्रहण की है।देसी व विदेशी बाजार में रबर की कीमतों के बीच के बड़े अंतर और विदेशी बागानों की कम लागत भी टायर कंपनियों को इसमें निवेश के लिए उत्साहित कर रही है। पिछले तीन महीने से बेंचमार्क आरएसएस-4 किस्म की रबर की औसत कीमतें वैश्विक कीमतों के मुकाबले 20 रुपये प्रति किलोग्राम ज्यादा हैं। साल के ज्यादातर समय में भारतीय कीमतें विदेश के मुकाबले ज्यादा रही हैं और इससे टायर कंपनियों के मुनाफे पर भारी असर पड़ा है। (BS Hindi)
ग्वाटेमाला की फसल आने से इलायची में गिरावट की संभावना
सेमैक्स एजेंसी के मैनेजिंग डायरेक्टर एम बी रुबारल ने बताया कि ग्वाटेमाला में इलायची की नई फसल की आवक शुरू हो गई है तथा ग्वाटेमाला में चालू फसल सीजन में इलायची की पैदावार बढ़कर 22,000 टन से ज्यादा होने का अनुमान है। पिछले साल ग्वाटेमाला में 18,000 टन इलायची की पैदावार हुई थी। भारत के मुकाबले ग्वाटेमाला की इलायची सस्ती है इसीलिए भारत से निर्यात मांग कम हो गई है।
भारतीय इलायची का भाव अंतरराष्ट्रीय बाजार में 16 से 18 डॉलर प्रति किलो है जबकि ग्वाटेमाला के निर्यातक 14 से 15 डॉलर प्रति किलो की दर से सौदे कर रहे हैं। ऐसे में घरेलू बाजार में इलायची की मौजूदा कीमतों में और भी पांच से सात फीसदी की गिरावट आने की संभावना है।
कार्डमम ग्रोवर एसोसिएशन के सचिव के के देवेशिया ने बताया कि चालू वित्त वर्ष के पहले छह महीनों में निर्यात में भारी बढ़ोतरी हुई है लेकिन अगले चार-पांच महीने निर्यात कमजोर रहने की संभावना है। घरेलू बाजार में नीलामी केंद्रों पर आवक बराबर बनी हुई है तथा चालू फसल सीजन में देश में इलायची की पैदावार बढ़कर 14,000 टन से भी ज्यादा होने का अनुमान है जबकि पिछले साल 12,000 टन की पैदावार हुई थी। इसीलिए गिरावट को बल मिल रहा है।
भारतीय मसाला बोर्ड के अनुसार चालू वित्त वर्ष 2011-12 के पहले छह महीनों में इलायची के निर्यात में 122 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। अप्रैल से सितंबर के दौरान निर्यात बढ़कर 1,850 टन का हो चुका है जबकि पिछले साल की समान अवधि में 355 टन का निर्यात हुआ था। अग्रवाल स्पाइसेज के पार्टनर अरुण अग्रवाल ने बताया कि नीलामी केंद्रों पर इलायची की साप्ताहिक आवक 500-600 टन की हो रही है। (Business Bhaskar....R S Rana)
बासमती के एमईपी में कमी के आसार, फैसला जल्द
निर्यातकों के मुताबिक बासमती के चावल के एमईपी में कमी से निर्यात में 10-15 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो सकती है। निर्यातकों के मुताबिक बासमती चावल के एमईपी में 150-200 डालर तक प्रति टन की कमी की जा सकती है। हालांकि वाणिज्य मंत्रालय की तरफ की अभी इसका खुलासा नहीं किया गया है।
एग्रीकल्चरल एंड प्रोसेस्ड फूड प्रॉडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी आफ इंडिया (एपीडा) द्वारा आयोजित बासमती फॉर वल्र्ड 2011 सम्मेलन के दौरान वाणिज्य सचिव राहुल खुल्लर ने कहा कि बासमती चावल के निर्यात को लेकर विश्व के कई देश विभिन्न प्रकार की रुकावट पैदा कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि वे बासमती चावल के एमईपी को कम करने के पक्ष में है और मंत्रालय ने इसकी सिफारिश भी की है। इस संबंध में ग्रुप आफ मिनिस्टर्स को प्रस्ताव भेज दिया गया है। बासमती चावल के निर्यातकों के मुताबिक एमईपी में कमी नहीं होने पर घरेलू बाजार में इसकी कीमत काफी कम हो सकती है। (Business Bhaskar)
कीमतें गिरने से उत्पादक बेहाल
अंतरराष्ट्रीय बाजार में पिछले एक साल में इलायची के दाम 40.9 फीसदी घटे, 12 नवंबर 2010 को अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम 26.66 डॉलर प्रति किलो था जबकि चालू महीने के 11 नवंबर को दाम घटकर 15.73 डॉलर प्रति किलो के स्तर पर आ गया ग्वाटेमाला में इलायची की पैदावार 22.2 फीसदी और घरेलू पैदावार में 16.6' की बढ़ोतरी का अनुमानपिछले एक साल में हल्दी के दाम 66 फीसदी घट चुके हैं। एक दिसंबर 2010 को इरोड़ मंडी में भाव 17,000 रुपये प्रति क्विंटल था जबकि मंगलवार को भाव घटकर 56,300 रुपये प्रति क्विंटल रह गयाचालू सीजन में हल्दी की पैदावार 75 लाख बोरी होने का अनुमान है जबकि पिछले साल 65 लाख बोरी का ही उत्पादन हुआ थाबासमती चावल निर्यात के लिए एमईपी 900 डॉलर प्रति टन, जबकि पाकिस्तान का चावल बिक रहा है सस्ताईरान से भुगतान विवाद और पाकिस्तान का निर्यात बढऩे से भारतीय बासमती चावल की निर्यात मांग कमजोरबासमती धान की पैदावार 10-15' ज्यादा होने से कीमतें 44.4' कमन्यूयॉर्क में मई महीने के वायदा अनुबंध में चार अप्रैल को कपास का दाम 196.49 सेंट प्रति पाउंड था जबकि मंगलवार को इसका भाव घटकर 90.81 सेंट प्रति पाउंड रह गयाचालू फसल सीजन में कपास की बंपर 61 लाख गांठ की पैदावार की संभावना31 मार्च को उत्पादक मंडियों में शंकर-6 किस्म की कपास का भाव 61,500 से 61,700 रुपये प्रति कैंडी था जबकि मंगलवार को भाव घटकर 3,7000 से 37,400 रुपये प्रति कैंडी रह गयापिछले एक साल में कपास, बासमती चावल, इलायची और हल्दी की कीमतों में करीब 39 से 66 फीसदी की गिरावट आ चुकी है जिससे उत्पादकों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में इस दौरान कपास की कीमतों में 53.7 फीसदी, बासमती धान की कीमतों में 25 फीसदी और इलायची की कीमतों में 41 फीसदी की गिरावट आई है। बासमती चावल में भुगतान विवाद और पाकिस्तान से प्रतिस्पर्धा बनी हुई है जबकि कपास, इलायची तथा हल्दी की पैदावार में बढ़ोतरी का असर निर्यात पर पड़ रहा है।
ऑल इंडिया राइस एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष विजय सेतिया ने बताया कि ईरान से भुगतान विवाद और पाकिस्तान का निर्यात बढऩे से भारतीय बासमती चावल की निर्यात मांग कमजोर है। जबकि सरकार ने बासमती चावल के निर्यात के लिए न्यूनतम निर्यात मूल्य (एमईपी) 900 डॉलर प्रति टन तय किया हुआ है तथा पाकिस्तान का चावल अंतरराष्ट्रीय बाजार में इससे भी सस्ता है। अक्टूबर 2010 में अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय पूसा-1121 बासमती सेला चावल का भाव 1,150-1,200 डॉलर और ट्रेडिशनल बासमती का भाव 1,500 से 1,700 डॉलर प्रति टन था।
इस समय पूसा-1,121 का भाव 900-950 डॉलर और ट्रेडिशनल बासमती का 1,150-1,200 डॉलर प्रति टन है। उत्पादक मंडियों में पूसा-1,121 बासमती धान का भाव घटकर 1,775-1,800 रुपये प्रति क्विंटल रह गया जबकि पिछले साल इसका भाव 2600 से 2,800 रुपये प्रति क्विंटल था। ऐसे में बासमती धान के किसानों को चालू सीजन भारी घाटा उठाना पड़ रहा है। वैसे भी चालू खरीफ में बासमती धान की पैदावार 10-15 फीसदी बढऩे की संभावना है।
केसीटी एंड एसोसिएटस के मैनेजिंग डायरेक्टर राकेश राठी ने बताया कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम बढऩे से घरेलू बाजार में मार्च महीने में कपास के दाम उच्चतम स्तर पर पहुंच गए थे। 31 मार्च को उत्पादक मंडियों में शंकर-6 किस्म की कपास का भाव 61,500 से 61,700 रुपये प्रति कैंडी (एक कैंडी-356 किलो) था जबकि मंगलवार को भाव घटकर 3,7000 से 37,400 रुपये प्रति कैंडी रह गया।
उधर न्यूयार्क में मई महीने के वायदा अनुबंध में चार अप्रैल को कपास का दाम 196.49 सेंट प्रति पाउंड था जबकि मंगलवार को इसका भाव घटकर 90.81 सेंट प्रति पाउंड रह गया। चालू फसल सीजन में कपास की रिकार्ड घरेलू पैदावार का असर कीमतों पर पड़ रहा है।
सेमैक्स एजेंसी के मैनेजिंग डायरेक्टर एम बी रुबारल ने बताया कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में पिछले एक साल में इलायची के दाम 40.9 फीसदी घटे हैं। 12 नवंबर 2010 को अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसका भाव 26.66 डॉलर प्रति किलो था जबकि चालू महीने के 11 नवंबर को दाम घटकर 15.73 डॉलर प्रति किलो के स्तर पर आ गया।
चालू वित्त वर्ष के पहले छह महीनों अप्रैल से सितंबर के दौरान रिकार्ड 1,850 टन का निर्यात भी हुआ है लेकिन ग्वाटेमाला में पैदावार 22.2 फीसदी और घरेलू पैदावार में 16.6 फीसदी की बढ़ोतरी का असर कीमतों पर पड़ रहा है।
नीलामी केंद्रों पर फरवरी से अभी तक इलायची की कीमतों में 40.7 फीसदी की गिरावट आकर भाव 800 रुपये प्रति किलो रह गए हैं। ग्वाटेमाला में इसकी पैदावार बढ़कर 22,000 टन और घरेलू फसल 14,000 टन होने की संभावना है। टरमरिक मर्चेंट्स एसोसिएशन के सचिव के वी रवि ने बताया कि पिछले एक साल में हल्दी के दाम 66 फीसदी घट चुके हैं। (Business Bhaskar....R S Rana)
तीन साल में 34 फीसदी महंगा हुआ दूध
उन्होंने लोकसभा में कहा कि दूध का थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) 7 नवंबर 2009 के 146.9 से बढ़कर ५ नवंबर 2011 को 196.9 हो गया। डब्ल्यूपीआई का आधार-वर्ष 2004-05 रखा गया।
महंत ने बताया कि पिछले तीन साल में दूध के उत्पादन में सात फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वर्ष 2008-09 में यहां दूध का उत्पादन 1,086 लाख टन होता था जबकि यह वर्ष 2010-11 में बढ़कर 1,162 लाख टन हो गया। मंत्री ने बताया कि राष्ट्रीय स्तर पर दुग्ध का उत्पादन घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। हालांकि लीन सीजन के दौरान दूध की कमी को पाउडर से पूरा किया जाता है।
सरकार ने दूध की उपलब्धता और दूध और दूध से बने उत्पादों की कीमतों को स्थिर रखने के लिए बहुत सारे उपाय किए हैं। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनएसडीबी) ने स्किम्ड मिल्क पाउडर और व्हाइट मिल्क पाउडर 50,000 टन आयात करने की मंजूरी दी है। इसके अलावा 15,000 टन बटर, बटर ऑयल और एन्हाइडरस (जलरहित) मिल्क वसा का बगैर शुल्क के आयात करने की इजाजत दी है। (Business Bhaskar)
दस लाख टन चीनी निर्यात को मंजूरी
चालू पेराई सीजन 2011-12 (अक्टूबर से सितंबर) के लिए केंद्र सरकार ने ओपन जरनल लाइसेंस (ओजीएल) के तहत दस लाख टन चीनी निर्यात को मंजूरी दे दी है। चीनी व्यापारियों पर लगी स्टॉक लिमिट को भी समाप्त कर दिया गया है। इसके अलावा चावल पर भी सात राज्यों दिल्ली, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, झारखंड, चंडीगढ़ और अंडमान एवं निकोबार को छोड़ बाकी राज्यों से स्टॉक लिमिट हटा ली गई है।
खाद्य मामलों पर प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह (ईजीओएम) की मंगलवार को हुई बैठक में ये फैसले हुए। खाद्य राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) प्रो. के.वी. थॉमस ने बताया कि ओजीएल के तहत 10 लाख टन चीनी निर्यात की मंजूरी दी गई है। इसके अलावा चीनी और चावल पर लगी स्टॉक लिमिट को भी समाप्त कर दिया गया है। उन्होंने कहा कि उद्योग ने 30 लाख टन चीनी निर्यात की मांग की थी लेकिन मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए 10 लाख टन के निर्यात को ही मंजूरी दी गई है।
इससे घरेलू बाजार में चीनी कीमतों पर प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि चालू सीजन में देश में चीनी का उत्पादन बढऩे की संभावना है। खाद्य मंत्रालय के अनुसार चालू पेराई सीजन में चीनी का उत्पादन 247.7 लाख टन होने का अनुमान है जबकि उद्योग का अनुमान 260 लाख टन का है। इस समय फुटकर बाजार में चीनी के दाम 32 से 35 रुपये प्रति किलो चल रहे हैं जबकि प्रमुख उत्पादक राज्यों की सभी मिलों में पेराई शुरू होने से दिसंबर महीने में दाम घटने की आशंका है।
वर्ष 2009 में फुटकर बाजार में चीनी के दाम बढ़कर 47 से 49 रुपये प्रति किलो हो गए थे ऐसे में उपभोक्ताओं को ऊंची कीमतों से राहत देने के लिए सरकार ने अगस्त 2009 में स्टॉक लिमिट लगाई थी। चीनी पर स्टॉक लिमिट की अवधि 30 नवंबर 2011 तक है। चावल पर सरकार ने अक्टूबर 2008 में स्टॉक लिमिट लगाई थी। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के तहत राज्य सरकारों को अधिकार है कि वे जमाखोरों के खिलाफ कार्यवाही कर सकती हैंं। (Business Bhaskar....R S Rana)
19 नवंबर 2011
एफसीआरए में जल्द संशोधन से पहुंचेगा किसानों तक कमोडिटी फ्यूचर्स का लाभ
सदीय समिति उस विधेयक का परीक्षण कर रही है जिसके अंतर्गत कमोडिटी डेरिवेटिव मार्केट नियामक को स्वायत्तता देने की बात कही गई है। आठ महीने के बाद अब खाद्य, उपभोक्ता मामले और जन वितरण पर संसदीय स्थाई समिति कमोडिटी फ्यूचर्स मार्केट रेगुलेटर, फारवर्ड मार्केट कमीशन के अधिकारियों और कमोडिटी एक्सचेंजों के अधिकारियों से बातचीत कर रही है।
कमोडिटी फ्यूचर्स मार्केट को और सशक्त बनाने के लिए केंद्र सरकार ने फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट्स (रेगुलेशन) एक्ट (एफसीआरए) 1952 में संशोधन के लिए संसद के सामने प्रस्तुत किया है। इस अधिनियम के तहत ही भारत के कमोडिटी फ्यूचर्स मार्केट विनियमित होते हैं। साथ ही कमोडिटी फ्यूचर मार्केट के नियामक वायदा बाजार आयोग (एफएमसी) को कमोडिटी डेरिवेटिव्स मार्केट के विकास और नियमों के कार्यान्वयन हेतु अधिकार मिलते हैं।
इस संदर्भ में पहला विधेयक लोक सभा में मार्च 2006 में रखा गया था जिसे स्थाई समिति को भेज दिया गया था। दिसंबर 2006 में ही स्थाई समिति ने अपनी रिपोर्ट दे दी थी। इसके बाद विधेयक में संशोधन हेतु कैबिनेट के लिए एक नोट तैयार किया गया था जिस पर मई 2007 में विचार भी किया गया। बाद में इस पर व्यापक विचार-विमर्श का निर्णय लिया गया और इसे अंजाम भी दिया गया।
बाद में यह निर्णय लिया गया कि साल 2006 के विधेयक को वापस लेते हुए एक नया बिल पेश किया जाए और अभी समिति इसी नये विधेयक पर विचार कर रही है।
अगर हम कमोडिटी एक्सचेंजों के ऐतिहासिक कारोबार पर एक नजर डालें तो पिछले सात वर्षों में संचयित कारोबार 40 प्रतिशत सीएजीआर के हिसाब से बढ़ कर साल 2010-11 में 120 लाख करोड़ रुपये को पार कर चुका है।
नियामक के हाथ भी कई मामलों में बंधे हुए हैं और कई बातों के लिए उसे सरकार पर निर्भर रहना होता है। वर्तमान अधिनियम के तहत नियामक को वित्तीय और दैनिक परिचालन के लिए पूरी तरह सरकार पर निर्भर रहना होता है। सरकार पर वित्तीय निर्भरता के कारण इंफ्रास्ट्रक्चर, टेक्नोलॉजी, मानव संसाधन में निवेश सीमित हो गया है जिस वजह से नियमनों के व्यवस्थित परिचालन और भावी विकास संभावनाओं में कठिनाई हो रही है।
देखा जाए तो बाजार के वर्तमान आकार और तेज विकास को देखते हुए फ्यूचर्स मार्केट को एक स्वायत्त और मजबूत नियामक की जरूरत है। नियामक को बाजार के कारोबारियों के गलत व्यापार पर पेनाल्टी लगाने और उसकी जांच करने का अधिकार मिलना चाहिए साथ ही फ्यूचर्स मार्केट के व्यापार को बेहतर निगरानी के लिए संपूर्ण पर्यवेक्षण का अधिकार मिलना चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह वायदा बाजार आयोग को नियमों के सख्त कार्यान्वयन के लिए सबल बनाए जिसे वर्तमान में संबद्ध मंत्रालय की अनुमति पर निर्भर रहना होता है।
कमोडिटी फ्यूचर्स मार्केट को और आगे बढ़ाने के लिए एफएमसी को वित्तीय स्वायत्तता मिलनी चाहिए ताकि इसके दायरे का विस्तार हो सके और इसे सभी वर्गों तक पहुंचाया जा सके।
दशकों से अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के साथ नियामकों की भूमिका में बदलाव आया है लेकिन एक एफएमसी ही ऐसा नियामक है जो सशक्तीकरण के मामले में पीछे छूट गया है। एक सशक्त एफएमसी दूसरे नियामकों से फ्यूचर्स मार्केट में वित्तीय संस्थानों की स्वीकृति हेतु पहल और मदद कर कसता है। अगर बैंक सहभागी बन जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी पहुंच की बदौलत किसानों भी फ्यूचर्स मार्केट में भाग ले सकते हैं।
इसके अलावा नेटवर्क मजबूत होने की वजह से फ्यूचर्स के भाव का प्रसारण भी बड़े पैमाने पर हो सकेगा। वर्तमान में भारतीय कॉरपोरेट जो हेजिंग के लिए वैश्विक एक्सचेंजों का उपयोग कर रहे हैं वह भारतीय एक्सचेंजों और सेवाओं का उपयोग करने लगेंगे।
यह सब तभी संभव होगा जब कमोडिटी फ्यूचर्स मार्केट के फायदे एक समर्पित, सशक्त और सक्षम नियामकीय ढांचे के जरिये समाज के सभी वर्गों तक पहुंचाया जाए। (Business Bhaskar)
ईजीओएम में चावल स्टॉक लिमिट पर फैसला संभव
चालू खरीफ में चावल की बंपर पैदावार होने की संभावना है जबकि इस समय केंद्रीय पूल में चावल का भारी-भरकम स्टॉक मौजूद है। इसीलिए सरकार चावल पर लगी स्टॉक लिमिट को हटाने पर विचार कर रही है। लेकिन देश के सात राज्यों दिल्ली, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, झारखंड, चंडीगढ़ और अंडमान एवं निकोबार में स्टॉक लिमिट जारी रहेगी। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह (ईजीओएम) की 21 नवंबर को होने वाली बैठक में इस पर फैसला हो सकता है।
उपभोक्ता मामले मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि मंत्रालय ने सितंबर महीने में राज्य सरकारों से पत्र लिखकर चावल पर स्टॉक लिमिट हटाने के बारे में राय मांगी थी। दिल्ली, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, झारखंड, चंडीगढ़ और अंडमान एवं निकोबार की सरकारों ने स्टॉक लिमिट जारी रखने की मांग की है लेकिन अन्य राज्यों ने स्टॉक लिमिट हटाने की सिफारिश की है। इसीलिए देश के सात राज्यों में चावल पर स्टॉक लिमिट जारी रखने की योजना है लेकिन अन्य राज्यों से स्टॉक लिमिट हटाने की सिफारिश की गई है।उन्होंने बताया कि ईजीओएम की 21 नवंबर को होने वाली बैठक में इस पर निर्णय लिया जा सकता है। वैसे भी घरेलू बाजार में परमल चावल के दाम फुटकर बाजार में पिछले पांच-छह महीनों से 22-24 रुपये प्रति किलो पर स्थिर बने हुए हैं। उन्होंने कहा कि स्टॉक लिमिट हटा लेने से व्यापारियों के साथ ही किसानों को भी फायदा होगा।
उपभोक्ताओं को ऊंची कीमतों से राहत देने के लिए सरकार ने अक्टूबर 2008 में चावल पर स्टॉक लिमिट लगाई थी। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के तहत राज्य सरकारों को अधिकार है कि वे जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई कर सकती हैं।
चालू खरीफ सीजन में देश में चावल का बंपर उत्पादन 871 लाख टन होने का अनुमान है। जिससे चालू विपणन सीजन में चावल की न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद भी बढऩे की संभावना है।
देशभर की मंडियों से अभी तक एमएसपी पर 101 लाख टन से ज्यादा चावल की खरीद हो चुकी है। जबकि केंद्रीय पूल में एक नवंबर को चावल का भारी भरकम 260.83 लाख टन का स्टॉक बचा हुआ है। चालू विपणन सीजन के लिए केंद्र सरकार ने धान का एमएसपी 80 रुपये बढ़ाकर कॉमन वेरायटी के लिए भाव 1,080 रुपये और ए-ग्रेड के लिए 1,110 रुपये प्रति क्विंटल तय किया हुआ है। (Business Bhaskar.....R S Rana)
एमएसपी की सूची में और फसलें नहीं होंगी शामि
मुंबई November 17, 2011 |
सब्सिडी का बोझ कम करने और कीमतों पर पडऩे वाले दबाव घटाने की खातिर सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की सूची में किसी और फसल को फिलहाल शामिल नहीं करने का फैसला किया है।
किसानों के लिए तैयार कृषि मंत्रालय की राष्ट्रीय नीति में ये सिफारिशें की गई थीं, लेकिन कृषि विकास के लिए कार्ययोजना बनाने की खातिर हाल में संबंधित मंत्रालयों के साथ हुई कैबिनेट सचिव की बैठक में यह फैसला लिया गया। कृषि समीक्षा की तैयारी और कृषि के लिए कार्ययोजना बनाने की खातिर यह बैठक प्रधानमंत्री के आदेश पर बुलाई गई थी। कृषि सर्वेक्षण बजट के दौरान पेश की जाने वाली आर्थिक समीक्षा के समानांतर दस्तावेज होगा।
इस बीच, अधिकारियों ने कहा कि बजट के लिए कृषि मंत्रालय को अपनी सिफारिशें सौंपने को कहा गया है, जो कार्ययोजना के एजेंडे का अनुपूरक हो सकता है। आधिकारिक सूत्रों ने कहा - मंत्रालय किसानों की राष्ट्रीय नीति पर आधारित ज्यादातर सिफारिशें आगे बढ़ाना चाहता है, लेकिन कैबिनेट के अधिकारियों का मानना है कि खाद्य कीमतों पर महंगाई के दबाव व सरकार पर सब्सिडी के बोझ को देखते हुए इसे रोककर रखा जाए। अधिकारियों ने कहा कि मंत्रालय ज्यादातर सिफारिशें मध्यम अवधि के लिए करेगा, न कि छोटी अवधि के लिए, ताकि महंगाई के दबाव को दूर रखा जा सके।
किसानों की राष्ट्रीय नीति पर की सिफारिशों के आधार पर कृषि मंत्रालय फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य के आकलन के तौर-तरीकों की समीक्षा की वकालत कर रहा है, साथ ही इस सूची में और फसलों को शामिल करने की मांग कर रहा है। अंतरमंत्रालय बैठक में जो अन्य मांगे उठाई गईं उनमें उर्वरक, पानी व बिजली की समय पर आपूर्ति के अलावा किसानों के लिए डीजल सब्सिडी में बढ़ोतरी शामिल है। लेकिन बैठक में डीजल पर सब्सिडी बढ़ाने की मांग खारिज कर दी गई।
महंगाई और बढ़ती खाद्य कीमतों को राष्ट्रीय एजेंडे में प्राथमिकता के तौर पर रखते हुए कैबिनेट ने कृषि लागत व मूल्य आयोग द्वारा एमएसपी तय करने के लिए अपनाए गए तरीके में फिलहाल कोई फेरबदल न करने का फैसला किया। कृषि मंत्रालय के विजन डॉक्यूमेंट (किसानों की राष्ट्रीय नीति) में मंत्रालय ने सुझाव दिया है कि एमएसपी का निर्धारण भारांकित औसत लागत के मुकाबले 50 फीसदी ज्यादा होना चाहिए।
हाल में सरकार ने साल 2011-12 के रबी सीजन के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है, जो गेहूं को छोड़कर बाकी फसलों के मामले में पिछले साल के मुकाबले करीब 20-25 फीसदी ज्यादा है। ऐसे वक्त में खाद्य मंत्रालय ने एमएसपी में होने वाली बढ़ोतरी से खाद्यान्न की कीमतों पर पडऩे वाले असर की बाबत चिंता जताई थी। एमएसपी विभिन्न जिंसों की सरकार द्वारा तय फ्लोर प्राइस है, जिसके नीचे उसका विपणन नहीं किया जा सकता। (BS Hindi)
गुड़ निर्माताओं को गन्ने की बिक्री
बई November 18, 2011 |
चीनी मिलों द्वारा गन्ने की पेराई में देरी करने और इसकी अंतिम कीमतों पर अनिश्चितता बरकरार रहने के कारण देश के दूसरे सबसे बड़े चीनी उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश में किसानों ने गन्ने की बिक्री गुड़ बनाने वाली इकाइयों (कोल्हू) को 220 रुपये प्रति क्विंटल की दर पर करनी शुरू कर दी है।
सबसे रोचक बात यह है कि गन्ने की यह कीमत राज्य सरकार द्वारा हाल ही में घोषित राज्य परामर्श मूल्य (सैप) 250 रुपये प्रति क्विंटल से 20-30 रुपये कम है। किसान गेहूं की बुआई के लिए खेतों को खाली कर रहे हैं। मध्य प्रदेश के किसान भी गुड़ बनाने वाली इकाइयों को गन्ने की बिक्री कर रहे हैं। कोल्हू सहजता से अगेती किस्मों के पिछले साल के सैप 205 रुपये प्रति क्विंटल से 15 रुपये अधिक भुगतान कर रहे हैं। इस कीमत पर गुड़ निर्माता इकाइयों की उत्पादन लागत 980 रुपये प्रति 40 किलोग्राम बैठती है। जबकि गुड़ की वर्तमान कीमत 940-950 रुपये प्रति 40 किलोग्राम है। हालांकि गुड़ बनाने वाली इकाइयां गन्ने के अपशिष्ट को कागज मिलों को बेचकर घाटे की भरपाई करती हैं और कुछ लाभ कमाती हैं।
हालांकि चीनी मिलों के लिए अगेती किस्म के गन्ने की पेराई नुकसानदेह रिकवरी के कारण बूते से बाहर है। अगेती किस्म की रिकवरी 7.0-8.0 फीसदी होती है, जो ठंड बढऩे के साथ बढ़ती है। इसके चलते खड़े गन्ने में शर्करा की मात्रा ज्यादा होती है। उत्तर प्रदेश में 9.2-9.3 फीसदी वार्षिक औसत रिकवरी के बावजूद चीनी मिलें अगेती किस्म की खरीद में उत्साह नहीं दिखा रही हैं।
हालांकि समान गन्ने से मिलों को कम रिकवरी मिलती है, वहीं गुड़ बनाने वाली इकाइयों की रिकवरी 9.5 फीसदी होती है, क्योंकि ये अपशिष्ट में बिल्कुल भी रस नहीं छोड़ती हैं।
इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) के महासचिव अविनाश वर्मा ने कहा,'उत्तर प्रदेश में चीनी मिलें आमतौर पर नवंबर के तीसरे सप्ताह में पेराई शुरू करती हैं। हालांकि यह कहना सही नहीं होगा कि किसान चीनी मिलों के बजाए कोल्हू को गन्ने की आपूर्ति करने के विकल्प का इस्तेमाल कर रहे हैं। चीनी मिलों ने अभी पेराई शुरू नहीं की है। पैसे की जरूरत वाले किसानों के पास कोल्हू को आपूर्ति के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है।'
उन्होंने कहा कि हालांकि इस साल एक नया रुझान उभरा है, बहुत से कोल्हू पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मध्य प्रदेश पलायन कर गए हैं। इसकी वजह मप्र में गन्ने की बंपर उपलब्धता है। वहीं, मध्य प्रदेश में कोल्हू को चीनी मिलों से प्रतिस्पर्धा नहीं करनी पड़ती, क्योंकि वहां बड़ी पेराई इकाइयां नहीं हैं।
मध्य प्रदेश में 10-12 लघु चीनी विनिर्माता इकाइयां हैं। लेकिन वे राज्य में उपलब्ध पूरे गन्ने की पेराई नहीं कर पाती हैं। इसके अलावा मध्य प्रदेश में गन्ने की औसत रिकवरी 10.5-11 फीसदी होती है, जो उत्तर प्रदेश में 9.2-9.3 फीसदी रिकवरी से काफी अधिक है। इसलिए मध्य प्रदेश में कोल्हू अन्य राज्यों में अपने समकक्षों की तुलना में ज्यादा फायदे की स्थिति में हैं।
हापुड़ (उत्तर प्रदेश) स्थित गुड़ निर्माता इकाई दुर्गादास नारायणदास के मालिक विजेंद्र कुमार बंसल ने कहा कि आमतौर पर चीनी मिलेें सीजन के प्रारंभ में बड़े किसानों को सूचीबद्ध करती हैं और सबसे पहले उनका गन्ना खरीदती हैं। छोटे और मझोले किसान अपने गन्ने की आपूर्ति कोल्हू को करने को आर्थिक दृष्टि से ज्यादा उचित पाते हैं। क्योंकि वे चीनी मिलों तक गन्ने को पहुंचाने के लिए गाड़ी/ट्रैक्टर किराए पर नहीं ले सकते। इसलिए वे अपने नजदीक के कोल्हू को गन्ने की आपूर्ति करने को प्राथमिकता देते हैं। इससे उन्हें तत्काल नकदी मिल जाती है, जिससे वे अगली फसल के लिए तिलहन या गेहूं, खाद और कीटनाशक खरीद सकते हैं।
बंसल ने कहा कि महाराष्ट्र, कर्नाटक और बिहार समेत अन्य प्रमुख राज्यों में किसान कोल्हूओं को गन्ने की आपूर्ति करने को ज्यादा फायदेमंद पाते हैं। देशभर में इस साल गुड़ का उत्पादन 1 करोड़ टन के आसपास रहने की संभावना है। हालांकि बंसल ने कहा कि मॉनसून के बाद तेज पूर्वी हवाओं के कारण गन्ने की फसल पूरी तरह पकी नहीं है। इसलिए फसल की औसत उत्पादकता 9 फीसदी से ज्यादा नहीं होगी। (BS Hindi)
एथेनॉल का मिश्रण, फायदे का सौदा
ई दिल्ली November 18, 2011 |
सितंबर 2012 में समाप्त होने वाले वर्ष में पेट्रोल में एथेनॉल की मिलावट से तेल कंपनियों को 1200 करोड़ रुपये की बचत होगी। तीन कंपनियों इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम और हिंदुस्तान पेट्रोलियम ने साल 2011-12 के चीनी सीजन (अक्टूबर-सितंबर) में चीनी उद्योग से 60 करोड़ लीटर एथेनॉल खरीदने का अनुबंध किया है।
निजी चीनी मिलों की अग्रणी संस्था इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) के मुताबिक, जब एक बार एथेनॉल की कीमतों का जुड़ाव पेट्रोल से हो जाएगा तो कंपनियों को 27 रुपये प्रति लीटर की मौजूदा कीमत के मुकाबले 33.50 रुपये प्रति लीटर का भाव मिलने लगेगा। सौमित्र चौधरी समिति ने एथेनॉल की कीमतों का जुड़ाव पिछली तिमाही के पेट्रोल से करने की सिफारिश की है और इससे पहले इसमें कर प्रोत्साहन जैसे कुछ समायोजन करने का सुझाव दिया है।
33.50 रुपये प्रति लीटर की एक्स-मिल कीमतों को देखते हुए तेल विपणन कंपनियों के डिपो में एथेनॉल की लागत प्रति लीटर 41.28 रुपये बैठेगी जबकि पेट्रोल की कीमतें 50.36 रुपये प्रति लीटर बैठती है। इन दोनों में अंतर इसलिए है क्योंकि एथेनॉल पर उत्पाद शुल्क की दर कम है और एथेनॉल व पेट्रोल की कीमतों के बीच अंतर है। एथेनॉल पर 10.3 फीसदी का ऐड वेलोरम उत्पाद शुल्क लगता है जबकि पेट्रोल पर 14.78 रुपये प्रति लीटर का विशेष शुल्क है। उपभोक्ताओं को एथेनॉल मिश्रित उत्पाद पेट्रोल की खुदरा कीमतों 66.42 रुपये प्रति लीटर (दिल्ली में) पर बेचा जाता है।
इस्मा के महानिदेशक अविनाश वर्मा ने कहा - कुल मिलाकर तेल विपणन कंपनियां एथेनॉल के हर लीटर की खरीद पर 20 रुपये की बचत करने में सक्षम होंगी। ऐसे में 60 करोड़ लीटर एथेनॉल की खरीद पर तेल विपणन कंपनियों को साल 2011-12 में ही 1200 करोड़ रुपये की बचत होगी।
पेट्रोलियम राज्यमंत्री आर पी एन सिंह ने अगस्त में संसद में कहा था कि पिछले वित्त वर्ष में तेल विपणन कंपनियों को एथेनॉल की मिलावट से 154 करोड़ रुपये की बचत हुई थी। साल 2008-09 व 2009-10 में एथेनॉल के मिश्रण से तेल विपणन कंपनियों की कुल बचत 153 करोड़ रुपये रही थी। कंपनी के एक अधिकारी ने कहा - एथेनॉल की मिलावट हमारे लिए काफी अच्छी है, लेकिन उन्होंने इस बात ताजा आंकड़े नहीं बताए।
चीनी मिलें पिछले एक साल से ज्यादा समय से 27 रुपये प्रति लीटर पर एथेनॉल की आपूर्ति कर रही है। इस बीच, पिछले एक साल में तेल विपणन कंपनियां पेट्रोल की कीमतों में कई बार फेरबदल कर चुकी हैं (BS Hindi)
17 नवंबर 2011
रुपये में गिरावट से बढ़ी घबराहट
वैश्विक अनिश्चितता को देखते हुए डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में लगातार गिरावट देखी जा रही है। अर्थशास्त्रियों और कारोबारियों का कहना है कि डॉलर के मुकाबले रुपया अपने न्यूनतम स्तर के करीब पहुंच गया है और यूरो क्षेत्र में संकट गहराने से भारतीय मुद्रा डॉलर के मुकाबले 52 रुपये के स्तर को छू सकती है।बुधवार को रुपये में करीब 7 पैसे की गिरावट दर्ज की गई और यह डॉलर के मुकाबले 50.73 रुपये पर पहुंच गया। मार्च 2009 में भारतीय मुद्रा अपने न्यूनतम स्तर 51.97 रुपये पर पहुंच गई थी। पिछले तीन माह के दौरान डॉलर के मुकाबले रुपये में करीब 15 फीसदी की गिरावट आ चुकी है।रेटिंग एजेंसी केयर के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस ने कहा, 'रुपये में गिरावट से देश के व्यापार संतुलन पर असर पड़ रहा है। निर्यात में नरमी का रुख देखा जा रहा है जबकि आयात में तेजी आ रही है। इसके चलते डॉलर भी बाहर निकल रहा है।' उन्होंने कहा कि यूरोपीय ऋण संकट अगर आगे भी जारी रहा तो साल के अंत तक भारतीय मुद्रा डॉलर के मुकाबले 52 रुपये के स्तर पर पहुंच सकता है।तेल आयात की मांग बढऩे से भी डॉलर मजबूत हो रहा है और फंड का देश से बाहर जाने के चलते भी रुपया कमजोर हो रहा है। बंबई स्टॉक एक्सचेंज के मुताबिक बुधवार को विदेशी निवेशकों ने घरेलू शेयर बाजारों में करीब 488 करोड़ रुपये की बिकवाली की, जिसके चलते बाजार 0.7 फीसदी गिरावट पर बंद हुआ।वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा कि भारतीय रिजर्व बैंक स्थिति पर नजर रख रहा है और जरूरत पडऩे पर वह हस्तक्षेप कर सकता है। सितंबर में जब रुपये में 6.25 फीसदी की गिरावट आई थी तब रिजर्व बैंक ने डॉलर बेचकर रुपये को सहारा दिया था। वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने कहा कि रुपये में गिरावट के चलते महंगाई पर भी दबाव पड़ रहा है। (BS Hindi)
दो अरब डॉलर के सोने की बिक्री से मंदी के संकेत
अमेरिका में रेग्यूलेटरी फाइलिंग के आंकड़ों के मुताबिक पॉल्सन एंड कंपनी ने एसपीडीआर गोल्ड ट्रस्ट में अपनी होल्डिंग घटाकर 203 लाख शेयर की है। दूसरी तिमाही के अंत में उसकी होल्डिंग 315 लाख शेयर की थी। मौजूदा मूल्य के आधार पर पॉल्सन की बिक्री करीब 11 लाख औंस के बराबर है। इसका मूल्य 1.94 अरब डॉलर है। चालू वर्ष के शुरू में अरबपति फाइनेंसर जॉर्ज सोरोस द्वारा सोने में अपना लगभग पूरा हिस्सा (80 करोड़ डॉलर) बेचे के बाद पॉल्सन के पास बुलियन में निवेश काफी ज्यादा हो गया था।
सोरोस ने सोने के मूल्य को अंतिम बुलबुला करार देकर अपना सारा हिस्सा बेच दिया था। उन्होंने अपना सोना 6 सितंबर को 1920.30 डॉलर प्रति औंस का रिकॉर्ड स्तर छूने से पहले बेच दिया था। इसके बाद सोना 26 सितंबर को 1,534.49 डॉलर प्रति औंस का स्तर भी छू गया।
एएनजेड रिसर्च ने एक नोट में कहा है कि अमेरिकी रेग्यूलेटरी में इस फाइलिंग की ओर हर किसी का ध्यान जाएगा और सोने में मंदी आने की उम्मीद बनेगी। नोट में कहा गया है कि वास्तव में सोने की तेजी के दिन लद चुके हैं। लंदन के हाजिर बाजार में मंगलवार को सोना करीब एक फीसदी गिरकर 1762.98 डॉलर प्रति औंस रह गया। हालांकि चालू वर्ष में अब तक इसके दाम करीब 25 फीसदी बढ़ चुके हैं।
पॉल्सन द्वारा सोने की बिक्री के पीछे की वजह अभी तक स्पष्ट नहीं है। एएनजेड के अनुसार संभव है कि पॉल्सन अपनी होल्डिंग को एक्सचेंज ट्रेडेड फंड एसपीडीआर से शिफ्ट करके हाजिर होल्डिंग में लाए। इस कदम से वह एसपीडीआर की मैनेजमेंट फीस से बचत कर सकता है। हमें संदेह है कि पॉल्सन का सोने के प्रति लगाव खत्म हो रहा है।
बैंक ऑफ अमेरिका और हैलिट पैकर्ड जैसे शेयरों में सितंबर के अंत में गिरावट आने से पॉल्सन एडवांटेज प्लस फंड की वैल्यू करीब आधी घट चुकी है। ऐसे में हो सकता है कि उसने रिडीम्शन (पैसा निकालने) के लिए सोने की बिक्री की हो। पॉल्सन करेंसी रिस्क की हेजिंग के लिए एसपीडीआर होल्डिंग का इस्तेमाल करती है। उसने इस महीने के शुरू में कहा था कि उसकी कुल फंड वैल्यू में करीब आठ फीसदी के रिडीम्शन आवेदन मिले हैं। उसके फंड की कुल वैल्यू करीब 30 अरब डॉलर है।ऊंचे भाव पर मांग घटने से सोना व चांदी नरमनई दिल्ली ऊंची कीमतों पर मांग घटने से मंगलवार को दिल्ली सराफा बाजार में चांदी की कीमतों में 500 रुपये की गिरावट आकर भाव 57,500 रुपये प्रति किलो रह गए। सोने की कीमतों में भी 30 रुपये का मंदा आकर भाव 29,265 रुपये प्रति दस ग्राम रह गए। अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी निवेशकों की मुनाफावसूली से मंगलवार को सोने की कीमतों में 19 डॉलर की गिरावट आकर भाव 1,761 डॉलर प्रति औंस पर कारोबार करते देखा गया।
जबकि 14 अक्टूबर को इसका भाव 1,780 डॉलर प्रति औंस पर बंद हुआ था। चांदी की कीमतें भी मंगलवार को अंतरराष्ट्रीय बाजार में घटकर 33.79 डॉलर प्रति औंस पर कारोबार करते देखी गई जबकि पिछले कारोबारी दिवस में इसका भाव 34.24 डॉलर प्रति औंस पर बंद हुआ था। (Business Bhaskar)
चीनी निर्यात पर फैसला 21 को संभव
सरकार 21 नवंबर को चीनी निर्यात पर फैसला ले सकती है। केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने बिजनेस भास्कर को बताया कि खाद्य मामलों पर प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह (ईजीओएम) की 21 नवंबर को बैठक होगी जिसमें चीनी के निर्यात पर फैसला लिया जायेगा। उन्होंने चीनी निर्यात की मात्रा पर कहा कि इस बारे में फैसला ईजीओएम को करना है।
चालू पेराई सीजन में देश में चीनी का उत्पादन बढऩे का अनुमान है, इसीलिए उद्योग चाहता है कि ओपन जरनल लाइसेंस (ओजीएल) के तहत 30 लाख टन चीनी के निर्यात की अनुमति दी जाये। जबकि खाद्य मंत्रालय छोटी-छोटी मात्रा में निर्यात की अनुमति देने के पक्ष में है। सूत्रों के अनुसार 21 नवंबर को होने वाली ईजीओएम की बैठक में पांच लाख टन चीनी के निर्यात को अनुमति दी जा सकती है।
इसके अलावा इस बैठक में 19,000 टन चीनी के निर्यात की अनुमति मित्र देशों को (डिप्लोमेटिक आधार) पर दिए जाने की संभावना है। खाद्य मंत्रालय के अनुसार चालू पेराई सीजन के दौरान देश में 247.7 लाख टन चीनी का उत्पादन होने का अनुमान है।आलोचना:- वर्ष 2007 में महंगे दामों पर चीनी आयात के बाद अगले ही साल 2008 में उन्होंने चीनी निर्यात का फैसला करने पर पवार की कड़ी आलोचना देश में हुई थी। पिछले साल विपक्षी दलों ने खाद्यान्नों की ऊंची कीमतों के लिए पवार की नीतियों को ही जिम्मेदार ठहराया था।भारत दुनिया के सबसे बड़े खाद्यान्न उपभोक्ताओं में से एक है। ऐसे में खाद्यान्न निर्यात का मामला काफी संवेदनशील होता है। लेकिन जब खाद्यान्न निर्यात की बारी आती है तो तुरुप का पत्ता कृषि मंत्री शरद पवार के हाथ में होता है। चार दशक से भारतीय राजनीति में जमे और मौजूदा यूपीए सरकार में अपनी निर्णायक भूमिका के कारण उनकी बात टालना किसी के लिए भी संभव नहीं होता है।
माना जा रहा है कि इस सप्ताह वे देश से 5 लाख टन चीनी निर्यात के लिए दबाव बढ़ा सकते हैं। विपक्ष और अपनी सरकार में ही उनके कुछ साथियों को शायद ऐसे में असहज स्थिति का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि महंगाई को काबू में करने और 120 करोड़ आबादी वाले घरेलू बाजार में चीनी की सप्लाई को पर्याप्त रखने की चुनौती देश के सामने है। कुछ जानकारों ने तो इस तरह की आशंका भी जताई है कि यदि चीनी निर्यात की जाती है तो इसका चीनी की कीमतों पर भारी असर पड़ सकता है और देश में चीनी कीमतें 50 रुपये प्रति किलो तक भी उछल सकती हैं।
70 वर्षीय पवार पहले ही इस साल कई निर्यात सौदों के लिए दबाव डाल चुके हैं, जिनकी देश में आलोचना भी होती रही है। पवार इससे बढ़ती कीमतों का फायदा किसानों को दिलाने का प्रयास करते हैं ताकि अपनी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मतदाताओं को प्रभावित किया जा सके। 2007 में महंगे दामों पर चीनी का आयात करने के बाद अगले ही साल 2008 में उन्होंने चीनी निर्यात का फैसला किया जिसकी कड़ी आलोचना देश में हुई। पिछले साल विपक्षी दलों ने खाद्यान्नों की ऊंची कीमतों के लिए पवार की नीतियों को ही जिम्मेदार ठहराया।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा चीनी उपभोक्ता और ब्राजील के बाद दूसरा सबसे बड़ा चीनी उत्पादक है। ऐसे में भारत से चीनी का आयात या निर्यात दोनों ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करता है। हालांकि यह इसके उत्पादन पर निर्भर करता है। भारतीय किसान संगठनों के संघ के महासचिव पी. शेंगाल रेड्डी पवार के प्रभाव को लेकर कहते हैं, 'प्रधानमंत्री उनकी (पवार की) बात सुनते हैं और कैबिनेट पीएम की। कृषि और खाद्यान्न संबंधी मामलों में वह एक अथॉरिटी हैं। उनके प्रस्ताव भले ही प्रधानमंत्री हों या कैबिनेट एक दिन से ज्यादा दिन नहीं टलते।'
जनवरी 2011 तक पवार के पास खाद्यान्न मंत्रालय भी था और उनको किसानों और उपभोक्ताओं के जरूरतों के बीच संतुलन बैठाने के लिए जूझना पड़ता था। अब केवी थॉमस को खाद्यान्न मंत्रालय दिया जा चुका है और निर्यात पर बने मंत्रियों के पैनल में पवार के प्रस्तावों का थॉमस विरोध करते नजर आते हैं। यह पैनल जब भी मिलता है कृषि निर्यात की इजाजत देता है। यह दर्शाता है कि पवार अपने मतदाताओं को फायदा पहुंचाने के लिए सबकुछ करते हैं और यही कारण है कि चार दशक के राजनीतिक जीवन में उन्होंने कभी चुनाव नहीं हारा। (Business Bhaskar....R S Rana)
काली मिर्च का वैश्विक उत्पादन बढ़ेगा
काली मिर्च के वैश्विक उत्पादन के ताजा अनुमान से संकेत मिलता है कि साल 2012 के सीजन में इसमें 4 फीसदी की बढ़ोतरी होगी। अग्रणी निर्यात घरानों के अनुमानों के मुताबिक, अगले साल कुल 2,70,000 लाख टन काली मिर्च का उत्पादन होगा। वैश्विक आपूर्ति के नियंत्रण की कुंजी वियतनाम के पास होगी, जहां कुल 1,40,000 टन काली मिर्च का उत्पादन होगा। साल 2011 में वियतनाम में कुल 1,30,000 टन काली मिर्च का उत्पादन हुआ था। काली मिर्च के प्रमुख उत्पादक देशों में कैरीओवर स्टॉक को शामिल करते हुए साल 2012 में कुल वैश्विक आपूर्ति करीब 3,20,000 टन की होगी। यह साल 2011 के 3,30,000 टन के मुकाबले 10,000 टन कम होगा।वियतनाम में काली मिर्च के उत्पादन पर प्रमुख निर्यात घरानो का अनुमान अलग-अलग है और यह 1,30,000 टन से 1,50,000 टन तक है। पर इतना तय है कि नए सीजन में वियतनाम में उत्पादन बढ़ेगा क्योंकि वहां काली मिर्च के रकबे में तेजी से इजाफा हुआ है। पिछले 2-3 सीजन में काली मिर्च की कीमतों में हुई बढ़ोतरी के चलते वियतनाम में इसका रकबा बढ़ा है। ऐसे में इस देश में उत्पादन बढऩे से आपूर्ति की स्थिति साल 2012 में भी ठीक रहेगी। यह भी ज्ञात हुआ है कि वहां अधिकारी किसानों को इसका रकबा बढ़ाने की सलाह नहीं दे रहे हैं ताकि इसकी कीमतें उच्च स्तर पर बनी रहे।वियतनाम में उत्पादकों के एक वर्ग का कहना है कि देश में अगले सीजन के दौरान उत्पादन या तो स्थिर रहेगा या फिर इसमें कमी आएगी। उन्होंने इसकी वजह काली मिर्च के बीमारी की चपेट में आने और कुछ इलाकों में रसायनिक उर्वरकों के ज्यादा इस्तेमाल के चलते फसलों को हुए नुकसान को बताया।भारत में हालांकि उत्पादन अनुमान में कमी की बात कही गई है और यहां साल 2012 में 42,000 टन काली मिर्च का उत्पादन होगा जबकि साल 2011 में 48,000 टन काली मिर्च का उत्पादन हुआ था। भारत में दिलचस्प पहलू यह है कि किसान व उत्तर भारतीय डीलर अपने पास बचे स्टॉक बेच रहे हैं। साल 2011 में ज्यादातर मांग की पूर्ति साल 2005 से भंडारित काली मिर्च के जरिए हुई, जब कीमतें 55-60 रुपये प्रति किलोग्राम थी। ब्राजील व मलयेशिया में काली मिर्च का उत्पादन स्थिर रहने का अनुमान है और यहां क्रमश: 30,000 व 50,000 टन काली मिर्च का उत्पादन होगा। वहीं इंडोनेशिया में उत्पादन बढ़कर 15,000 टन पर पहुंच जाएगा जबकि साल 2011 में 10,000 टन काली मिर्च का उत्पादन हुआ था और इस वजह से वैश्विक आपूर्ति इस साल बुरी तरह प्रभावित हुई थी। (BS Hindi)
प्रणब ने खाद्य सुरक्षा बिल में बदलाव को मंज़ूरी दी
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक़ इस संशोधित मसौदे को जल्द ही कैबिनेट के सामने मंज़ूरी के लिए पेश किया जाएगा.
खाद्य मंत्री केवी थॉमस ने पत्रकारों को बताया कि बुधवार शाम को वित्त मंत्री ने खाद्य बिल के मसौदे को हरी झंडी दिखा दी है और उसे जल्द कैबिनेट के सामने रखा जाएगा.
उनका कहना था कि जो भी प्रमुख बदलाव प्रस्तावित किए गए हैं, उस संबंध में एक कैबिनेट नोट मंत्रालयों की प्रतिक्रिया के लिए गुरुवार को भेजा जाएगा. (BBC Hindi)
खाद्य सुरक्षा बिल के संशोधित मसौदे को मंजूरी
खाद्य मंत्री के वी थॉमस ने गुरुवार को एककार्यक्रम के मौके पर संवाददाताओं से कहा, ‘कल शाम वित्त मंत्री ने खाद्य विधेयक के मसौदे को अंतिम मंजूरी दे दी। जल्द इसे मंत्रिमंडल के समक्ष रखा जाएगा।’
थॉमस ने बताया कि विधेयक में प्रस्तावित महत्वपूर्ण बदलाव को मंजूरी मिल गई है और आज ही अंतर मंत्रालयी चर्चा के लिए कैबिनेट नोट जारी किया जाएगा।
इससे पहले जुलाई में खाद्य पर मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे को मंजूरी दी थी। इसके तहत देश की 75 प्रतिशत ग्रामीण तथा 50 फीसद शहरी आबादी को सब्सिडी वाला खाद्यान्न पाने का कानूनी अधिकार मिल जाएगा।
खाद्य मंत्री ने कहा कि संबंधित अंशधारकों तथा राज्य सरकारों से विचार विमर्श के बाद खाद्य मंत्रालय ने विधेयक के मसौदे में कई महत्वपूर्ण बदलावों का प्रस्ताव किया था, जिसे वित्त मंत्री ने मंजूर कर लिया है।
जो दो प्रमुख बदलाव किए गए हैं उनमें सामान्य परिवारों को तीन किलोग्राम खाद्यान्न की आपूर्ति तथा इसका दायरा बढ़ाकर इसमें स्तनपान कराने वाली महिलाओं, गरीब और उम्रदराज लोगों के अलावा बच्चों को पोषक आहार शामिल किया जाएगा। उन्होंने बताया कि स्तनपान कराने वाली महिलाओं को छह माह के लिए एक हजार रुपये की राशि दी जानी है। अब यह 52 जिलों के बजाय देशभर में दी जाएगी।
साधारण परिवारों को सब्सिडी वाले अनाज के बारे में थॉमस ने कहा कि वित्त मंत्री ने इसमें न्यूनतम शब्द जोड़ा है। ऐसे में उत्पादन बढ़ने पर सरकार आवंटन बढ़ा सकती है।
विधेयक के मौजूदा रूप में खाद्य मंत्रालय का प्रस्ताव है कि सरकार साधारण परिवारों को प्रति व्यक्ति प्रति माह तीन किलोग्राम चावल देगी, जो समर्थन मूल्य से 50 फीसद से अधिक नहीं होगा।
अन्य बदलावों में वित्त मंत्री ने उस शर्त को हटा दिया है जिसमें प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून का लाभ सिर्फ उन राज्यों के साधारण परिवारों को मिलेगा, जहां सार्वजनिक वितरण प्रणाली का आधुनिकीकरण हो चुका है।थॉमस ने कहा कि मौजूदा मसौदा साधारण परिवारों को सिर्फ उन राज्यों में लाभ देता है जहां पीडीएस व्यवस्था आधुनिक है। अब यह लाभ सभी राज्यों में दिया जाएगा।
खाद्य मंत्री ने कहा कि इन बदलावों के बारे में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी से विचार विमर्श हो चुका है।
प्रस्तावित विधेयक से सरकार पर सब्सिडी का सालाना बोझ 1,00,000 करोड़ रुपये का पड़ेगा। वर्तमान में सरकार का खाद्य सब्सिडी बिल सालाना 70,000 करोड़ रुपये का है। (Z News)
16 नवंबर 2011
गन्ने के एफआरपी का फॉर्मूला बदला जाए : राजू शेट्टी
राजू शेट्टी ने बिजनेस भास्कर को बताया कि गन्ने का एफआरपी तय करने के फार्मूले में बदलाव करने की जरूरत है। वर्तमान में तय किए जाने वाले फार्मूले में गन्ने की उत्पादन लागत, कटाई, परिवहन लागत और अन्य खर्चे काफी कम जोड़े जाते हैं जबकि इनकी लागत काफी ज्यादा है। इस वजह से गन्ने का एफआरपी लागत के मुकाबले कम तय किया जाता है जिससे गन्ना किसानों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है।
चालू पेराई सीजन के लिए केंद्र सरकार ने 9.5 फीसदी चीनी की रिकवरी पर गन्ने का एफआरपी 1,450 रुपये प्रति टन घोषित किया है जो पूरी तरह अव्यवहारिक है। उन्होंने कहा कि सरकार को एफआरपी तय करने के फार्मूले में बदलाव के साथ ही लेवी चीनी की अनिवार्यता को भी समाप्त करना चाहिए। चालू सीजन में चीनी का उत्पादन बढऩे का अनुमान है इसीलिए ज्यादा से ज्यादा मात्रा में चीनी निर्यात की अनुमति देनी चाहिए।
राजू शेट्टी ने कहा कि महाराष्ट्र सरकार ने राज्य के किसानों को गन्ने की पहली किस्त के भुगतान के लिए 1,800 से 2,050 रुपये प्रति टन मू्ल्य तय किया है। राज्य सरकार द्वारा पुणे में गन्ने का मूल्य 1,850 रुपये प्रति टन, कोल्हापुर-सांगली और सतारा के लिए 2,050 रुपये प्रति टन किया है जबकि मराठवाड़ा और विदर्भ क्षेत्र के लिए गन्ने का समर्थन मूल्य 1,800 रुपये प्रति टन तय किया गया है।
गौरतलब है कि गन्ने का समर्थन मूल्य बढ़ाने को लेकर सांसद राजू शेट्टी केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के संसदीय क्षेत्र बारामती में पांच दिनों से अनशन पर बैठे थे। किसानों की मांग थी कि उन्हें 2,350 रुपये प्रति टन के हिसाब से गन्ने का भाव मिले। इसके लिए गन्ना किसान स्वाभिमानी शेतकारी संघ के अध्यक्ष और सांसद राजू शेट्टी के नेतृत्व में पिछले महीने भर से राज्य के गन्ना किसान आंदोलन कर रहे थे।
राज्य के गन्ना किसानों ने 19 सितंबर को आंदोलन शुरू किया था तथा 31 अक्टूबर को राज्य के जय सिंहपुर में एक रैली की थी जिसमें करीब 60,000 से 70,000 किसानों ने भाग लिया था। इस आंदोलन के बाद ही राज्य सरकार ने अपने स्तर पर गन्ने का मूल्य एफआरपी से ज्यादा तय किया है। (Business bhaskar.....R S Rana)
यूपी की चीनी मिलें गन्ना के एसएपी के खिलाफ कोर्ट जाएंगी
चीनी कंपनियों ने चालू पेराई सीजन 2011-12 (अक्टूबर से सितंबर) के लिए उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा तय किए गए राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) देने में असमर्थता जताई है। चालू पेराई सीजन के लिए राज्य सरकार ने गन्ने के एसएपी में 40 रुपये की बढ़ोतरी कर भाव 235-250 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। राज्य की चीनी मिले इस फैसले के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने की तैयारी कर रही हैं।
इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) के डायरेक्टर जरनल अबिनाश वर्मा ने मंगलवार को दिल्ली में संवाददाताओं को बताया कि चीनी के दाम उत्तर प्रदेश में (एक्स-फैक्ट्री) 2,900 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे हैं। जबकि चालू पेराई सीजन के लिए राज्य सरकार द्वारा तय किए गए एसएपी के आधार पर इसका दाम 3,400 रुपये प्रति क्विंटल होना चाहिए।
ऐसे में चीनी मिलों को मौजूदा कीमतों पर भारी नुकसान होगा। यही कारण है कि राज्य की मिलें चीनी की मौजूदा कीमतों पर एसएपी का भुगतान नहीं कर सकती हैं। उत्तर प्रदेश में चालू पेराई सीजन के लिए राज्य सरकार ने जल्दी पकने वाली किस्म के गन्ने का एसएपी 250 रुपये और सामान्य किस्म के गन्ने का एसएपी 240 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। रिजेक्ट वैरायटी के गन्ने का एसएपी 235 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है।
इस अवसर पर यूपी शुगर मिल्स एसोसिएशन (यूपीएसएमए) के सचिव श्याम लाल गुप्ता ने कहा कि चीनी की मौजूदा एक्स-फैक्टरी कीमत पर एसएपी का भुगतान संभव नहीं है तथा इसके खिलाफ राज्य की मिलें इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जाएंगी। चीनी के दाम खुले बाजार में नहीं बढ़ेंगे तो फिर मिलें किसानों को भुगतान नहीं कर पाएंगी। जिसका असर अगले वर्षों में गन्ने के उत्पादन पर पड़ेगा।
अबिनाश वर्मा ने कहा कि इस समय उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों को तीन-चार रुपये प्रति किलो का घाटा उठाना पड़ रहा है। ऐसे में चालू पेराई सीजन में राज्य की मिलों को 3,000 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ सकता है। पिछले साल भी राज्य की मिलों को भारी नुकसान हुआ है। चालू पेराई सीजन में उत्तर प्रदेश में 66 लाख टन चीनी का उत्पादन होने का अनुमान है।
वर्मा ने कहा कि चालू पेराई सीजन में देश में चीनी का उत्पादन बढ़कर 260 लाख टन होने का अनुमान है। पिछले साल के बकाया स्टॉक को देखते हुए सरकार को जल्द ही 30-40 लाख टन चीनी निर्यात की अनुमति दे देनी चाहिए। साथ ही सरकार को मिलों को हर महीने बेचे जाने वाले कोटा सिस्टम को भी समाप्त कर देना चाहिए। सरकार को लेवी चीनी की अनिवार्यता को भी समाप्त करना चाहिए। (Business Bhaskar.....R S Rana)