पिछले कुछ महीनों से सरकार का सिरदर्द बन चुकीं दालों की कीमतें एक बार फिर से नई मुश्किलें पैदा कर सकती हैं। स्थानीय स्तर पर उत्पादन बढ़ाने की ओर कम ध्यान दिए जाने और मांग में लगातार तेजी का रुख कायम रहने की वजह से दालों की कीमतें फिर से सिर उठा सकती हैं। कोटक इंस्टीट्यूशनल इक्विटीज के एक अध्ययन के मुताबिक दलहन के कुल रकबे में से महज 12 फीसदी इलाका ऐसा है जहां सिंचाई की सुविधा मौजूद है। अनुमान के मुताबिक इस वर्ष दलहन का रकबा 222.6 लाख हेक्टेयर रहेगा जिसमें से 26.9 लाख हेक्टेयर क्षेत्र सिंचित होगा। इस क्षेत्र में दालों का उत्पादन मौसम की स्थिति पर निर्भर नहीं करेगा। मौसम चाहे जैसा भी हो इस क्षेत्र से होने वाले दलहन उत्पादन को सुनिश्चित किया जा सकता है। लेकिन 88 फीसदी रकबा अभी भी बारिश पर निर्भर है जिसकी वजह से ये इलाका मौसम की स्थिति पर निर्भर करता है और इस क्षेत्र से होने वाला उत्पादन भी मौसम पर निर्भर है।
अक्टूबर में दलहन की कीमतों में जबरदस्त तेजी देखने को मिली थी। खबरों के मुताबिक कारोबारियों द्वारा कालाबाजारी किए जाने की वजह से दलहन की कीमतों में तेज उछाल देखने को मिली थी। बड़े शहरों में अरहर दाल की कीमत 200 रुपये प्रति किग्रा के स्तर तक पहुंच गई थीं। छह महीनों में अरहर दाल की कीमतों में 70-80 फीसदी तेजी देखने को मिली। दलहनों की कीमतों में कुछ साल बाद तेजी देखने को मिलती है। जब भी मांग बढ़ती है या आपूर्ति में गिरावट आती है तो दलहनों की कीमतों में तेजी आती है। भारत के मामले में इन दोनों ही कारकों ने अहम भूमिका निभाई है। भारत में प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी के साथ ही दलहन की मांग में इजाफा देखने को मिला है और लोगों की खानपान की पद्घति में सुधार हुआ है। आज के समय में प्रोटीन-मुद्रास्फीति एक ऐसी अवधारणा है जिसके बारे में सभी को पता है और इस पर काफी काम हो चुका है। आपूर्ति पिछले कुछ सालों से 1.7-1.9 करोड़ टन पर स्थिर है क्योंकि उत्पादन और रकबा स्थिर है। अरहर दाल पर सबसे बुरा असर पड़ा है क्योंकि अरहर दाल का महज 6 फीसदी रकबा सिंचित है।
दुर्भाग्यवश भारत में पैदा होने वाले सभी प्रकार के दलहन को सिंचाई की कमी का सामना करना पड़ सकता है। भारत में दालों के खेत का औसत आकार 1 हेक्टेयर है जबकि कनाडा में यह आंकड़ा 178 हेक्टेयर है जिसने भारत को सबसे अधिक मात्रा में दालें भेजी हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में एक हेक्टेयर में करीब 700 किग्रा दलहन का उत्पादन होता है जो कनाडा के मुकाबले आधे से भी कम है। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि मांग बढऩे के बाद भी भारत को अनिश्चित उत्पादन का सामना करना पड़ता है।
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