कई महीनों की भरमार के बाद सरकार हाल के सप्ताहों के दौरान चीनी की
कीमतों में आई असामान्य तेजी को नियंत्रित करने के लिए कदम उठाएगी। निर्यात
प्रोत्साहनों का मतलब है घरेलू कीमतों में मजबूती आना और अधिशेष की समस्या
को दूर करना और इसमें धीरे-धीरे कमी आ रही है। साथ ही आयात पर प्रतिबंधों
को हटाने के लिए भी कदम उठाए गए हैं। केंद्र का कहना है कि दिल्ली, चेन्नई
और कुछ अन्य शहरों के खुदरा बाजारों में पर्याप्त आपूर्ति के बावजूद कीमतें
हाल के सप्ताहों में 4-5 रुपये प्रति किलोग्राम तक बढ़ी हैं। 2015-16 के
गन्ना सत्र की शुरुआत में (अक्टूबर में) कीमतें लगभग 31 रुपये प्रति
किलोग्राम के आसपास थीं। नैशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव्स इंडेक्स में मई,
जुलाई और अक्टूबर के लिए वायदा कीमतें संभावित तेजी की तुलना में अधिक रहने
का अनुमान जताया गया है।
खाद्य मंत्रालय के एक वरिष्ठï अधिकारी ने कहा, 'इन परिस्थितियों में
और कुछ कारोबारियों द्वारा बाजार में हेरफेर के प्रमाण के साथ केंद्र इस
तरह का कदम उठाने के लिए बाध्य हुआ है।'
वर्ष 2015-15 के सीजन के पहले 6 महीनों में आपूर्ति एक साल पहले की
तुलना में लगभग 600,000 टन अधिक थी। हालांकि चीनी मिलों ने इस पर सहमति
जताई है कि पिछले कुछ सप्ताहों में कीमतों में आई तेजी असामान्य थी, लेकिन
माना जा रहा है कि केंद्रीय कार्रवाई कुछ हद तक समय से पहले की गई है।
उद्योग के एक वरिष्ठï अधिकारी ने कहा कि व्यापारियों और बिचौलियों द्वारा
लगभग 20 लाख टन (एक महीने की खपत) चीनी की जमाखोरी की गई है। अधिकारी ने
कहा, 'ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई सही है, लेकिन इस प्रक्रिया में उद्योग
या किसानों को नुकसान पहुंचाना सही नहीं है।'
कीमतों में तेजी ने चीनी मिल मालिकों को अपनी उत्पादन लागत की भरपाई
करने और किसानों का गन्ना बकाया चुकाने में भी सक्षम बनाया है। सरकार इसे
लेकर सहमत है कि कुल बकाया भुगतान सत्र के शुरू में घटकर 12,160 करोड़
रुपये रह गया जो 2014-15 के शुरू में 21,500 करोड़ रुपये के स्तर पर था।
बकाया भुगतान में कमी लाने में बड़ा योगदान कीमतों में आई मजबूती भी है।
इसके अलावा मिलों को बकाया घटाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा मदद मुहैया
कराए जाने से भी मदद मिली है। चीनी मिल मालिकों का कहना है कि जब तक औसत
एक्स-फैक्टरी कीमत सुधरकर 36 रुपये प्रति किलोग्राम (खुदरा बाजार में, इसका
मतलब होगा 41-42 रुपये प्रति किलोग्राम) पर नहीं आ जाती, तब तक वे अपनी
उत्पादन लागत नहीं वसूल पाएंगे या उस 10,000 करोड़ रुपये के कर्ज को चुकाने
में सक्षम नहीं रहेंगे जो केंद्र ने 2014 से उन्हें दिया है। (BS Hindi)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें