मौसम विभाग के मुताबिक भारत की सालाना बारिश में 83 फीसद हिस्सेदारी रखने वाले दक्षिण-पश्चिमी मानसून के इस बार सामान्य रहने की उम्मीद है.
इस बार भी कागजों पर फसल के अनुमान लगाने वालों ने डबल डिजीट विकास दर के सपने देखने शुरू कर दिये हैं. शेयर बाजार भी फुहार के सहारे 30 अंक ऊपर चढ़ा और नीतिकारों ने खाद्य वस्तुओं की मंहगाई कम होने के दावे शुरू कर दिए हैं. जश्न के सरकारी शोरगुल में अहम किरदार किसान की सुध किसी को नहीं है.
लेकिन न भूलें कि 2002 और 2009 में भारतीय मौसम की भविष्यवाणी गलत साबित हुई थी और करोड़ों रुपए के उपकरणों से लैस इस विभाग के पिछले 22 में से 17 अनुमानों में फेरबदल हुआ है. खेती के लिए दक्षिण-पश्चिमी मानसून बेहद अहम है क्योंकि गन्ना, धान, तिलहन और दलहन की पैदावार इसी पर निर्भर करती है और रबी की कटाई के लिए जरूरी नमी भी इसी बारिश से मिलती है.
हालांकि मानसून की सही तस्वीर जून की समीक्षा में सामने आएगी लेकिन ताजा अनुमानों पर आगे की योजनाएं बन सकती हैं मगर मौसम विभाग के आधे-अधूरे आंकड़े किसानों की खास मदद नहीं कर पाएंगे. देशभर में बारिश का वितरण समान नहीं है, लिहाजा जिलों के स्तर पर बारिश के आंकड़े जारी किए जाने चाहिए ताकि किसानों को सुविधा हो. मिसाल के तौर पर मध्यप्रदेश में 32 फीसद भूमि ही सिंचित इलाके में आती है जबकि पंजाब में 98 फीसद भूमि सिंचित क्षेत्र में है. अगर मौसम विभाग के अनुमान धराशायी होते हैं तो सबसे ज्यादा खामियाजा मध्यप्रदेश के किसानों को भुगतना पड़ेगा. बेशक पंजाब सरकार के सब्सिडी बिल में बढ़ोतरी हो सकती है लेकिन वहां के किसान सुरक्षित रहेंगे.
देश की 60 फीसद कृषि भूमि गैर-सिंचित है और महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार, उड़ीसा और राजस्थान जैसे राज्यों में खेती पर आश्रित लोगों की तादाद ज्यादा है. ऐसे में मौसम विभाग की भविष्यवाणी गलत साबित होने पर किसानों का बड़ा तबका बर्बाद हो जाएगा.
बेहतर मानसून की संभावना शुभ संकेत है लेकिन महज इसके बलबूते उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं हो सकती. किसान को सही बीज, समय पर खाद और किफायती दर पर कृषि उपकरण मुहैया करवाकर ही उत्पादन में बढ़ोतरी की आस लगाई जा सकती है. यह सरकारी नीतियों में झोल का ही नतीजा है कि किसानों को फसल का उचित दाम नहीं मिलता और एफसीआई के गोदामों में गेहूं रखने की जगह नहीं है जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं की कीमतें आसमान पर हैं और भारत 50 लाख टन तक गेंहूं निर्यात कर सकता है. पूंजीपतियों की लॉबिंग के चलते ही वैश्विक बाजार में माकूल अवसर होने के बावजूद कपास और चीनी के निर्यात की अनुमित नहीं दी गई थी. अगर सरकार कृषि-उत्पादन बढ़ाने को प्रतिबद्ध है तो किसानों को उपज का सही दाम देने की गारंटी देनी होगी.
भारत जब भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में खरीदारी के लिए उतरता है तो जिंसों की कीमतें आसमान छूने लगती हैं. उसने जब भी गेंहूं, चीनी व दालों से लेकर क्रूड ऑयल आयात करने की घोषणा की तो कीमतों में उछाल देखने को मिला है. सवाल है कि आस्ट्रेलियाई और अमेरिकी किसानों से मंहगी दर पर खाद्य वस्तुएं खरीदने वाली सरकार घरेलू किसानों को उनका हक देते समय क्यों कतराती है. कहने की जरूरत नहीं कि किसानों के हक में लॉबिंग करने वाला कोई नहीं है.
बेहतर मानसून के दावों पर उछलने की बजाए यह वक्त कृषि सेक्टर में बुनियादी सुधार का है. दस फीसद विकास दर के पीछे दौड़ने वाले भी स्वीकारेंगे कि कृषि सेक्टर की पांच फीसद से ज्यादा हिस्सेदारी के बगैर यह लक्ष्य पाना मुश्किल है. देश इस समय नाजुक दौर से गुजर रहा है. सरकार खाद्य सुरक्षा देने का दावा कर रही है वहीं खाद्य वस्तुओं की मंहगाई दर पिछले नौ महीने से दहाई में चल रही है. खराब मानसून से कृषि-उत्पादन प्रभावित होने के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में खेती से जुड़े मजदूरों की रोजी-रोटी भी छिन जाती है. यह समय है कि जब सरकार अनाज भंडारण, भूजल के पुनर्भरण की योजनाएं, अतिवृष्टि व सूखे क्षेत्रों में सामंजस्य और कृषि उत्पादों की वितरण प्रणाली में सुधार समेत दूसरी बुनियादी दिक्कतों में सुधार के प्रयास शुरू करे. (अरविंद कुमार सेन )
25 मई 2011
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