कृषि भवन के आकलन के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि अंतत: पूर्वी भारत में कृषि का कायाकल्प हो ही गया है और यह क्षेत्र खाद्य-अधिशेष की स्थिति में आ गया है। कृषि के लिए विपुल संभावनाओं के बावजूद भारत का पूर्वी भाग हरित क्रांति की लहर से अछूता ही रह गया। इसके लिए कई वजह जिम्मेदार हो सकती हैं लेकिन मुख्यत: केंद्र की अनदेखी और राज्य सरकारों के पास सीमित संसाधनों का होना इसके लिए उत्तरदायी माने जाते रहे। हालांकि हाल के वर्षों में एक ऐसा परिवर्तन देखा गया जिसे साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। केंद्र ने हरित क्रांति के दूसरे दौर के लिए पूरब (बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम, छत्तीसगढ़, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश) की अहमियत समझी और राज्यों ने भी सम्मिलित रूप से कदम उठाया। परिणामस्वरूप, वर्ष 2010-11 के दौरान इस क्षेत्र में चावल उत्पादन बढ़कर 5.62 करोड़ टन के स्तर पर पहुंच गया जो देश के कुल 9.6 करोड़ टन चावल उत्पादन के आधे से अधिक था।
कुल मिलाकर पूर्वी क्षेत्र में समग्र खाद्यान्न उत्पादन में जबरदस्त तेजी देखने को मिली। इस क्षेत्र में जहां खाद्यान्न उत्पादन 12 फीसदी की तेजी से बढ़ा वहीं अखिल भारतीय स्तर पर यह बढ़ोतरी महज 2.2 फीसदी दर्ज की गई। उर्वर भूमि, प्रचुर मात्रा में पानी और सूरज की पर्याप्त रोशनी इस इलाके को प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न बनाती हैं। अतीत में इनका पूरी तरह से दोहन नहीं हो पाया। मिसाल के तौर पर इस इलाके में देश के कुल जल संसाधनों का 46 फीसदी भाग मौजूद है लेकिन यह फसल सिंचाई के लिए महज तीन फीसदी जल का ही उपयोग कर पाता है। कुछ हालिया कदम इस असंगति को दूर करने की दिशा में कारगर साबित हो रहे हैं जिनमें फसल सिंचाई के लिए कुएं बनाने को प्रोत्साहन देना, कम गहरे नलकूप और तालाबों का निर्माण शामिल है। इसके अतिरिक्त किसानों को अद्यतन तकनीक से भी रूबरू कराया गया है और उन्हें अधिक उत्पादकता वाले बीज उपलब्ध कराने के साथ-साथ बेहतर फसल के लिए मददगार नुस्खे मुहैया कराए गए हैं। खाद्यान्न किल्लत से जूझने वाले क्षेत्र से खाद्यान्न अधिशेष वाले इलाके में तब्दील होने के पूर्वी भारत के इस कायांतरण का स्वागत है, भले ही यह अपनी शुरुआती अवस्था में क्यों न हो, इससे देश के दूसरे हिस्सों में कृषि पर बड़ा प्रभाव पड़ेगा जो अब तक केंद्रीय पूल के लिए अतिरिक्त खाद्यान्न योगदान करते आए हैं।
सबसे अधिक उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र (पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) पर, जो भौगोलिक रूप से गेहूं और चावल जैसी भारी तादाद में उगने वाली लेकिन कम मूल्य वाली फसलों के लिए आदर्श नहीं हैं, ये क्षेत्र अब अपेक्षाकृत अधिक मुनाफेदायक फसलों की ओर रुख कर सकते हैं। यह बदलाव इस क्षेत्र में लगातार कम होते जा रहे जल संसाधनों के संरक्षण के लिए भी बेहद कारगर होगा। यहां तक कि आंध्र प्रदेश सहित कुछ दक्षिणी राज्य भी, जहां किसानों ने धान उगाने में हो रहे नुकसान पर ध्यान खींचने के लिए 'फसल न बोने' की राह अपनाई, वे भी अब बेहतर प्रतिफल के लिए अपनी जमीन पर नकदी फसल उगाने के विचार को आत्मसात कर सकते हैं।
लेकिन इसके लिए केंद्र को कृषि मूल्य नीतियों में बदलाव करने की जरूरत होगी जो हाल-फिलहाल तक गेहूं और चावल जैसी फसलों के पक्ष में झुकी हुई है, जबकि दलहन, तिलहन, सब्जियों और फलों के हितों को ताक पर रखकर ऐसा किया जा रहा है। इन जिंसों की आपूर्ति भी बेहद तंग है। जितनी जल्दी यह नीतिगत परिवर्तन आकार ले सके भारत में कृषि के संतुलित विकास के लिए उतना ही बेहतर रहेगा। (BS Hindi)
06 मार्च 2012
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