देश में
दूध की कीमतें पिछले करीब दो साल से लगातार दहाई की रफ्तार से बढ़ रही
हैं। महंगाई दर के ताजा आंकड़े में भी इसमें 14.5 फीसदी से अधिक दर से
बढ़ोतरी दर्ज की गई।
लेकिन यह अधूरा सच है क्योंकि सरकार यह नहीं बताना चाहती कि जब कीमतें घट सकती थीं तो उनमें लगातार बढ़ोतरी क्यों हुर्इं? यही नहीं अब जब दूध उत्पादन का लीन सीजन (कम उत्पादन की अवधि) शुरू हो गया है तो सरकार कीमत बढ़ाने का माहौल बना रही है।
दिलचस्प बात यह है कि देश में इस साल दूध उत्पादन में करीब चार फीसदी की बढ़ोतरी हुई। इसके चलते निजी और सहकारी संस्थाओं की खरीद में 20 पीसदी तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इसके बावजूद कीमत लगातार बढ़ती गई।
कीमत में बढ़ोतरी तब होती है जब किसी वस्तु की उपलब्धता में गिरावट आ रही हो और उसकी मांग तेजी से बढ़ रही हो। बात बहुत सामान्य है लेकिन आपूर्ति को नाटकीय तरीके से कम भी तो किया जा सकता है और दूध के मामले में यही हुआ है। यही वह सच है जो सरकार लोगों को बताना नहीं चाहती है। उल्टे करदाताओं की गाढ़ी कमाई की सब्सिडी से विदेशी उपभोक्ताओं को सस्ता दूध उपलब्ध कराने की तैयारी कर रही है। जल्दी ही स्किम्ड मिल्क पाउडर के निर्यात पर पांच फीसदी सब्सिडी देने की घोषणा हो सकती है।
सरकार का पिछले सप्ताह का फैसला इसी सचाई को आधा-अधूरा उजागर करता है। पिछले सप्ताह एक स्पेशल कैबिनेट बैठक में देश से स्किम्ड मिल्क पाउडर (एसएमपी) के निर्यात की अनुमति का फैसला लिया गया। जब देश में दूध की कीमतें लगातार दहाई में बढ़ रही हों उस समय एसएमपी निर्यात की इजाजत दी गई।
इस समय देश में एसएमपी का डेढ़ लाख टन से ज्यादा का स्टॉक है और इसकी कीमत 140 से 180 रुपये प्रति किलो के बीच चल रही है। सरकार और सहकारी क्षेत्र चाहता तो जब देश में दूध की कीमतें लगातार बढ़ रही थी उस समय एसएमपी के उत्पादन की बजाय तरल दूध की बाजार में आपूर्ति बढ़ाई जा सकती थी। दुग्ध उत्पादों पर आधारित उद्योगों की एसएमपी की जरूरत को पूरा करने के बाद भी एसएमपी का इतना बड़ा स्टॉक बचा हुआ है।
यानी कीमतों में तेजी के दौर में तरल दूध की आपूर्ति बढ़ाने की बजाय एसएमपी का उत्पादन किया गया जिससे तरल दूध की कमी के चलते कीमतों में तेजी आई। वित्त वर्ष 2011-12 में देश में दूध का उत्पादन 3.8 फीसदी की दर से बढ़ा कर 12.1 करोड़ टन पर पहुंच गया। यही नहीं चालू साल में इसमें बढ़ोतरी की दर 4.5 फीसदी पर पहुंचने की संभावना है क्योंकि फ्लश सीजन के लंबा खिंचने के साथ लीन सीजन के शुरुआती महीनों में उत्पादन काफी बेहतर रहा है। लेकिन इस उत्पादन बढ़ोतरी का फायदा घरेलू उपभोक्ताओं को मिले, ऐसी सरकार की मंशा नहीं है।
जहां तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में एसएमपी की कीमत की बात है तो पिछले दिनों यह गिरकर 2300 डॉलर प्रति टन तक आ गई थी लेकिन पिछले दो दिनों में इसमें काफी तेजी आई है और यह बढ़कर 3000 डॉलर प्रति टन तक पहुंच गई है, जो घरेलू बाजार के करीब है। यही वजह है कि निर्यात को बढ़ावा देने पर तुली सरकार एसएमपी निर्यात पर करीब पांच फीसदी सब्सिडी देने की तैयारी कर रही है। जिसका नतीजा देश में दूध की आपर्ति में कमी के रूप में सामने आएगा।
एसएमपी के निर्यात के पहले कैसीन के निर्यात की अनुमति दी गई। कैसिन उत्पादन में एसएमपी से भी करीब साढ़े तीन गुना दूध की जरूरत पड़ती है। यह दोनों फैसले सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा करने के लिए काफी हैं।
अगर उद्योग सूत्रों की बात मानें तो एक खास कंपनी के पास कैसीन का करीब 5000 टन का स्टॉक इस अनुमति के पहले मौजूद था। जाहिर सी बात है कि इसके निर्यात की पाबंदी समाप्त होने का फायदा उस कंपनी को मिलेगा। यानी लॉबिंग सरकार की दीर्घकालिक सोच पर भारी पड़ रही है। वैश्विक बाजार में करीब 6000 डॉलर से नीचे चल रही कैसीन की कीमत भी अचानक बढ़कर 8400 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गई है। जब एसएमपी के निर्यात का फैसला लिया गया तो बताया गया है ऐसा दूध उत्पादकों को फायदा देने के लिए किया गया है।
लेकिन खुदरा बाजार में 38 से 40 रुपये प्रति लीटर (फुल क्रीम) दूध बेचने वाली निजी कं पनियां और सहकारी संस्थाओं में एक आध अपवाद को छोड़ दें तो अधिकांश ने किसानों से 22 से 26 रुपये प्रति लीटर पर ही दूध खरीदा है। दूध की आपूर्ति बढऩे पर फरवरी मार्च में इन कंपनियों ने किसानों के दाम में दो रुपये प्रति लीटर तक की कटौती कर दी थी। लेकिन उपभोक्ताओं को कोई भी फायदा देने की बजाय वह एसएमपी का उत्पादन कर आगे मुनाफे की जुगत में लग गई थी।
अब इस बात को लॉबिंग हो रही है कि एसएमपी के निर्यात पर 30 रुपये किलो की सब्सिडी दी जाए। महाराष्ट्र सरकार ने तो एसएमपी उत्पादन पर दो रुपये किलो की सब्सिडी देने शुरू भी कर दी है। निर्यात पर सब्सिडी का लाबिंग कृषि मंत्री शरद पवार कर रहे हैं। लेकिन वह यह नहीं कह रहे हैं कि अगर उद्योग को सब्सिडी देनी भी है तो क्यों न घरेलू बाजार में दूध की आपूर्ति बढ़ाने में एसएमपी के इस स्टॉक का उपयोग किया जाए और उसके लिए सब्सिडी दी जाए।
इस समय अंतरराष्ट्रीय बाजार में न्यूजीलैंड के एसएमपी की कीमत करीब 165 रुपये किलो चल रही है जबकि बटर ऑयल भी इसी कीमत पर उपलब्ध है। दो दिन पहले तक यह कीमत 120 से 125 रुपये प्रति किलो के बीच चल रही थी। ऐसे में देश में दूध की उपलब्धता बढ़ाने का जिम्मा निभाने ने राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) क्यों चुप्पी साधे हुए है।
अगर सस्ते आयात से घरेलू उत्पादको ंको बचाये भी रखना है तो कम से कम उत्पादकों और उपभोक्ताओं के हितों के बीच संतुलन बनाये रखने के लिए एसएमपी के निर्यात पर सब्सिडी का विरोध तो वह कर ही सकता है।
इस स्थिति में बड़ी मात्रा में उपलब्ध एसएमपी का उपयोग लीन सीजन में दूध की कीमतों पर नियंत्रण या आंशिक रूप से कमी के रूप में किया जा सकता है। लेकिन पिछले करीब तीन साल से रिकार्ड खाद्य महंगाई दर से जूझ रही सरकार इस पर चुप है। खास बात यह है कि खाद्य महंगाई दर में दूध और डेयरी उत्पादों का खासा योगदान है। ऐसे में सरकार के एसएमपी निर्यात की अनुमति के फैसला का कोई तर्क नहीं दिखता है। (Business Bhaskar)
लेकिन यह अधूरा सच है क्योंकि सरकार यह नहीं बताना चाहती कि जब कीमतें घट सकती थीं तो उनमें लगातार बढ़ोतरी क्यों हुर्इं? यही नहीं अब जब दूध उत्पादन का लीन सीजन (कम उत्पादन की अवधि) शुरू हो गया है तो सरकार कीमत बढ़ाने का माहौल बना रही है।
दिलचस्प बात यह है कि देश में इस साल दूध उत्पादन में करीब चार फीसदी की बढ़ोतरी हुई। इसके चलते निजी और सहकारी संस्थाओं की खरीद में 20 पीसदी तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इसके बावजूद कीमत लगातार बढ़ती गई।
कीमत में बढ़ोतरी तब होती है जब किसी वस्तु की उपलब्धता में गिरावट आ रही हो और उसकी मांग तेजी से बढ़ रही हो। बात बहुत सामान्य है लेकिन आपूर्ति को नाटकीय तरीके से कम भी तो किया जा सकता है और दूध के मामले में यही हुआ है। यही वह सच है जो सरकार लोगों को बताना नहीं चाहती है। उल्टे करदाताओं की गाढ़ी कमाई की सब्सिडी से विदेशी उपभोक्ताओं को सस्ता दूध उपलब्ध कराने की तैयारी कर रही है। जल्दी ही स्किम्ड मिल्क पाउडर के निर्यात पर पांच फीसदी सब्सिडी देने की घोषणा हो सकती है।
सरकार का पिछले सप्ताह का फैसला इसी सचाई को आधा-अधूरा उजागर करता है। पिछले सप्ताह एक स्पेशल कैबिनेट बैठक में देश से स्किम्ड मिल्क पाउडर (एसएमपी) के निर्यात की अनुमति का फैसला लिया गया। जब देश में दूध की कीमतें लगातार दहाई में बढ़ रही हों उस समय एसएमपी निर्यात की इजाजत दी गई।
इस समय देश में एसएमपी का डेढ़ लाख टन से ज्यादा का स्टॉक है और इसकी कीमत 140 से 180 रुपये प्रति किलो के बीच चल रही है। सरकार और सहकारी क्षेत्र चाहता तो जब देश में दूध की कीमतें लगातार बढ़ रही थी उस समय एसएमपी के उत्पादन की बजाय तरल दूध की बाजार में आपूर्ति बढ़ाई जा सकती थी। दुग्ध उत्पादों पर आधारित उद्योगों की एसएमपी की जरूरत को पूरा करने के बाद भी एसएमपी का इतना बड़ा स्टॉक बचा हुआ है।
यानी कीमतों में तेजी के दौर में तरल दूध की आपूर्ति बढ़ाने की बजाय एसएमपी का उत्पादन किया गया जिससे तरल दूध की कमी के चलते कीमतों में तेजी आई। वित्त वर्ष 2011-12 में देश में दूध का उत्पादन 3.8 फीसदी की दर से बढ़ा कर 12.1 करोड़ टन पर पहुंच गया। यही नहीं चालू साल में इसमें बढ़ोतरी की दर 4.5 फीसदी पर पहुंचने की संभावना है क्योंकि फ्लश सीजन के लंबा खिंचने के साथ लीन सीजन के शुरुआती महीनों में उत्पादन काफी बेहतर रहा है। लेकिन इस उत्पादन बढ़ोतरी का फायदा घरेलू उपभोक्ताओं को मिले, ऐसी सरकार की मंशा नहीं है।
जहां तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में एसएमपी की कीमत की बात है तो पिछले दिनों यह गिरकर 2300 डॉलर प्रति टन तक आ गई थी लेकिन पिछले दो दिनों में इसमें काफी तेजी आई है और यह बढ़कर 3000 डॉलर प्रति टन तक पहुंच गई है, जो घरेलू बाजार के करीब है। यही वजह है कि निर्यात को बढ़ावा देने पर तुली सरकार एसएमपी निर्यात पर करीब पांच फीसदी सब्सिडी देने की तैयारी कर रही है। जिसका नतीजा देश में दूध की आपर्ति में कमी के रूप में सामने आएगा।
एसएमपी के निर्यात के पहले कैसीन के निर्यात की अनुमति दी गई। कैसिन उत्पादन में एसएमपी से भी करीब साढ़े तीन गुना दूध की जरूरत पड़ती है। यह दोनों फैसले सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा करने के लिए काफी हैं।
अगर उद्योग सूत्रों की बात मानें तो एक खास कंपनी के पास कैसीन का करीब 5000 टन का स्टॉक इस अनुमति के पहले मौजूद था। जाहिर सी बात है कि इसके निर्यात की पाबंदी समाप्त होने का फायदा उस कंपनी को मिलेगा। यानी लॉबिंग सरकार की दीर्घकालिक सोच पर भारी पड़ रही है। वैश्विक बाजार में करीब 6000 डॉलर से नीचे चल रही कैसीन की कीमत भी अचानक बढ़कर 8400 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गई है। जब एसएमपी के निर्यात का फैसला लिया गया तो बताया गया है ऐसा दूध उत्पादकों को फायदा देने के लिए किया गया है।
लेकिन खुदरा बाजार में 38 से 40 रुपये प्रति लीटर (फुल क्रीम) दूध बेचने वाली निजी कं पनियां और सहकारी संस्थाओं में एक आध अपवाद को छोड़ दें तो अधिकांश ने किसानों से 22 से 26 रुपये प्रति लीटर पर ही दूध खरीदा है। दूध की आपूर्ति बढऩे पर फरवरी मार्च में इन कंपनियों ने किसानों के दाम में दो रुपये प्रति लीटर तक की कटौती कर दी थी। लेकिन उपभोक्ताओं को कोई भी फायदा देने की बजाय वह एसएमपी का उत्पादन कर आगे मुनाफे की जुगत में लग गई थी।
अब इस बात को लॉबिंग हो रही है कि एसएमपी के निर्यात पर 30 रुपये किलो की सब्सिडी दी जाए। महाराष्ट्र सरकार ने तो एसएमपी उत्पादन पर दो रुपये किलो की सब्सिडी देने शुरू भी कर दी है। निर्यात पर सब्सिडी का लाबिंग कृषि मंत्री शरद पवार कर रहे हैं। लेकिन वह यह नहीं कह रहे हैं कि अगर उद्योग को सब्सिडी देनी भी है तो क्यों न घरेलू बाजार में दूध की आपूर्ति बढ़ाने में एसएमपी के इस स्टॉक का उपयोग किया जाए और उसके लिए सब्सिडी दी जाए।
इस समय अंतरराष्ट्रीय बाजार में न्यूजीलैंड के एसएमपी की कीमत करीब 165 रुपये किलो चल रही है जबकि बटर ऑयल भी इसी कीमत पर उपलब्ध है। दो दिन पहले तक यह कीमत 120 से 125 रुपये प्रति किलो के बीच चल रही थी। ऐसे में देश में दूध की उपलब्धता बढ़ाने का जिम्मा निभाने ने राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) क्यों चुप्पी साधे हुए है।
अगर सस्ते आयात से घरेलू उत्पादको ंको बचाये भी रखना है तो कम से कम उत्पादकों और उपभोक्ताओं के हितों के बीच संतुलन बनाये रखने के लिए एसएमपी के निर्यात पर सब्सिडी का विरोध तो वह कर ही सकता है।
इस स्थिति में बड़ी मात्रा में उपलब्ध एसएमपी का उपयोग लीन सीजन में दूध की कीमतों पर नियंत्रण या आंशिक रूप से कमी के रूप में किया जा सकता है। लेकिन पिछले करीब तीन साल से रिकार्ड खाद्य महंगाई दर से जूझ रही सरकार इस पर चुप है। खास बात यह है कि खाद्य महंगाई दर में दूध और डेयरी उत्पादों का खासा योगदान है। ऐसे में सरकार के एसएमपी निर्यात की अनुमति के फैसला का कोई तर्क नहीं दिखता है। (Business Bhaskar)
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