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01 जनवरी 2010

खेती, पानी और ईंधन के दुष्चक्र को तोड़ने की चुनौती

विश्व में खाद्यान्न की खपत गाड़ियों मेर्ं ईधन के रूप में की जा रही है बावजूद इसके की दुनियाभर में भुखमरी अपने पैर पसार रही है। अमीर देशों में खाद्यान्न का बायोडीजल में इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है। इससे अमीर देशों की मंशा का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि गरीब के पेट में अन्न हो या न हो, लेकिन अमीर की गाड़ी कर्े ईधन का इतंजाम जरूर होना चाहिए। भारत में भी सरकार ने पांच फीसदी एथनॉल के मिश्रण की इजाजत दे रखी है। हालांकि एथनॉल गन्ने का बाईप्रोडेक्ट है इसलिए अभी तो कोई दिक्कत नहीं है लेकिन जब भारत में भी मक्का आदि से बायोडीजल बनाया जाने लगेगा तो पहले से ही खाद्यान्न की कमी झेल रही जनता को भोजन की और ज्यादा कीमत चुकानी पड़ सकती है। जब हम खाने लायक ही खाद्यान्न पैदा नहीं कर सकते तो फिर खाद्यान्न से बायोडीजल बनाने का सपना कैसे देख सकते हैं। खाद्य सुरक्षा की बात करने वाले भारत में खेती के पानी की महता को दोयम दर्जे पर रखा गया है। उत्पादकता बढ़ाने के लिए कृषि मंत्री और कृषि वैज्ञानिक खाद, बीज और दवाईयों की बात तो करते हैं लेकिन लगातार आ रही भूजलस्तर में गिरावट को देखकर भी अंजान बने हुए हैं। ऐसे में क्यों न कृषि मंत्रालय को जल मंत्रालय में तबदील कर दिया जाये और कृषि मंत्री को जल मंत्रालय की जिम्मेदारी दे दी जाये? जल संरक्षण आज के समय की सबसे महती आवश्यकता है। पंजाब में बिजली की जितनी खपत होती है उसका एक तिहाई हिस्सा अकेले नलकूपों से सिंचाई करने में ही खर्च हो जाता है जबकि हरियाणा में यह आंकड़ा 40 फीसदी और आंध्रप्रदेश में 35 फीसदी है। सरकार वृहद सिंचाई परियोजनाओं और नहरों पर करोड़ों रुपये खर्च तो कर रही है लेकिन तथ्य यह है कि नहरों के पानी का महज 35 से 45 फीसदी ही इस्तेमाल होता है। कुओं और नलकूपों का 70 से 75 फीसदी पानी इस्तेमाल कर लिया जाता है। भूजल से कृषि उत्पादकता नहरी सिंचाई से कृषि उत्पादकता की तुलना में डेढ़ से दो गुनी ज्यादा है। यही वजह है कि निजी क्षेत्र भूजल में ही निवेश को प्राथमिकता दे रहा है। देश के सिंचाई साधनों में 60 फीसदी हिस्सा भूजल स्रोतों का है जिनके विकास पर निजी क्षेत्र भारी-भरकम रकम खर्च कर रहा है। लेकिन भूजल से सिंचाई तब तक टिकाऊ नहीं है, जब तक कि जल सरक्षण के लिए उतनी ही राशि खर्च नहीं की जाती जितनी कि भूमिगत जल स्रोतों के विकास पर खर्च की जा रही है। उन क्षेत्रों में जल प्रबंधन बहुत जरुरी है जो सिंचाई के लिए पूरी तरह से भूमिगत पानी पर निर्भर है, ताकि वहां भूजल के स्तर के साथ संतुलन बनाया जा सके। लेकिन हमारे नीति निधारकों ने अब तक इस पर ध्यान ही नहीं दिया है। विश्व में जलवायु परिवर्तन को लेकर विशेषज्ञ आगाह भी कर रहे हैं कि आने वाले वक्त में हमें और भी भयावह स्थिति का सामना करना पड़ेगा। दिनों-दिन बढ़े वैव्श्रिक तापमान की वजह से भारत की कृषि क्षमता में लगातार गिरावट आती जा रही है। कृषि के लिए पानी बहुत अहम तत्व हैं, भारत के प्रमुख खाद्यान्न उत्पादक राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में लगातार जलस्तर नीचे जा रहा है। लेकिन देश में कृषि के नीति-निर्धारक इस तरफ देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं इसी के परिणामस्वरूप देश में खाद्यान्न की उपलब्धता तो मुश्किल होती जा ही रही है साथ ही भारत निर्यातक से आयातक देश बन चुका है। देश के एक बड़े हिस्से में सूखे और जल संकट की समस्या बद से बदतर होती जा रही है। देश के करीब 30-40 फीसदी हिस्से में पानी का अधिकतम दोहन किया जा रहा है जबकि इन हिस्सों में पहले से ही पानी का संकट है। भूजल में कमी की प्रमुख वजह नलकूपों से सिंचाई है। इसका सबसे उदाहरण पंजाब, उत्तर प्रदेश और हरियाणा हैं। इन राज्यों में भूजल का स्तर 250-350 फीट तक नीचे गिर चुका है। देश की खाद्यान्न आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए भूजलस्तर की गिरावट को कैसे रोका जाये, बारिश के जल को संग्रह कैसे किया जाये और नदियों का पानी कैसे आखिरी टेल तक पहुंचे। इस पर प्राथमिकता के आधार पर विशेष ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। बीज, खाद और दवाईयां की आवश्यकता तो पानी के बाद आती हैं। अगर पानी ही नहीं होगा तो बीज कैसे उपजेगा, कैसे खेत में खाद और दवाईयां डाली जायेगी।भारत की आबादी लगातार बढ़ रही है जबकि आबादी के हिसाब से खाद्यान्न उत्पादन नहीं बढ़ रहा है। ऐसे में अगर अभी हमने अपनी खेती और खासकर के पानी की महता को नहीं समझा तो हो सकता है अगले दशक तक भारत अपनी खाद्यान्न की जरुरतों के लिए विदेशों का मोहताज न हो जाये। कृषि मंत्री और मंत्रालय के अधिकारी बड़े-बड़े दावे तो करते हैं लेकिन ये दावे अगले सेमिनार और सम्मेलनों में दोहराये जाने के अलावा असली जामा पहन ही नहीं पाते हैं। हाल ही में कृषि मंत्री ने भी माना की पानी की कमी, अनिश्चित वर्षा और तापमान में बदलाव जैसी कई चुनौतियों से किसानों को निपटना पड़ रहा है। इससे खासकर के छोटे और मझोले किसानों की आय पर अधिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि खेती की लागत पहले ही बहुत अधिक है और उत्पादन में थोड़ी सी भी गिरावट सही मायनों में उनकी आय पर और भी बुरा असर डालती है।rana@businessbhaskar।net (बिज़नस भास्कर) आर अस राणा)

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