05 सितंबर 2012
चीनी कंपनियों पर उम्मीद का रंग
अगर सरकार लेवी चीनी की बाध्यता को समाप्त करने की रंगराजन समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लेती है तो बजाज हिंदुस्तान, बलरामपुर चीनी और त्रिवेणी इंजीनियरिंग आदि चीनी कंपनियां अपने राजस्व में 4,400 करोड़ रुपये तक का सुधार ला सकती हैं। फिलहाल चीनी मिलें अपना 10 फीसदी उत्पादन सरकार की सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए नियमित कीमत पर बेचने को बाध्य हैं।
आयोग की सकारात्मक सिफारिशों से मंगलवार को चीनी कंपनियों के शेयरों में बढ़त दर्ज की गई। बीएसई पर बलरामपुर चीनी का शेयर 52 सप्ताह के सर्वोच्च स्तर 69.40 पर पहुंच गया। वहीं धामपुर शुगर्र्स का शेयर 3.18 फीसदी, शक्ति शुगर्स का शेयर 4.90 फीसदी और मवाना शुगर्स का शेयर 5 फीसदी चढ़ा। ज्यादातर चीनी कंपनियों के शेयर हरे निशान पर बंद हुए।
जनवरी में गठित समिति ने लेवी चीनी की बाध्यता को समाप्त करने की सिफारिश की है और सरकार से पीडीएस के लिए चीनी बाजार दरों पर खरीदने के लिए कहा है। इससे पहले कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने भी दृढ़ता से इसकी वकालत की थी कि सरकार को अपनी लेवी चीनी की बाध्यता को समाप्त करना चाहिए और इसके स्थान पर पीडीएस के लिए इस जिंस की खरीदारी सीधे बाजार कीमत पर करनी चाहिए।
इस समय खुले बाजार में औसत कीमत 36,000 रुपये प्रति टन है, जबकि सरकार लेवी चीनी के लिए केवल 19,050 रुपये का भुगतान करती है। इसमें 16,950 रुपये प्रति टन का भारी अंतर है। वर्तमान लेवी कीमत चीनी बनाने में प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल गन्ने की लागत की भी भरपाई नहीं करती है। इसके ऊपर से मिलों को प्रसंस्करण लागत, ब्याज लागत और वेतन लागत वहन करती पड़ती है। इसके अलावा गन्ने की कीमत हर साल तेजी से बढ़ रही है, जबकि लेवी कीमत में तुलनात्मक बढ़ोतरी नहीं हो रही है। सरकार लेवी चीनी की कीमत उचित और लाभकारी कीमत के आधार पर तय करती है। जबकि बहुत से प्रमुख उत्पादक राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु आदि में चीनी मिलों को इससे काफी ऊंचे राज्य परामर्शी मूल्य का भुगतान करना होता है।
दस फीसदी चीनी की बिक्री से कम आमदनी की वजह से उद्योग के मुनाफे पर असर पड़ता है और इससे मिलें गन्ना किसानों को भुगतान नहीं कर पाती हैं। अन्य किसी भी उद्योग पर इस तरह की बाध्यता नहीं है। यहां तक की सब्सिडी दरों पर डीजल और रसोई गैस की बिक्री करने वाली सरकारी तेल विपणन कंपनियां भी इस प्रक्रिया में होने वाले घाटे की क्षतिपूर्ति प्राप्त करती हैं।
लेवी बाध्यता के साथ ही सरकार खुले बाजार में चीनी की कीमतों के बारे में भी रणनीति अपनाती है। हर बार एक स्तर से ऊपर कीमतें जाने पर सरकार अतिरिक्त बिक्री कोटे के रूप में हस्तक्षेप करती है। जारी मात्रा की व्यवस्था के तहत सरकार यह निर्णय करती है कि एक मिल प्रत्येक महीने में चीनी की कितनी मात्रा बेच सकती है। दूसरी ओर केंद्र और राज्य सरकारें हर साल गन्ने की कीमतें बढ़ाती हैं।
इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन के महानिदेशक अविनाश वर्मा ने कहा कि चीनी उद्योग लेवी बाध्यता को समाप्त किया जाता है तो चीनी उद्योग के वित्तीय घाटे में कमी आएगी। उन्होंने कहा, 'यह आमतौर पर देखा जाता है कि सरकार और इसकी एजेंसियां हर साल पूरे लेवी चीनी को नहीं खरीद पाती हैं, जिसके कारण कंपनियों को बिना बिकी चीनी को अगले दो साल तक रखना पड़ता है, जिससे उनकी लागत बढ़ती है।' (BS Hindi)
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