28 मार्च 2009
रत्न-आभूषण निर्यातकों की नजर पश्चिम एशिया पर
मुंबई : अमेरिकी आर्थिक मंदी के कारण हुए नुकसान की भरपाई के लिए रत्न एवं आभूषण निर्यातकों ने अब अपनी निगाहें पश्चिम एशियाई देशों पर टिकाई हैं। देश से रत्न एवं आभूषण के कुल निर्यात का करीब 50 फीसदी हिस्सा अमेरिकी बाजार में जाता रहा है लेकिन वहां हो रहे नुकसान की भरपाई के लिए निर्यातकों को दूसरे ठिकानों की तलाश करनी पड़ रही है। रत्न एवं आभूषण निर्यात प्रोत्साहन परिषद (जीजेईपीसी) पश्चिम एशिया में एक अभियान 'ब्रांड इंडिया' शुरू कर रही है। परिषद की कोशिश इन देशों में भारतीय रत्न-आभूषण के लिए बाजार बनाने की है। अधिकारियों के अनुसार जीजेईपीसी इस अभियान को सफल बनाने के लिए करीब 250 करोड़ रुपए का निवेश कर रही है। यह अभियान का आयोजन इस साल के अंत में होगा जब पश्चिम एशियाई देशों में मांग अपने चरम पर होती है। इस अभियान में सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, ईरान और कुवैत जैसे देशों को शामिल किया जाएगा। इस पूरे अभियान में बॉलीवुड कलाकारों के कार्यक्रम भी होंगे। इसके अलावा प्रिंट-टीवी विज्ञापनों और इन देशों में कारोबारी बैठकों के जरिए भी अभियान को सफल बनाने की कोशिश की जाएगी। जीजेईपीसी के अध्यक्ष वसंत मेहता ने कहा, 'हम कोशिश कर रहे हैं कि अरब ग्राहकों को भारतीय हीरों और गहनों के बारे में पूरी जानकारी दी जाए। इस क्षेत्र में गहनों और नगों की भारी मांग है।' रत्न-आभूषण उद्योग के विशेषज्ञों का कहना है कि अरब जगत में भारतीय नगों और गहनों के बारे में बेहद कम जानकारी है, हालांकि इस इलाके में मांग जबरदस्त है। उद्योग जगत के अनुमान के मुताबिक अरब और अन्य पश्चिम एशियाई देशों में भारतीय हीरे और आभूषणों का निर्यात का हिस्सा 15-20 फीसदी है जबकि कुछ साल पहले यह हिस्सेदारी केवल पांच से सात फीसदी ही थी। पिछले साल अप्रैल से इस साल फरवरी के बीच देश से हुए रत्न एवं आभूषण के निर्यात में साल-दर-साल आधार पर 4.6 फीसदी की कमी आई है और यह 17.71 अरब डॉलर रह गया है। (ET Hindi)
भारत में बीटी कपास की बढ़ी हुई उपज ने बदल दी है किसानों की जिंदगी
नई दिल्ली March 28, 2009
लगभग 27 साल के हितेश कुमार जगदीश भाई पटेल जो गुजरात के मणिनगर कांपा के एक खुशहाल किसान हैं।
उन्होंने बीटी क पास की खेती की, उससे उनकी जिंदगी में पूरी तरह से बदलाव आ गया। पांच साल पहले पटेल एक एकड़ में कपास के सामान्य बीज से 700 किलोग्राम कपास का उत्पादन करते थे।
लेकिन जब से उन्होंने बीटी कपास हाइब्रिड का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया तब से पैदावार दोगुनी से ज्यादा बढ़कर 1,800 किलोग्राम प्रति एकड़ हो चुकी है। पटेल की आय पिछले पांच सालों में अनुमानत: दोगुनी हो चुकी है हालांकि वह सही आंकड़े देने से मना कर देते हैं।
उनके पास कपास की खेती के लिए 25 एकड़ खेत है। बीटी कपास, पटेल की तरह ही देश के हजारों कपास किसानों की जिंदगी में एक बदलाव लेकर आई है। इसी वजह से भारत वर्ष 2006-07 में चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपास उत्पादक देश बन गया। बीटी कपास एक आनुवांशिक परिवर्द्धित कपास है।
यह देश का पहला ऐसा बायोटेक उत्पाद है जिसे देश में व्यावसायिक खेती के लिए नियामक द्वारा स्वीकृति मिली है। बीटी कपास की खेती करने वाले किसानों की संख्या कुछ हजार से बढ़कर वर्ष 2002 में 38 लाख और फिर वर्ष 2007 में बढ़कर 50 लाख तक हो गई।
दरअसल यह देश के कुल कपास किसानों का दो तिहाई हिस्सा है। बीटी कपास तकनीक से राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2002-2007 के बीच किसानों ने अपनी आय में लगभग 3 अरब डॉलर का इजाफा किया। उद्योग से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि वर्ष 2002 जो बीटी कपास का पहला साल था वह भारतीय कपास उत्पादन के हिस्सा का एक खास मोड़ था।
पिछले सात सालों के दौरान बीटी कपास को अपनाए जाने से कीट-पतंगों पर नियंत्रण का फायदा तो मिला ही साथ ही कीटनाशकों के छिड़काव में भी कमी आई। इससे आखिरकार किसानों को ही फायदा मिला। वर्ष 2002 में बीटी कपास की खेती 50,000 हेक्टेयर जमीन पर की गई जो वर्ष 2008 तक बढ़कर 76 लाख हेक्टेयर तक हो गई।
आज 93 लाख हेक्टेयर कपास की खेती की जमीन के 82 फीसदी हिस्से पर बीटी कपास की खेती होती है। दिलचस्प बात यह है कि भारत का कपास क्षेत्र दुनिया के कपास क्षेत्र का 25 फीसदी हिस्सा है। पहले भी दुनिया के कुल कपास उत्पादन में भी भारत की हिस्सेदारी 12 फीसदी थी क्योंकि मुल्क की पैदावार दुनिया भर में सबसे कम थी।
तस्वीर का दूसरा पहलू
कपास के उत्पादन में बढ़ोतरी से किसानों को जरूर फायदा हुआ लेकिन इसका समान असर देश के कपड़ा उद्योग पर नहीं पड़ा जिसके लिए कपास एक बड़े कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल होता है। दुनिया भर में चल रही आर्थिक मंदी की वजह से भारतीय कपड़ा उद्योग के उत्पाद की मांग में भी कमी आई।
कपड़ा उद्योग को कपास के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी होने से भी झटका लगा। टेक्सटाइल्स के सेक्टर में भी आर्थिक मंदी की वजह से कई कताई मिलें बंद हो गईं और देश के कपास की मांग भी कम हो गई। उद्योग के एक अनुमान के मुताबिक हाल में कुल कताई क्षमता का 20 फीसदी बंद कर दिया गया है।
सरकार ने मौजूदा कपास वर्ष (सितंबर 2008-09) में कपास के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में 40 फीसदी से ज्यादा बढ़ाकर 2,500 रुपये से 3,000 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया और यह अब तक की कीमतों में सबसे ज्यादा है। भारतीय कपड़ा उद्योग परिसंघ के डी. के. नायर के मुताबिक वैश्विक कपास की कीमतों में हाल के महीने में गिरावट आई है लेकिन एमएसपी की वजह से ही बाजार की शक्तियों को देश में सक्रिय होने से रोका गया।
नायर का कहना है, 'इस साल कपास के लिए बेहद अनुचित और ज्यादा एमएसपी की वजह से ही कपास और कपास से बने वस्त्र उत्पादों के लिए निर्यात के मौके खत्म हो गए। इससे हमारे कपास की कीमतों में कृत्रिम तरीके से बढ़ोतरी हो गई और यह अंतरराष्ट्रीय कीमतों से कहीं ज्यादा था।'
कॉटन एडवायजरी बोर्ड (सीएबी) के एक अनुमान के मुताबिक 290 लाख गांठ का उत्पादन किया गया था और खपत 230 लाख गांठ थी लेकिन इस साल स्टॉक खत्म होते-होते केवल 60 लाख गांठ रह जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि स्टॉक का अनुपात लगभग 26 फीसदी होगा और यह दुनिया के औसत 54 फीसदी से भी कम होगा।
नायर का कहना है, 'दुनिया के औसत 54 फीसदी तक पहुंचने के लिए मौजूदा कपास वर्ष में खत्म होने वाला स्टॉक भी 126 लाख गांठ तक होना चाहिए लेकिन सीएबी के अनुमान के मुताबिक यह 60 लाख गांठ है। इसका मतलब यह है कि हमारे पास निर्यात करने के लिए अतिरिक्त स्टॉक होना चाहिए।'
पिछले महीने सरकार ने विशेष कृषि और ग्रामोद्योग योजना के जरिए कच्चे कपास के निर्यात के लिए 5 फीसदी निर्यात इंसेंटिव दिया है जो अप्रैल 2008 से जून 2009 तक के लिए लागू है।
उद्योगों के अधिकारियों के मुताबिक पिछले निर्यात के लिए निर्यात इंसेंटिव से न तो किसानों को और न देश की अर्थव्यवस्था में कोई मदद मिलने वाली है। इससे केवल कुछ कारोबारी और कुछ कंपनियों को ही फायदा मिलेगा जिन्होंने पहले कपास का निर्यात किया है। किसान आज ज्यादा पैदावार और ज्यादा समर्थन मूल्य मिलने से खुश हैं। (BS Hindi)
लगभग 27 साल के हितेश कुमार जगदीश भाई पटेल जो गुजरात के मणिनगर कांपा के एक खुशहाल किसान हैं।
उन्होंने बीटी क पास की खेती की, उससे उनकी जिंदगी में पूरी तरह से बदलाव आ गया। पांच साल पहले पटेल एक एकड़ में कपास के सामान्य बीज से 700 किलोग्राम कपास का उत्पादन करते थे।
लेकिन जब से उन्होंने बीटी कपास हाइब्रिड का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया तब से पैदावार दोगुनी से ज्यादा बढ़कर 1,800 किलोग्राम प्रति एकड़ हो चुकी है। पटेल की आय पिछले पांच सालों में अनुमानत: दोगुनी हो चुकी है हालांकि वह सही आंकड़े देने से मना कर देते हैं।
उनके पास कपास की खेती के लिए 25 एकड़ खेत है। बीटी कपास, पटेल की तरह ही देश के हजारों कपास किसानों की जिंदगी में एक बदलाव लेकर आई है। इसी वजह से भारत वर्ष 2006-07 में चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपास उत्पादक देश बन गया। बीटी कपास एक आनुवांशिक परिवर्द्धित कपास है।
यह देश का पहला ऐसा बायोटेक उत्पाद है जिसे देश में व्यावसायिक खेती के लिए नियामक द्वारा स्वीकृति मिली है। बीटी कपास की खेती करने वाले किसानों की संख्या कुछ हजार से बढ़कर वर्ष 2002 में 38 लाख और फिर वर्ष 2007 में बढ़कर 50 लाख तक हो गई।
दरअसल यह देश के कुल कपास किसानों का दो तिहाई हिस्सा है। बीटी कपास तकनीक से राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2002-2007 के बीच किसानों ने अपनी आय में लगभग 3 अरब डॉलर का इजाफा किया। उद्योग से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि वर्ष 2002 जो बीटी कपास का पहला साल था वह भारतीय कपास उत्पादन के हिस्सा का एक खास मोड़ था।
पिछले सात सालों के दौरान बीटी कपास को अपनाए जाने से कीट-पतंगों पर नियंत्रण का फायदा तो मिला ही साथ ही कीटनाशकों के छिड़काव में भी कमी आई। इससे आखिरकार किसानों को ही फायदा मिला। वर्ष 2002 में बीटी कपास की खेती 50,000 हेक्टेयर जमीन पर की गई जो वर्ष 2008 तक बढ़कर 76 लाख हेक्टेयर तक हो गई।
आज 93 लाख हेक्टेयर कपास की खेती की जमीन के 82 फीसदी हिस्से पर बीटी कपास की खेती होती है। दिलचस्प बात यह है कि भारत का कपास क्षेत्र दुनिया के कपास क्षेत्र का 25 फीसदी हिस्सा है। पहले भी दुनिया के कुल कपास उत्पादन में भी भारत की हिस्सेदारी 12 फीसदी थी क्योंकि मुल्क की पैदावार दुनिया भर में सबसे कम थी।
तस्वीर का दूसरा पहलू
कपास के उत्पादन में बढ़ोतरी से किसानों को जरूर फायदा हुआ लेकिन इसका समान असर देश के कपड़ा उद्योग पर नहीं पड़ा जिसके लिए कपास एक बड़े कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल होता है। दुनिया भर में चल रही आर्थिक मंदी की वजह से भारतीय कपड़ा उद्योग के उत्पाद की मांग में भी कमी आई।
कपड़ा उद्योग को कपास के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी होने से भी झटका लगा। टेक्सटाइल्स के सेक्टर में भी आर्थिक मंदी की वजह से कई कताई मिलें बंद हो गईं और देश के कपास की मांग भी कम हो गई। उद्योग के एक अनुमान के मुताबिक हाल में कुल कताई क्षमता का 20 फीसदी बंद कर दिया गया है।
सरकार ने मौजूदा कपास वर्ष (सितंबर 2008-09) में कपास के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में 40 फीसदी से ज्यादा बढ़ाकर 2,500 रुपये से 3,000 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया और यह अब तक की कीमतों में सबसे ज्यादा है। भारतीय कपड़ा उद्योग परिसंघ के डी. के. नायर के मुताबिक वैश्विक कपास की कीमतों में हाल के महीने में गिरावट आई है लेकिन एमएसपी की वजह से ही बाजार की शक्तियों को देश में सक्रिय होने से रोका गया।
नायर का कहना है, 'इस साल कपास के लिए बेहद अनुचित और ज्यादा एमएसपी की वजह से ही कपास और कपास से बने वस्त्र उत्पादों के लिए निर्यात के मौके खत्म हो गए। इससे हमारे कपास की कीमतों में कृत्रिम तरीके से बढ़ोतरी हो गई और यह अंतरराष्ट्रीय कीमतों से कहीं ज्यादा था।'
कॉटन एडवायजरी बोर्ड (सीएबी) के एक अनुमान के मुताबिक 290 लाख गांठ का उत्पादन किया गया था और खपत 230 लाख गांठ थी लेकिन इस साल स्टॉक खत्म होते-होते केवल 60 लाख गांठ रह जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि स्टॉक का अनुपात लगभग 26 फीसदी होगा और यह दुनिया के औसत 54 फीसदी से भी कम होगा।
नायर का कहना है, 'दुनिया के औसत 54 फीसदी तक पहुंचने के लिए मौजूदा कपास वर्ष में खत्म होने वाला स्टॉक भी 126 लाख गांठ तक होना चाहिए लेकिन सीएबी के अनुमान के मुताबिक यह 60 लाख गांठ है। इसका मतलब यह है कि हमारे पास निर्यात करने के लिए अतिरिक्त स्टॉक होना चाहिए।'
पिछले महीने सरकार ने विशेष कृषि और ग्रामोद्योग योजना के जरिए कच्चे कपास के निर्यात के लिए 5 फीसदी निर्यात इंसेंटिव दिया है जो अप्रैल 2008 से जून 2009 तक के लिए लागू है।
उद्योगों के अधिकारियों के मुताबिक पिछले निर्यात के लिए निर्यात इंसेंटिव से न तो किसानों को और न देश की अर्थव्यवस्था में कोई मदद मिलने वाली है। इससे केवल कुछ कारोबारी और कुछ कंपनियों को ही फायदा मिलेगा जिन्होंने पहले कपास का निर्यात किया है। किसान आज ज्यादा पैदावार और ज्यादा समर्थन मूल्य मिलने से खुश हैं। (BS Hindi)
सीमेंट क्षेत्र के मुनाफे में बढ़त जारी
मुंबई March 28, 2009
करीब 85,000 करोड़ रुपये से अधिक का घरेलू सीमेंट उद्योग मार्च तिमाही में राहत की सांस लेता नजर आ रहा है।
उद्योग जगत के विश्लेषकों और कारोबारियों के मुताबिक वर्तमान तिमाही इसके पहले के वर्षों की समान तिमाहियों की तुलना मंख बहुत ही बेहतर रहेगा। यह मुनाफा, राजस्व और लाभ हर लिहाज से बेहतर रहेगा।
सीमेंट की ऊंची कीमतें, लदान में हो रही महत्वपूर्ण प्रगति के साथ उम्मीद से बेहतर मांग है। इसके साथ ही कच्चे माल के लागत में कमी, उद्योग के अनुकूल सरकार द्वारा उत्पाद शुल्क में कमी किए जाने का फैसला और आयातित सीमेंट पर कर लगने से उद्योग जगत को पिछली तिमाहियों की तुलना में बेहतरीन प्रदर्शन करने का मौका मिला है।
दक्षिण के बाजारों में लदान कम हुई है और कीमतें भी कम हैं। इसके बावजूद देश के अन्य भागों में बेहतर प्रदर्शन होने की वजह से उद्योग जगत को बेहतरीन प्रदर्शन की उम्मीद है। उत्तर भारत में बडे पैमाने पर काम करने वाले बिनानी सीमेंट के प्रबंध निदेशक विनोद जुनेजा ने कहा, 'वित्त वर्ष 2009 की चौथी तिमाही, सबसे बेहतरीन तिमाही साबित होगी।
सीमेंट की प्रति बोरी कीमतें पिछले साल की समान अवधि के 230-235 रुपये प्रति बोरी की तुलना में चालू तिमाही में कीमतें 245-250 रुपये प्रति बोरी हैं। शायद ही कोई कंपनी ऐसी हो, जिसके गोदाम में माल बचा हो, क्योंकि लदान बहुत बहुत ही शानदार रही है।' चालू तिमाही में सीमेंट की कीमतों में प्रति बोरी 8-12 रुपये की बढ़ोतरी हुई है।
पूर्वी और उत्तर भारत के बाजारों में कीमतें बेहरीन मिल रही हैं। जनवरी और फरवरी में लदान में क्रमश: 8.26 प्रतिशत और 8.73 प्रतिशत की बढ़त दर्ज की गई है। इन महीनों में लदान क्रमश: 161.3 लाख टन और 160.7 लाख टन रही।
अगर हम लदान के ट्रेंड को देखें तो मार्च में उम्मीद की जा रही है कि लदान 175 लाख टन से ज्यादा रहे गी, जो देश के सीमेंट उद्योग के इतिहास में सर्वाधिक लदान होगी। एक विश्लेषक का कहना है कि सालाना आधार पर मार्च की तिमाही में मुनाफे में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी नहीं होती है, लेकिन तिमाही आधार पर इस साल मुनाफा बेहतरीन रहेगा।
उन्होंने कहा कि इस वित्त वर्ष की पहली तीन तिमाहियों में उद्योग जगत के मुनाफे में कमी देखी गई और यह पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 4-5 प्रतिशत गिर गया। वहीं चालू तिमाही में या तो मुनाफा पिछले साल जितना ही रहेगा या 1-2 प्रतिशत से ज्यादा नहीं गिरेगा।
सीमेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष और श्री सीमेंट के चेयरमैन तथा प्रबंध निदेशक हरि मोहन बांगुर ने कहा, 'उद्योग जगत ने फरवरी महीने में कीमतों में बढ़ोतरी देखी और मार्च में भी कीमतें बेहतरीन रहीं। अन्य तिमाहियों की तुलना में यह तिमाही निश्चित रूप से बेहतर रहेगी। जहां तक श्री सीमेंट की बात है, मुनाफा बेहतर रहने की उम्मीद है।'
जब उनसे सीमेंट उत्पादन क्षमता की कमी के बारे में पूछा गया तो बांगुर ने कहा कि यह बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं डालेगा। उन्होंने कहा कि लदान में वृध्दि दर मार्च में उम्मीद की जा रही है कि 8 प्रतिशत से ज्यादा होगी। इसके साथ ही श्री सीमेंट, अल्ट्रा टेक, ग्रासिम और इंडिया सीमेंट भी अपनी क्षमता का विस्तार कर रहे हैं।
ज्यादातर सीमेंट उत्पादकों का मुनाफा इस वित्त वर्ष की पहली तीन तिमाहियों में पिछले साल की समान अवधि की तुलना में कम रहा है। एक विश्लेषक ने कहा कि चालू तिमाही ज्यादा अलग नहीं होगी, लेकिन निश्चित रूप से क्रमिक सुधार की गुंजाइश है। (BS Hindi)
करीब 85,000 करोड़ रुपये से अधिक का घरेलू सीमेंट उद्योग मार्च तिमाही में राहत की सांस लेता नजर आ रहा है।
उद्योग जगत के विश्लेषकों और कारोबारियों के मुताबिक वर्तमान तिमाही इसके पहले के वर्षों की समान तिमाहियों की तुलना मंख बहुत ही बेहतर रहेगा। यह मुनाफा, राजस्व और लाभ हर लिहाज से बेहतर रहेगा।
सीमेंट की ऊंची कीमतें, लदान में हो रही महत्वपूर्ण प्रगति के साथ उम्मीद से बेहतर मांग है। इसके साथ ही कच्चे माल के लागत में कमी, उद्योग के अनुकूल सरकार द्वारा उत्पाद शुल्क में कमी किए जाने का फैसला और आयातित सीमेंट पर कर लगने से उद्योग जगत को पिछली तिमाहियों की तुलना में बेहतरीन प्रदर्शन करने का मौका मिला है।
दक्षिण के बाजारों में लदान कम हुई है और कीमतें भी कम हैं। इसके बावजूद देश के अन्य भागों में बेहतर प्रदर्शन होने की वजह से उद्योग जगत को बेहतरीन प्रदर्शन की उम्मीद है। उत्तर भारत में बडे पैमाने पर काम करने वाले बिनानी सीमेंट के प्रबंध निदेशक विनोद जुनेजा ने कहा, 'वित्त वर्ष 2009 की चौथी तिमाही, सबसे बेहतरीन तिमाही साबित होगी।
सीमेंट की प्रति बोरी कीमतें पिछले साल की समान अवधि के 230-235 रुपये प्रति बोरी की तुलना में चालू तिमाही में कीमतें 245-250 रुपये प्रति बोरी हैं। शायद ही कोई कंपनी ऐसी हो, जिसके गोदाम में माल बचा हो, क्योंकि लदान बहुत बहुत ही शानदार रही है।' चालू तिमाही में सीमेंट की कीमतों में प्रति बोरी 8-12 रुपये की बढ़ोतरी हुई है।
पूर्वी और उत्तर भारत के बाजारों में कीमतें बेहरीन मिल रही हैं। जनवरी और फरवरी में लदान में क्रमश: 8.26 प्रतिशत और 8.73 प्रतिशत की बढ़त दर्ज की गई है। इन महीनों में लदान क्रमश: 161.3 लाख टन और 160.7 लाख टन रही।
अगर हम लदान के ट्रेंड को देखें तो मार्च में उम्मीद की जा रही है कि लदान 175 लाख टन से ज्यादा रहे गी, जो देश के सीमेंट उद्योग के इतिहास में सर्वाधिक लदान होगी। एक विश्लेषक का कहना है कि सालाना आधार पर मार्च की तिमाही में मुनाफे में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी नहीं होती है, लेकिन तिमाही आधार पर इस साल मुनाफा बेहतरीन रहेगा।
उन्होंने कहा कि इस वित्त वर्ष की पहली तीन तिमाहियों में उद्योग जगत के मुनाफे में कमी देखी गई और यह पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 4-5 प्रतिशत गिर गया। वहीं चालू तिमाही में या तो मुनाफा पिछले साल जितना ही रहेगा या 1-2 प्रतिशत से ज्यादा नहीं गिरेगा।
सीमेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष और श्री सीमेंट के चेयरमैन तथा प्रबंध निदेशक हरि मोहन बांगुर ने कहा, 'उद्योग जगत ने फरवरी महीने में कीमतों में बढ़ोतरी देखी और मार्च में भी कीमतें बेहतरीन रहीं। अन्य तिमाहियों की तुलना में यह तिमाही निश्चित रूप से बेहतर रहेगी। जहां तक श्री सीमेंट की बात है, मुनाफा बेहतर रहने की उम्मीद है।'
जब उनसे सीमेंट उत्पादन क्षमता की कमी के बारे में पूछा गया तो बांगुर ने कहा कि यह बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं डालेगा। उन्होंने कहा कि लदान में वृध्दि दर मार्च में उम्मीद की जा रही है कि 8 प्रतिशत से ज्यादा होगी। इसके साथ ही श्री सीमेंट, अल्ट्रा टेक, ग्रासिम और इंडिया सीमेंट भी अपनी क्षमता का विस्तार कर रहे हैं।
ज्यादातर सीमेंट उत्पादकों का मुनाफा इस वित्त वर्ष की पहली तीन तिमाहियों में पिछले साल की समान अवधि की तुलना में कम रहा है। एक विश्लेषक ने कहा कि चालू तिमाही ज्यादा अलग नहीं होगी, लेकिन निश्चित रूप से क्रमिक सुधार की गुंजाइश है। (BS Hindi)
उप्र में चीनी का उत्पादन घटकर 40 लाख टन
लखनऊ March 28, 2009
उत्तर प्रदेश में चीनी का उत्पादन इस साल गिरकर 40 लाख टन रह गया है, जबकि पेराई का मौसम खत्म होने को है।
वर्ष 2006-07 और वर्ष 2007-08 में उत्तर प्रदेश में चीनी का उत्पादन क्रमशत 85 लाख टन और 74 लाख टन था।
गन्ना विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि इस सत्र में कुल 132 चीनी मिलों ने पेराई का काम शुरू किया था, जिनमें से 120 पहले ही बंद हो चुकी हैं और सहारनपुर, मुजफ्फरपुर जिलों में चल रही 12 मिलें इस हफ्ते बंद हो जाएंगी।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक चीनी मिलों ने इस साल 450 लाख टन गन्ने की पेराई की है, जिससे 40.08 लाख टन चीनी का उत्पादन होने का अनुमान है। चीनी रिकवरी का प्रतिशत भी कम होकर 8.91 प्रतिशत हो गया है। उत्तर प्रदेश में अकेले एक साल में चीनी की खपत 50 लाख टन है।
अधिकारी ने कहा कि चीनी का कुल उत्पादन इस साल 40 लाख टन से थोड़ा ही ज्यादा रहने का अनुमान है। गन्ने की कमी की वजह से इस साल प्रदेश की चीनी मिलों ने क्षमता से कम पेराई की है। उत्तर प्रदेश में 2008-09 में गन्ने के उत्पादन में करीब 30 प्रतिशत की गिरावट आई है, क्योंकि प्रदेश के किसानों ने गन्ने की बजाय अनाजों और तिलहन में ज्यादा रुचि दिखाई।
वर्तमान में राजधानी लखनऊ में चीनी का खुदरा मूल्य 25 रुपये प्रति किलो है। चीनी का उत्पादन कम होने की वजह से आने वाले दिनों में चीनी की कीमतें और बढ़ने का अनुमान है। (BS Hindi)
उत्तर प्रदेश में चीनी का उत्पादन इस साल गिरकर 40 लाख टन रह गया है, जबकि पेराई का मौसम खत्म होने को है।
वर्ष 2006-07 और वर्ष 2007-08 में उत्तर प्रदेश में चीनी का उत्पादन क्रमशत 85 लाख टन और 74 लाख टन था।
गन्ना विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि इस सत्र में कुल 132 चीनी मिलों ने पेराई का काम शुरू किया था, जिनमें से 120 पहले ही बंद हो चुकी हैं और सहारनपुर, मुजफ्फरपुर जिलों में चल रही 12 मिलें इस हफ्ते बंद हो जाएंगी।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक चीनी मिलों ने इस साल 450 लाख टन गन्ने की पेराई की है, जिससे 40.08 लाख टन चीनी का उत्पादन होने का अनुमान है। चीनी रिकवरी का प्रतिशत भी कम होकर 8.91 प्रतिशत हो गया है। उत्तर प्रदेश में अकेले एक साल में चीनी की खपत 50 लाख टन है।
अधिकारी ने कहा कि चीनी का कुल उत्पादन इस साल 40 लाख टन से थोड़ा ही ज्यादा रहने का अनुमान है। गन्ने की कमी की वजह से इस साल प्रदेश की चीनी मिलों ने क्षमता से कम पेराई की है। उत्तर प्रदेश में 2008-09 में गन्ने के उत्पादन में करीब 30 प्रतिशत की गिरावट आई है, क्योंकि प्रदेश के किसानों ने गन्ने की बजाय अनाजों और तिलहन में ज्यादा रुचि दिखाई।
वर्तमान में राजधानी लखनऊ में चीनी का खुदरा मूल्य 25 रुपये प्रति किलो है। चीनी का उत्पादन कम होने की वजह से आने वाले दिनों में चीनी की कीमतें और बढ़ने का अनुमान है। (BS Hindi)
बढ़ाएंगे गन्ना उत्पादन
बेंगलुरु March 28, 2009
मौजूदा चीनी के सीजन (अक्टूबर 2008-सितंबर 2009) के दौरान गन्ने की जबरदस्त कमी का सामना करना पड़ रहा है।
चीनी मिलों ने कर्नाटक में गहन गन्ना विकास कार्यक्र म लॉन्च किया है ताकि इस साल अक्टूबर में अगले गन्ने के सीजन की शुरूआत में पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके।
उद्योग ने मौजूदा वर्ष में 1.6 करोड़ टन गन्ने का अनुमान लगाया है और इसमें पिछले साल के मुकाबले 40 फीसदी तक की कमी आई थी। उद्योग के सूत्रों का कहना है कि राज्य के कुछ हिस्सों में यह कमी लगभग 70 फीसदी तक है।
साउथ इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (एसआईएसएमए) ने अगले चीनी सीजन तक स्थिति के सुधार की कोशिश के तहत यह फैसला लिया है कि अगले साल से इसकी सदस्य फैक्टरियों पर कुछ कड़े उपाय लागू किए जाएं ताकि सभी तक गन्ने की पर्याप्त और सुचारू आपूर्ति हो सके।
चीनी मिलों को भी गन्ने की अग्रिम पेराई न करने के लिए कहा गया है। उत्तरी कर्नाटक में पेराई नवंबर के महीने से शुरू होगी और दक्षिण में सितंबर से शुरू होगा। सभी सदस्य फैक्टरियों को इस बाबत लिखित कड़े दिशानिर्देश भेज दिए गए हैं।
एसआईएसएमए के एक अधिकारी का कहना है, 'मौजूदा साल में बेहतरीन गन्ने की आपूर्ति में कमी की एक बड़ी वजह राज्य के कई मिलों द्वारा कराई जाने वाली अग्रिम पेराई है।' (BS Hindi)
मौजूदा चीनी के सीजन (अक्टूबर 2008-सितंबर 2009) के दौरान गन्ने की जबरदस्त कमी का सामना करना पड़ रहा है।
चीनी मिलों ने कर्नाटक में गहन गन्ना विकास कार्यक्र म लॉन्च किया है ताकि इस साल अक्टूबर में अगले गन्ने के सीजन की शुरूआत में पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके।
उद्योग ने मौजूदा वर्ष में 1.6 करोड़ टन गन्ने का अनुमान लगाया है और इसमें पिछले साल के मुकाबले 40 फीसदी तक की कमी आई थी। उद्योग के सूत्रों का कहना है कि राज्य के कुछ हिस्सों में यह कमी लगभग 70 फीसदी तक है।
साउथ इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (एसआईएसएमए) ने अगले चीनी सीजन तक स्थिति के सुधार की कोशिश के तहत यह फैसला लिया है कि अगले साल से इसकी सदस्य फैक्टरियों पर कुछ कड़े उपाय लागू किए जाएं ताकि सभी तक गन्ने की पर्याप्त और सुचारू आपूर्ति हो सके।
चीनी मिलों को भी गन्ने की अग्रिम पेराई न करने के लिए कहा गया है। उत्तरी कर्नाटक में पेराई नवंबर के महीने से शुरू होगी और दक्षिण में सितंबर से शुरू होगा। सभी सदस्य फैक्टरियों को इस बाबत लिखित कड़े दिशानिर्देश भेज दिए गए हैं।
एसआईएसएमए के एक अधिकारी का कहना है, 'मौजूदा साल में बेहतरीन गन्ने की आपूर्ति में कमी की एक बड़ी वजह राज्य के कई मिलों द्वारा कराई जाने वाली अग्रिम पेराई है।' (BS Hindi)
कृत्रिम आभूषण बना रहे हैं 40 प्रतिशत कारीगर
राजकोट March 28, 2009
सोने के आभूषणों की मांग में कमी को देखते हुए गुजरात के आभूषण निर्माता और कारीगर कृत्रिम गहने बना रहे हैं।
बहरहाल इस तरह का बदलाव अस्थायी है और उद्योग जगत के जानकारों का कहना है कि जब सोने की कीमतें कम होंगी तो स्थिति बदल जाएगी।
सोने की कीमतें अधिक होने की वजह से गहनों की बिक्री पर बुरा असर पड़ा है। शादी विवाह के मौसम में मध्यम वर्ग का एक परिवार औसतन 100 ग्राम सोने की खरीदारी करता है, वहीं धनी परिवार 400-500 ग्राम सोने की खरीदारी करते हैं।
राजकोट गोल्ड डीलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष बलवंतराय बडानी ने कहा, 'सामान्यतया इन दिनों में एक आभूषण विक्रेता एक दिन में 2-3 किलो सोने का कारोबार करता है, लेकिन इस समय यह घटकर 200-500 ग्राम रह गया है। इस कठिन वक्त को देखते हुए तमाम कारोबारियों ने कृत्रिम गहनों का कारोबार अस्थायी रूप से शुरू कर दिया है।'
ऐसा ही कुछ हाल आभूषण कारीगरों का भी है। 10 में से कम से कम 3-4 कारीगर कृत्रिम आभूषणों की ओर चले गए हैं। तमाम और भी कुछ इसी तरह की योजना बना रहे हैं। हालांकि राजकोट के एक कारीगर का कहना है कि हम लोग अस्थायी रूप से कृत्रिम आभूषण की ओर जा रहे हैं। राजकोट में 1 लाख से ज्यादा कारीगर हैं। (BS Hindi)
सोने के आभूषणों की मांग में कमी को देखते हुए गुजरात के आभूषण निर्माता और कारीगर कृत्रिम गहने बना रहे हैं।
बहरहाल इस तरह का बदलाव अस्थायी है और उद्योग जगत के जानकारों का कहना है कि जब सोने की कीमतें कम होंगी तो स्थिति बदल जाएगी।
सोने की कीमतें अधिक होने की वजह से गहनों की बिक्री पर बुरा असर पड़ा है। शादी विवाह के मौसम में मध्यम वर्ग का एक परिवार औसतन 100 ग्राम सोने की खरीदारी करता है, वहीं धनी परिवार 400-500 ग्राम सोने की खरीदारी करते हैं।
राजकोट गोल्ड डीलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष बलवंतराय बडानी ने कहा, 'सामान्यतया इन दिनों में एक आभूषण विक्रेता एक दिन में 2-3 किलो सोने का कारोबार करता है, लेकिन इस समय यह घटकर 200-500 ग्राम रह गया है। इस कठिन वक्त को देखते हुए तमाम कारोबारियों ने कृत्रिम गहनों का कारोबार अस्थायी रूप से शुरू कर दिया है।'
ऐसा ही कुछ हाल आभूषण कारीगरों का भी है। 10 में से कम से कम 3-4 कारीगर कृत्रिम आभूषणों की ओर चले गए हैं। तमाम और भी कुछ इसी तरह की योजना बना रहे हैं। हालांकि राजकोट के एक कारीगर का कहना है कि हम लोग अस्थायी रूप से कृत्रिम आभूषण की ओर जा रहे हैं। राजकोट में 1 लाख से ज्यादा कारीगर हैं। (BS Hindi)
एमएमटीसी जून से शुरू करेगी कमोडिटी एक्सचेंज
कोलकाता March 28, 2009
सार्वजनिक क्षेत्र की ट्रेडिंग कंपनी एमएमटीसी ने वाणिज्य मंत्रालय के साथ एक सहमति पत्र (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए हैं।
कंपनी को चालू वित्त वर्ष में 36,000 करोड़ रुपये का कारोबार करने का अनुमान है। 2009-10 में उम्मीद की जा रही है कि एमएमटीसी कुछ संयुक्त उद्यम स्थापित करेगी। कंपनी इंडिया बुल्स के साथ कमोडिटी एक्सचेंज स्थापित कर रही है, जिसके जून 2009 तक शुरू होने का अनुमान है।
इसके साथ ही कंपनी राष्ट्रीयकृत निजी बैंकों, टीसीएस और जेपी के साथ मिलकर करेंसी एक्सचेंज बनाने की योजना बना रही है। इस एक्सचेंज के जुलाई 2009 तक शुरू होने का अनुमान है। एमएमटीसी की सोना एवं चांदी शोधन इकाई जनवरी 2010 तक उत्पादन शुरू कर सकती है।
स्विट्जरलैंड स्थित पीएएमपी और एमएमटीसी ने गठजोड़ कर सोना एवं चांदी का शोधन करने के लिए 120 करोड़ रुपये वाली शोधन परियोजना लगाई है। इसके अलावा किए गए अन्य समझौतों में लोहे की लदान के लिए एन्नौर बंदरगाह पर स्थाई तट विकसित करने का समझौता किया गया है। इसके लिए सिकल लॉजिस्टिक्स और एलऐंड टी इन्फ्रास्ट्रक्चर से समझौता किया गया है।
उम्मीद की जा रही है कि यह जनवरी 2010 में चालू हो जाएगा। इसके अलावा आभूषणों के लिए रिटेल चेन शुरू करने की योजना भी शुरू होनी है, जिसका पहला आउटलेट जुलाई 2009 में खोला जाएगा। एमएमटीसी को गोमिया में एक कोल ब्लॉक भी आवंटित हुआ है। इसके बारे में विस्तृत अध्यय 2009-10 में पूरा होना है। (BS Hindi)
सार्वजनिक क्षेत्र की ट्रेडिंग कंपनी एमएमटीसी ने वाणिज्य मंत्रालय के साथ एक सहमति पत्र (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए हैं।
कंपनी को चालू वित्त वर्ष में 36,000 करोड़ रुपये का कारोबार करने का अनुमान है। 2009-10 में उम्मीद की जा रही है कि एमएमटीसी कुछ संयुक्त उद्यम स्थापित करेगी। कंपनी इंडिया बुल्स के साथ कमोडिटी एक्सचेंज स्थापित कर रही है, जिसके जून 2009 तक शुरू होने का अनुमान है।
इसके साथ ही कंपनी राष्ट्रीयकृत निजी बैंकों, टीसीएस और जेपी के साथ मिलकर करेंसी एक्सचेंज बनाने की योजना बना रही है। इस एक्सचेंज के जुलाई 2009 तक शुरू होने का अनुमान है। एमएमटीसी की सोना एवं चांदी शोधन इकाई जनवरी 2010 तक उत्पादन शुरू कर सकती है।
स्विट्जरलैंड स्थित पीएएमपी और एमएमटीसी ने गठजोड़ कर सोना एवं चांदी का शोधन करने के लिए 120 करोड़ रुपये वाली शोधन परियोजना लगाई है। इसके अलावा किए गए अन्य समझौतों में लोहे की लदान के लिए एन्नौर बंदरगाह पर स्थाई तट विकसित करने का समझौता किया गया है। इसके लिए सिकल लॉजिस्टिक्स और एलऐंड टी इन्फ्रास्ट्रक्चर से समझौता किया गया है।
उम्मीद की जा रही है कि यह जनवरी 2010 में चालू हो जाएगा। इसके अलावा आभूषणों के लिए रिटेल चेन शुरू करने की योजना भी शुरू होनी है, जिसका पहला आउटलेट जुलाई 2009 में खोला जाएगा। एमएमटीसी को गोमिया में एक कोल ब्लॉक भी आवंटित हुआ है। इसके बारे में विस्तृत अध्यय 2009-10 में पूरा होना है। (BS Hindi)
मंदी से घटा लौह-अयस्क का निर्यात
मुंबई March 28, 2009
वैश्विक मंदी की वजह से लौह-अयस्क के निर्यात पर खासा असर पड़ सकता है।
विश्लेषकों के मुताबिक इस्पात के उत्पादन में खास भूमिका निभाने वाले इस अयस्क का उत्पादन और निर्यात वैश्विक उपभोक्ता उद्योगों की तरफ से मांग में कमी के कारण 25 फीसदी तक लुढ़क सकता है।
भारत में पिछले वित्त वर्ष में 23.60 लाख टन लौह अयस्क का उत्पादन किया था लेकिन अब इसके कम होकर 19 लाख डॉलर रह जाने की संभावना है। वित्त वर्ष 2008-09 लौह अयस्क निर्माताओं के लिए काफी मिला-जुला रहा जिसमें पहली छमाही में ऑर्डर की भरमार रही।
लेकिन दूसरी छमाही, खासकर नवंबर से इसमें गिरावट आनी शुरू हो गई और यह शून्य के स्तर पर पहुंच गया। इसकी वजह कोरिया, जापान, यूरोप और अमेरिकी बाजारों, जहां भारत अपने कुल उत्पादन का 80-85 फीसदी तक निर्यात करता है, वहां मंदी के कारण स्थितियां काफी बदल गईं।
आश्चर्य की बात यह रही कि फरवरी से मांग में कुछ सुधार आया जो इस्पात और स्टेनलेस स्टील के उत्पादन के साथ ही वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी सुधार के संकेत देता है। नवंबर और फरवरी के बीच कारोबारी रूप से खस्ता समय में भारत में लौह-अयस्क निर्माताओं ने अपने उत्पादन को कम कर आधा कर दिया।
पहले से जमा लौह-अयस्क भंडार में बढोतरी होने से मौजूदा 150 फर्नेस ने अपनी दुकानों में ताला लगा दिया है और अपनी क्षमता में नाटकीय रूप से 30 फीसदी की कटौती कर दी है। हालांकि भारतीय लौह-अयस्क निर्माता महांसघ (आईएफएपीए) के महासचिव टी एस सुदर्शन ने कहा कि कि अब वे धीरे-धीरे अपने कारोबार में तेजी ला रहे हैं।
सुदर्शन ने कहा कि क्षमता के उपभोग में बढ़ोतरी की गई है और इसे जनवरी के 35 फीसदी के स्तर से बढ़ाकर 60 फीसदी के स्तर पर कर दिया गया है। पिछले साल भारत ने 9 लाख टन लौह-अयस्क का निर्यात किया था जिसमें फेरो मैगनीज, फेरो क्रोम और सिलिको मैगनीज शामिल है।
इस साल शिपमेंट में गिरावट आने की संभावना है कि क्योंकि यूरोप में स्टील और स्टेनलेस स्टील निर्माताओं ने उत्पादन में 30 फीसदी तक की कमी करने का फैसला किया है। खासकर, दक्षिण अफ्रीका जो स्टेनलेस स्टील के उत्पादन में काम आने वाले फेरो क्रोम का आवश्यकता से अधिक भंडारण कर लिया है।
हाल में ही करीब 75-80 फीसदी फर्नेस को अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया है।एक बड़े घटनाक्रम के तहत कच्चे पदार्थों का सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाले देश चीन ने अधिकांश लौह-अयस्क पर 20 फीसदी का निर्यात शुल्क लागू कर दिया है जिसमें फेरो सिलिकन (25 फीसदी) और 75 फीसदी मिन ग्रेड फेरो-वेनेडियम (0 फीसदी) अपवाद हैं।
इससे भारतीय लौह-अयस्क निर्माताओं को यूरोप, कोरिया, अमेरिका और दूसरे बाजारों पर कब्जा जमाने का अवसर मिल सकता है। वर्ष 2008 में चीन ने 3,026,322 टन लौह-अयस्क का निर्यात किया जो 2007 के मुकाबले 5.71 फीसदी कम है। जनवरी 2009 में चीन के लौह-अयस्क के निर्यात में 68.7 फीसदी की गिरावट आई।
मांग हुई कम
मांग में कमी से 25 प्रतिशत तक कम हो सकता है निर्यात भारत अपने कुल उत्पादन का 80-85 फीसदी करता है निर्यातकोरिया, जापान, यूरोप और अमेरिका में घट गई है मांग (BS Hindi)
वैश्विक मंदी की वजह से लौह-अयस्क के निर्यात पर खासा असर पड़ सकता है।
विश्लेषकों के मुताबिक इस्पात के उत्पादन में खास भूमिका निभाने वाले इस अयस्क का उत्पादन और निर्यात वैश्विक उपभोक्ता उद्योगों की तरफ से मांग में कमी के कारण 25 फीसदी तक लुढ़क सकता है।
भारत में पिछले वित्त वर्ष में 23.60 लाख टन लौह अयस्क का उत्पादन किया था लेकिन अब इसके कम होकर 19 लाख डॉलर रह जाने की संभावना है। वित्त वर्ष 2008-09 लौह अयस्क निर्माताओं के लिए काफी मिला-जुला रहा जिसमें पहली छमाही में ऑर्डर की भरमार रही।
लेकिन दूसरी छमाही, खासकर नवंबर से इसमें गिरावट आनी शुरू हो गई और यह शून्य के स्तर पर पहुंच गया। इसकी वजह कोरिया, जापान, यूरोप और अमेरिकी बाजारों, जहां भारत अपने कुल उत्पादन का 80-85 फीसदी तक निर्यात करता है, वहां मंदी के कारण स्थितियां काफी बदल गईं।
आश्चर्य की बात यह रही कि फरवरी से मांग में कुछ सुधार आया जो इस्पात और स्टेनलेस स्टील के उत्पादन के साथ ही वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी सुधार के संकेत देता है। नवंबर और फरवरी के बीच कारोबारी रूप से खस्ता समय में भारत में लौह-अयस्क निर्माताओं ने अपने उत्पादन को कम कर आधा कर दिया।
पहले से जमा लौह-अयस्क भंडार में बढोतरी होने से मौजूदा 150 फर्नेस ने अपनी दुकानों में ताला लगा दिया है और अपनी क्षमता में नाटकीय रूप से 30 फीसदी की कटौती कर दी है। हालांकि भारतीय लौह-अयस्क निर्माता महांसघ (आईएफएपीए) के महासचिव टी एस सुदर्शन ने कहा कि कि अब वे धीरे-धीरे अपने कारोबार में तेजी ला रहे हैं।
सुदर्शन ने कहा कि क्षमता के उपभोग में बढ़ोतरी की गई है और इसे जनवरी के 35 फीसदी के स्तर से बढ़ाकर 60 फीसदी के स्तर पर कर दिया गया है। पिछले साल भारत ने 9 लाख टन लौह-अयस्क का निर्यात किया था जिसमें फेरो मैगनीज, फेरो क्रोम और सिलिको मैगनीज शामिल है।
इस साल शिपमेंट में गिरावट आने की संभावना है कि क्योंकि यूरोप में स्टील और स्टेनलेस स्टील निर्माताओं ने उत्पादन में 30 फीसदी तक की कमी करने का फैसला किया है। खासकर, दक्षिण अफ्रीका जो स्टेनलेस स्टील के उत्पादन में काम आने वाले फेरो क्रोम का आवश्यकता से अधिक भंडारण कर लिया है।
हाल में ही करीब 75-80 फीसदी फर्नेस को अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया है।एक बड़े घटनाक्रम के तहत कच्चे पदार्थों का सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाले देश चीन ने अधिकांश लौह-अयस्क पर 20 फीसदी का निर्यात शुल्क लागू कर दिया है जिसमें फेरो सिलिकन (25 फीसदी) और 75 फीसदी मिन ग्रेड फेरो-वेनेडियम (0 फीसदी) अपवाद हैं।
इससे भारतीय लौह-अयस्क निर्माताओं को यूरोप, कोरिया, अमेरिका और दूसरे बाजारों पर कब्जा जमाने का अवसर मिल सकता है। वर्ष 2008 में चीन ने 3,026,322 टन लौह-अयस्क का निर्यात किया जो 2007 के मुकाबले 5.71 फीसदी कम है। जनवरी 2009 में चीन के लौह-अयस्क के निर्यात में 68.7 फीसदी की गिरावट आई।
मांग हुई कम
मांग में कमी से 25 प्रतिशत तक कम हो सकता है निर्यात भारत अपने कुल उत्पादन का 80-85 फीसदी करता है निर्यातकोरिया, जापान, यूरोप और अमेरिका में घट गई है मांग (BS Hindi)
बारिश का असर पड़ेगा गेहूं पर
नई दिल्ली March 28, 2009
देश के उत्तर व उत्तर पश्चिम इलाकों में हो रही बारिश अगर दो-तीन दिनों से अधिक चली तो गेहूं उत्पादन पर इसका विपरीत असर पड़ सकता है।
वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में होने वाली बारिश से गेहूं की फसल को कुछ लाभ मिल सकता है। मौसम विभाग के मुताबिक आगामी दो दिनों के दौरान उत्तर पश्चिम भारत में बारिश होने की संभावना है।
पंजाब के किसानों के मुताबिक पिछले 23 तारीख से पंजाब के विभिन्न इलाकों में छिटपुट बारिश हो रही है। पंजाब व हरियाणा में गेहूं कटने को तैयार है और कुछ जगहों पर कटाई भी शुरू हो चुकी है। ऐसे में पिछले चार दिनों से विभिन्न अलग-अलग जगहों पर होने वाली बारिश से गेहूं की फसल को नुकसान पहुंचने की आशंका है।
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर यह बारिश लंबी चलती है तो निश्चित रूप से फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। कृषि वैज्ञानिक एमएस सिध्दू ने बताया कि लगातार हो रही छिटपुट बारिश को देखते हुए पंजाब सरकार गेहूं की फसल को लेकर एक सर्वे भी करा रही है। सर्वे की रिपोर्ट आने के बाद ही पता चलेगा कि फसल को कितना नुकसान हुआ है।
पंजाब में इस साल 157 लाख टन गेहूं उत्पादन का अनुमान है। देश के गेहूं भंडारण में 60 फीसदी योगदान पंजाब का होता है। मौसम विभाग ने कहा है कि पंजाब के साथ हरियाणा, दिल्ली व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में अगले 48 घंटों तक बारिश हो सकती है। हालांकि उसके बाद मौसम साफ रहने की संभावना जाहिर की गयी है।
उधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को इस हल्की बारिश से कुछ लाभ मिलने की उम्मीद की जा रही है। क्योंकि इस साल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गेहूं की बुवाई 15 दिनों की देरी से हुई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के मुताबिक सामान्य के मुकाबले 5-6 डिग्री सेल्सियस अधिक तापमान होने के कारण गेहूं समय से पहले परिपक्व हो रहा था। इस कारण फसल में गिरावट की आशंका थी।
बारिश होने से गेहूं के दाने को पकने का पूरा मौका मिलेगा और वे फसल की अवधि पूरी होने पर ही उसकी कटाई करेंगे। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में होने वाली सरसों फसल को बारिश से नुकसान होने की आशंका है। क्योंकि सरसों की कटाई शुरू हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में इस साल 12 लाख टन सरसों उत्पादन का अनुमान है।
कहीं खुशी, कहीं गम
पंजाब और हरियाणा में गेहूं कटने को तैयार है, वहां होगा नुकसान बारिश को देखते हुए पंजाब सरकार करा रही है फसल का सर्वेअभी और बारिश होने की है संभावनादेर से बोई गई उप्र की गेहूं की फसल को होगा फायदा (BS Hindi)
देश के उत्तर व उत्तर पश्चिम इलाकों में हो रही बारिश अगर दो-तीन दिनों से अधिक चली तो गेहूं उत्पादन पर इसका विपरीत असर पड़ सकता है।
वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में होने वाली बारिश से गेहूं की फसल को कुछ लाभ मिल सकता है। मौसम विभाग के मुताबिक आगामी दो दिनों के दौरान उत्तर पश्चिम भारत में बारिश होने की संभावना है।
पंजाब के किसानों के मुताबिक पिछले 23 तारीख से पंजाब के विभिन्न इलाकों में छिटपुट बारिश हो रही है। पंजाब व हरियाणा में गेहूं कटने को तैयार है और कुछ जगहों पर कटाई भी शुरू हो चुकी है। ऐसे में पिछले चार दिनों से विभिन्न अलग-अलग जगहों पर होने वाली बारिश से गेहूं की फसल को नुकसान पहुंचने की आशंका है।
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर यह बारिश लंबी चलती है तो निश्चित रूप से फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। कृषि वैज्ञानिक एमएस सिध्दू ने बताया कि लगातार हो रही छिटपुट बारिश को देखते हुए पंजाब सरकार गेहूं की फसल को लेकर एक सर्वे भी करा रही है। सर्वे की रिपोर्ट आने के बाद ही पता चलेगा कि फसल को कितना नुकसान हुआ है।
पंजाब में इस साल 157 लाख टन गेहूं उत्पादन का अनुमान है। देश के गेहूं भंडारण में 60 फीसदी योगदान पंजाब का होता है। मौसम विभाग ने कहा है कि पंजाब के साथ हरियाणा, दिल्ली व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में अगले 48 घंटों तक बारिश हो सकती है। हालांकि उसके बाद मौसम साफ रहने की संभावना जाहिर की गयी है।
उधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को इस हल्की बारिश से कुछ लाभ मिलने की उम्मीद की जा रही है। क्योंकि इस साल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गेहूं की बुवाई 15 दिनों की देरी से हुई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के मुताबिक सामान्य के मुकाबले 5-6 डिग्री सेल्सियस अधिक तापमान होने के कारण गेहूं समय से पहले परिपक्व हो रहा था। इस कारण फसल में गिरावट की आशंका थी।
बारिश होने से गेहूं के दाने को पकने का पूरा मौका मिलेगा और वे फसल की अवधि पूरी होने पर ही उसकी कटाई करेंगे। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में होने वाली सरसों फसल को बारिश से नुकसान होने की आशंका है। क्योंकि सरसों की कटाई शुरू हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में इस साल 12 लाख टन सरसों उत्पादन का अनुमान है।
कहीं खुशी, कहीं गम
पंजाब और हरियाणा में गेहूं कटने को तैयार है, वहां होगा नुकसान बारिश को देखते हुए पंजाब सरकार करा रही है फसल का सर्वेअभी और बारिश होने की है संभावनादेर से बोई गई उप्र की गेहूं की फसल को होगा फायदा (BS Hindi)
प्लास्टिक दाने की सप्लाई घटने से भाव सात फीसदी बढ़े
प्लास्टिक दाने की सप्लाई घटने के कारण इसके मूल्य पांच से सात फीसदी बढ़ चुके हैं। कारोबारियों का कहना है कि अगले माह प्लास्टिक कंपनियां डॉलर में मजबूती और क्रूड ऑयल के दाम बढ़ने की वजह से इसके मूल्य बढ़ा सकती है। जिससे बाजार में इसके दाम और बढ़ सकते हैं। सदर बाजार प्लास्टिक ट्रेडर एसोसिएशन के प्रधान राजेंद्र गर्ग ने बिजनेस भास्कर को बताया कि प्लास्टिक बाजार में दाने की सप्लाई घटने की वजह से इसके मूल्य सात फीसदी तक बढ़ चुके हैं। उनका कहना है कि डॉलर के मजबूत होने और क्रूड ऑयल के मूल्य बढ़ने की वजह से प्लास्टिक कंपनियां आने वाले दिनों में इसके दाम बढ़ा सकती है। यही वजह है कि कंपनियों की ओर से बाजार में इसकी सप्लाई कम हो रही हैं। गर्ग ने बताया कि कंपनियों द्वारा दाम बढ़ाने पर बाजार में प्लास्टिक दाने की कीमतें और भी बढ़ सकती हैं।दिल्ली के प्लास्टिक बाजार में दो सप्ताह के दौरान पीपी-100 दाना की कीमत 70 रुपये से बढ़कर 75, एलडी-40 दाना 72 रुपये से बढ़कर 77 रुपये, एलडीपीई के दाम 68 रुपये से बढ़कर 72 रुपये प्रति किलो गए हैं। जबकि एचडी ब्लोइंग के दाम 62 रुपये से बढ़कर 65 रुपये प्रति किलो हो चुके हैं। वहीं दिल्ली सरकार द्वारा प्लास्टिक बैग पर पूर्ण पाबंदी लगाने की वजह से इनकी बिक्री में भारी कमी आई हैं। गर्ग का कहना है कि पांबदी के चलते प्लास्टि बैग की बिक्री 60 फीसदी तक घट चुकी हैं। सरकार के इस फैसले के खिलाफ प्लास्टिक इंडस्ट्री ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की है। जिस पर सुनवाई 19 मार्च को होनी थी। लेकिन अब सुनवाई की तारीख को बढ़ाकर 31 मार्च कर दिया गया है। उल्लेखनीय है कि सरकार ने प्लास्टिक बैग की बिक्री, खरीद और भंडार करने पर एक लाख रुपये का जुर्माना और पांच साल की कैद या दोनो हो सकती है। दिल्ली सरकार द्वारा 7 जनवरी 2009 को जारी अधिसूचना में कहा गया कि पांच और चार सितारा होटल, कम से कम 50 लोगों के बैठने की व्यवस्था वाले रेस्तरां और होटल, शराब की दुकान, शॉपिंग मॉल, मदर डेयरी, फल एवं सब्जी बेचने और 100 और इससे अधिक बिस्तर वाले अस्पताल आदि पर प्लास्टिक बैग की बिक्री पर पाबंदी लगा दी है। दिल्ली में करीब 4,000 इकाइयां प्लास्टिक बैग को बनाने का काम करती हैं और इस उद्योग से करीब दस हजार कारोबारी जुडे हैं। इसका सालाना कारोबार दस हजार करोड़ रुपये का है। दिल्ली में करीब दो लाख प्लास्टिक बैग की दैनिक खपत होती है। (Business Bhaskar)
पैदावार में कमी की आशंका से अरहर के भाव में तेजी का रुख
अरहर की घरेलू पैदावार में कमी की आशंका से स्टॉकिस्टों की खरीद बढ़ गई है। प्रमुख उत्पादक राज्यों महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में दैनिक आवक में भी कमी आई है। जबकि म्यांमार के निर्यातक मार्च-अप्रैल डिलीवरी के सौदे ऊंचे भावों में बोल रहे हैं। इससे पिछले पंद्रह-बीस दिनों में अरहर के भावों में 250 रुपये प्रति क्विंटल की तेजी आ चुकी है।दाल मिलर्स सुनील बंदेवार ने बताया कि अरहर में स्टॉकिस्टों की मांग तो बढ़ गई है लेकिन प्रमुख उत्पादक राज्यों महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश की उत्पादक मंडियों में इसकी दैनिक आवकों में काफी कमी आई है। भावों में आ रही तेजी को देखते हुए उत्पादकों की बिकवाली पहले की तुलना में घट गई है। चालू महीने के शुरू में प्रमुख उत्पादक राज्यों में अरहर की दैनिक आवक लगभग 80 से 90 हजार बोरी की हो रही थी। जबकि इस समय इसकी दैनिक आवक घटकर 20 से 25 हजार बोरी की रह गई है। उत्पादक मंडियों में आवक घटने के साथ ही म्यांमार से आयातित अरहर की कीमतों में हुई बढ़ोतरी से लातूर मंडी में इसके भाव बढ़कर 3500 से 3700 रुपये, जलगांव में 3500 रुपये और जालना मंडी में इसके भाव बढ़कर 3450 से 3500 रुपये प्रति क्विंटल हो गये। मध्य प्रदेश की इंदौर मंडी में इस दौरान इसके भाव बढ़कर 3500 रुपये प्रति क्विंटल हो गये।कृषि मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी दूसरे अग्रिम अनुमान के मुताबिकचालू फसल सीजन में देश में अरहर की पैदावार घटकर 24 लाख टन होने की संभावना है। जबकि उत्पादन का लक्ष्य 29 लाख टन का था। पिछले वर्ष देश में इसकी पैदावार 30 लाख टन की हुई थी। बुवाई के समय उत्पादक राज्यों में मौसम प्रतिकूल होने से पैदावार में भारी गिरावट आने की संभावना है।जलगांव के दलहन आयातक संतोष उपाध्याय ने बताया कि म्यांमार के निर्यातकों ने अरहर की मार्च-अप्रैल शिपमेंट डिलीवरी की कीमतें बढ़ाकर 630-640 डॉलर प्रति टन बोलनी शुरू कर दी हैं। मार्च महीने के शुरू में इसके दाम 570-580 डॉलर प्रति टन थे। चालू वित्त वर्ष में अभी तक सरकारी एजेंसियों एमएमटीसी, पीईसी, एसटीसी और नाफेड ने लगभग 84,140 टन अरहर के आयात सौदे किए हैं। इसके अलावा इस दौरान प्राइवेट आयातकों ने भी करीब म्क् से स्त्रक् हजार टन अरहर के आयात सौदे किए है। चालू फसल सीजन में बर्मा से करीब दो लाख टन अरहर आने की संभावना है। निर्यातकों की बिकवाली कम आने से घरेलू बाजारों में इसके दामों में और भी तेजी की संभावना है। हालांकि चुनावी वर्ष होने के कारण आगामी दिनों में सरकारी एजेंसियों की बिकवाली बढ़ने की संभावना तो है लेकिन पैदावार में कमी और आयात महंगा होने से घरेलू बाजार में इसके मौजूदा भावों में गिरावट की संभावना नहीं हैं। मुंबई में आयातित अरहर के दाम बढ़कर 3300 रुपये प्रति क्विंटल हो गए जबकि दो मार्च को मुंबई में इसके भाव 2950 रुपये प्रति क्विंटल थे। (Business Bhaskar.....R S Rana)
अमेरिका में घटेगा कॉटन का रकबा
अमेरिका में इस साल कॉटन का बुवाई रकबा घट सकता है। ब्लूमबर्ग द्वारा कराए गए सर्वे के मुताबिक पिछले एक साल में कॉटन की कीमतों में आई गिरावट की वजह से किसानों का रुझान इसकी बुवाई से घट सकता है। टेक्सास और दूसर इलाकों में सूखे की वजह से भी कॉटन के बुवाई रकबे पर असर पड़ने की संभावना जताई जा रही है। रिपोर्ट के मुताबिक इस साल यहां किसान करीब 85.26 लाख एकड़ में कॉटन की खेती कर सकते हैं। जो साल 1983 के बाद का सबसे कम रकबा है। पिछले साल यहां करीब 94.7 लाख एकड़ में कॉटन की बुवाई हुई थी। पिछले महीने नेशनल कॉटन काउंसिल ने इस साल करीब 81.1 लाख एकड़ में कॉटन की बुवाई होने का अनुमान जताया था। गौरतलब है कि अमेरिका में टेक्सास कॉटन का सबसे बड़ा उत्पादक क्षेत्र है। मौजूदा समय में यहां के कई इलाकों में सूखा पड़ा हुआ है। ऐसे में यहां सोयाबीन और मक्के के साथ कॉटन की बुवाई पर भी असर पड़ने की संभावना है। उल्लेखनीय है कि अमेरिका दुनिया में सबसे बड़ा कॉटन का निर्यातक देश है। एफसी स्टोन एलसीसी के अर्थशास्त्री गेर रैनेस के मुताबिक बुवाई घटने से इस साल यहां कॉटन का रकबा करीब 84 लाख एकड़ रह सकता है। पिछले एक साल के दौरान वैव्श्रिक बाजार में कॉटन, सोयाबीन और मक्के की कीमतों में भारी गिरावट आई है। पिछले साल जुलाई में सीबॉट में सोयाबीन करीब 16.367 डॉलर प्रति टन के उच्च स्तर पर कारोबार किया था। जिसमें करीब 42 फीसदी की गिरावट आ चुकी है। वहीं मक्के के भाव में करीब 51 फीसदी की गिरावट आ चुकी है। (Business Bhaskar)
सोयाबीन वायदा के भाव में मामूली उतार-चढ़ाव
वैश्विक आर्थिक सुस्ती का असर देश से सोयामील के निर्यात पर भी पड़ रहा है। जनवरी-फरवरी में देश से सोयामील के निर्यात में भारी गिरावट आई है। चालू माह में भी निर्यात घटने की आशंका है। पिछले चार महीने में देश में खाद्य तेलों का भारी आयात हो चुका है। चूंकि उत्पादक मंडियों में सोयाबीन की दैनिक आवक घट गई है, इसलिए सोयामील और तेल में कमजोर उठाव के बावजूद सोयाबीन के मौजूदा भावों में गिरावट की आशा नहीं है। वायदा बाजार में सोयाबीन के भाव में सीमित घटत-बढ़त चल रही है। पर विदेशी बाजार बढ़ने से सोयातेल के भाव में पिछले दो दिनों में करीब एक फीसदी की तेजी आ चुकी है।वायदा में तेल बढ़ानेशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव एक्सचेंज (एनसीडीईएक्स) पर सोया तेल के अप्रैल महीने के वायदा में पिछले दो दिनों में करीब एक फीसदी की तेजी आई है। इससे भाव 451 रुपए प्रति 10 किलो हो गए हैं। वैसे इस समय सोया तेल में घरेलू मांग तो कमजोर है, लेकिन विदेशी बाजारों में सुधार से वायदा बाजार में भाव बढ़े हैं। जानकारों के मुताबिक सोया तेल में 3,328 लॉट के सौदे खड़े हुए हैं। सोयाबीन अप्रैल के वायदा के भाव में सीमित घट-बढ़ देखी जा रही है। गुरुवार को इसके भाव बढ़कर 2384 रुपए प्रति क्विंटल हो गए थे। लेकिन शुक्रवार को निवेशकों की बिकवाली बढ़ने से हल्की गिरावट आकर भाव 2365 रुपए प्रति क्विंटल रह गए। इसमें करीब 8700 लॉट के सौदे खड़े हुए।निर्यात घटने की आशंकासोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सोपा) के सूत्रों के अनुसार विश्व बाजार में चल रही आर्थिक मंदी से देश से जनवरी-फरवरी महीने में सोयामील के निर्यात में पिछले वर्ष की समान अवधि के मुकाबले भारी गिरावट आई है। चालू वर्ष के जनवरी महीने में देश से सोयामील का पिछले वर्ष के 7.24 लाख टन के मुकाबले घटकर 5.55 लाख टन का ही हुआ था। इसी तरह से चालू वर्ष के फरवरी महीने में भी इसका निर्यात पिछले साल के 6.41 लाख टन से घटकर 3.81 लाख टन का ही रह गया। पिछले साल मार्च महीने में सोयामील का निर्यात 6.05 लाख टन का हुआ था लेकिन निर्यात मांग में कमी से चालू महीने में इसके निर्यात में भारी कमी की आशंका है। हालांकि चालू वित्त वर्ष में सोयामील के कुल निर्यात में बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2007-08 में देश से सोयामील का कुल निर्यात 39.87 लाख टन का हुआ था। जबकि चालू वित्त वर्ष में फरवरी महीने तक 40.22 लाख टन का निर्यात हो चुका है। सोयामील के पोर्ट डिलीवरी भाव 21,200 से 21,500 रुपए प्रति टन चल रहे हैं।खाद्य तेलों का आयातसाल्वेंट एक्सट्रेक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक चालू तेल वर्ष (नवंबर से अक्टूबर) के पहले चार महीनों में देश में खाद्य तेलों का आयात पिछले वर्ष के 17.61 लाख टन के मुकाबले बढ़कर 29.51 लाख टन का हो चुका है। मार्च महीने में भी आयात में भारी बढ़ोतरी होने की उम्मीद है। खाद्य तेलों के भारी आयात से सोया तेल में मांग कमजोर ही रहेगी। लेकिन विदेशी बाजारों की तेजी-मंदी का असर घरेलू बाजार में इसकी कीमतों पर पड़ने से उठा-पटक जारी रह सकती है। इंदौर में सोया तेल के भाव 449 रुपए और मुंबई में 450 रुपए प्रति 10 किलो चल रहे हैं।सोयाबीन की आवक घटीसोयाबीन व्यापारी मोहन मुंदड़ा ने बताया कि प्रमुख उत्पादक राज्यों मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान की उत्पादक मंडियों में सोयाबीन की दैनिक आवक घटकर 48 से 50 हजार बोरी की रह गई है। आवक घटने से सोयाबीन के मौजूदा भावों में गिरावट की उम्मीद नहीं है। उत्पादक मंडियों में सोयाबीन के भाव 2300 से 2325 रुपए प्रति क्विंटल प्लांट डिलीवरी चल रहे हैं। केंद्र सरकार के मुताबिक चालू फसल सीजन में देश में सोयाबीन की पैदावार पिछले वर्ष के 109 लाख टन से घटकर 90 लाख टन होने की उम्मीद है। हालांकि पैदावार का लक्ष्य 96 लाख टन का था। जाहिर है इन सबका असर पड़ेगा। (Business Bhaskar...........R S Rana)
27 मार्च 2009
सोने का शुद्ध निर्यातक बनने की राह पर भारत
मुंबई। पिछले कुछ महीनों के दौरान वैव्श्रिक बाजार में सोने में तेजी की वजह से भारत में सोने का आयात बेहद कम रहा। इस दौरान यहां से तुलनात्मक रुप से निर्यात बढ़ा है। इस साल फरवरी के दौरान सोने में तेजी से घरलू बाजारों में सोने की मांग कम रही। लिहाजा देश में सोने का आयात बिल्कुल ही नहीं हुआ। मार्च में भी सोने का आयात नहीं होने के कयास लगाए जा रहे हैं। वहीं वैव्श्रिक बाजारों में ऊंची कीमतों की वजह से निर्यातकों को घरलू बाजार की तुलना में बेहतर दाम मिल रहे हैं। इस साल फरवरी और मार्च के दौरान यहां से करीब छह टन सोने का निर्यात होने का अनुमान है। इस दौरान गोल्ड स्क्रैप बिक्री में करीब चार गुने का इजाफा हुआ है। पिछले महीने दिल्ली से करीब सौ किलो सोने का निर्यात हुआ है। सराफा कारोबार में मुनाफा कमाने के लिए इस समय निर्यात कारोबार एक आसान रास्ता दिख रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से निजी तौर पर सोना निर्यात करने पर प्रतिबंधित है। लेकिन आभूषण और सिक्कों के जैसे सोने के मूल्य वर्धित उत्पादों का निर्यात हो सकता है। (Business Bhaskar)
आयात शुल्क हटने के बाद विश्व बाजार में सोया तेल के दाम बढ़े
सरकार द्वारा सोया तेल पर आयात शुल्क हटाने का फायदा देश के उपभोक्ताओं को मिलता हुआ नहीं दिख रहा है। भारत में शुल्क हटने के एक सफ्ताह में विश्व बाजार में खाद्य तेलों के दाम 4-7 फीसदी तक बढ़ गये है। वाणिज्य सचिव जी. के. पिल्लई ने 19 फरवरी को क्रूड सोया तेल पर लगने वाले 20 फीसदी आयात शुल्क को हटाने की जानकारी दी थी।एक सप्ताह पहले विश्व बाजार में क्रूड सोया तेल के दाम 725 डॉलर प्रति टन थे। जो गुरुवार को सात फीसदी बढ़कर 750 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गये है। इसी तरह क्रूड पॉम तेल के दामों में भी तेज़ी का रुख बना हुआ है। इस दौरान मलेशियाई बाजार में इसके दाम 590 डॉलर प्रति टन से बढ़कर 617 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गये है। साथ ही आर बी डी पामोलिन के दाम 655 डॉलर से बढ़कर 687 डॉलर प्रति टन हो गये है। घरेलू बाजार पर आयात शुल्क हटने का कोई खास असर देखने को नहीं मिला। शुरुआत में जरुर दामों में कुछ गिरावट आई थी। किन्तु एक हफ्ते के दौरान दाम फिर से बढ़ गये हैं। इस समय देश में सरसों के दाम 2250 रुपये प्रति क्विंटल, सोयाबीन के दाम 2382 रुपये प्रति क्विंटल के स्तर पर है। सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर एसोसिएशन के कार्यकारी निदेशक बी. वी. मेहता ने बिजनेस भास्कर को बताया कि आयात शुल्क में कमी का फायदा न तो देश के उपभोक्ता और न ही देश के किसानों को मिला है। इसका सीधा फायदा भारत को खाद्य तेलों का निर्यात करने वाले देशों को हुआ है। आयात शुल्क हटते ही इन देशों में खाद्य तेलों के दामों में तेज़ी आ गई। भारत पॉम तेल का आयात मलेशिया और इंडोनेशिया तथा सोया तेल का आयात ब्राजील और अर्जेनटीना से करता है। विश्व बाजार में भारत खाद्य तेलों का बड़ा खरीददार है। वह अपनी जरुरत का करीब 50 से 55 फीसदी से अधिक खाद्य तेल आयात करता है। वर्ष 2007-08 में देश में 52 लाख टन खाद्य तेलों का आयात हुआ था। इस साल 60 लाख टन से ज्यादा होने का अनुमान है। इसी के चलते भारत में आयात शुल्क हटाने का असर विश्व बाजार में खाद्य तेलों के दामों में देखने को मिला है। (Business Bhaskar)
निर्यातकों की मांग बढ़ने और कमजोर तुड़ाई से इलायची महंगी
निर्यातकों की मांग बढ़ने से पिछले एक सप्ताह में इलायची में 20 से 25 रुपये प्रति किलो की तेजी आ चुकी है। उत्पादक क्षेत्रों में पर्याप्त बारिश न होने से पांचवीं और छठी तुड़ाई कमजोर रही है। अगर आगामी आठ-दस दिनों में अच्छी बारिश नहीं हुई तो सातवां तुड़ाई भी कमजोर रहने की आशंका है। 15 अगस्त से रमजान शुरू हो जाएंगे तथा रमजान के महीने में खाड़ी देशों से इलायची की निर्यात मांग में बढ़ोतरी होने की संभावना है। इसलिए आगामी दिनों में इसके मौजूदा भावों में और भी तेजी की उम्मीद है। मुंबई स्थित इलायची के निर्यातक मूलचंद रुबारल ने बताया कि इस समय निर्यातकों की अच्छी मांग बनी हुई है। भारतीय इलायची के भाव अंतरराष्ट्रीय बाजार में ग्यारह से पंद्रह डॉलर प्रति किलो चल रहे हैं। उधर ग्वाटेमाला की इलायची के भाव ग्यारह से तेरह डॉलर प्रति किलो पर बोले जा रहे हैं। लेकिन भारतीय इलायची की क्वाल्टिी ग्वाटेमाला से अच्छी होने के कारण भारत से मांग ज्यादा निकल रही है। 15 अगस्त से रमजान शुरू हो जाएंगे तथा रमजान में इलायची की मांग बढ़ जाती है। इसलिए आगामी दिनों में निर्यातकों की मांग में और भी बढ़ोतरी होने की संभावना है। भारतीय मसाला बोर्ड के सूत्रों के मुताबिक चालू वित्त वर्ष के अप्रैल से फरवरी तक देश से इलायची का निर्यात बढ़कर 600 टन का हो चुका है। पिछले वर्ष की समान अवधि में इसका निर्यात 430 टन का ही हुआ था। फरवरी महीने में निर्यात में भारी बढ़ोतरी हुई है। इस दौरान देश से इलायची का निर्यात 125 टन का हुआ है जबकि पिछले साल फरवरी महीने में इसका निर्यात मात्र 30 टन का हुआ था। केरल की कुमली मंडी के इलायची व्यापारी अरुण अग्रवाल ने बताया कि उत्पादक क्षेत्रों में पर्याप्त वर्षा न होने से पांचवीं और छठी तुड़ाई में बोल्ड क्वालिटी (साढ़े सात और आठ एमएम) के मालों की आवक कम हो रही है। अगर आगामी दिनों में अच्छी वर्षा नहीं हुई तो फिर सातवां तुड़ाई भी कमजोर रह सकता है। इसलिए इलायची में तेजी का रुख कायम रह सकता है। उत्पादक मंडी में इलायची के भाव बढ़कर 6.5 एमएम के 540 से 550 रुपये, 7 एमएम के 590 से 610 रुपये, 7.5 एमएम के 620 से 630 रुपये और 8 एमएम के भाव 650 से 675 रुपये प्रति किलो हो गए हैं। उत्पादक क्षेत्रों में इलायची की साप्ताहिक आवक 200 से 250 टन की हो रही है।इलायची व्यापारी अशोक पारिख ने बताया कि चालू फसल सीजन में देश में इलायची का उत्पादन 12,000 टन होने की संभावना है जोकि पिछले वर्ष से ज्यादा है। उधर प्रतिकूल मौसम से ग्वाटेमाला में इलायची का उत्पादन पिछले वर्ष के 22,000 टन के मुकाबले घटकर 18,000 से 19,000 टन ही होने की आशंका है। (Business Bhaskar....R S Rana)
घट सकता है राइस ब्रान तेल का उत्पादन
देश में धान की पैदावार बढ़ने के बावजूद इस साल राइस ब्रान तेल का उत्पादन कम होने का अनुमान है। उद्योग सूत्रों का अनुमान है कि इस साल उत्पादन में 10 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। वर्ष 2008 में राइस ब्रान तेल का उत्पादन 8 लाख टन का हुआ था। धान की भूसी से राइस ब्रान तेल बनाया जाता है। 2008-09 के खरीफ में धान की पैदावार 850 लाख टन हुआ है। जो साल 2007-08 की खरीफ में 826 लाख टन थी। ए. पी. सॉल्वेंट के चेयरमैन ए. आर. शर्मा ने बिजनेस भास्कर को बताया कि घरेलू बाजार में राइस ब्रान तेल की मांग में आई हल्की कमी और उत्तरी राज्यों में धान की मिलिंग में कमी के चलते इस साल राइस ब्रान तेल के उत्पादन में कमी हो सकती है। सामान्य रुप से राइस ब्रान तेल के लिए धान की पेराई दिसंबर-अप्रैल तक चलती है। जबकि इस साल अभी तक केवल 60 फीसदी धान की ही मिलिंग हुई है। पंजाब में तो यह और भी कम हुई है। इसका कारण बताते हुए शर्मा ने कहा किदेश भर के गोदाम अनाजों से भरे है। सरकार के पास चावल रखने की जगह ही नहीं है। यह समस्या पंजाब में सबसे ज्यादा है। जिसके चलते धान की मिलिंग नहीं हो पा रही है। साथ ही पंजाब में पहली बार है कि सर्दियो के सीजन में बिजली की कटौती हुई है। जिससे भी राइस ब्रान तेल का उत्पादन प्रभावित हुआ है। केवल पंजाब में 40 फीसदी धान मिलिंग के बगैर रखी हुई है। इसके अलावा पॉम तेल के सस्ता होने से लोग राइस ब्रांन के स्थान पर इसका प्रयोग कर रहे है। जिससे इसकी मांग में हल्की कमी आई है। सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक सेतिया ने बताया कि इस साल धान की मिलिंग के दिसंबर तक चलने की संभावना है। जो सामान्य रुप से दिसंबर-अप्रैल तक ही चलती थी। यदि ऐसा होता है तो राइस ब्रान तेल के उत्पादन में बढ़ोतरी हो सकती है। उत्पादन में कमी का असर इसके दामों पर भी देखने को मिल रहा है। पिछले एक महीने में रिफाइंड राइस ब्रान तेल के दाम 12 फीसदी तक बढ़ गये है। इस साल फरवरी के अंत में इसके दाम 41 रुपये प्रति किलो थे, जो अभी बढ़कर 46 रुपये प्रति किलो हो गये है। (Business Bhaskar)
वैश्विक स्तर पर गेहूं का उत्पादन बढ़ने के आसार
चालू सीजन के दौरान वैव्श्रिक गेहूं उत्पादन में तगड़ा इजाफा होने की संभावना है। इंटरनेशनल ग्रेन काउंसिल के ताजा अनुमान के मुताबिक इस साल गेहूं के वैव्श्रिक उत्पादन में करीब 13 फीसदी का इजाफा हो सकता है। काउंसिल की रिपोर्ट के मुताबिक गेहूं सीजन 2008-09 के दौरान दुनिया में करीब 68.8 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन हो सकता है। खास करके आस्ट्रेलिया में उत्पादन बढ़ने की वजह से वैव्श्रिक उत्पादन में इजाफे की संभावना जताई जा रही है। साल 2007-08 के दौरान दुनिया में करीब 60.9 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन हुआ था। महज एक महीना पहले इंटरनेशनल ग्रेन काउंसिल ने करीब 68.7 करोड़ टन गेहूं उत्पादन की उम्मीद जताई थी। लेकिन आस्ट्रेलिया में गेहूं की बेहतर फसल को देखते हुए गेहूं के संभावित उत्पादन में इजाफा किया गया है। उधर आस्ट्रेलिया ब्यूरो ऑफ एग्रीकल्चरल एंड रिसोर्स इकोनॉमी (अबार) ने इस साल देश में करीब 2.14 करोड़ टन गेहूं उत्पादन होने का अनुमान जताया है। पिछले साल दिसंबर में अबार में करीब दो करोड़ टन गेहूं उत्पादन रहने का अनुमान जताया था। जिंसों की कीमतों को प्रभावित करने वाला गेहूं प्रमुख अनाज है। कृषि अर्थशास्त्रियों के मुताबिक बढ़ते उत्पादन से दुनिया के कई क्षेत्रों में खाद्य चिंता की समस्या से राहत मिल सकती है। भारत सरकार ने गेहूं उत्पादन अनुमान में कटौती की है। सरकारी अनुमान के मुताबिक इस साल यहां करीब 7.78 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन हो सकता है। पिछले साल देश में करीब 7.857 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन हुआ था। चीन के कई इलाकों में सूखे की वजह से उत्पादन पर असर पड़ सकता है। लेकिन इसके बावजूद यहां उत्पादन बढ़ने की संभावना है। इस साल वैव्श्रिक स्तर पर करीब 64.5 करोड़ टन गेहूं की खपत होने की संभावना है। जो पिछले सीजन के मुकाबले करीब तीन करोड़ टन ज्यादा है। (Business Bhaskar)
सरकारी बंदिशों से थोक बाजार में चीनी हुई सस्ती
सरकारी बंदिशों से थोक बाजार में पिछले एक महीने में चीनी की कीमतों में 190 से 225 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आ चुकी है। इस दौरान दिल्ली थोक बाजार में चीनी के दाम 2425-2450 रुपये से घटकर 2200-2225 रुपये प्रति क्विंटल रह गये जबकि एक्स फैक्ट्री इसकी कीमतें 2250-2300 रुपये प्रति क्विंटल से घटकर 2030 से 2110 रुपये प्रति क्विंटल रह गई। मार्च क्लोजिंग के कारण व्यापारियों की सक्रियता कम होने से अभी चीनी की कीमतों में नरमी का रुख कायम रह सकता है।केंद्र सरकार द्वारा चीनी की बढ़ती कीमतों पर अंकुश लगाने के लिए डयूटी फ्री रॉ शुगर को आयात कर घरेलू बाजार में बेचने की छूट देने के बाद स्टॉक लिमिट लगा दी गई। लोकसभा चुनाव के कारण केंद्र सरकार चीनी की कीमतों पर हर हाल में अंकुश लगाना चाहती है इसीलिए चीनी पर से 60 फीसदी आयात शुल्क को समाप्त करने की तैयारी की जा चुकी है। दिल्ली के चीनी व्यापारी सुधीर भालोठिया ने बिजनेस भास्कर को बताया कि सरकार द्वारा स्टॉक लिमिट लगा देने से स्टॉकिस्टों की खरीद कम हो गई है जिससे थोक बाजार में इसके दामों में गिरावट आई है। वैसे भी मार्च क्लोजिंग के कारण इस समय व्यापारियों की खरीद कमजोर होने से गिरावट को ही बल मिल रहा है। हालांकि फूटकर बाजार में अभी भी चीनी के दाम 24 से 26 रुपये प्रति किलो ही चल रहे हैं। इंडिया शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) के अध्यक्ष समीर एस सोमैया के मुताबिक चालू वर्ष 2008-09 (अक्टूबर से सिंतबर) में 155 लाख टन उत्पादन और 80 लाख टन बकाया को मिलाकर कुल उपलब्धता 235 लाख टन की बैठेगी जबकि हमारी सालाना खपत 225 लाख टन की होती है। अत: उत्पादन और बकाया स्टॉक मिलाकर वैसे तो देश में चीनी की कमी नहीं है लेकिन अगर केंद्र सरकार चाहती है कि नये सीजन में बकाया स्टॉक ज्यादा हो तो फिर रॉ शुगर का आयात ज्यादा मात्रा में किया जा सकता है। लेकिन हाल ही में रॉ शुगर आयात का कोई नया सौदा नहीं हुआ है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी की कीमतें करीब 400 डॉलर प्रति टन हैं तथा रॉ शुगर की कीमतें भी बढ़कर 340 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गई हैं। ऐसे में आयातित चीनी भारतीय बाजारों में पहुंच लगभग 2500 रुपये प्रति क्विंटल बैठेगी जोकि घरेलू चीनी के मुकाबले महंगी होगी। इसलिए मौजूदा भावों में आयात होने की संभावना तो नहीं है लेकिन सरकार द्वारा लगातार कीमतों पर नियंत्रण हेतु किये जा रहे उपायों से स्टॉकिस्टों में घबराहट जरुर है। ऐसे में घरेलू बाजारों में चीनी की कीमतें कुछ समय के लिए स्थिर रह सकती है। (Business Bhaskar...R S Rana)
महंगाई दर व शून्य के बीच फासला और कम
महंगाई की दर अपनी गिरावट को बरकरार रखते हुए अब त्नशून्यत्न के और करीब आ गई है। गत ख्भ् मार्च को समाप्त सप्ताह में मुद्रास्फीति की दर और घटकर महज 0.27 फीसदी के स्तर पर आ गई । हालांकि, दालों एवं मोटे अनाजों की कम आपूर्ति होने तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) काफी ज्यादा रहने के कारण इस दौरान आवश्यक खाद्य वस्तुएं और महंगी हो र्गई। आर्थिक मामलों के सचिव अशोक चावला ने इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि मांग काफी घट जाने के चलते नहीं, बल्कि बेस इफेक्ट ज्यादा रहने के कारण ही महंगाई की दर में कमी देखने को मिली है। मालूम हो कि एक साल पहले समान अवधि में महंगाई की दर काफी ज्यादा 8.02 फीसदी थी। चावला ने कहा कि महंगाई की दर में कमी के वास्तविक कारण से हम वाकिफ हैं। ख्भ् मार्च को समाप्त सप्ताह में महंगाई की दर में 0.17 फीसदी की गिरावट देखने को मिली। इससे पिछले सप्ताह यह दर 0.44 फीसदी थी। वर्ष 1977-78 के बाद महंगाई दर का यह न्यूनतम स्तर है। प्राथमिक वस्तु समूह (गैर प्रसंस्कृत) में खाद्य पदार्थे की कीमतों में साप्ताहिक आधार पर 0.1 फीसदी और वार्षिक आधार पर 7.10 फीसदी की भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई है। जौ की कीमत में दो फीसदी, जबकि बाजरा, मक्का, फल-सब्जी, मसूर, उड़द और चावल की कीमतों में एक-एक फीसदी बढ़ोतरी हुई है। इसी तरह मैन्यूफैक्चर्ड खाद्य वस्तुओं में ऑयल केक की कीमत में सात फीसदी, आयातित खाद्य तेल में छह फीसदी और गुड़ में चार फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। (Business Bhaskar)
ग्लोबल रुझानों से सोने में रही हल्की तेजी
नई दिल्ली : ग्लोबल रुझानों की वजह से गुरुवार को घरेलू बाजार में भी सोने में तेजी देखने को मिली। गुरुवार को राजधानी में सोना 30 रुपये की बढ़त के साथ 15,330 रुपये प्रति 10 ग्राम पर बंद हुआ। नवरात्र के मौके पर रीटेलरों और जूलरी बिक्रेताओं द्वारा सोने की खरीदारी देखने को मिली। हालांकि चांदी पर बिकवाली का दबाव नजर आया और यह 100 रुपये की गिरावट के साथ 21,900 रुपये प्रति किलो पर बंद हुआ। सोने में मंगलवार को 230 रुपये की कमी रही थी। विदेशी बाजारों में सोना 0.2 परसेंट ऊपर 935.45 डॉलर प्रति आउंस पर कारोबार कर रहा था, जबकि एशियाई बाजार में चांदी में 0.2 परसेंट की गिरावट थी। घरेलू बाजार में चांदी के सिक्कों के भाव में कोई घट-बढ़ नहीं रही और ये 28,00 (खरीद) और 28,400 (बिक्री) के भाव पर बंद हुए। स्टैंडर्ड गोल्ड और जेवर में 30-30 रुपये की बढ़त रही और ये क्रमश: 15,330 और 15,180 रुपये पर बंद हुए। (ET Hindi)
रत्न-आभूषण निर्यातकों की नजर पश्चिम एशिया पर
मुंबई : अमेरिकी आर्थिक मंदी के कारण हुए नुकसान की भरपाई के लिए रत्न एवं आभूषण निर्यातकों ने अब अपनी निगाहें पश्चिम एशियाई देशों पर टिकाई हैं। देश से रत्न एवं आभूषण के कुल निर्यात का करीब 50 फीसदी हिस्सा अमेरिकी बाजार में जाता रहा है लेकिन वहां हो रहे नुकसान की भरपाई के लिए निर्यातकों को दूसरे ठिकानों की तलाश करनी पड़ रही है। रत्न एवं आभूषण निर्यात प्रोत्साहन परिषद (जीजेईपीसी) पश्चिम एशिया में एक अभियान 'ब्रांड इंडिया' शुरू कर रही है। परिषद की कोशिश इन देशों में भारतीय रत्न-आभूषण के लिए बाजार बनाने की है। अधिकारियों के अनुसार जीजेईपीसी इस अभियान को सफल बनाने के लिए करीब 250 करोड़ रुपए का निवेश कर रही है। यह अभियान का आयोजन इस साल के अंत में होगा जब पश्चिम एशियाई देशों में मांग अपने चरम पर होती है। इस अभियान में सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, ईरान और कुवैत जैसे देशों को शामिल किया जाएगा। इस पूरे अभियान में बॉलीवुड कलाकारों के कार्यक्रम भी होंगे। इसके अलावा प्रिंट-टीवी विज्ञापनों और इन देशों में कारोबारी बैठकों के जरिए भी अभियान को सफल बनाने की कोशिश की जाएगी। जीजेईपीसी के अध्यक्ष वसंत मेहता ने कहा, 'हम कोशिश कर रहे हैं कि अरब ग्राहकों को भारतीय हीरों और गहनों के बारे में पूरी जानकारी दी जाए। इस क्षेत्र में गहनों और नगों की भारी मांग है।' रत्न-आभूषण उद्योग के विशेषज्ञों का कहना है कि अरब जगत में भारतीय नगों और गहनों के बारे में बेहद कम जानकारी है, हालांकि इस इलाके में मांग जबरदस्त है। उद्योग जगत के अनुमान के मुताबिक अरब और अन्य पश्चिम एशियाई देशों में भारतीय हीरे और आभूषणों का निर्यात का हिस्सा 15-20 फीसदी है जबकि कुछ साल पहले यह हिस्सेदारी केवल पांच से सात फीसदी ही थी। पिछले साल अप्रैल से इस साल फरवरी के बीच देश से हुए रत्न एवं आभूषण के निर्यात में साल-दर-साल आधार पर 4.6 फीसदी की कमी आई है और यह 17.71 अरब डॉलर रह गया है। (ET Hindi)
खुले खाद्य तेल की बिक्री पर रोक की मांग
मुंबई March 26, 2009
अन्य तेलों में कच्चे पॉम आयल की मिलावट को अनुचित कारोबार मानते हुए प्रमुख खाद्य तेल उत्पादकों, पैकर्स और कारोबारियों ने मांग की है कि देश में खुले तेल की बिक्री को रोकने के लिए कड़ा कानून बनना चाहिए।
फॉरच्यून ब्रांड से खाद्य तेल बनाने वाली 6000 करोड़ रुपये की अदानी विल्मर लिमिटेड के प्रबंध निदेशक प्रणव अदानी ने कहा कि दिल्ली में खुले तेल की बिक्री को रोकने के लिए कानून बना हुआ है, इसका प्रसार देश भर में किया जाना चाहिए।
विकसित देशों में कहीं भी खुले तेल की बिक्री पर पूरी तरह से प्रतिबंध है। वर्तमान में भारत में 80 प्रतिशत बिक्री खुले तेल की होती है। कारोबारी सूत्रों के मुताबिक इसमें 30-35 प्रतिशत कच्चे पॉम आयल की मिलावट की जा रही है। जैसे सूरजमुखी के तेल या मूंगफली तेल या सोयाबीन तेल में कच्चे पाम तेल की मिलावट 65:35 का होता है।
विशेषज्ञों के मुताबिक सामान्य आदमी इस मिलावट के बारे में नहीं जान सकता, क्योंकि पॉम आयल की मिलावट से देखने में या स्वाद के हिसाब से तेल में कोई बदलाव नजर नहीं आता। अगर इसका रासायनिक परीक्षण होता है तो ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी खुलकर सामने आ जाती है। इस मिलावट का असर उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।
सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन (एसईए) के निदेशक बीवी मेहता ने कहा कि ब्रांडेड तेल अभी मिलावट से पूरी तरह से बचे हुए हैं। ब्रांडेड खाद्य तेलों के बाजार पर अदानी समूह की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत की है, वहीं तेल की कुल बिक्री में यह हिस्सेदारी 10 प्रतिशत से भी कम है।
तेल के बीजों के दाम में बहुत ज्यादा बढोतरी हुई है, क्योंकि हाल में सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की है। इसकी वजह से पेराई करने वालों का मुनाफा बहुत कम हो गया है। इसकी वजह से वे खुले तेल में क च्चे पाम ऑयल की मिलावट खुलकर कर रहे हैं, जिससे बाजार में बने रह सकें।
मुंबई में राग गोल्ड नाम के रिफाइंड पॉम आयल की लांचिंग के मौके पर मुंबई में बुधवार को अदानी ने कहा कि निश्चित रूप से यह एक अनुचित कारोबारी गतिविधि है, जिसे रोकने के लिए कड़े कानून बनने चाहिए।
इस समय खाद्य तेलों की पेराई करने वाले कारोबारियों के मुनाफे में 2.5 से 3 प्रतिशत की कमी आई है, क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य अधिक होने से कीमतों में 48 प्रतिशत का इजाफा हुआ है।
मूंगफली का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2008-09 के खरीफ मौसम के लिए 35.5 प्रतिशत बढ़ाकर 2,100 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया गया है। वहीं सूरजमुखी के बीज में 46.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी के बाद कीमतें 2,215 रुपये प्रति क्विंटल पर पहुंच गई हैं। (BS Hindi)
अन्य तेलों में कच्चे पॉम आयल की मिलावट को अनुचित कारोबार मानते हुए प्रमुख खाद्य तेल उत्पादकों, पैकर्स और कारोबारियों ने मांग की है कि देश में खुले तेल की बिक्री को रोकने के लिए कड़ा कानून बनना चाहिए।
फॉरच्यून ब्रांड से खाद्य तेल बनाने वाली 6000 करोड़ रुपये की अदानी विल्मर लिमिटेड के प्रबंध निदेशक प्रणव अदानी ने कहा कि दिल्ली में खुले तेल की बिक्री को रोकने के लिए कानून बना हुआ है, इसका प्रसार देश भर में किया जाना चाहिए।
विकसित देशों में कहीं भी खुले तेल की बिक्री पर पूरी तरह से प्रतिबंध है। वर्तमान में भारत में 80 प्रतिशत बिक्री खुले तेल की होती है। कारोबारी सूत्रों के मुताबिक इसमें 30-35 प्रतिशत कच्चे पॉम आयल की मिलावट की जा रही है। जैसे सूरजमुखी के तेल या मूंगफली तेल या सोयाबीन तेल में कच्चे पाम तेल की मिलावट 65:35 का होता है।
विशेषज्ञों के मुताबिक सामान्य आदमी इस मिलावट के बारे में नहीं जान सकता, क्योंकि पॉम आयल की मिलावट से देखने में या स्वाद के हिसाब से तेल में कोई बदलाव नजर नहीं आता। अगर इसका रासायनिक परीक्षण होता है तो ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी खुलकर सामने आ जाती है। इस मिलावट का असर उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।
सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन (एसईए) के निदेशक बीवी मेहता ने कहा कि ब्रांडेड तेल अभी मिलावट से पूरी तरह से बचे हुए हैं। ब्रांडेड खाद्य तेलों के बाजार पर अदानी समूह की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत की है, वहीं तेल की कुल बिक्री में यह हिस्सेदारी 10 प्रतिशत से भी कम है।
तेल के बीजों के दाम में बहुत ज्यादा बढोतरी हुई है, क्योंकि हाल में सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की है। इसकी वजह से पेराई करने वालों का मुनाफा बहुत कम हो गया है। इसकी वजह से वे खुले तेल में क च्चे पाम ऑयल की मिलावट खुलकर कर रहे हैं, जिससे बाजार में बने रह सकें।
मुंबई में राग गोल्ड नाम के रिफाइंड पॉम आयल की लांचिंग के मौके पर मुंबई में बुधवार को अदानी ने कहा कि निश्चित रूप से यह एक अनुचित कारोबारी गतिविधि है, जिसे रोकने के लिए कड़े कानून बनने चाहिए।
इस समय खाद्य तेलों की पेराई करने वाले कारोबारियों के मुनाफे में 2.5 से 3 प्रतिशत की कमी आई है, क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य अधिक होने से कीमतों में 48 प्रतिशत का इजाफा हुआ है।
मूंगफली का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2008-09 के खरीफ मौसम के लिए 35.5 प्रतिशत बढ़ाकर 2,100 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया गया है। वहीं सूरजमुखी के बीज में 46.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी के बाद कीमतें 2,215 रुपये प्रति क्विंटल पर पहुंच गई हैं। (BS Hindi)
महाराष्ट्र में चीनी उत्पादन में आई कमी
गन्ने की कमी की वजह से चीनी मिलों में पेराई जल्द बंद होने का असर
मुंबई 03 26, 2009
देश के सबसे बड़े चीनी उत्पादक राज्य महाराष्ट्र में गन्ने की कमी की वजह से पेराई पहले बंद हो गई। इसका असर चीनी उत्पादन पर पड़ा है और इस सत्र में उत्पादन में 35 प्रतिशत की कमी आई है।
महाराष्ट्र स्टेट कोऑपरेटिव शुगर फैक्टरीज फेडरेशन (शुगर फेडरेशन) के आंकड़ों के मुताबिक 18 मार्च तक के आंकड़ों के मुताबिक चीनी का उत्पादन घटकर 45 लाख टन रह गया है, जबकि पिछले साल की समान अवधि में कुल उत्पादन 68 लाख टन था।
गन्ने की कुल पेराई इस सत्र के दौरान 390 लाख टन रही, जिसमें पिछले साल की समान अवधि में हुई 570 लाख टन गन्ने की पेराई की तुलना में 32.31 प्रतिशत की कमी आई है। शुगर फेडरेशन के प्रबंध निदेशक प्रकाश नाइकवारे ने कहा कि इस साल गन्ने की बुआई कम क्षेत्रफल में हुई थी, जिसकी वजह से चीनी के उत्पादन में कमी आई है।
गन्ने की कमी की वजह से इस सत्र में करीब डेढ़ महीने कम पेराई हुई। अगर हम गन्ने की बुआई के क्षेत्रफल को देखें तो 2006-07 के 10 लाख हेक्टेयर की तुलना में 2007-08 में यह कम होकर 8 लाख हेक्टेयर रह गया।
बाद में 2008-09 में क्षेत्रफल कम होकर 7,87,000 हेक्टेयर रह गया। हुआ यह कि गन्ना किसान लाभ न होने की वजह से सोयाबीन, मक्का, कपास जैसी ज्यादा लाभ देने वाली फसलों की ओर आकर्षित हुए और गन्ने की बुवाई कम हो गई।
देश की 160 लाख टन अनुमानित चीनी उत्पादन में महाराष्ट्र का योगदान 29 प्रतिशत का होता है। यहां पर गन्ने की तीन फसलें उगाई जाती हैं। गन्ने की पहली किस्म अदसाली के तैयार होने में 18 महीने लगते हैं, जिसकी रोपाई अप्रैल जुलाई के दौरान होती है और इसकी कटाई, रोपण के 18 महीने के बाद होती है।
दूसरी फसल 15 महीने में तैयार होने वाली किस्म की है, जिसकी रोपाई अगस्त नवंबर के दौरान होती है और तीसरी सुरु फसल की रोपाई दिसंबर-फरवरी के दौरान होती है, जो 12 महीने में तैयार होती है। गन्ने के कुल उत्पादन में तीन चौथाई हिस्सेदारी 15 महीने में तैयार होने वाली किस्म की है, जबकि अदसाली और सुरु का योगदान क्रमश: 10 और 15 प्रतिशत है। इसके साथ ही मौसम की गड़बड़ी की वजह से राज्य में पेराई के उत्पाद में 0.64 प्रतिशत की कमी आई है।
बहरहाल महाराष्ट्र में चीनी मिलों ने गन्ने की अनुपलब्धता की वजह से पिछले साल की तुलना में 2 महीने पहले ही पेराई बंद कर दी। शुगर फेडरेशन द्वारा तैयार किए गए आंकड़ों के मुताबिक कुल 118 चीनी मिलें यानी 85 प्रतिशत मिलें इस साल समय से पहले बंद हो गईं, जबकि पिछले साल कुल 4 मिलें बंद हुई थीं। इस साल कुल 143 मिलों में पेराई का काम शुरू हुआ था, जबकि पिछले साल 160 मिलों में पेराई का काम हुआ था। (BS Hindi)
मुंबई 03 26, 2009
देश के सबसे बड़े चीनी उत्पादक राज्य महाराष्ट्र में गन्ने की कमी की वजह से पेराई पहले बंद हो गई। इसका असर चीनी उत्पादन पर पड़ा है और इस सत्र में उत्पादन में 35 प्रतिशत की कमी आई है।
महाराष्ट्र स्टेट कोऑपरेटिव शुगर फैक्टरीज फेडरेशन (शुगर फेडरेशन) के आंकड़ों के मुताबिक 18 मार्च तक के आंकड़ों के मुताबिक चीनी का उत्पादन घटकर 45 लाख टन रह गया है, जबकि पिछले साल की समान अवधि में कुल उत्पादन 68 लाख टन था।
गन्ने की कुल पेराई इस सत्र के दौरान 390 लाख टन रही, जिसमें पिछले साल की समान अवधि में हुई 570 लाख टन गन्ने की पेराई की तुलना में 32.31 प्रतिशत की कमी आई है। शुगर फेडरेशन के प्रबंध निदेशक प्रकाश नाइकवारे ने कहा कि इस साल गन्ने की बुआई कम क्षेत्रफल में हुई थी, जिसकी वजह से चीनी के उत्पादन में कमी आई है।
गन्ने की कमी की वजह से इस सत्र में करीब डेढ़ महीने कम पेराई हुई। अगर हम गन्ने की बुआई के क्षेत्रफल को देखें तो 2006-07 के 10 लाख हेक्टेयर की तुलना में 2007-08 में यह कम होकर 8 लाख हेक्टेयर रह गया।
बाद में 2008-09 में क्षेत्रफल कम होकर 7,87,000 हेक्टेयर रह गया। हुआ यह कि गन्ना किसान लाभ न होने की वजह से सोयाबीन, मक्का, कपास जैसी ज्यादा लाभ देने वाली फसलों की ओर आकर्षित हुए और गन्ने की बुवाई कम हो गई।
देश की 160 लाख टन अनुमानित चीनी उत्पादन में महाराष्ट्र का योगदान 29 प्रतिशत का होता है। यहां पर गन्ने की तीन फसलें उगाई जाती हैं। गन्ने की पहली किस्म अदसाली के तैयार होने में 18 महीने लगते हैं, जिसकी रोपाई अप्रैल जुलाई के दौरान होती है और इसकी कटाई, रोपण के 18 महीने के बाद होती है।
दूसरी फसल 15 महीने में तैयार होने वाली किस्म की है, जिसकी रोपाई अगस्त नवंबर के दौरान होती है और तीसरी सुरु फसल की रोपाई दिसंबर-फरवरी के दौरान होती है, जो 12 महीने में तैयार होती है। गन्ने के कुल उत्पादन में तीन चौथाई हिस्सेदारी 15 महीने में तैयार होने वाली किस्म की है, जबकि अदसाली और सुरु का योगदान क्रमश: 10 और 15 प्रतिशत है। इसके साथ ही मौसम की गड़बड़ी की वजह से राज्य में पेराई के उत्पाद में 0.64 प्रतिशत की कमी आई है।
बहरहाल महाराष्ट्र में चीनी मिलों ने गन्ने की अनुपलब्धता की वजह से पिछले साल की तुलना में 2 महीने पहले ही पेराई बंद कर दी। शुगर फेडरेशन द्वारा तैयार किए गए आंकड़ों के मुताबिक कुल 118 चीनी मिलें यानी 85 प्रतिशत मिलें इस साल समय से पहले बंद हो गईं, जबकि पिछले साल कुल 4 मिलें बंद हुई थीं। इस साल कुल 143 मिलों में पेराई का काम शुरू हुआ था, जबकि पिछले साल 160 मिलों में पेराई का काम हुआ था। (BS Hindi)
रिफ्रैक्टरी निर्यात में 25 प्रतिशत गिरावट के आसार
मुंबई 03 26, 2009
यूरोपीय बाजारों से मांग में आई भारी कमी की वजह से 3,500 करोड़ रुपये के भारतीय रिफ्रैक्टरी उद्योग के निर्यात में इस वित्त वर्ष दौरान 25 प्रतिशत गिरावट के अनुमान हैं।
बहरहाल यह उम्मीद की जा रही है कि वित्त वर्ष 2009-10 की दूसरी छमाही में स्टील की वैश्विक मांग बढ़ेगी, तभी इस घाटे की भरपाई हो सकेगी। रिफ्रैक्टरी एक गैर धात्विक पदार्थ है, जिसकी मजबूती उच्च तापमान में भी बनी रहती है। इसका बड़े पैमाने पर प्रयोग स्टील, एल्युमीनियम और अन्य धातुओं के ढांचे के निर्माण में होता है।
स्टील की मांग से इसका सीधा जुड़ाव होता है क्योंकि प्रत्येक टन स्टील उत्पादन में करीब 10-12 किलोग्राम रिफ्रैक्टरी सामग्री का प्रयोग होता है। हालांकि तकनीकी सुधारों के बाद से रिफ्रैक्टरी की खपत कम हुई है, जिसकी खपत एक दशक पहले प्रति टन स्टील के उत्पादन में 30 किलोग्राम थी।
इंडियन रिफ्रैक्टरी मेकर्स एसोसिएशन (आईआरएमए) के निदेशक अनिरबन दास गुप्ता ने कहा, 'नवंबर के बाद से यूरोप से मांग में कमी आनी शुरू हुई और इसमें पिछले पांच महीने के दौरान नाटकीय गिरावट आई है। वैश्विक वित्तीय संकट की वजह से ऑर्डर में कमी आई है और यह कुछ और महीने तक बने रहने के आसार हैं।' वर्तमान में भारत अपने उत्पादन का करीब 10 प्रतिशत हिस्सा निर्यात करता है। (BS HIndi)
यूरोपीय बाजारों से मांग में आई भारी कमी की वजह से 3,500 करोड़ रुपये के भारतीय रिफ्रैक्टरी उद्योग के निर्यात में इस वित्त वर्ष दौरान 25 प्रतिशत गिरावट के अनुमान हैं।
बहरहाल यह उम्मीद की जा रही है कि वित्त वर्ष 2009-10 की दूसरी छमाही में स्टील की वैश्विक मांग बढ़ेगी, तभी इस घाटे की भरपाई हो सकेगी। रिफ्रैक्टरी एक गैर धात्विक पदार्थ है, जिसकी मजबूती उच्च तापमान में भी बनी रहती है। इसका बड़े पैमाने पर प्रयोग स्टील, एल्युमीनियम और अन्य धातुओं के ढांचे के निर्माण में होता है।
स्टील की मांग से इसका सीधा जुड़ाव होता है क्योंकि प्रत्येक टन स्टील उत्पादन में करीब 10-12 किलोग्राम रिफ्रैक्टरी सामग्री का प्रयोग होता है। हालांकि तकनीकी सुधारों के बाद से रिफ्रैक्टरी की खपत कम हुई है, जिसकी खपत एक दशक पहले प्रति टन स्टील के उत्पादन में 30 किलोग्राम थी।
इंडियन रिफ्रैक्टरी मेकर्स एसोसिएशन (आईआरएमए) के निदेशक अनिरबन दास गुप्ता ने कहा, 'नवंबर के बाद से यूरोप से मांग में कमी आनी शुरू हुई और इसमें पिछले पांच महीने के दौरान नाटकीय गिरावट आई है। वैश्विक वित्तीय संकट की वजह से ऑर्डर में कमी आई है और यह कुछ और महीने तक बने रहने के आसार हैं।' वर्तमान में भारत अपने उत्पादन का करीब 10 प्रतिशत हिस्सा निर्यात करता है। (BS HIndi)
मांग में कमी से पॉलिमर निर्माता संकट में
मुंबई 03 26, 2009
पॉलिमर निर्माता अभी भी मांग में गिरावट की समस्या से जूझ रहे हैं। हालांकि पिछले दो महीने से कच्चे तेल की कीमतों में सुधार हुआ है, फिर भी इसकी कीमतें नियंत्रण में हैं।
चालू वित्त वर्ष की दिसंबर तिमाही में, वैश्विक रूप से ज्यादातर रिफाइनरीज ने उत्पादन में कटौती की है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि पेट्रोकेमिकल्स और पॉलिमर की मांग में मंदी के चलते खासी कमी आई है।
कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन पॉलिमर की कीमतों में बढ़ोतरी नहीं हुई। पॉलिमर्स का प्रयोग प्लॉस्टिक के विभिन्न उत्पादों को तैयार करने के लिए कच्चे माल के रूप में होता है। यह कच्चे तेल का उत्पाद है।
देश के ज्यादातर प्लॉस्टिक प्रसंस्करणकर्ता इस समय मांग में कमी की समस्या का सामना कर रहे हैं। पॉलिप्रोपलीन (पीपी), पॉली विनाइल क्लोराइड (पीवीसी) पॉली एथिलीन (पीई) जैसे पॉलिमर की मांग में कमी आई है।
हकीकत यह है कि पॉलीप्रोपलीन की कीमतों में पिछले 2 महीनों के दौरान कमी आई है। भारतीय बाजार में इसकी कीमत जनवरी में 62.65 रुपये थी जो अब 52.60 रुपये पर पहुंच गई है। घरेलू विनिर्माताओं की शिकायत है कि भारत में इस मैटीरियल को डंप किया जा रहा है, जिसके चलते कीमतों में तेज गिरावट आई है।
रिलायंस इंडस्ट्रीज द्वारा हाल ही में दाखिल किए गए और हल्दिया पेट्रोकेमिकल्स द्वारा समर्थित आवेदन के बाद सरकार ने इस पर एंटी डंपिंग शुल्क लगाने के बारे में जानकारी जुटानी शुरू की है। यही दोनों कंपनियां भारत में पीपी की उत्पादक हैं, जिन्होंने आरोप लगाया था कि सऊदी अरब, ओमान और सिंगापुर इसकी डंपिंग भारत में कर रहे हैं।
सरकार डंपिंग के आरोपों की जांच कर रही है, वहीं घरेलू प्लास्टिक प्रसंस्करणकर्ताओं की शिकायत है कि इस तरह के किसी भी कदम से देश के प्रसंस्करणकर्ताओं के हितों को नुकसान पहुंचेगा। पिछले सप्ताह के अंत में प्लास्टिक प्रसंस्करणकर्ताओं के प्रमुख संगठनों ने मुंबई में सम्मेलन किया था और उद्योग से जुड़े विभिन्न मसलों पर चर्चा की थी, इसमें पीपी पर एंटी डंपिंग शुल्क लगाए जाने का मसला भी शामिल था। सभी प्रसंस्करणकर्ताओं ने इस कदम का पुरजोर विरोध किया था।
अन्य पॉलीमर्स की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है। पॉलीस्टरीन, जिसका इस्तेमाल पीपी के एक विकल्प के रूप में कई जगहों पर किया जाता है, तीन महीनों में करीब 10 प्रतिशत महंगा हुआ है। पीवीसी की कीमतें करीब स्थिर हैं।
उद्योग जगत से जुड़े एक सूत्र ने कहा कि वैश्विक रूप से ज्यादातर रिफाइनरीज ने उत्पादन में कटौती की है, क्योंकि अक्टूबर की मंदी से वे डरे हुए थे। इस समय बाजार में आपूर्ति कम हो गई है, इसके बावजूद उत्पागदन में बढ़ोतरी नहीं की गई है।
सूत्र ने कहा कि अब कच्चे तेल की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं इसके बावजूद पॉलीमर्स की कीमतें अभी ज्यादा नहीं हुई हैं, क्योंकि भारत में मांग बहुत कम हो गई है।
कच्चे तेल की कीमतों का असर
कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी के बावजूद पॉलिमर के दाम स्थिर मंदी के चलते मांग में आई कमी, जनवरी से लगातार हो रही है कीमतों में गिरावट (BS Hindi)
पॉलिमर निर्माता अभी भी मांग में गिरावट की समस्या से जूझ रहे हैं। हालांकि पिछले दो महीने से कच्चे तेल की कीमतों में सुधार हुआ है, फिर भी इसकी कीमतें नियंत्रण में हैं।
चालू वित्त वर्ष की दिसंबर तिमाही में, वैश्विक रूप से ज्यादातर रिफाइनरीज ने उत्पादन में कटौती की है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि पेट्रोकेमिकल्स और पॉलिमर की मांग में मंदी के चलते खासी कमी आई है।
कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन पॉलिमर की कीमतों में बढ़ोतरी नहीं हुई। पॉलिमर्स का प्रयोग प्लॉस्टिक के विभिन्न उत्पादों को तैयार करने के लिए कच्चे माल के रूप में होता है। यह कच्चे तेल का उत्पाद है।
देश के ज्यादातर प्लॉस्टिक प्रसंस्करणकर्ता इस समय मांग में कमी की समस्या का सामना कर रहे हैं। पॉलिप्रोपलीन (पीपी), पॉली विनाइल क्लोराइड (पीवीसी) पॉली एथिलीन (पीई) जैसे पॉलिमर की मांग में कमी आई है।
हकीकत यह है कि पॉलीप्रोपलीन की कीमतों में पिछले 2 महीनों के दौरान कमी आई है। भारतीय बाजार में इसकी कीमत जनवरी में 62.65 रुपये थी जो अब 52.60 रुपये पर पहुंच गई है। घरेलू विनिर्माताओं की शिकायत है कि भारत में इस मैटीरियल को डंप किया जा रहा है, जिसके चलते कीमतों में तेज गिरावट आई है।
रिलायंस इंडस्ट्रीज द्वारा हाल ही में दाखिल किए गए और हल्दिया पेट्रोकेमिकल्स द्वारा समर्थित आवेदन के बाद सरकार ने इस पर एंटी डंपिंग शुल्क लगाने के बारे में जानकारी जुटानी शुरू की है। यही दोनों कंपनियां भारत में पीपी की उत्पादक हैं, जिन्होंने आरोप लगाया था कि सऊदी अरब, ओमान और सिंगापुर इसकी डंपिंग भारत में कर रहे हैं।
सरकार डंपिंग के आरोपों की जांच कर रही है, वहीं घरेलू प्लास्टिक प्रसंस्करणकर्ताओं की शिकायत है कि इस तरह के किसी भी कदम से देश के प्रसंस्करणकर्ताओं के हितों को नुकसान पहुंचेगा। पिछले सप्ताह के अंत में प्लास्टिक प्रसंस्करणकर्ताओं के प्रमुख संगठनों ने मुंबई में सम्मेलन किया था और उद्योग से जुड़े विभिन्न मसलों पर चर्चा की थी, इसमें पीपी पर एंटी डंपिंग शुल्क लगाए जाने का मसला भी शामिल था। सभी प्रसंस्करणकर्ताओं ने इस कदम का पुरजोर विरोध किया था।
अन्य पॉलीमर्स की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है। पॉलीस्टरीन, जिसका इस्तेमाल पीपी के एक विकल्प के रूप में कई जगहों पर किया जाता है, तीन महीनों में करीब 10 प्रतिशत महंगा हुआ है। पीवीसी की कीमतें करीब स्थिर हैं।
उद्योग जगत से जुड़े एक सूत्र ने कहा कि वैश्विक रूप से ज्यादातर रिफाइनरीज ने उत्पादन में कटौती की है, क्योंकि अक्टूबर की मंदी से वे डरे हुए थे। इस समय बाजार में आपूर्ति कम हो गई है, इसके बावजूद उत्पागदन में बढ़ोतरी नहीं की गई है।
सूत्र ने कहा कि अब कच्चे तेल की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं इसके बावजूद पॉलीमर्स की कीमतें अभी ज्यादा नहीं हुई हैं, क्योंकि भारत में मांग बहुत कम हो गई है।
कच्चे तेल की कीमतों का असर
कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी के बावजूद पॉलिमर के दाम स्थिर मंदी के चलते मांग में आई कमी, जनवरी से लगातार हो रही है कीमतों में गिरावट (BS Hindi)
मांग बढ़ने से स्टील उद्योग में मजबूती
कोलकाता 03 26, 2009
चालू वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में स्टील उद्योग इसके पूर्व की तिमाही की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करने को बेताब है।
इसकी वजह यह है कि बिक्री बढ़ी है, माल का भंडार कम हुआ है और कुछ कंपनियों ने कच्चे माल के लिए सौदे पर फिर से मोलभाव किया है, जिससे सस्ता कच्चा माल मिल सके।
अक्टूबर-दिसंबर माह के दौरान कंपनियों द्वारा उत्पादन में भारी कटौती किए जाने के बाद जनवरी से कंपनियों ने सामान्य उत्पादन शुरू कर दिया। इसकी प्रमुख वजह यह है कि मांग में बढ़ोतरी हुई है। साथ ही कंपनियों ने घरेलू बाजार पर ध्यान देना शुरू किया है, जहां वैश्विक मंदी का प्रभाव नहीं है, जिसकी वजह से बिक्री में उल्लेखनीय सुधार आया है।
उद्योग जगत के प्रतिनिधियों का कहना है कि जनवरी के बाद से हर महीने मांग में क्रमिक सुधार आ रही है। जनवरी-मार्च 2008 के दौरान हॉट रोल्ड क्वायल की कीमतें 40,000-41,000 रुपये प्रति टन के करीब रहीं। जबकि जनवरी-मार्च 2009 के दौरान कीमतें घटकर 31,000-32,000 रुपये प्रति टन पर आ गईं।
बहरहाल कुछ कंपनियां कीमतों को लेकर दोबारा मोलभाव करने में सफल रहीं, जिसकी वजह से मुनाफे के मामले में उन्हें राहत मिल गई। एंजेल ब्रोकिंग के विश्लेषक पवन बिर्डे के मुताबिक, 'पिछले साल की चौथी तिमाही में भी कीमतें उच्च स्तर पर थीं, लेकिन उस समय मात्रा की समस्या थी। इस बार राजस्व कुछ मामले में ज्यादा हो सकता है, लेकिन मुनाफे पर दबाव रहेगा। जेएसडब्ल्यू और टाटा स्टील ने बहरहाल कीमतों को लेकर मोलभाव किया और फिर से सौदे किए, इसलिए तिमाही के लिहाज से उनका प्रदर्शन बेहतर रहेगा।'
अगर अलग अलग कंपनी के लिहाज से देखें तो लौह अयस्क के मामले में टाटा स्टील 100 प्रतिसत सुरक्षित है, जबकि कोकिंग कोल के मामले में 60 प्रतिशत। जेएसडब्ल्यू ने रियो टिंटो के साथ कीमतों को लेकर दोबारा मोलभाव किया, जो पिछले साल में हुए सौदे की तुलना में 43 प्रतिशत सस्ता है।
पिछले साल कोकिंग कोल के सौदे में 200 प्रतिशत कीमतों में बढ़त हुई थी। जेएसडब्ल्यू स्टील कोकिंग कोल की जरूरतों के लिहाज से आयात पर 100 प्रतिशत निर्भर है। स्टील अथॉरिटी आफ इंडिया (सेल) सालाना आधार पर हो सकता है कि विकास में पहले पायदान पर न हो, लेकिन सूत्रों का कहना है कि पहले छह महीनों के कारोबार को जोड़कर कारोबार बेहतर होगा।
सेल की फरवरी माह में बिक्री, जनवरी की तुलना में बहुत बढ़िया रही और मार्च में भी मांग बेहतर रही। वहीं कोल्ड रोल्ड स्टील उत्पादकों में भूषण स्टील का कारोबार मात्रा और लाभ के हिसाब से पिछले साल के स्तर पर रहने की उम्मीद है।
हॉल रोल्ड स्टील ही कोल्ड रोल्ड उत्पादकों का प्रमुख कच्चा माल है। भूषण स्टील के प्रबंध निदेशक नीरज सिंघल ने कहा कि पिछले साल हॉट रोल्ड स्टील की कीमतें 1,000 से 1,200 डॉलर प्रति टन थीं, वहीं वर्तमान में इसकी कीमतें 420 डॉलर प्रति टन हैं।(अगले अंक में: सीमेंट क्षेत्र)
जिंसों की मांग में सुधार-1
जनवरी माह से मांग बढ़नी शुरू हुई, जो अब भी जारीजनवरी-मार्च 2009 के दौरान कीमतें घटकर 31,000-32,000 रुपये प्रति टन पर आ गईं कुछ कंपनियां कीमतों को लेकर दोबारा मोलभाव करने में सफल रहींमुनाफा कम होने के आसार (BS Hindi)
चालू वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में स्टील उद्योग इसके पूर्व की तिमाही की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करने को बेताब है।
इसकी वजह यह है कि बिक्री बढ़ी है, माल का भंडार कम हुआ है और कुछ कंपनियों ने कच्चे माल के लिए सौदे पर फिर से मोलभाव किया है, जिससे सस्ता कच्चा माल मिल सके।
अक्टूबर-दिसंबर माह के दौरान कंपनियों द्वारा उत्पादन में भारी कटौती किए जाने के बाद जनवरी से कंपनियों ने सामान्य उत्पादन शुरू कर दिया। इसकी प्रमुख वजह यह है कि मांग में बढ़ोतरी हुई है। साथ ही कंपनियों ने घरेलू बाजार पर ध्यान देना शुरू किया है, जहां वैश्विक मंदी का प्रभाव नहीं है, जिसकी वजह से बिक्री में उल्लेखनीय सुधार आया है।
उद्योग जगत के प्रतिनिधियों का कहना है कि जनवरी के बाद से हर महीने मांग में क्रमिक सुधार आ रही है। जनवरी-मार्च 2008 के दौरान हॉट रोल्ड क्वायल की कीमतें 40,000-41,000 रुपये प्रति टन के करीब रहीं। जबकि जनवरी-मार्च 2009 के दौरान कीमतें घटकर 31,000-32,000 रुपये प्रति टन पर आ गईं।
बहरहाल कुछ कंपनियां कीमतों को लेकर दोबारा मोलभाव करने में सफल रहीं, जिसकी वजह से मुनाफे के मामले में उन्हें राहत मिल गई। एंजेल ब्रोकिंग के विश्लेषक पवन बिर्डे के मुताबिक, 'पिछले साल की चौथी तिमाही में भी कीमतें उच्च स्तर पर थीं, लेकिन उस समय मात्रा की समस्या थी। इस बार राजस्व कुछ मामले में ज्यादा हो सकता है, लेकिन मुनाफे पर दबाव रहेगा। जेएसडब्ल्यू और टाटा स्टील ने बहरहाल कीमतों को लेकर मोलभाव किया और फिर से सौदे किए, इसलिए तिमाही के लिहाज से उनका प्रदर्शन बेहतर रहेगा।'
अगर अलग अलग कंपनी के लिहाज से देखें तो लौह अयस्क के मामले में टाटा स्टील 100 प्रतिसत सुरक्षित है, जबकि कोकिंग कोल के मामले में 60 प्रतिशत। जेएसडब्ल्यू ने रियो टिंटो के साथ कीमतों को लेकर दोबारा मोलभाव किया, जो पिछले साल में हुए सौदे की तुलना में 43 प्रतिशत सस्ता है।
पिछले साल कोकिंग कोल के सौदे में 200 प्रतिशत कीमतों में बढ़त हुई थी। जेएसडब्ल्यू स्टील कोकिंग कोल की जरूरतों के लिहाज से आयात पर 100 प्रतिशत निर्भर है। स्टील अथॉरिटी आफ इंडिया (सेल) सालाना आधार पर हो सकता है कि विकास में पहले पायदान पर न हो, लेकिन सूत्रों का कहना है कि पहले छह महीनों के कारोबार को जोड़कर कारोबार बेहतर होगा।
सेल की फरवरी माह में बिक्री, जनवरी की तुलना में बहुत बढ़िया रही और मार्च में भी मांग बेहतर रही। वहीं कोल्ड रोल्ड स्टील उत्पादकों में भूषण स्टील का कारोबार मात्रा और लाभ के हिसाब से पिछले साल के स्तर पर रहने की उम्मीद है।
हॉल रोल्ड स्टील ही कोल्ड रोल्ड उत्पादकों का प्रमुख कच्चा माल है। भूषण स्टील के प्रबंध निदेशक नीरज सिंघल ने कहा कि पिछले साल हॉट रोल्ड स्टील की कीमतें 1,000 से 1,200 डॉलर प्रति टन थीं, वहीं वर्तमान में इसकी कीमतें 420 डॉलर प्रति टन हैं।(अगले अंक में: सीमेंट क्षेत्र)
जिंसों की मांग में सुधार-1
जनवरी माह से मांग बढ़नी शुरू हुई, जो अब भी जारीजनवरी-मार्च 2009 के दौरान कीमतें घटकर 31,000-32,000 रुपये प्रति टन पर आ गईं कुछ कंपनियां कीमतों को लेकर दोबारा मोलभाव करने में सफल रहींमुनाफा कम होने के आसार (BS Hindi)
कोकिंग कोल के लिए होंगे नए अनुबंध
भुवनेश्वर 03 26, 2009
कोकिंग कोल के भारत के उपभोक्ता दो सप्ताह के भीतर अंतरराष्ट्रीय कोकिंग कोल आपूर्तिकर्ताओं से नए सिरे से सौदे करने की तैयारी कर रहे हैं।
दरअसल जापान की स्टील निर्माता कंपनियों ने 2009-10 के लिए वार्षिक आधार पर लंबी अवधि के लिए बीएचपी बिलिटन से समझौते किए हैं, जो पिछले साल की खरीद दर की तुलना में 60 प्रतिशत कम पर हुआ है।
धात्विक कोक की घरेलू निर्माता कंपनी एन्नोर कोक ने रियो टिंटो और बीएचपी बिलिटन जैसी वैश्विक कोकिंग कोल आपूर्तिकर्ता कंपनियों से बातचीत करना शुरू कर दिया है। कंपनी 1 अप्रैल से शुरू होने वाले नए साल के लिए लंबी अवधि के लिए समझौते करना चाहती है, जिससे उसे सेमी-सॉफ्ट कोकिंग कोल 115 डॉलर प्रति टन के हिसाब से मिल सके।
एन्नोर कोक के अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी अधिकारी गणेशन नटराजन ने कहा, 'हम अपने अंतरराष्ट्रीय आपूर्तिकर्ताओं जैसे रियो टिंटो और बीएचपी बिलिटन से बातचीत कर रहे हैं, जिससे सेमी-सॉफ्ट कोकिंग कोल के वार्षिक सौदे 115 डॉलर प्रति टन के हिसाब से हो सके।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में वर्तमान में हाजिर बाजार में हार्ड कोकिंग कोल की कीमतें 125-130 डॉलर प्रति टन के बीच हैं और सेमी सॉफ्ट कोकिंग कोल की कीमत हार्ड कोकिंग कोल की तुलना में 20 प्रतिशत कम होती है।'
वर्तमान में एन्नोर कोक की कोकिंग कोल की सालाना जरूरत 7,20,000 टन है। कंपनी के पास इस समय अमेरिका से आयातित 4 लाख टन लो ऐश कोकिंग कोल है। कंपनी को अभी भी करीब 30,000 टन कोकिंग कोल प्रतिमाह की जरूरत है, जिससे 2009-10 में उसकी जरूरतें पूरी की जा सकें।
खबर है कि निप्पन स्टील कार्पोरेशन और जेएफई स्टील कार्पोरेशन ने 1 अप्रैल से शुरू होने वाले सौदे के लिए समझौता किया है। यह समझौता बीएचपी बिलिटन से हार्ड कोकिंग कोल के लिए करीब 130 डॉलर प्रति टन के हिसाब से हुआ है, जो एशियन स्टील कंपनियों द्वारा 2007-08 में खरीदी गई दर की तुलना में 60 प्रतिशत कम है।
कोकिंग कोल की औसत कीमत 2007 के 96 डॉलर प्रति टन से बढ़कर 2008 में 300 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गई थी। स्टील निर्माता अब कम कीमत पर कोकिंग कोल के लिए समझौते करना चाह रहे हैं, क्योंकि स्टील की कीमतों में भी गिरावट आई है और मंदी की वजह से मांग भी कम हो गई है।
पिछले महीने चीन में कोकिंग कोल की बिक्री 130-150 डॉलर प्रति टन के बीच हुई थी। आस्ट्रेलिया की मैकक्वायर ग्रुप लिमिटेड ने भविष्यवाणी की थी कि 2009 में कोकिंग कोल की कीमतें 110 डॉलर प्रति टन के करीब रहेंगी।
भारत के घरेलू बाजार में स्टील निर्माता भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) से कोकिंग कोल लेते हैं, जो कोल इंडिया लिमिटेड की सहयोगी संस्था है। घरेलू खरीदार अभी भी कम कीमतों के लिए बीसीसीएल से समझौते के लिए बात कर रहे हैं। बहरहाल इस मामले में प्रगति के बारे में आगामी 2 महीनों में स्पष्ट हो जाएगा।
बीसीसीएल के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक तपस के लाहिड़ी से बिजनेस स्टैंडर्ड ने संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि घरेलू स्टील निर्माता अगले वित्त वर्ष के लिए कोकिंग कोल खरीदने के लिए हमसे बातचीत कर रहे हैं।
इस समय बीसीसीएल वाश्ड कोकिंग कोल की आपूर्ति 6,300 रुपये प्रति टन के हिसाब से कर रहा है और थर्मल कोल की कीमतें करी 1200 रुपये प्रति टन के आसपास हैं। 2007-08 में बीसीसीएल ने वाश्ड कोकिंग कोल की कीमतें 4,500 रुपये प्रति टन से बढ़ाकर 6,300 रुपये प्रति टन कर दी थीं। (BS Hindi)
कोकिंग कोल के भारत के उपभोक्ता दो सप्ताह के भीतर अंतरराष्ट्रीय कोकिंग कोल आपूर्तिकर्ताओं से नए सिरे से सौदे करने की तैयारी कर रहे हैं।
दरअसल जापान की स्टील निर्माता कंपनियों ने 2009-10 के लिए वार्षिक आधार पर लंबी अवधि के लिए बीएचपी बिलिटन से समझौते किए हैं, जो पिछले साल की खरीद दर की तुलना में 60 प्रतिशत कम पर हुआ है।
धात्विक कोक की घरेलू निर्माता कंपनी एन्नोर कोक ने रियो टिंटो और बीएचपी बिलिटन जैसी वैश्विक कोकिंग कोल आपूर्तिकर्ता कंपनियों से बातचीत करना शुरू कर दिया है। कंपनी 1 अप्रैल से शुरू होने वाले नए साल के लिए लंबी अवधि के लिए समझौते करना चाहती है, जिससे उसे सेमी-सॉफ्ट कोकिंग कोल 115 डॉलर प्रति टन के हिसाब से मिल सके।
एन्नोर कोक के अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी अधिकारी गणेशन नटराजन ने कहा, 'हम अपने अंतरराष्ट्रीय आपूर्तिकर्ताओं जैसे रियो टिंटो और बीएचपी बिलिटन से बातचीत कर रहे हैं, जिससे सेमी-सॉफ्ट कोकिंग कोल के वार्षिक सौदे 115 डॉलर प्रति टन के हिसाब से हो सके।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में वर्तमान में हाजिर बाजार में हार्ड कोकिंग कोल की कीमतें 125-130 डॉलर प्रति टन के बीच हैं और सेमी सॉफ्ट कोकिंग कोल की कीमत हार्ड कोकिंग कोल की तुलना में 20 प्रतिशत कम होती है।'
वर्तमान में एन्नोर कोक की कोकिंग कोल की सालाना जरूरत 7,20,000 टन है। कंपनी के पास इस समय अमेरिका से आयातित 4 लाख टन लो ऐश कोकिंग कोल है। कंपनी को अभी भी करीब 30,000 टन कोकिंग कोल प्रतिमाह की जरूरत है, जिससे 2009-10 में उसकी जरूरतें पूरी की जा सकें।
खबर है कि निप्पन स्टील कार्पोरेशन और जेएफई स्टील कार्पोरेशन ने 1 अप्रैल से शुरू होने वाले सौदे के लिए समझौता किया है। यह समझौता बीएचपी बिलिटन से हार्ड कोकिंग कोल के लिए करीब 130 डॉलर प्रति टन के हिसाब से हुआ है, जो एशियन स्टील कंपनियों द्वारा 2007-08 में खरीदी गई दर की तुलना में 60 प्रतिशत कम है।
कोकिंग कोल की औसत कीमत 2007 के 96 डॉलर प्रति टन से बढ़कर 2008 में 300 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गई थी। स्टील निर्माता अब कम कीमत पर कोकिंग कोल के लिए समझौते करना चाह रहे हैं, क्योंकि स्टील की कीमतों में भी गिरावट आई है और मंदी की वजह से मांग भी कम हो गई है।
पिछले महीने चीन में कोकिंग कोल की बिक्री 130-150 डॉलर प्रति टन के बीच हुई थी। आस्ट्रेलिया की मैकक्वायर ग्रुप लिमिटेड ने भविष्यवाणी की थी कि 2009 में कोकिंग कोल की कीमतें 110 डॉलर प्रति टन के करीब रहेंगी।
भारत के घरेलू बाजार में स्टील निर्माता भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) से कोकिंग कोल लेते हैं, जो कोल इंडिया लिमिटेड की सहयोगी संस्था है। घरेलू खरीदार अभी भी कम कीमतों के लिए बीसीसीएल से समझौते के लिए बात कर रहे हैं। बहरहाल इस मामले में प्रगति के बारे में आगामी 2 महीनों में स्पष्ट हो जाएगा।
बीसीसीएल के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक तपस के लाहिड़ी से बिजनेस स्टैंडर्ड ने संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि घरेलू स्टील निर्माता अगले वित्त वर्ष के लिए कोकिंग कोल खरीदने के लिए हमसे बातचीत कर रहे हैं।
इस समय बीसीसीएल वाश्ड कोकिंग कोल की आपूर्ति 6,300 रुपये प्रति टन के हिसाब से कर रहा है और थर्मल कोल की कीमतें करी 1200 रुपये प्रति टन के आसपास हैं। 2007-08 में बीसीसीएल ने वाश्ड कोकिंग कोल की कीमतें 4,500 रुपये प्रति टन से बढ़ाकर 6,300 रुपये प्रति टन कर दी थीं। (BS Hindi)
उत्पादन बढ़ाएगी नाल्को
भुवनेश्वर 03 26, 2009
अंतरराष्ट्रीय एल्युमीनियम बाजार मंद पड़ने के बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी नैशनल एल्युमीनियम कंपनी (नाल्को) इस साल के मई महीने तक अपनी क्षमता 1.15 लाख टन और बढ़ाने की तैयारी कर रही है।
यह कंपनी की कुल उत्पादन क्षमता में 33.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। नाल्को के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक सीआर प्रधान ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि दूसरे चरण की विस्तार योजना के तहत 4091 करोड़ रुपये का संयंत्र बनकर तैयार होने को है।
हमारी एल्युमिनियम उत्पादन क्षमता अब करीब दो महीने के भीतर 3.45 लाख टन से बढ़कर 4.60 लाख टन हो जाने की उम्मीद है। उन्होंने कहा कि नई क्षमता का करीब आधा, 55,000 टन का उत्पादन इस माह के अंत तक अंगुल संयंत्र में 120 नए स्मेल्टिंग पॉट्स के माध्यम से होने लगेगा।
उसके बाद इस विस्तार योजना में 240 स्मेल्टिंग पॉट्स और जोड़ने की योजना है, जिसका काम मई तक पूरा कर लिया जाएगा। एल्युमीनियम के उत्पादन लागत में पॉवर की हिस्सेदारी करीब 50 प्रतिशत होती है।
नए स्मेटिंग पॉट्स के लिए कंपनी ने कैप्टिव पॉवर प्लांट की 9वीं इकाई लगा रही है, जिसकी क्षमता 120 मेगावाट की है। यह काम अप्रैल में पूरा कर लिया जाएगा। इस समय कंपनी के पास बिजली उत्पादन की 8 इकाइयां हैं, जिनमें प्रत्येक की क्षमता 120 मेगावाट की है (BS Hindi)
अंतरराष्ट्रीय एल्युमीनियम बाजार मंद पड़ने के बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी नैशनल एल्युमीनियम कंपनी (नाल्को) इस साल के मई महीने तक अपनी क्षमता 1.15 लाख टन और बढ़ाने की तैयारी कर रही है।
यह कंपनी की कुल उत्पादन क्षमता में 33.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। नाल्को के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक सीआर प्रधान ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि दूसरे चरण की विस्तार योजना के तहत 4091 करोड़ रुपये का संयंत्र बनकर तैयार होने को है।
हमारी एल्युमिनियम उत्पादन क्षमता अब करीब दो महीने के भीतर 3.45 लाख टन से बढ़कर 4.60 लाख टन हो जाने की उम्मीद है। उन्होंने कहा कि नई क्षमता का करीब आधा, 55,000 टन का उत्पादन इस माह के अंत तक अंगुल संयंत्र में 120 नए स्मेल्टिंग पॉट्स के माध्यम से होने लगेगा।
उसके बाद इस विस्तार योजना में 240 स्मेल्टिंग पॉट्स और जोड़ने की योजना है, जिसका काम मई तक पूरा कर लिया जाएगा। एल्युमीनियम के उत्पादन लागत में पॉवर की हिस्सेदारी करीब 50 प्रतिशत होती है।
नए स्मेटिंग पॉट्स के लिए कंपनी ने कैप्टिव पॉवर प्लांट की 9वीं इकाई लगा रही है, जिसकी क्षमता 120 मेगावाट की है। यह काम अप्रैल में पूरा कर लिया जाएगा। इस समय कंपनी के पास बिजली उत्पादन की 8 इकाइयां हैं, जिनमें प्रत्येक की क्षमता 120 मेगावाट की है (BS Hindi)
नाल्को ने लगाई सस्ते आयात से संरक्षण की गुहार
सस्ते आयात से संरक्षण के लिए प्राथमिक एल्युमीनियम के आयात पर 10 प्रतिशत शुल्क लगाने की मांग
मुंबई 03 26, 2009
भारत की प्रमुख एल्युमीनियम उत्पादक, नैशनल एल्युमीनियम कंपनी (नाल्को) ने सरकार से बातचीत के बाद प्राथमिक एल्युमीनियम के आयात पर 10 प्रतिशत संरक्षण शुल्क लगाए जाने की मांग की है।
भारत सरकार ने मूल्य वर्धित एल्युमीनियम के आयात पर 35 प्रतिशत आयात शुल्क लगा दिया है। सरकार के इस कदम से एवी बिड़ला समूह की कंपनी हिंडालको और अनिल अग्रवाल की कंपनी वेदांत समूह को फायदा होगा। बहरहाल भुवनेश्वर स्थित सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी को प्राथमिक एल्युमीनियम के मामले में कोई संरक्षण नहीं दिया गया है।
सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने 13 मार्च को कहा था, 'हमने चीन से होने वाले एल्युमीनियम फॉयल के आयात पर 22 प्रतिशत और एल्युमीनियम चादरों के आयात पर 25 प्रतिशत संरक्षण शुल्क 200 दिनों के लिए लगाया है।'
एल्युमीनियम चादरों का प्रयोग ऑटो और निर्माण जैसे क्षेत्रों और एल्युमीनियम फॉयल का इस्तेमाल व्यापक पैमाने पर पैकेजिंग उद्योग में होता है। इन दो एल्युमीनियम उत्पादों के प्रमुख उत्पादक हिंडालको और वेदांत समूह हैं।
डॉयरेक्टरेट जनरल ऑफ सेफगार्ड्स, कस्टम्स ऐंड सेंट्रल एक्साइज सस्ते आयात के चलते होने वाली समस्याओं पर अध्ययन करता है। उसने जनवरी में भारत में आने वाले सस्ते एल्युमीनियम उत्पादों की आवक के बारे में जांच शुरू की थी। नाल्को के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक सीआर प्रधान ने कहा, 'हम अभी भी सरकार से बातचीत कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि सरकार हमारे हितों की रक्षा के लिए कदम उठाएगी।'
नकदी के संकट के चलते एल्युमीनियम की कीमतें गिर गईं और आर्थिक मंदी ने मूल धातुओं की मांग पर बुरा प्रभाव डाला। लंदन मेटल एक्सचेंज में एल्युमीनियम की कीमतें जुलाई 2008 में 3,271 डॉलर प्रति टन के उच्चतम स्तर पर पहुंचने के बाद फरवरी 2009 में हाजिर भाव 67 प्रतिशत गिरकर 1,251 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गईं।
इसका परिणाम यह हुआ कि पूरी दुनिया में भंडारण बढ़ गया। एलएमई में भंडारण बढ़कर अब तक के सर्वाधिक स्तर 34.5 मिलियन टन पर पहुंच गया जबकि सामान्य भंडारण 12 लाख टन का होता है। नाल्को का भंडारण 20,000 टन पर पहुंच गया, जो सामान्य 5,000 टन भंडारण से 4 गुना ज्यादा है।
कंपनी का वार्षिक उत्पादन 3,50,000 टन है। चीन में उत्पादन लागत कम होती है, इसलिए कंपनी को चीन से सस्ते एल्युमीनियम उत्पाद के डंपिंग की समस्या से भी रूबरू होना पड़ रहा है। मुंबई की ब्रोकरेज फर्म केआर चौक्सी शेयर्स के विश्लेषक विपुल शाह का कहना है, 'चीन में इस साल घरेलू खपत बहुत कम हो गई है। जिसकी वजह से वह अपने भंडारण की डंपिंग भारत और अन्य देशों में कर रहा है।' चीन से भारत माल लाने में कम किराए की वजह से चीन के लिए भारत डंपिंग हेतु बेहतर रहता है। (BS Hindi)
मुंबई 03 26, 2009
भारत की प्रमुख एल्युमीनियम उत्पादक, नैशनल एल्युमीनियम कंपनी (नाल्को) ने सरकार से बातचीत के बाद प्राथमिक एल्युमीनियम के आयात पर 10 प्रतिशत संरक्षण शुल्क लगाए जाने की मांग की है।
भारत सरकार ने मूल्य वर्धित एल्युमीनियम के आयात पर 35 प्रतिशत आयात शुल्क लगा दिया है। सरकार के इस कदम से एवी बिड़ला समूह की कंपनी हिंडालको और अनिल अग्रवाल की कंपनी वेदांत समूह को फायदा होगा। बहरहाल भुवनेश्वर स्थित सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी को प्राथमिक एल्युमीनियम के मामले में कोई संरक्षण नहीं दिया गया है।
सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने 13 मार्च को कहा था, 'हमने चीन से होने वाले एल्युमीनियम फॉयल के आयात पर 22 प्रतिशत और एल्युमीनियम चादरों के आयात पर 25 प्रतिशत संरक्षण शुल्क 200 दिनों के लिए लगाया है।'
एल्युमीनियम चादरों का प्रयोग ऑटो और निर्माण जैसे क्षेत्रों और एल्युमीनियम फॉयल का इस्तेमाल व्यापक पैमाने पर पैकेजिंग उद्योग में होता है। इन दो एल्युमीनियम उत्पादों के प्रमुख उत्पादक हिंडालको और वेदांत समूह हैं।
डॉयरेक्टरेट जनरल ऑफ सेफगार्ड्स, कस्टम्स ऐंड सेंट्रल एक्साइज सस्ते आयात के चलते होने वाली समस्याओं पर अध्ययन करता है। उसने जनवरी में भारत में आने वाले सस्ते एल्युमीनियम उत्पादों की आवक के बारे में जांच शुरू की थी। नाल्को के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक सीआर प्रधान ने कहा, 'हम अभी भी सरकार से बातचीत कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि सरकार हमारे हितों की रक्षा के लिए कदम उठाएगी।'
नकदी के संकट के चलते एल्युमीनियम की कीमतें गिर गईं और आर्थिक मंदी ने मूल धातुओं की मांग पर बुरा प्रभाव डाला। लंदन मेटल एक्सचेंज में एल्युमीनियम की कीमतें जुलाई 2008 में 3,271 डॉलर प्रति टन के उच्चतम स्तर पर पहुंचने के बाद फरवरी 2009 में हाजिर भाव 67 प्रतिशत गिरकर 1,251 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गईं।
इसका परिणाम यह हुआ कि पूरी दुनिया में भंडारण बढ़ गया। एलएमई में भंडारण बढ़कर अब तक के सर्वाधिक स्तर 34.5 मिलियन टन पर पहुंच गया जबकि सामान्य भंडारण 12 लाख टन का होता है। नाल्को का भंडारण 20,000 टन पर पहुंच गया, जो सामान्य 5,000 टन भंडारण से 4 गुना ज्यादा है।
कंपनी का वार्षिक उत्पादन 3,50,000 टन है। चीन में उत्पादन लागत कम होती है, इसलिए कंपनी को चीन से सस्ते एल्युमीनियम उत्पाद के डंपिंग की समस्या से भी रूबरू होना पड़ रहा है। मुंबई की ब्रोकरेज फर्म केआर चौक्सी शेयर्स के विश्लेषक विपुल शाह का कहना है, 'चीन में इस साल घरेलू खपत बहुत कम हो गई है। जिसकी वजह से वह अपने भंडारण की डंपिंग भारत और अन्य देशों में कर रहा है।' चीन से भारत माल लाने में कम किराए की वजह से चीन के लिए भारत डंपिंग हेतु बेहतर रहता है। (BS Hindi)
26 मार्च 2009
Inflation nears zero even as essential food prices remain high
New Delhi, Mar 26 (PTI) Inflation moved towards zero bydeclining to 0.27 per cent for the second week of March, evenas essential food prices continued to remain high due to highMSP and inadequate production of pulses and coarse cereals. The 0.17 percentage point decline in wholesale pricesinflation from 0.44 per cent during the week ended March 7 wasalso attributed partly to a high base effect as the rate ofprice rise was 8.02 per cent in the same period a year ago. "This is not because of lack of effective demand. Itis basically due to the base effect and that is not somethingwhich we are unaware of, not something which we are notfactoring (in)," Economic Affairs Secretary Ashok Chawla said. The persistent decline in inflation has fuelled hopesthat the RBI would further ease money supply to boost economicgrowth, which is slackening. "As for RBI cutting rates, in a month we can see some50 basis point cut in key rates. Right now there has beenenough liquidity and RBI has been proactive in takingmeasures," Crisil Principal Economist D K Joshi said. Food prices in the primary articles group (which are notprocessed) rose 0.1 per cent on a weekly basis and a whopping7.10 per cent on a yearly basis. In the manufactured category(processed variety), food prices increased 1.2 per cent ona weekly basis and 6.63 per cent year-on-year. Joshi said the rise in food prices was because of badfarm performance in pulses and coarse cereals, even as wheatand rice production has been good. "Food prices are high as prices of pulses, coarsecereals have been rising. Agriculture performance has not beengood in coarse cereals and pulses," he said. He said the rise was also due to high minimum supportprices for farmers and expected the rate of food price rise tofall by June-July. Earlier this week, Prime Minister Manmohan Singh hadsaid food prices have not fallen as the Government sought toincrease incomes in rural areas. "Farmers have never been given (in the past) suchincreases in terms of procurement prices," he had said. The index for the major categories -- manufactured goodsand primary articles -- rose, while that of fuels remainedunchanged. Inflation is so close to zero that economists expectthe possibility of it slipping into negative territoryshortly. RIS Director-General Nagesh Kumar said, "Inflation mightslip into negative territory in the coming weeks and it shouldprovide space for RBI to further lower policy rates." Joshi said inflation will go into the negative zonewithin two weeks. "Maybe -2 or -3," he said. However, economists refuse to term it deflation.(MORE) PTI
रिफाइंड चीनी के ड्यूटी फ्री आयात की जरूरत नहीं: पवार
नई दिल्ली : कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा है कि घरेलू बाजार में चीनी की कीमतों में गिरावट आने से देश को रिफाइंड चीनी के शुल्क मुक्त आयात की जरूरत शायद न पड़े। पिछले महीने चीनी उत्पादन के कम रहने के अनुमानों के आने के बाद सरकार ने कच्ची चीनी के शुल्क मुक्त आयात को मंजूरी देने का फैसला दिया था। सरकार ने कच्ची चीनी के शुल्क मुक्त आयात को अगले साल सितंबर तक के लिए मंजूरी दी है। साथ ही कच्ची चीनी के आयात के बराबर मात्रा में रिफाइंड चीनी के री-एक्सपोर्ट करने की अवधि को भी बढ़ाकर 36 महीने कर दिया है। पवार ने कहा, 'चीनी की कीमतें गिर रही हैं। ऐसे में कच्ची चीनी का आयात करने वाले भी सोचने पर मजबूर हो गए हैं।' कारोबारी हलकों में कयास जारी हैं कि सरकार रिफाइंड चीनी के आयात पर लगे 60 फीसदी के आयात शुल्क को हटा सकती है। लेकिन पवार ने साफ कर दिया है कि सरकार को शायद ऐसा करने की जरूरत न पड़े। साल 2007-08 सीजन में 265 लाख टन चीनी का उत्पादन हुआ था। जबरदस्त उत्पादन की वजह से तब इसकी कीमतें निचले स्तर पर रही थीं। साथ ही अगले साल के लिए बचे हुए स्टॉक की मात्रा भी 80 लाख टन थी। साल 2008-09 चीनी सीजन (अक्टूबर से सितंबर तक) में मांग से आपूतिर् पर दबाव बना और इससे चीनी की कीमतें ऊपर चढ़ीं। उत्पादन में कमी और मांग में इजाफे के चलते चीनी की ग्लोबल सप्लाई में 43 लाख टन से लेकर 96 लाख टन तक की कमी रह सकती है। (ET Hindi)
चीनी की वायदा कीमतों में सुधार
मुंबई March 25, 2009
गर्मियों में चीनी की मांग बढ़ने की आशंकाओं के बीच आज वायदा बाजार में चीनी की कीमतों में सुधार दर्ज किया गया।
नेशनल कमोडिटी एंड डेरीवेटिव्ज एक्सचेंज में जून महीने का सौदा 11 रुपए (0.50%) बढ़कर 2245 रुपए प्रति क्विंटल पर पहुंच गया। इसमें 2030 लाट के लिए कारोबार हुआ।
अप्रैल सौदा भी 0.35 फीसदी बढ़कर 2050 रुपए प्रति क्विंटल पर जा पहुंचा जिसमें 7720 लाट के लिए कारोबार हुआ। वहीं चीनी का मई सौदा भी 0.34 फीसदी बढ़कर 2139 रुपए प्रति क्विंटल हो गया। इसमें 5160 लाट के लिए कारोबार हुआ।
उल्लेखनीय है कि दुनिया में चीनी उत्पादन करने वाले दूसरे विशालतम देश भारत में इस साल चीनी का उत्पादन 1.57 करोड़ टन रहने का अनुमान है। (BS Hindi)
गर्मियों में चीनी की मांग बढ़ने की आशंकाओं के बीच आज वायदा बाजार में चीनी की कीमतों में सुधार दर्ज किया गया।
नेशनल कमोडिटी एंड डेरीवेटिव्ज एक्सचेंज में जून महीने का सौदा 11 रुपए (0.50%) बढ़कर 2245 रुपए प्रति क्विंटल पर पहुंच गया। इसमें 2030 लाट के लिए कारोबार हुआ।
अप्रैल सौदा भी 0.35 फीसदी बढ़कर 2050 रुपए प्रति क्विंटल पर जा पहुंचा जिसमें 7720 लाट के लिए कारोबार हुआ। वहीं चीनी का मई सौदा भी 0.34 फीसदी बढ़कर 2139 रुपए प्रति क्विंटल हो गया। इसमें 5160 लाट के लिए कारोबार हुआ।
उल्लेखनीय है कि दुनिया में चीनी उत्पादन करने वाले दूसरे विशालतम देश भारत में इस साल चीनी का उत्पादन 1.57 करोड़ टन रहने का अनुमान है। (BS Hindi)
उत्तर भारत के राज्यों में मौसम ने बढ़ाई किसानों की चिंता
उत्तर भारत में मौसम की आंखमिचौली ने किसानों की चिंता बढ़ा दी है। पकाई के समय फसलों को धूप की आवश्कता होती है लेकिन पिछले आठ-दस दिनों में दो-तीन बार आंधी के साथ-साथ बारिश और ओले गिरने से रबी फसलों को नुकसान होने की आशंका बढ़ गई है। इस समय उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों में जहां चना, सरसों और जौ की कटाई का कार्य जोर-शोर से चल रहा है वहीं कई जिलों में गेहूं की भी अगेती फसल की कटाई प्रारंभ हो चुकी है। उत्तर भारत के कई जिलों में आंधी के साथ-साथ बारिश होने से खलिहानों में पड़ी चना, सरसों और जौ की फसल को आंशिक नुकसान के समाचार हैं। पंजाब में कीनू और हरियाणा में आम की फसल को ज्यादा नुकसान हुआ है।नई दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) के कृषि वैज्ञानिक डॉ. आर के राय ने बिजनेस भास्कर को बताया कि पकाई के समय फसलों को धूप की आवश्यकता होती है लेकिन पश्चिमी विक्षोभ के कारण पिछले आठ-दस दिनों से मौसम खराब चल रहा है। बारिश होने और ओले गिरने से मौसम में नमी की मात्रा बढ़ जाती है जिससे फसलों में रोग लगाने की संभावना अधिक रहती है। उन्होंने कहा कि अभी तक गेहूं की फसल को तो नुकसान के समाचार नहीं है लेकिन अगर मौसम जल्दी ही साफ नहीं हुआ तो फिर नुकसान होने की संभावना बढ़ जायेगी। कृषि वैज्ञानिक डॉ. अनिल गुप्ता ने बताया कि इस समय उत्तर भारत के राज्यों राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में चना, सरसों और जौ की कटाई का कार्य जोरों पर है। जिन क्षेत्रों में फसल की कटाई हो चुकी है तथा जहां फसल खलीहानों में पड़ी है वहां आंधी के साथ-साथ बारिश होने से फसल की क्वालिटी प्रभावित होने की आशंका बढ़ गई है। हालांकि पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के कई जिलों में गेहूं की फसल पकने में अभी समय है। पंजाब खेतीबाड़ी विभाग के संयुक्त निदेशक एच.एस भट्टी के मुताबिक गेहूं बिछने से बालियां काली पड़ने की संभावना बढ़ जाती है। पंजाब में कृषि विभाग के सूत्रों के अनुसार अमृतसर और तरनतारन तथा अन्य जिलों में बारिश और आंधी से करीब 42,000 हेक्टेयर में गेहूं की फसल पड़ गई है। वहीं बागबानी विभाग के निदेशक डॉ. बलदेव सिंह के मुताबिक कीनू की फसल पर इसका आंशिक असर पड़ा है राज्य में करीब 78,000 हेक्टेयर भूमि पर कीनू की फसल लगी हुई है। गेहूं अनुसंधान निदेशालय करनाल के परियोजना निदेशक डा. जग शोरन ने बताया कि अभी तक हुई वर्षा से अगेती फसल को कहीं नुकसान होने के समाचार नहीं मिले हैं तथा उक्त वर्षा से पछेती फसल को फायदा ही हुआ है। हरियाणा में करीब 80 फीसदी क्षेत्रफल में गेहूं की अगेती बुवाई की गई है। हालांकि उनका मानना है कि अगर बारिश के साथ ओले गिरते हैं तो फिर बालियां टूटने से नुकसान की आशंका बन सकती है। राज्य के उघान विभाग के डा. सतवीर सिंह ने बताया कि आंधी चलने से आम के बौर झड़ने से आम की फसल को लगभग ख्क्-ख्म् फीसदी का नुकसान होने की आशंका है। इसके साथ ही आम में फंगस व बीमारी होने की संभावना बढ़ गई है। (Business Bhaskar....R S Rana)
भारत से निर्यात शुरू होने की आशा से विदेश में चावल नरम
एशियाई अनाज बाजारों में आने वाले दिनों के दौरान मिलाजुला रुख बना रह सकता है। डॉलर में थोड़ी गिरावट आने से शिकागो बोर्ड ऑफ ट्रेड के कांट्रेक्टों में मामूली मजबूती दर्ज की गई है। हालांकि हाजिर बाजारों में सप्लाई कमजोर पड़ गई है और इससे मांग का दबाव थोड़ा बढ़ सकता है। इस दौरान चावल के भाव में नरमी बने रहने की संभावना है। पिछले दिनों सीबॉट में चावल मई वायदा करीब 25 सेंट गिरकर 12.44 डॉलर पर निपटा। कारोबारियों के मुताबिक आने वाले दिनों में यहां चावल की कीमतों में और गिरावट देखी जा सकती है। जल्द ही इसका अगला पड़ाव 12 डॉलर रहने का अनुमान है। दरअसल थाईलैंड में चावल का तगड़ा स्टॉक और भारत द्वारा चावल निर्यात पर लगे प्रतिबंध हटने की संभावना से आगे चावल पर दबाव बने रहने की संभावना है। इस बीच वियतनाम से भी चावल का निर्यात बढ़ने के कयास लगाए जा रहे हैं। यह चावल यदि वैश्विक बाजार में पहुंचता है तो इससे भी कारोबार पर असर पड़ सकता है। इस साल की पहल तिमाही में वियतनाम से करीब 17.43 लाख टन चावल का निर्यात होने की संभावना है जो पिछले साल के मुकाबले करीब 71.3 फीसदी ज्यादा है। जबकि चालू मार्च माह के दौरान यहां से करीब सात लाख टन चावल निर्यात होने की उम्मीद है। जिसकी कीमत करीब 31.5 करोड़ डॉलर होगा। इस दौरान भारत में इस साल करीब 9.9 करोड़ टन चावल उत्पादन की संभावना है। सरकार यहां एक मार्च तक करीब 2.13 करोड़ टन चावल की खरीद कर चुकी है। मौजूदा समय में यहां करीब 1.528 करोड़ टन गेहूं का स्टॉक है। ऐसे में यहां गेहूं से गोदाम पहले से ही भर हुए हैं। इस बीच यहां इस साल भी 7.8 करोड़ टन गेहूं उत्पादन की संभावना जताई जा रही है। ऐसे में माना यह जा रहा है कि चुनाव बाद नई सरकार गेहूं के निर्यात पर लगे प्रतिबंध को हटा सकती है। जिससे वैश्विक बाजारों में गेहूं के कारोबार पर भी असर पड़ सकता है। (Business Bhaskar)
रिटेल कंपनियों को उधारी में फल-सब्जियां बेचने से पीछे हटे व्यापारी
फल व सब्जी मंडी में आर्थिक संकट में फंसी रिटेल कंपनियों की साख बहुत खराब हो गई है। जिन व्यापारियों का पैसा इन कंपनियों पर फंस गया है या भुगतान पाने में मुश्किल पेश आई, उन व्यापारियों ने उधारी में माल देना बंद कर दिया है जबकि दूसरे व्यापारी भी काफी सोच-विचार करके ही कंपनियों को उधारी में माल दे रहे हैं।इन कारोबारियों का रिटेल कंपनी सुभिक्षा को उधार देने से काफी पैसा फंस चुका हैं। वहीं रिटेल कंपनियों का धंधा मंदा होने की वजह से सब्जी और फल कारोबारियों के व्यवसाय में भी कमी आई है। फल कारोबारी पपली सेठ ने बिजनेस भास्कर को बताया कि इन कंपनियों को उधार देने के कारण कारोबारियों का काफी पैसा डूब गया है। इन कंपनियों का धंधा भी मंदा चल रहा है। ऐसे में कंपनियों को उधार में फल देने से पैसा डूबने का खतरा रहता है। जिसकी वजह से कारोबारी इन कंपनियों को उधारी देने से परहेज कर रहे हैं। सब्जी कारोबारी पीएम शर्मा ने बताया कि मंदी के इस दौर में रिटेल कंपनियां कभी भी हाथ खड़े कर सकती हैं। ऐसे में इनको उधार देना काफी जोखिम भरा कदम साबित हो सकता है। जिसकी वजह से कारोबारी उधार देने से परहेज कर रहे हैं।सब्जी कारोबारी अमित कुमार बताते है कि रिटेल कंपनियों को उधार न मिलने की वजह से पहले की तुलना में खरीदारी भी कम कर दी है। जिसकी वजह से कारोबार में गिरावट आई है। उनका कहना है कि कारोबारियों का इन कंपनियों के पास उधारी का काफी पैसा बकाया है। जो पैसा मिला है वह भी कई किश्तों में मिल पाया हैं।एक अन्य कारोबारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि सुभिक्षा और सिक्स टेन के पास करीब 97 लाख रुपये उधार हो गया था जिसमें से काफी मसशकत के बाद 30 लाख रुपया ही मिल पाया है। उनका कहना है कि समय पर पैसे का भुगतान न होने की वजह से इन कंपनियों को फल एवं सब्जी उधर देना अब फायदे का सौदा नहीं रहा।कारोबारियों के मुताबिक सुभिक्षा पर पैसा बकाया होने की वजह से अन्य कंपनियों को भी उधार पर सब्जी और फल देने से कारोबारी तौबा कर रहे हैं। सब्जी और फलों का रिटेल स्टोर करने वाली कंपनियों में रिलायंस फ्रेश, सुभिक्षा, स्पेंसर्स, बिग एप्पल और सिक्स-10 आदि शामिल हैं। शुभिक्षा ने आर्थिक संकट के चलते अपने कई स्टोर बंद कर दिए हैं। कारोबारियों का इस कंपनी के पास करोड़ों रुपये बकाया है। जिसकी वजह से कारोबारी इन कंपनियों सब्जी और फल कम मात्रा और कम समय के लिए उधार दे रहे हैं। (Business Bhaskar)
गेहूं की रोग प्रतिरोधक दो नई किस्में विकसित
गेहूं अनुसंधान निदेशालय करनाल ने उत्तरी पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों के लिए गेंहू की अधिक उपज देने वाली नई किस्म डीबी डब्ल्यू-ख्त्त विकसित की है। वही पंजाब विश्वविद्यालय ने भी मैदानी क्षेत्रों के लिए गेहूं की नई किस्म पीबी डब्ल्यू म्म्क् जारी की है। इन किस्मों को लेकर यहां के वैज्ञानिकों का दावा है कि इनमें रोगप्रतिरोधक क्षमता अन्य किस्मांे से कहीं अधिक है। पिछले कई सालों से पंजाब, हरियाणा, हिमाचल और उत्तर प्रदेश के 80 फीसदी से अधिक किसानों द्वारा पीबी डब्ल्यू ब्भ्ब् और पीबीडब्लयू 502 की बुवाई की जा रही है। लेकिन पिछले ब्-भ् सालों में इन किस्मों में रोगरोधक क्षमता कम होने से इन पर तेला रोग और पीला रतुआ जैसी बीमारियों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। जिससे गेहूं क ी गुणवत्ता और उपज में कमी आई है। गेहूं अनुसंधान निदेशालय करनाल के परियोजना निदेशक डा. चग शोरन ने बिजनेस भास्कर को बताया कि गेंहू की इस समस्या से निपटने के लिए पिछले कुछ समय से निदेशालय गेहूं की नई किस्म को विकसित करने की कोशिश कर रहा था। उन्होंने बताया कि निदेशालय द्वारा किसानों के लिए जारी की गई गेहूं की नई किस्म डीबीडब्ल्यू -ख्त्त समय से बोई जाने वाली व सिंचित क्षेत्रों के लिए है। इसकी औसत पैदावार लगभग 50 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। जबकि अब तक बोई जाने वाली किस्मों की औसतन पैदावार प्रति हैक्टेयर 42 क्विंटल रही है।और इस नई किस्म में प्रोटीन की मात्रा ख्ख्.भ्9 फीसदी हैं। गेहूं अनुसंधान निदेशालय करनाल के फसल संरक्षण विभाग के प्रधान वैज्ञानिक डा. डी पी सिंह ने बताया कि डीबी डब्ल्यू-ख्त्त किस्म पीला रतुवा, करनाल बंट, ब्राउन रतुवा, तना बेधक व झुलसा रोग आदि बीमारी के प्रति पूरी तरह रोगरोधक हैं। परीक्षण में देखा गया है कि इन बीमारियों का इस किस्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। उन्होंने बताया कि पीबी डब्ल्यू म्म्क् की औसत उपज लगभग भ्त्त क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। जोकि अभी तक बोई जानी वाली किस्मों के मुकाबले ज्यादा है। (Business Bhaskar)
सभी तरह की चीनी का आयात होगा शुल्क मुक्त
चुनावी माहौल में सरकार चीनी की कीमतों में तेजी पर अंकुश लगाने का कोई उपाय नहीं छोड़ रही है। इसके लिए जहां चीनी पर 60 फीसदी सीमा शुल्क समाप्त करने के लिए कैबिनेट नोट मंत्रिमंडल के फैसले का इंतजार कर रहा है, वहीं इसमें रॉ शुगर के शुल्क मुक्त आयात पर निर्यात की शर्त को समाप्त करने का प्रावधान भी शामिल कर लिया गया है। खाद्य और कृषि मंत्रालय में उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक इस फैसले के लिए चुनाव आयोग की अनुमति भी सरकार को मिल गई है। हालांकि, इसमें पेंच यह है कि चीनी पर सीमा शुल्क समाप्त करने का फैसला 20 अप्रैल तक लटक सकता है।उक्त सूत्र के मुताबिक यह प्रस्ताव गुरुवार को होने वाली कैबिनेट बैठक में आना था, लेकिन गुरुवार को यह बैठक नहीं हो रही है। इसके बाद कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार 20 अप्रैल से पहले दिल्ली नहीं लौट रहे हैं। इसके चलते इस बारे में फैसला उनके आने के बाद ही होगा। इस स्थिति का फायदा घरेलू चीनी उद्योग को होगा क्योंकि इस फैसले में देरी के चलते चीनी आयात होने की संभावना नहीं है।यही नहीं, चीनी पर सीमा शुल्क समाप्त होने के बावजूद इस समय आयात की संभावना काफी कम है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी की कीमत करीब 400 डॉलर प्रति टन है। रॉ शुगर (गैर-रिफाइंड चीनी) की कीमत 340 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गई है। इन कीमतों पर देश में आयातित चीनी की कीमत करीब 2500 रुपये प्रति क्विंटल पड़ रही है। जबकि इस समय खुदरा बाजार में घरेलू चीनी की कीमत भी 25 रुपये किलो के आसपास ही चल रही हैं। ऐसे में एमएमटीसी और एसटीसी के जरिए चीनी आयात कर उस पर उपभोक्ताओं को सब्सिडी का विकल्प ही सरकार के पास बचता है। लेकिन इस पर मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि मौजूदा कैबिनेट नोट में इस तरह का कोई प्रस्ताव नहीं है।वहीं, एक अन्य अधिकारी का कहना है कि सरकार का असली मकसद चीनी की कीमतों को काबू में रखना है। इस मोर्चे पर सरकार का रणनीति कामयाब होती दिख रही है क्योंकि चीनी पर स्टॉक सीमा लागू करने की अधिसूचना के बाद से चीनी की थोक कीमतों में 200 रुपये प्रति क्विंटल तक की गिरावट आ चुकी है। इस समय महाराष्ट्र में चीनी की एक्स फैक्टरी कीमत 1850 रुपये प्रति क्विंटल, तमिलनाडु में 1925 रुपये और उत्तर प्रदेश में 2050 रुपये प्रति क्विंटल पर आ गई है। दूसरी ओर आयातित चीनी को लेकर स्थिति साफ नहीं होने से पिछले एक माह में रॉ शुगर के आयात का कोई भी नया सौदा नहीं हुआ है। इसके पहले 13 लाख टन रॉ शुगर के आयात सौदे हो चुके थे। मौजूदा समय में इस पर निर्यात की शर्त लागू होने से रुपये की विनिमय दर में हो रहा भारी उतार-चढ़ाव भी इसका कारण है। वहीं, आयातित रॉ शुगर पर निर्यात की शर्त समाप्त करने के फैसले की उम्मीद में आयात सौदे नहीं होंगे। (Business Bhaskar)
25 मार्च 2009
अच्छी बुआई के बाद भी पंजाब में घटी गेहूं की उपज
पंजाब में इस साल गेहूं का बुआई क्षेत्र भले ही बढ़ा है पर खराब मौसम और तेला रोग के चलते गेहूं की उपज के पिछले साल की तुलना में 2 लाख टन गिरने की आशंका है। वहीं हरियाणा में गेहूं का उत्पादन इस बार एक लाख टन बढ़ने की संभावना जताई जा रही है। हरियाणा को उम्मीद है कि वह इस बार 103 लाख टन के गेहूं के उत्पादन लक्ष्य को पार कर लेगा। पंजाब में इस साल 34.9म् लाख हेक्टेयर में गेहूं की बुआई की गई है।पिछले साल यहां गेहूं का बुआई क्षेत्र 34.88 लाख हेक्टेयर था। इस साल पिछले साल की तुलना में गेहूं की उपज दो लाख टन घटने की आशंका जताते हुए पंजाब के कृ षि विभाग के निदेशक बीएस सिद्धू ने कहा कि इस बार जनवरी महीने मंे ही तापमान 28 डिग्री पहुंचने से गेहूं की फसल पर आंशिक असर पड़ा है, वहीं प्रदेश के कई इलाकों में गेहूं के तेला रोग ग्रस्त होने से इस बार उपज 155 लाख टन होने का अनुमान है। पिछले साल पंजाब में 157.फ्क् लाख टन गेहूं की उपज हुई थी। पंजाब कृषि विव्श्रविद्यालय के विशेषज्ञों का कहना है कि इस साल जनवरी और फरवरी में तापमान सामान्य से 2 से 8 डिग्री अधिक रहने से गेहूं की उपज प्रभावित होगी।इनका कहना है कि इन महीनांे में तापमान यदि बढ़ता है तो उपज घट जाती है। उनका कहना है कि पंजाब में पिछले तीन चार सालों से प्रति एकड़ गेहूं की उपज में ठहराव आ गया है और यह औसतन 42 से 43 `िं टल प्रति एकड़ है। उन्होंने बताया कि इससे पूर्व 2006 में भी तापमान बढ़ने के चलते प्रति एकड़ एक `िं टल उपज घट गई थी। उपज घटने का दूसरा सबसे बड़ा कारण गेहूं पर लगा तेला रोग है जिसकी चपेट में गेहूं की पीबीडब्ल्यू 343 और पीबीडब्ल्यू 502 किस्में आती हैं और गेहूं की कुल बुआई मंे इन किस्मों की हिस्सेदारी 80 फीसदी रहती है। (Business Bbhaskar)
मूल्य के लिहाज से कॉयर उत्पादों का निर्यात 5.75 फीसदी बढ़ा
कॉयर उत्पादों का निर्यात मूल्य के लिहाज से चालू वित्त वर्ष 2008-09 में फरवरी तक 5.75 फीसदी बढ़ गया। लेकिन मात्रा में भारत का कॉयर निर्यात इस दौरान सिर्फ 0.09 फीसदी बढ़ा।चालू वित्त वर्ष के अप्रैल-फरवरी के दौरान कुल 572.30 करोड़ रुपये के कॉयर उत्पादों का निर्यात किया जा चुका हैं। जबकि समान अवधि में वर्ष 2007-08 के दौरान 541.19 करोड़ रुपये का निर्यात हुआ था। मात्रा के हिसाब 171859 टन कॉयर उत्पादों का निर्यात हुआ जो पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले सिर्फ 0.09 फीसदी अधिक है। भारतीय कॉयर बोर्ड के सचिव एम. कुमारा राजा ने बिजनेस भास्कर को बताया कि चालू वित्त वर्ष के दौरान कॉयर उत्पादों के निर्यात में मूल्य के लिहाज से 5.75 फीसदी बढ़ोतरी हुई हैं। उनका कहना है कि कॉयर उत्पादों का निर्यात मुख्य रूप से अमेरिका और यूरोप के देशों को किया जाता हैं। लेकिन बोर्ड इन उत्पादों के निर्यात के लिए मध्य- पूर्व के देशों में भी बाजार तलाश रहा हैं। उनका कहना है कि आर्थिक संकट के बावजूद इन उत्पादों के निर्यात में बढ़ोतरी होना इस उद्योग के लिए राहत की बात है। हालांकि आर्थिक संकट के चलते वर्ष 2008 की तीसरी तिमाही में इसके निर्यात में गिरावट आई। कॉयर उत्पादों में सबसे अधिक बढ़ोतरी रबर वाले कॉयर में आई है। इस दौरान इसका निर्यात 7.50 करोड़ से बढ़कर 11.04 करोड़ रुपये हो गया । वहीं 72.76 करोड़ रुपये के 84178 टन कॉयर पिच निर्यात किया गया जो पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले मूल्य की दृष्टि से 25 फीसदी और मात्रा की दृष्टि से 11 फीसदी अधिक हैं। कॉयर मेट्स की बात करें तो मूल्य में इसका निर्यात पांच फीसदी इजाफे के साथ 424.13 करोड़ रुपये रहा। पिछले फरवरी माह के दौरान कॉयर फाइबर के निर्यात में मूल्य और मात्रा दोनों की दृष्टि से भारी वृद्धि हुई है। आडिथी एक्सपोर्ट के डी.एल मारन ने बताया कि चीन की अधिक मांग से जनवरी और फरवरी में कॉयर फाइबर का निर्यात काफी बढ़ा है। बोर्ड के आंकडों के अनुसार वर्ष 2008 की जनवरी और फरवरी के मुकाबले वर्ष 2009 में समान अवधि में इसका निर्यात मूल्य के हिसाब से 370 व 231 फीसदी बढ़कर 13.24 करोड़ और 12.93 करोड़ रुपये का हुआ है। (Business Bhaskar)
इंडोनेशिया, थाईलैंड में रबर का उत्पादन पिछले साल के समान
चालू साल के दौरान थाईलैंड और इंडोनेशिया में रबर का उत्पादन पिछले साल के बराबर रह सकता है। हालांकि साल 2010 के दौरान उत्पादन में मामूली इजाफा होने की संभावना जताई जा रही है। थाईलैंड के कृषि व सहकारिता महानिदेशक सोमचाय चरनोरकुल के मुताबिक चालू साल के दौरान यहां करीब 30.75 लाख टन रबर का उत्पादन हो सकता है। हालांकि घरलू मांग के लिहाज से यह उत्पादन पर्याप्त रहेगा। पिछले साल यहां करीब 26 लाख हैक्टेयर में रबर का प्लांटेशन हुआ था। लेकिन उत्पादन अनुमान के मुताबिक नहीं हो सका। इस दौरान इंडोनेशिया में करीब 28 लाख टन रबर उत्पादन की संभावना है जो कमोबेश पिछले साल के बराबर है। हालांकि साल 2010 के दौरान यहां करीब 29 लाख टन रबर उत्पादन की संभावना जताई जा रही है। इंडोनेशिया के कृषि विभाग के सूत्रों के मुताबिक कई इलाकों में रिप्लांटेशन किए जाने की वजह से अगले साल उत्पादन बढ़ने की उम्मीद है। मलेशिया में भी इस साल रबर उत्पादन में उत्पादन की संभावना नहीं है। हालांकि उत्पादन का स्तर पिछले साल के बराबर रह सकता है। मलेशिया रबर बोर्ड के महानिदेशक कामरूल बहरीन बिन बशीर के मुताबिक देश में रबर का रकबा करीब दस लाख हैक्टेयर रह सकता है। पिछले साल वियतनाम में करीब 662,000 टन रबर का उत्पादन हुआ था। वियतनाम रबर एसोसिएशन के महासचिव तरन थी थ्यू होआ के मुताबिक साल 2020 तक यहां का रबर उत्पादन करीब दस लाख टन होने का अनुमान है। साल 2000-2008 के दौरान वियतनाम के रबर उत्पादन में सालाना करीब आठ फीसदी का इजाफा देखा गया है। (Business Bhaskar)
नैफेड को नहीं मिली कपास बेचने के लिए सीसीआई जैसी स्कीम
भले ही नैफेड व कॉटन कारपोरेशन ऑफ इंडिया (सीसीआई) केंद्र सरकार के अधीन संगठन हों लेकिन कॉटन बेचने के लिए दोनों के लिए लेवल प्लेइंग फील्ड नहीं है। सीआईआई को डिस्काउंट स्कीम के तहत सस्ते में कपास बेचने की अनुमति मिल गई है, जिससे वह जिनिंग मिलों व टैक्सटाइल मिलों को सस्ते में कॉटन बेच रही है लेकिन नैफेड को डिस्काउंट स्कीम में कपास बेचने की अनुमति नहीं मिली है। इस कारण उसका दाम ज्यादा होने से कपास बेचना मुश्किल होता जा रहा है।पिछले माह फरवरी में टेक्सटाइल मंत्रालय ने सीसीआई को डिस्काउंट स्कीम के साथ कपास बेचने की अनुमति दी थी। जिसके अनुसार 10000-25,000 बेल्स (एक बेल्स में 170 किलो) कपास खरीदने वाले को 400 रुपये प्रति बेल्स, 25,000- 50,000 बेल्स खरीदने पर 450 रुपये, 50,000-2,00000 बेल्स खरीदने पर 500 रुपये तथा 2,00000 से ज्यादा खरीदने पर 650 रुपये प्रति बेल्स की छूट मिलेगी। कपास बेचने के लिए सीसीआई खरीददारों से टेंडर मांगती है। इसके आधार पर तय मूल्य पर यह डिस्काउंट दिया जा रहा है। इस तरह सीसीआई के वास्तविक बिक्री मूल्य (एमएसपी व अन्य खर्च जोड़कर) पर दोहरे डिस्काउंट पर कपास बेच रही है। लेकिन नैफेड को कृषि मंत्रालय की ओर अभी तक इसकी अनुमति नहीं मिली है जबकि दोनो ही केंद्रीय एजेंसियां हैं। डिस्काउंट स्कीम का फायदा लेते हुए सीसीआई अभी तक 40 लाख बेल्स की ब्रिकी कर चुकी है। दूसरी ओर नैफेड ने अभी तक केवल 1.60 लाख बेल्स कपास की बिक्री की है। वो भी सीसीआई की डिस्काउंट स्कीम के शुरू होने से पहले। स्कीम शुरू होने के बाद नैफेड के पास कपास लेने वाले नहीं आ रहे है। हालांकि नैफेड भी अपने वास्तविक बिक्री मूल्य से टेंडर पर कम दाम पर ही कपास बेच रही है क्योंकि खुले बाजार में भाव एमएसपी से काफी नीचे हैं। लेकिन वह डिस्काउंट नहीं दे रही है।नेफेड के प्रबंध निदेशक यू. के. एस. चौहान ने बिजनेस भास्कर को बताया कि जब खरीददार को सीसीआई से सस्ती कपास मिल रही है तो वे नैफेड से महंगी कपास नहीं खरीदेंगे। हमने कृषि मंत्रालय से मांग की है कि जल्द ही इसकी अनुमति दी जाए। कपास के दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे जाने के कारण सीसीआई और नाफेड को एमएसपी पर किसानों से बड़ी मात्रा में कपास खरीदनी पड़ी। नैफेड ने अभी तक कुल 181 लाख क्विंटल कपास खरीदी है। जिसकी कीमत 5200 करोड़ रुपये है। इसको वेयरहाउसों में रखने के चलते लागत लगातार बढ़ती जा रही है। चौहान बताते है कि डिस्काउंट पर कपास बेचने की अनुमति मिलने में देरी से हमारी लागत लगातार बढ़ती जा रही है। जिससे नैफेड को होने वाले नुकसान की भरपाई नहीं हो पाएगी। उस समय भी यदि हम सीसीआई की कीमतों पर कपास बेचने की स्थिति में नही होंगे। सीसीआई की कीमत पर कपास बेचने से हमें नुकसान होगा। इसके चलते सरकार से जल्द ही डिस्काउंट स्कीम पर कपास बेचने की अनुमति देने की मांग कर रहे हैं। (Business Bhaskar)
सोया तेल के आयात पर उद्योग बेचैन, सोयामील निर्यात में लाभ
सोयाबीन इन दिनों आयातकों व निर्यातकों दोनों के लिए केंद्र बिंदु बन गया है। जहां सोया तेल आयात पर शुल्क के बारे में स्थिति स्पष्ट न होने से खाद्य तेल उद्योग भ्रम में है। लेकिन सोयाबीन के उत्पाद सोयामील के निर्यात में भारत की स्थिति बेहतर है। भारतीय सोयामील विश्व बाजार में महंगा बिकने से निर्यातकों को इसका लाभ मिल रहा है।उद्योग जगत ने केंद्र सरकार से सोयाबीन तेल पर आयात शुल्क मामले में स्थिति स्पष्ट करने की मांग की है। हाल ही में वाणिज्य सचिव जी. के. पिल्लई ने स्वीकार किया था कि सोयाबीन तेल पर आयात शुल्क लग चुका है जबकि अभी तक वित्त मंत्रालय ने इससे संबंध में नोटिफिकेशन जारी नहीं किया है। जिससे खाद्य तेल बाजार में आयात शुल्क को लेकर अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है। जिसका फायदा बाजार में सट्टेबाज उठा रहे हैं। सेंट्रल आर्गेनाइजेशन ऑफ ऑयल इंडस्ट्री एंड ट्रेड (कोएट) ने इस संबंध में वित्त सचिव से मांग की है कि जल्द ही इस बारे में स्थिति स्पष्ट करें कि आयात शुल्क लागू है या नहीं। चालू सीजन के दौरान सोयामील निर्यात की मात्रा में इजाफा भले न हो लेकिन निर्यातकों को बेहतर मुनाफा हो रहा है। पिछले साल की तुलना में इस साल वैश्विक बाजारों में सोयामील के भाव में करीब दस फीसदी का इजाफा हुआ है। औद्योगिक सूत्रों के मुताबिक दक्षिण अमेरिका, ब्राजील और अर्जेटीना से नई फसल की आवक से पहले निर्यातकों को बेहतर भाव मिल रहे हैं। कोएट के अध्यक्ष दाविश जैन के मुताबिक मौजूदा समय में वैश्विक बाजारों में भारतीय सोयामील करीब 420-440 डॉलर प्रति टन के भाव पर बोला जा रहा है जो पिछले साल के मुकाबले करीब दस फीसदी ज्यादा है। हालांकि इस साल सोयामील के निर्यात में कमी की संभावना है। लेकिन इसके बावजूद निर्यातकों को अच्छा दाम मिल रहा है। उन्होंने कहा कि इस दौरान सोयामील का निर्यात करीब 175,000 टन रहने का अनुमान है। अप्रैल से वैश्विक बाजारों में दूसर उत्पादक देशों की आवक बढ़ने की वजह से भारतीय निर्यात पर दबाव बढ़ सकता है। इस साल मार्च के अंत तक भारत से करीब 40 लाख टन सोयामील का निर्यात होने की संभावना है। पिछले साल इस अवधि के दौरान करीब 39 लाख टन सोयामील का निर्यात हुआ था। इस दौरान रैपसीड मील के निर्यात में भी इजाफा होने की संभावना जताई जा रही है। जैन के मुताबिक रैपसीड के उत्पादन में इजाफा होने की वजह से मील के निर्यात बढ़कर करीब दस लाख टन होने की संभावना है। पिछले साल अप्रैल से इस साल फरवरी के दौरान करीब 757,860 टन रैपसीड मील का निर्यात हुआ। (Business Bhaskar)
कर्ज माफी योजना में बड़े किसानों को राहत
न कोई विज्ञप्ति, न कोई सार्वजनिक घोषणा। रिजर्व बैंक ने चुपचाप एक अधिसूचना जारी करके यूपीए सरकार की सर्वाधिक लोकलुभावन किसान कर्ज माफी योजना में नई राहत दे दी है। वह भी उन किसानों को जिनके पास दो हेक्टेयर या पांच एकड़ से ज्यादा जमीन है। कर्ज माफी योजना के तहत इन किसानों को बकाया कर्ज में एकल समायोजन (वन टाइम सेटलमेंट) के तहत 25 फीसदी छूट देने का प्रावधान है, बशर्ते कि ये लोग बाकी 75 फीसदी कर्ज तीन किस्तों में अदा कर देते हैं।पांच एकड़ से ज्यादा जोत वाले इन किसानों को बकाया कर्ज की पहली किस्त 30 सितंबर 2008 तक चुकानी थी। दूसरी किस्त 31 मार्च 2009 तक और तीसरी किस्त 30 जून 2009 तक चुकाई जानी है। हालांकि, रिजर्व बैंक ने दूसरी किस्त की अंतिम तिथि से आठ दिन पहले सोमवार को अधिसूचना जारी करके पहली किस्त को भी अदा करने की तिथि बढ़ाकर 31 मार्च 2009 कर दी है। दिलचस्प बात यह है कि रिजर्व बैंक के मुताबिक तिथि को आगे बढ़ाने का फैसला भारत सरकार का है। 2 मार्च को आम चुनावों की तिथि की घोषणा हो जाने के बाद देश में आचार संहिता लागू हो चुकी है। ऐसे में रिजर्व बैंक या किसी भी सरकारी संस्था की ऐसी घोषणा को आचार संहिता का उल्लंघन माना जाना चाहिए जो आबादी के बड़े हिस्से को नया लाभ पहुंचाती हो। शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत का कहना है कि साढ़े पांच महीने से केंद्र सरकार क्या सोई हुई थी? चुनावों की तिथि घोषित हो जाने के बाद वित्त मंत्रालय की पहल पर की गई यह घोषणा सरासर आचार संहिता का उल्लंघन है। आदित्य बिड़ला समूह के प्रमुख अर्थशास्त्री अजित रानाडे का कहना है कि वैसे तो रिजर्व बैंक एक स्वायत्त संस्था है, लेकिन अधिसूचना में भारत सरकार के फैसले का जिक्र करने के कारण यह यकीकन चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन है। अधिसूचना में कहा है कि समयसीमा केवल 31 मार्च तक बकाया किस्तों के लिए बढ़ाई गई है और तीसरी व अतिम किस्त के लिए निर्धारित 30 जून 2009 की समयसीमा में कोई तब्दीली नहीं की गई है। असल में केंद्र सरकार की कर्ज माफी योजना के तहत पांच एकड़ से कम जमीन वाले लघु व सीमांत किसानों को 31 मार्च 1997 के बाद 31 मार्च 2007 तक वितरित और 31 दिसंबर 2007 को बकाया व 29 फरवरी 2008 तक न चुकाए गए सार बैंक कर्ज माफ कर दिए थे। लेकिन पांच एकड़ से ज्यादा जोत वाले किसानों को कर्ज में 25 फीसदी की राहत दी गई थी। इस कर्ज की रकम की व्याख्या ऐसी है कि इसकी सीमा में ऐसे किसानों के सार कर्ज आ सकते हैं। (Business Bhaskar)
शेयर बाजार में तेजी से सोने और चांदी को लगा झटका
नई दिल्ली : सोने में मंगलवार को 230 रुपये की गिरावट दर्ज की गई और यह 15,300 रुपये प्रति 10 ग्राम पर पहुंच गया। शेयर बाजार में जारी तेजी से निवेशकों ने सोने के बजाय शेयरों का रुख किया। विदेशी बाजारों में सोने के गिरने की वजह से भी सोने में बिकवाली देखने को मिली। लंदन में सोने में 6.97 डॉलर की कमी देखने को मिली और यह 932.53 डॉलर प्रति आउंस तक पहुंच गया, जबकि चांदी 0.8 परसेंट गिरकर 13.59 डॉलर प्रति आउंस पर चली गई। अमेरिकी सरकार द्वारा बैंकों को बेकार संपत्तियों से उबारने के लिए पैकेज की उम्मीदों के मद्देनजर पूरी दुनिया के शेयर बाजारों में तेजी देखने को मिली। शादी और फेस्टिवल सीजन के न होने से घरेलू बाजार में चांदी में भी कमजोरी देखने को मिली। चांदी में 400 रुपये की कमी रही और यह 22,100 रुपये प्रति किलो पर पहुंच गया। जबकि चांदी के सिक्कों में 100 रुपये की गिरावट रही और इसके भाव 28,300 (खरीद)और 28,400 (बिक्री) प्रति सैकड़ा रहे। स्टैंडर्ड गोल्ड और जेवर में 230-230 रुपये की गिरावट रही और ये क्रमश: 15,300 और 15,150 रुपये प्रति 10 ग्राम के भाव पर बंद हुए। (ET Hindi)
चीनी का थोक मूल्य लागत से भी कम, मिलों का बढ़ा गम
नई दिल्ली : भारत में पहली बार चीनी का थोक मूल्य इसकी उत्पादन लागत से कम हो गया है। चीनी की थोक कीमतों में ऐसे वक्त गिरावट आई है जब इसकी घरेलू बाजार में खपत और उत्पादन के बीच भारी अंतर बना हुआ है। साल 2008-09 सीजन में देश में चीनी का उत्पादन करीब 155 लाख टन होने की उम्मीद है जबकि इसकी खपत 220 लाख टन के स्तर पर बनी हुई है। यही नहीं अनुमान के मुताबिक, साल 2009-10 के सीजन में चीनी का उत्पादन 200 लाख टन रहने की उम्मीद है।घरेलू बाजार में चीनी की सप्लाई को ठीक बनाए रखने के लिए सरकार ने इंडस्ट्री को साल 2009-10 के लिए 40 लाख टन कच्ची चीनी के आयात की इजाजत दी है। सरकार ने इसके आयात को सितंबर 2009 तक के लिए बढ़ा भी दिया है। शुगर इंडस्ट्री की मांग है कि रिफाइंड चीनी के री-एक्सपोर्ट के लिए बाध्य किए बिना अतिरिक्त कच्ची चीनी के आयात करने की नीति में बदलाव हो क्योंकि इससे कीमतों में और ज्यादा गिरावट आएगी।साल 2007-08 सीजन में 265 लाख टन चीनी का उत्पादन हुआ था। जबरदस्त उत्पादन की वजह से तब इसकी कीमतें निचले स्तर पर रही थीं। साथ ही अगले साल के लिए बचे हुए स्टॉक की मात्रा भी 80 लाख टन थी। साल 2008-09 चीनी सीजन (अक्टूबर से सितंबर तक) में मांग से सप्लाई पर दबाव बना और इससे चीनी की कीमतें ऊपर चढ़ीं। उत्पादन में कमी और मांग में इजाफे के चलते चीनी की ग्लोबल सप्लाई में 43 लाख टन से लेकर 96 लाख टन तक की कमी रह सकती है। हालांकि, सरकार लोकसभा चुनाव तक चीनी के दाम को काबू में रखना चाहती है। इसी वजह से कच्ची चीनी के शुल्क मुक्त आयात और स्टॉक की सीमा तय की गई है। उत्तरप्रदेश में चीनी की एक्स-फैक्ट्री कीमतें पिछले एक पखवाड़े से 22.50 रुपए प्रति किलो के स्तर पर चल रही हैं। महाराष्ट्र में यह 19 रुपए प्रति किलो है। हालांकि उत्पादन लागत से ज्यादा रकम हासिल करने के लिए चीनी की थोक कीमतें कम से कम 25 रुपए प्रति किलो के स्तर पर होनी चाहिए। देश के कुछ हिस्सों में चीनी की खुदरा कीमतें (थोक मूल्य और रीटेलर के मार्जिन का जोड़) कुछ हफ्ते पहले 29 रुपए प्रति किलो चल रही थीं, जो अभी 24-25 रुपए किलो है। चीनी कंपनियों को लग रहा है कि बाजार में खरीदारों की कमी है और कमोडिटी एक्सचेंजों में इसके भाव के कम होने से साफ संकेत मिल रहा है कि चीनी की मांग स्थिर है और बाजार का सेंटीमेंट काफी खराब है। (ET Hindi)
भारत ने कार्बन क्रेडिट कारोबार में चीन को दी चुनौती
नई दिल्ली : कार्बन क्रेडिट की कीमतों में गिरावट आई है। यूरोपीय औद्योगिक उत्पादन में गिरावट आने की वजह से प्रदूषण कम हुआ है, जिससे कार्बन क्रेडिट की कीमतें भी कम हुई हैं। भारत के लिए सौभाग्य से चीन का कार्बन वायदा बाजार काफी खराब स्थिति में है। इस वजह से खरीदार यहां आकर क्रेडिट के सौदे कर रहे हैं। इस साल दिसंबर कॉन्ट्रैक्ट के लिए भारत में कार्बन क्रेडिट की कीमत 17 यूरो से गिरकर 11.50 यूरो पर आ गई है क्योंकि यूरोप में फैक्ट्रियों और ऊर्जा प्लांटों में उत्पादन कम हुआ है। इस वजह से यूरोप में इन इकाइयों से होने वाले प्रदूषण में कमी आई है जिससे कंपनियों के लिए कार्बन क्रेडिट खरीदने की आवश्यकता भी कम हुई है। खराब ईंधन इस्तेमाल करने वाली विकसित देशों की औद्योगिक इकाइयों को प्रदूषण पैदा करने की तभी इजाजत है जबकि वे भारत और चीन जैसे विकासशील देशों की वातावरण अनुकूल कंपनियों से सर्टिफाइड इमिशन रीडक्शंस (सीईआर) की खरीदारी करें। इन देशों की वातावरण अनुकूल कंपनियों को संयुक्त राष्ट्र के स्वच्छ विकास तंत्र के तहत प्रमाणन दिया जाता है। बाजार के जानकार कहते हैं कि सीईआर बाजार आगे भी स्थिर रहेगा और इसके 19 यूरो के उच्च स्तर को छूने की संभावना कम ही है। मुंबई के एक एनालिस्ट का कहना है, '1 अप्रैल को यूरोपियन यूनियन के उत्सर्जन आंकड़ों के आने के बाद ही बेहतर तस्वीर दिखाई देगी। हालांकि लंबे वक्त के लिए बाजार स्थिर दिखाई दे रहा है क्योंकि अमेरिका अपने इमिशन ट्रेडिंग स्कीम (ईटीएस) को उतार सकता है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण पर कोपनहेगेन में दिसंबर में होने बातचीत पर भी कोई समझौता होने की उम्मीद है।' दूसरी ओर चीन का नुकसान भारत का फायदा बनता जा रहा है। चीन में सीईआर कीमतें सरकार के तय किए आठ यूरो के निम्नतम स्तर से भी नीचे चली गई हैं। एक कारोबारी के मुताबिक, मौजूदा आर्थिक अनिश्चितता भरे माहौल में शायद ही कोई खरीदार वायदा बाजार में जाने का जोखिम लेगा। एक एनालिस्ट के मुताबिक, 'वायदा कॉन्ट्रैक्ट में जाने की बजाय खरीदार भारत के हाजिर बाजार से सीईआर खरीदना पसंद करेंगे। हालांकि भारत के हाजिर बाजार में सीईआर की कीमतें ज्यादा हैं लेकिन इसमें जोखिम काफी कम है।' बाजार के जानकारों का मानना है कि इस वक्त सभी भारतीय सीईआर उत्पादकों को खरीदार मिल जाएंगे क्योंकि इनकी हाजिर बाजार में अच्छी मांग चल रही है। हालांकि, हकीकत यह है कि भारत के अभी भी बडे़ तौर पर हाजिर बाजार बने रहने से केवल अस्थायी फायदा हो सकता है। भारत और चीन दोनों में ही ज्यादातर बड़ी परियोजनाएं अभी जारी हैं। (ET Hindi)
जमाखोरों ने 100 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ाईं उप्र में आलू की कीमतें
कानपुर March 25, 2009
मध्य उत्तर प्रदेश में आलू की कीमतें मॉनसून की अनिश्चितताओं के रिकॉर्ड के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही है।
पिछले साल आलू की अधिकता के कारण हजारों किसान कई टन आलू खेतों में फेंकने के लिए बाध्य थे और अब पिछले पखवाड़े से कीमतों में बढ़ोतरी होती देखी जा रही है।
पिछले साल जो कीमतें 200 रुपये प्रति क्विंटल से ऊपर नहीं बढ़ पाई थीं वही अब इसमें सौ फीसदी से अधिक की बढ़ोतरी देखी जा रही है और कटाई शुरू के सीजन में यह 500 रुपये प्रति क्विंटल के स्तर को छू रही है। खुदरा बाजार में आलू की कीमत 900 रुपये प्रति क्विंटल तक है।
कन्नौज, इटावा और फर्रूखाबाद के आलू किसानों ने पीक सीजन के दौरान आलू की प्रचुरता से बचने के उपाय के तौर पर परिपक्वता से पहले ही फसल की कटाई कर ली है। चंद्रशेखर कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आर पी कटियार ने समझाते हुए कहा, 'लगभग 35 प्रतिशत किसानों ने सामान्य समय से पहले ही कटाई जनवरी में ही कर ली है जिससे अब आपूर्ति में कमी देखी जा रही है।' लेकिन कीमतों में बढ़ोतरी की यही एकमात्र वजह नहीं है।
थोक व्यापारियों के मुताबिक, उनमें से कुछेक ने कोल्ड स्टोरेज में बड़े परिमाण में आलू का भंडारण कर लिया है और ज्यादा लाभ कमाने की आशा में वे फिलहाल बाजार में आलू लाने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। एक स्थानीय व्यापारी ने नाम न छापने की शर्त पर इसे सही ठहराते हुए कहा, 'अगर एक व्यापारी भंडारण नहीं करेगा तो कमाएगा क्या?'
कानपुर थोक विक्रेता संघ के अध्यक्ष ज्ञानेश मिश्र के अनुसार, किसान मध्य प्रदेश और बिहार के बाजारों में अपने उत्पाद बेचने को तरजीह देते हैं जहां कीमतें स्थानीय बाजारों की तुलना में अधिक है। इससे घरेलू बाजार में आलू की कमी हो जाती है। उन्होंने कहा कि इस सीजन में पश्चिम बंगाल में पैदावार कम होने से भी आलू की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है।
उन्होंने कहा, 'ऐसा पहली बार हुआ है कि बंगाल के व्यापारियों ने अपने राज्य के लिए आलू खरीदने के लिए फर्रूखाबाद का रुख किया है। कोल्ड स्टोरेज के मालिक सीधे-साीधे भारी परिमाण में आलू की खरीदारी कर रहे हैं।'
आलू कारोबारी संघ के सचिव सन्नू गंगवार कहते हैं कि व्यापारी गांव-गांव जाकर सीधे खेतों से आलू खरीद रहे हैं क्योंकि वहां कीमतें अपेक्षाकृत कम होती हैं। ऐसा लगता है कि कोल्ड स्टोरेज के मालिक पिछले साल हुई हानि की भरपाई आलू की जमाखोरी के जरिए करने का निर्णय किया है जबकि प्रशासन चुनाव की व्यवस्था करने में व्यस्त है।
भारतीय किसान यूनियन के सचिव रमेश सिंह कहते हैं कि कीमतें बढ़ने के बावजूद किसानों को लाभ नहीं मिल रहा है क्योंकि कारोबारी और बिचौलिए उपभोक्ताओं और किसानों की कीमत पर भारी लाभ कमा रहे हैं। उन्होंने कहा, 'अभी भी परेशान किसान अपने उत्पदों को उपलब्घ कीमतों पर बेचने का सहारा ले रहे हैं ताकि बाद में कीमतों में होने वाली गिरावट से बचा जा सके।' (BS HIndi)
मध्य उत्तर प्रदेश में आलू की कीमतें मॉनसून की अनिश्चितताओं के रिकॉर्ड के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही है।
पिछले साल आलू की अधिकता के कारण हजारों किसान कई टन आलू खेतों में फेंकने के लिए बाध्य थे और अब पिछले पखवाड़े से कीमतों में बढ़ोतरी होती देखी जा रही है।
पिछले साल जो कीमतें 200 रुपये प्रति क्विंटल से ऊपर नहीं बढ़ पाई थीं वही अब इसमें सौ फीसदी से अधिक की बढ़ोतरी देखी जा रही है और कटाई शुरू के सीजन में यह 500 रुपये प्रति क्विंटल के स्तर को छू रही है। खुदरा बाजार में आलू की कीमत 900 रुपये प्रति क्विंटल तक है।
कन्नौज, इटावा और फर्रूखाबाद के आलू किसानों ने पीक सीजन के दौरान आलू की प्रचुरता से बचने के उपाय के तौर पर परिपक्वता से पहले ही फसल की कटाई कर ली है। चंद्रशेखर कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आर पी कटियार ने समझाते हुए कहा, 'लगभग 35 प्रतिशत किसानों ने सामान्य समय से पहले ही कटाई जनवरी में ही कर ली है जिससे अब आपूर्ति में कमी देखी जा रही है।' लेकिन कीमतों में बढ़ोतरी की यही एकमात्र वजह नहीं है।
थोक व्यापारियों के मुताबिक, उनमें से कुछेक ने कोल्ड स्टोरेज में बड़े परिमाण में आलू का भंडारण कर लिया है और ज्यादा लाभ कमाने की आशा में वे फिलहाल बाजार में आलू लाने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। एक स्थानीय व्यापारी ने नाम न छापने की शर्त पर इसे सही ठहराते हुए कहा, 'अगर एक व्यापारी भंडारण नहीं करेगा तो कमाएगा क्या?'
कानपुर थोक विक्रेता संघ के अध्यक्ष ज्ञानेश मिश्र के अनुसार, किसान मध्य प्रदेश और बिहार के बाजारों में अपने उत्पाद बेचने को तरजीह देते हैं जहां कीमतें स्थानीय बाजारों की तुलना में अधिक है। इससे घरेलू बाजार में आलू की कमी हो जाती है। उन्होंने कहा कि इस सीजन में पश्चिम बंगाल में पैदावार कम होने से भी आलू की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है।
उन्होंने कहा, 'ऐसा पहली बार हुआ है कि बंगाल के व्यापारियों ने अपने राज्य के लिए आलू खरीदने के लिए फर्रूखाबाद का रुख किया है। कोल्ड स्टोरेज के मालिक सीधे-साीधे भारी परिमाण में आलू की खरीदारी कर रहे हैं।'
आलू कारोबारी संघ के सचिव सन्नू गंगवार कहते हैं कि व्यापारी गांव-गांव जाकर सीधे खेतों से आलू खरीद रहे हैं क्योंकि वहां कीमतें अपेक्षाकृत कम होती हैं। ऐसा लगता है कि कोल्ड स्टोरेज के मालिक पिछले साल हुई हानि की भरपाई आलू की जमाखोरी के जरिए करने का निर्णय किया है जबकि प्रशासन चुनाव की व्यवस्था करने में व्यस्त है।
भारतीय किसान यूनियन के सचिव रमेश सिंह कहते हैं कि कीमतें बढ़ने के बावजूद किसानों को लाभ नहीं मिल रहा है क्योंकि कारोबारी और बिचौलिए उपभोक्ताओं और किसानों की कीमत पर भारी लाभ कमा रहे हैं। उन्होंने कहा, 'अभी भी परेशान किसान अपने उत्पदों को उपलब्घ कीमतों पर बेचने का सहारा ले रहे हैं ताकि बाद में कीमतों में होने वाली गिरावट से बचा जा सके।' (BS HIndi)
टायर निर्माताओं की रबर के बाजार में वापसी
कोच्चि 03 23, 2009
पिछले कुछ महीनों से ऑटोमोबाइल की बिक्री में इजाफा होने का असर टायर बाजार पर भी पड़ा है। टायर की मांग बढ़ने से टायर निर्माताओं को प्राकृतिक रबर के बाजार का रुख करना पड़ रहा है।
कुछ दिनों से प्राकृतिक रबर की कीमतों में स्थिरता थी और टायर निर्माताओं द्वारा खरीदारी भी कम की जाती थी। लेकिन कीमतों में अचानक से तेजी आने से स्टॉकिस्टों और टायर निर्माताओं को इस बाजार में सक्रिय होने के लिए मजबूर होना पड़ा। मांग और कीमतों में अचानक बढ़ोतरी होने से प्राकृतिक रबर की खेती करने वाले किसानों के चेहरे पर रौनक देखते ही बन रही है।
रबर की एक किस्म आरएसएस-4 की कीमत 78.50 प्रति किलोग्राम है जो एक हफ्ते पहले की कीमत के मुकाबले 4 रुपये प्रति किलो ज्यादा है। वैश्विक प्राकृतिक रबर बाजार खासकर टोक्यो में बढ़ती कीमतों से स्थानीय बाजार की कीमतों में भी बढ़ोतरी हो रही है। बाजार की बदली हुई परिस्थितियों में टायर निर्माण सेक्टर बाजार में बहुत सक्रि य है और यह 78.50 रुपये कीमत पर सहमत होने की कवायद में भी दिख रहा है।
प्राकृतिक रबर के बड़े डीलरों के मुताबिक ज्यादातर प्रतिभागियों को यह उम्मीद थी कि बाजार में कारोबार मंदा जरूर रहेगा और यह 72-73 रुपये के दायरे में होता रहेगा। लेकिन अचानक कीमतों में बढ़ोतरी होने से उनके भंडारण की स्थिति भी असंतुलित हो गई है। ज्यादातर स्टॉकिस्ट अब रबर की खरीद के लिए बाध्य हैं ताकि आपूर्ति को बरकरार रखा जाए।
पिछले कुछ हफ्ते से टायर इंडस्ट्री का प्रदर्शन भी बेहतर है इसकी वजह यह है कि यात्री वाहन सेगमेंट में बिक्री में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। खासतौर पर कार की बिक्री में बहुत बढ़ोतरी हुई है। ऑटोमोटिव टायर मैन्यूफैक्चर्स एसोसिएशन (एटीएमए) के सूत्रों के मुताबिक भारी वाहनों के सेगमेंट में बस के टायरों की बिक्री में सुधार आया है। लेकिन ट्रक टायर की बिक्री में अब भी कोई सुधार नहीं है।
ओई सेगमेंट में टायर की बिक्री में इजाफा हुआ है जिस पर इस साल के जनवरी महीने तक इसमें बहुत बुरा असर दिखा था। ओई सेगमेंट की बिक्री में सकारात्मक बदलाव की वजह से निर्माताओं को अपने भंडारण में इजाफा करने के लिए ज्यादा रबर खरीद की जरूरत पड़ने लगी।
इस बीच जब कीमतें 70 रुपये प्रति किलोग्राम के नीचे आ गई थीं तब किसानों ने अपने उत्पाद को जनवरी और फरवरी के महीने में बाजार में देने से हिचकने लगे थे। जनवरी, फरवरी और मार्च महीने में उत्पादन कम होने की वजह से भी किसानों पर मार पड़ी। इसी वजह से टर्मिनल बाजार में प्राकृतिक रबर की आपूर्ति बड़ी मशक्कत से होने लगी। इस साल जनवरी में उत्पादन में 9 फीसदी की गिरावट आई और यह 103,515 टन से कम होकर 94,000 टन हो गया।
फरवरी महीने में उत्पादन पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 78,095 टन से कम होकर 54,520 टन हो गया। वर्ष 2008 दिसंबर में उत्पादन 15,530 टन कम होकर 96,200 टन हो गया। मार्च में कुल उत्पादन लगभग 50,000 टन होने की उम्मीद है।
इसी वजह से दिसंबर 2008 और मार्च 2009 में उत्पादन में 5-6 फीसदी की कमी आई। उत्पादन में कमी आने के बावजूद आपूर्ति में कोई कमी नजर नहीं आई क्योंकि मांग भी बहुत कम थी। इस साल 9 फरवरी तक प्राकृतिक रबर का भंडार 224,600 टन था जबकि फरवरी 2008 में यह198,000 टन था।
डीलरों ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि किसान खासतौर पर धनी किसान अपने उत्पाद को सस्ती कीमत पर बेचने के लिए तैयार नहीं थे। इसी वजह से बाजार में अचानक आई मांग से कीमतों में तुरंत बढ़ोतरी हो गई। कोट्टयम के बड़े डीलर को उम्मीद है कि कुछ दिनों के अंदर ही प्राकृतिक रबर की कीमत 80 रुपये प्रति किलोग्राम तक भी पहुंच सकती है।
वैसे कीमतों में तेजी का यह दौर बहुत लंबे समय तक नहीं चल सकता है क्योंकि ज्यादातर खेतिहर इलाकों में टैपिंग की प्रक्रिया जारी है। केरल के ज्यादातर हिस्सों में पिछले कुछ हफ्ते से बारिश हो रही है और यह रबर की टैपिंग के लिए यह बेहतर समय है। ऐसे में रबर अगले 10-12 दिनों में आ जाएगा।
मई महीने से उत्पादन का दूसरा सीजन शुरू होगा उसके बाद अक्टूबर में मुख्य उत्पादन सीजन होगा। इसी वजह से डीलरों की मानें तो मौजूदा आपूर्ति में कमी उतनी ज्यादा गंभीर समस्या नहीं है। उनके मुताबिक कीमतों में यह तेजी 15-20 दिनों तक जारी रहेगी।
बदल रही है फिजां
यात्री वाहन सेगमेंट में बिक्री में बढ़ोतरी हुई, टायर की मांग बढ़ीमांग बढ़ने से टायर निर्माताओं को प्राकृतिक रबर के बाजार का रुख करना पड़ाएक हफ्ते पहले की तुलना में रबर की कीमतों में 4 रुपये प्रति किलो की बढ़ोतरी दर्ज की गई (BS Hindi)
पिछले कुछ महीनों से ऑटोमोबाइल की बिक्री में इजाफा होने का असर टायर बाजार पर भी पड़ा है। टायर की मांग बढ़ने से टायर निर्माताओं को प्राकृतिक रबर के बाजार का रुख करना पड़ रहा है।
कुछ दिनों से प्राकृतिक रबर की कीमतों में स्थिरता थी और टायर निर्माताओं द्वारा खरीदारी भी कम की जाती थी। लेकिन कीमतों में अचानक से तेजी आने से स्टॉकिस्टों और टायर निर्माताओं को इस बाजार में सक्रिय होने के लिए मजबूर होना पड़ा। मांग और कीमतों में अचानक बढ़ोतरी होने से प्राकृतिक रबर की खेती करने वाले किसानों के चेहरे पर रौनक देखते ही बन रही है।
रबर की एक किस्म आरएसएस-4 की कीमत 78.50 प्रति किलोग्राम है जो एक हफ्ते पहले की कीमत के मुकाबले 4 रुपये प्रति किलो ज्यादा है। वैश्विक प्राकृतिक रबर बाजार खासकर टोक्यो में बढ़ती कीमतों से स्थानीय बाजार की कीमतों में भी बढ़ोतरी हो रही है। बाजार की बदली हुई परिस्थितियों में टायर निर्माण सेक्टर बाजार में बहुत सक्रि य है और यह 78.50 रुपये कीमत पर सहमत होने की कवायद में भी दिख रहा है।
प्राकृतिक रबर के बड़े डीलरों के मुताबिक ज्यादातर प्रतिभागियों को यह उम्मीद थी कि बाजार में कारोबार मंदा जरूर रहेगा और यह 72-73 रुपये के दायरे में होता रहेगा। लेकिन अचानक कीमतों में बढ़ोतरी होने से उनके भंडारण की स्थिति भी असंतुलित हो गई है। ज्यादातर स्टॉकिस्ट अब रबर की खरीद के लिए बाध्य हैं ताकि आपूर्ति को बरकरार रखा जाए।
पिछले कुछ हफ्ते से टायर इंडस्ट्री का प्रदर्शन भी बेहतर है इसकी वजह यह है कि यात्री वाहन सेगमेंट में बिक्री में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। खासतौर पर कार की बिक्री में बहुत बढ़ोतरी हुई है। ऑटोमोटिव टायर मैन्यूफैक्चर्स एसोसिएशन (एटीएमए) के सूत्रों के मुताबिक भारी वाहनों के सेगमेंट में बस के टायरों की बिक्री में सुधार आया है। लेकिन ट्रक टायर की बिक्री में अब भी कोई सुधार नहीं है।
ओई सेगमेंट में टायर की बिक्री में इजाफा हुआ है जिस पर इस साल के जनवरी महीने तक इसमें बहुत बुरा असर दिखा था। ओई सेगमेंट की बिक्री में सकारात्मक बदलाव की वजह से निर्माताओं को अपने भंडारण में इजाफा करने के लिए ज्यादा रबर खरीद की जरूरत पड़ने लगी।
इस बीच जब कीमतें 70 रुपये प्रति किलोग्राम के नीचे आ गई थीं तब किसानों ने अपने उत्पाद को जनवरी और फरवरी के महीने में बाजार में देने से हिचकने लगे थे। जनवरी, फरवरी और मार्च महीने में उत्पादन कम होने की वजह से भी किसानों पर मार पड़ी। इसी वजह से टर्मिनल बाजार में प्राकृतिक रबर की आपूर्ति बड़ी मशक्कत से होने लगी। इस साल जनवरी में उत्पादन में 9 फीसदी की गिरावट आई और यह 103,515 टन से कम होकर 94,000 टन हो गया।
फरवरी महीने में उत्पादन पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 78,095 टन से कम होकर 54,520 टन हो गया। वर्ष 2008 दिसंबर में उत्पादन 15,530 टन कम होकर 96,200 टन हो गया। मार्च में कुल उत्पादन लगभग 50,000 टन होने की उम्मीद है।
इसी वजह से दिसंबर 2008 और मार्च 2009 में उत्पादन में 5-6 फीसदी की कमी आई। उत्पादन में कमी आने के बावजूद आपूर्ति में कोई कमी नजर नहीं आई क्योंकि मांग भी बहुत कम थी। इस साल 9 फरवरी तक प्राकृतिक रबर का भंडार 224,600 टन था जबकि फरवरी 2008 में यह198,000 टन था।
डीलरों ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि किसान खासतौर पर धनी किसान अपने उत्पाद को सस्ती कीमत पर बेचने के लिए तैयार नहीं थे। इसी वजह से बाजार में अचानक आई मांग से कीमतों में तुरंत बढ़ोतरी हो गई। कोट्टयम के बड़े डीलर को उम्मीद है कि कुछ दिनों के अंदर ही प्राकृतिक रबर की कीमत 80 रुपये प्रति किलोग्राम तक भी पहुंच सकती है।
वैसे कीमतों में तेजी का यह दौर बहुत लंबे समय तक नहीं चल सकता है क्योंकि ज्यादातर खेतिहर इलाकों में टैपिंग की प्रक्रिया जारी है। केरल के ज्यादातर हिस्सों में पिछले कुछ हफ्ते से बारिश हो रही है और यह रबर की टैपिंग के लिए यह बेहतर समय है। ऐसे में रबर अगले 10-12 दिनों में आ जाएगा।
मई महीने से उत्पादन का दूसरा सीजन शुरू होगा उसके बाद अक्टूबर में मुख्य उत्पादन सीजन होगा। इसी वजह से डीलरों की मानें तो मौजूदा आपूर्ति में कमी उतनी ज्यादा गंभीर समस्या नहीं है। उनके मुताबिक कीमतों में यह तेजी 15-20 दिनों तक जारी रहेगी।
बदल रही है फिजां
यात्री वाहन सेगमेंट में बिक्री में बढ़ोतरी हुई, टायर की मांग बढ़ीमांग बढ़ने से टायर निर्माताओं को प्राकृतिक रबर के बाजार का रुख करना पड़ाएक हफ्ते पहले की तुलना में रबर की कीमतों में 4 रुपये प्रति किलो की बढ़ोतरी दर्ज की गई (BS Hindi)
एल्युमीनियम उत्पादन में हो सकती है कटौती
मुंबई 03 23, 2009
भारत की सबसे बड़ी एल्युमीनियम उत्पादक और निर्यातक नैशनल एल्युमीनियम कंपनी अपने उत्पादन में कटौती करने की योजना बना रही है।
इसकी वजह यह है कि एल्युमीनियम की मांग में कमी आ रही है और इसका भंडार जमा होता जा रहा है। वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्र की इस बड़ी कंपनी के पास 20,000 टन का बड़ा भंडार जमा हो गया है, जबकि सामान्य तौर पर कंपनी के पास 5,000 टन माल होता है।
कंपनी में कार्यरत एक आला अधिकारी ने नाम न दिए जाने की शर्त पर कहा कि हम योजना बना रहे हैं कि अगर भंडार 30,000 टन पर पहुंच जाता है तो उत्पादन में कटौती करना शुरू कर देंगे। वहीं विश्लेषकों का कहना है कि मार्च के अंत तक कुल भंडार 25,000 टन पहुंच जाएगा।
जुलाई 2008 में लंदन मेटल एक्सचेंज में एल्युमीनियम की कीमतें 3,271 डॉलर प्रति टन के उच्चतम स्तर पर पहुंच गईं। उसके बाद इसकी कीमतों में 67 प्रतिशत की गिरावट आई और फरवरी 2009 में इसकी कीमतें 1251 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गईं, क्योंकि मंदी के चलते नकदी का संकट खड़ा हो गया।
इस गिरावट की वजह से एल्युमीनियम का उत्पादन करने वाली कंपनियों, जिसमें वेदांत समूह की भारत एल्युमीनियम कंपनी (बाल्को) भी शामिल है, को अपना उत्पादन कम करना पड़ा क्योंकि हाजिर बाजार में कीमतें उत्पादन लागत से भी कम हो गईं।
प्राथमिक एल्युमीनियम का उत्पादन करने वाली सरकार की मालिकाना वाली कंपनियों ने बहरहाल उत्पादन में कोई कटौती नहीं की। लंबी अवधि के सौदों के माध्यम से कंपनी अपने उत्पादन का 60 प्रतिशत बिक्री करती रही और कीमतें 2000 डॉलर प्रति टन के हिसाब से मिलीं, जबकि शेष उत्पादन को गोदामों में रखना पड़ गया।
वैश्विक उत्पादन को देखें तो इस समय एल्युमीनियम के भंडारण का संकट खड़ा हो गया है। लंदन मेटल एक्सचेंज में गोदामों में अब तक का सर्वाधिक माल जमा हो गया है। इस समय कुल 34.5 लाख टन का भंडारण है, जबकि 2008 में औसत भंडार 12 लाख टन का था।
मुंबई की ब्रोकरेज फर्म केआर चौक्सी शेयर्स से जुड़े विश्लेषक विपुल शाह का कहना है कि हमें उम्मीद है कि एल्युमीनियम की कीमतें कम बनी रहेंगी। उत्पादन लागत के करीब कीमतें अगले 6 से 9 महीनों तक रहेंगी। उन्होंने कहा कि एल्युमीनियम निकट भविष्य में फीका ही नजर आ रहा है।
फरवरी में हुए एक कांफ्रेंस में नाल्को ने कहा था कि उसकी उत्पादन लागत करीब 1,500 डॉलर प्रति टन है, वहीं कंपनी का वार्षिक उत्पादन करीब 3,50,000 टन है। शुक्रवार को एल्युमीनियम की कीमतें लंदन मेटल एक्सचेंज में 1,423 डॉलर प्रति टन रहीं।
शाह ने कहा कि उत्पादन में कटौती से कंपनी का मुनाफा कम होगा। एक विश्लेषक के मुताबिक संयंत्र के रखरखाव के खर्च में कमी करके उत्पादन लागत में 10-15 प्रतिशत की कमी की जा सकती है। 31 दिसंबर के अंत तक के 9 महीनों में कंपनी का राजस्व 4,374 करोड़ रुपया था।
पिछले साल की समान अवधि की तुलना में इसमें 11 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई थी। यह मुनाफा 1189 करोड़ रुपये कर दिए जाने के बाद एक साल पहले की तुलना में 2 प्रतिशत कम हुआ है। (BS HIndi)
भारत की सबसे बड़ी एल्युमीनियम उत्पादक और निर्यातक नैशनल एल्युमीनियम कंपनी अपने उत्पादन में कटौती करने की योजना बना रही है।
इसकी वजह यह है कि एल्युमीनियम की मांग में कमी आ रही है और इसका भंडार जमा होता जा रहा है। वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्र की इस बड़ी कंपनी के पास 20,000 टन का बड़ा भंडार जमा हो गया है, जबकि सामान्य तौर पर कंपनी के पास 5,000 टन माल होता है।
कंपनी में कार्यरत एक आला अधिकारी ने नाम न दिए जाने की शर्त पर कहा कि हम योजना बना रहे हैं कि अगर भंडार 30,000 टन पर पहुंच जाता है तो उत्पादन में कटौती करना शुरू कर देंगे। वहीं विश्लेषकों का कहना है कि मार्च के अंत तक कुल भंडार 25,000 टन पहुंच जाएगा।
जुलाई 2008 में लंदन मेटल एक्सचेंज में एल्युमीनियम की कीमतें 3,271 डॉलर प्रति टन के उच्चतम स्तर पर पहुंच गईं। उसके बाद इसकी कीमतों में 67 प्रतिशत की गिरावट आई और फरवरी 2009 में इसकी कीमतें 1251 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गईं, क्योंकि मंदी के चलते नकदी का संकट खड़ा हो गया।
इस गिरावट की वजह से एल्युमीनियम का उत्पादन करने वाली कंपनियों, जिसमें वेदांत समूह की भारत एल्युमीनियम कंपनी (बाल्को) भी शामिल है, को अपना उत्पादन कम करना पड़ा क्योंकि हाजिर बाजार में कीमतें उत्पादन लागत से भी कम हो गईं।
प्राथमिक एल्युमीनियम का उत्पादन करने वाली सरकार की मालिकाना वाली कंपनियों ने बहरहाल उत्पादन में कोई कटौती नहीं की। लंबी अवधि के सौदों के माध्यम से कंपनी अपने उत्पादन का 60 प्रतिशत बिक्री करती रही और कीमतें 2000 डॉलर प्रति टन के हिसाब से मिलीं, जबकि शेष उत्पादन को गोदामों में रखना पड़ गया।
वैश्विक उत्पादन को देखें तो इस समय एल्युमीनियम के भंडारण का संकट खड़ा हो गया है। लंदन मेटल एक्सचेंज में गोदामों में अब तक का सर्वाधिक माल जमा हो गया है। इस समय कुल 34.5 लाख टन का भंडारण है, जबकि 2008 में औसत भंडार 12 लाख टन का था।
मुंबई की ब्रोकरेज फर्म केआर चौक्सी शेयर्स से जुड़े विश्लेषक विपुल शाह का कहना है कि हमें उम्मीद है कि एल्युमीनियम की कीमतें कम बनी रहेंगी। उत्पादन लागत के करीब कीमतें अगले 6 से 9 महीनों तक रहेंगी। उन्होंने कहा कि एल्युमीनियम निकट भविष्य में फीका ही नजर आ रहा है।
फरवरी में हुए एक कांफ्रेंस में नाल्को ने कहा था कि उसकी उत्पादन लागत करीब 1,500 डॉलर प्रति टन है, वहीं कंपनी का वार्षिक उत्पादन करीब 3,50,000 टन है। शुक्रवार को एल्युमीनियम की कीमतें लंदन मेटल एक्सचेंज में 1,423 डॉलर प्रति टन रहीं।
शाह ने कहा कि उत्पादन में कटौती से कंपनी का मुनाफा कम होगा। एक विश्लेषक के मुताबिक संयंत्र के रखरखाव के खर्च में कमी करके उत्पादन लागत में 10-15 प्रतिशत की कमी की जा सकती है। 31 दिसंबर के अंत तक के 9 महीनों में कंपनी का राजस्व 4,374 करोड़ रुपया था।
पिछले साल की समान अवधि की तुलना में इसमें 11 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई थी। यह मुनाफा 1189 करोड़ रुपये कर दिए जाने के बाद एक साल पहले की तुलना में 2 प्रतिशत कम हुआ है। (BS HIndi)
चीनी आयात शुल्क समाप्ति का इस्मा ने किया विरोध
नई दिल्ली 03 23, 2009
सरकार द्वारा सफेद चीनी के शुल्क रहित आयात की अनुमति देने का घरेलू चीनी उद्योग ने भारतीय चीनी मिल संघ (इस्मा) के जरिये सख्त विरोध किया है।
इस्मा के अनुसार, सरकार के इस कदम से चीनी की कीमतें कम होंगी जिससे गन्ने की कीमत चुकाने की उद्योग की क्षमता प्रभावित होगी। घरेलू बाजार में चीनी की बढ़ती कीमतों के मद्देनजर सरकार रिफाइंड चीनी पर लगने वाला आयात शुल्क 60 प्रतिशत से घटा कर शून्य करने पर विचार कर रही है।
उत्पादन में कमी की आशंकाओं से चीनी की खुदरा कीमतें लगभग 30 प्रतिशत बढ़ कर 26 रुपये प्रति किलोग्राम हो गई हैं। इस्मा के अनुसार, साल 2008-09 सीजन में चीनी उत्पादन चार वर्षों में सबसे कम, 155 लाख टन होने का अनुमान है जो पिछले सीजन के उत्पादन की तुलना में 45 प्रतिशत कम है।
हालांकि, 80 लाख टन के पिछले भंडार और 15 लाख टन चीनी के आयात के साथ ही इस सीजन में चीनी की कुल उपलब्धता 250 लाख टन की होगी जबकि खपत 225 लाख टन होने का अनुमान है।
बलरामपुर चीनी मिल्स और इस्मा के उपाध्यक्ष विवेक सरावगी ने कहा, 'शून्य शुल्क पर कच्ची चीनी का किया गया आयात ब्राजील के किसानों के लिए राहत की बात होगी। अगर ऐसा होता है तो भारतीय किसान बुरी तरह प्रभावित होंगे। इसके अलावा, घरेलू खपत के लिए पर्याप्त चीनी उपलब्ध है। '
कच्चे तेल की कीमतों में नरमी के बाद ब्राजील गन्ने का इस्तेमाल एथेनॉल की जगह चीनी उत्पादन में कर सकता है। परिणामस्वरूप उत्पादन बढ़ेगा। इस्मा के अध्यक्ष समीर सोमैया ने कहा कि इससे अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर दबाव बढ़ेगा।
उन्होंने कहा, 'मूल्य नियंत्रण से केवल थोक उपभोक्ताओं जैसे खाद्य प्रसंस्करण करने वालों और मिठाई बनाने वालों को लाभ होगा।' केपीएमजी के एक अध्ययन में पाया गया कि घरेलू खपत में इन संस्थागत खरीदारों की हिस्सेदारी लगभग 70 प्रतिशत की है।
गन्ने की कीमतों के साथ ही चीनी की कीमतों में भी बढ़ोतरी हुई है। सोमैया ने कहा, 'हम चीनी की कीमतों को गन्ने की कीमतों से अलग नहीं कर सकते।' देश के दूसरे सबसे बड़े उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश में गन्ने की कीमतें 15 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ा कर 140 रुपये कर दी गई थी।
बढ़ती कीमतों को देखते हुए सरकार ने कच्ची चीनी के आयात नियमों में छूट के साथ चीनी की भंडार सीमा पर निर्णय लेने पर विवश किया। निर्यात पर दी जाने वाली माल भाड़ा सहायता भी हटा ली गई। थोक मूल्य सूचकांक में चीनी की हिस्सेदारी 3.62 प्रतिशत की है।
इस्मा के अधिकारियों ने बताया कि भंडार सीमा की घोषणा के बाद चीनी की की कीमतों (एक्स-फैक्ट्री) में 150 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आई है। (BS Hindi)
सरकार द्वारा सफेद चीनी के शुल्क रहित आयात की अनुमति देने का घरेलू चीनी उद्योग ने भारतीय चीनी मिल संघ (इस्मा) के जरिये सख्त विरोध किया है।
इस्मा के अनुसार, सरकार के इस कदम से चीनी की कीमतें कम होंगी जिससे गन्ने की कीमत चुकाने की उद्योग की क्षमता प्रभावित होगी। घरेलू बाजार में चीनी की बढ़ती कीमतों के मद्देनजर सरकार रिफाइंड चीनी पर लगने वाला आयात शुल्क 60 प्रतिशत से घटा कर शून्य करने पर विचार कर रही है।
उत्पादन में कमी की आशंकाओं से चीनी की खुदरा कीमतें लगभग 30 प्रतिशत बढ़ कर 26 रुपये प्रति किलोग्राम हो गई हैं। इस्मा के अनुसार, साल 2008-09 सीजन में चीनी उत्पादन चार वर्षों में सबसे कम, 155 लाख टन होने का अनुमान है जो पिछले सीजन के उत्पादन की तुलना में 45 प्रतिशत कम है।
हालांकि, 80 लाख टन के पिछले भंडार और 15 लाख टन चीनी के आयात के साथ ही इस सीजन में चीनी की कुल उपलब्धता 250 लाख टन की होगी जबकि खपत 225 लाख टन होने का अनुमान है।
बलरामपुर चीनी मिल्स और इस्मा के उपाध्यक्ष विवेक सरावगी ने कहा, 'शून्य शुल्क पर कच्ची चीनी का किया गया आयात ब्राजील के किसानों के लिए राहत की बात होगी। अगर ऐसा होता है तो भारतीय किसान बुरी तरह प्रभावित होंगे। इसके अलावा, घरेलू खपत के लिए पर्याप्त चीनी उपलब्ध है। '
कच्चे तेल की कीमतों में नरमी के बाद ब्राजील गन्ने का इस्तेमाल एथेनॉल की जगह चीनी उत्पादन में कर सकता है। परिणामस्वरूप उत्पादन बढ़ेगा। इस्मा के अध्यक्ष समीर सोमैया ने कहा कि इससे अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर दबाव बढ़ेगा।
उन्होंने कहा, 'मूल्य नियंत्रण से केवल थोक उपभोक्ताओं जैसे खाद्य प्रसंस्करण करने वालों और मिठाई बनाने वालों को लाभ होगा।' केपीएमजी के एक अध्ययन में पाया गया कि घरेलू खपत में इन संस्थागत खरीदारों की हिस्सेदारी लगभग 70 प्रतिशत की है।
गन्ने की कीमतों के साथ ही चीनी की कीमतों में भी बढ़ोतरी हुई है। सोमैया ने कहा, 'हम चीनी की कीमतों को गन्ने की कीमतों से अलग नहीं कर सकते।' देश के दूसरे सबसे बड़े उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश में गन्ने की कीमतें 15 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ा कर 140 रुपये कर दी गई थी।
बढ़ती कीमतों को देखते हुए सरकार ने कच्ची चीनी के आयात नियमों में छूट के साथ चीनी की भंडार सीमा पर निर्णय लेने पर विवश किया। निर्यात पर दी जाने वाली माल भाड़ा सहायता भी हटा ली गई। थोक मूल्य सूचकांक में चीनी की हिस्सेदारी 3.62 प्रतिशत की है।
इस्मा के अधिकारियों ने बताया कि भंडार सीमा की घोषणा के बाद चीनी की की कीमतों (एक्स-फैक्ट्री) में 150 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आई है। (BS Hindi)
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