आर.एस. राणा नई दिल्ली
सरकार ने राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड (एनएचबी) को बंद करने की योजना बना ली है। राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड द्वारा चलाई जा रही योजनाओं को राष्ट्रीय बागवानी मिशन (एनएचएम) के हवाले कर दी जाएंगी। एनएचबी की स्थापना सरकार ने वर्ष 1984 में की थी। एनएचबी ने पिछले दस सालों में कोल्ड स्टोरेज और कोल्ड चेन विकसित करने के लिए काफी काम किया।
कृषि मंत्रालय एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार एनएचबी और एनएचएम द्वारा चलाई जा रही योजनाएं लगभग एक जैसी ही है इसलिए सरकार ने सभी योजनाओं को एनएचएम के माध्यम से चलाने का फैसला किया है। एनएचबी और एनएचएम दोनों विभाग बागवानी के विकास के लिए काम करते हैं। इनके तहत बागवानी का उत्पादन, कटाई पश्चात प्रबंधन, प्रसंस्करण तथा विपणन में किसानों को सब्सिडी दी जाती है।
इसके अलावा फसलों के रख-रखाव के लिए कोल्ड चेन निर्माण के लिए सब्सिडी प्रदान की जाती है। एनएचबी बागवानी फसलों के लिए जहां 10 एकड़ से अधिक जमीन पर खेती के लिए सब्सिडी देता है वहीं एनएचएम 10 एकड़ से कम जमीन वाले किसानों को सब्सिडी प्रदान करता है।
अधिकारी ने बताया कि एनएचबी द्वारा चलाई जा रही स्कीमों को एनएचएम के अधीन लाया जाएगा। सरकार ने एनएचएम को वर्ष 2005-06 के दौरान प्रारंभ किया है। एनएचएम, जो सब्सिडी जारी करता है उसमें 85 प्रतिशत योगदान केंद्र सरकार का होता है जबकि 15 प्रतिशत की पूर्ति राज्य सरकारें करती हैं। उन्होंने बताया कि 11वी पंचवर्षीय योजना में एनएचबी को 600 करोड़ रुपये के बजट का आवंटन हुआ था।
इसमें से अभी तक लगभग 480 करोड़ रुपये का खर्च हो चुका है तथा चालू वित्त वर्ष के लिए एनएचबी का लक्ष्य 120 करोड़ रुपये की सब्सिडी जारी करने का है। एनएचबी सीधे किसानों को बैंकों के माध्यम से सब्सिडी जारी करता है जबकि एनएचएम राज्य सरकारों के सहयोग से सब्सिडी जारी करता है।
एनएचबी ने वित्त वर्ष 2000-2001 से अभी तक देशभर में 2,600 कोल्ड स्टोरेज के निर्माण के लिए सब्सिडी जारी की है जिनकी भंडारण क्षमता 1.13 करोड़ टन की है। इसके लिए वित्त वर्ष 2000 से 2001 से वित्त वर्ष 2010-11 तक लगभग 700 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी जा चुकी है। एनएचबी द्वारा चलाई जा रही योजनाओं से वित्त वर्ष 2010-11 में देशभर के 8,000 किसानों को लाभ मिला है।बात पते की:- 11वीं पंचवर्षीय योजना में एनएचबी को 600 करोड़ रुपये के बजट का आवंटन हुआ था। इसमें से अभी तक लगभग 480 करोड़ रुपये का खर्च हो चुका है तथा चालू वित्त वर्ष के लिए एनएचबी का लक्ष्य 120 करोड़ रुपये की सब्सिडी जारी करने का है। (Business Bhaskar....R S Rana)
31 मई 2011
आवक बढऩे से नरम पड़ा मेंथा
नई दिल्ली May 30, 2011
मंडियों में मेंथा तेल की नई आवक शुरू हो गई है, जिससे बीते पांच दिनों में मेंथा तेल के दाम 5 फीसदी घट चुके हैं। मेंथा कारोबारियों के मुताबिक पिछले साल के मुकाबले इसकी पैदावार 30 से 35 फीसदी बढऩे का अनुमान है। साथ ही, अगले महीने से मेंथा तेल की आवक जोर पकडऩे लगेगी, ऐसे में दाम और घट सकते हैं।संभल स्थित ग्लोरियस केमिकल्स के निदेशक अनुराग रस्तोगी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि उत्पादक क्षेत्रों की मंडियों में मेंथा तेल की नई आवक शुरू हो गई है। हालांकि अभी आवक कम ही हो रही है। रस्तोगी के मुताबिक, उत्तर प्रदेश की मंडियों में 200 ड्रम (180 किलोग्राम) मेंथा तेल की दैनिक आवक हो रही है। नई आवक के कारण संभल मंडी में इसके दाम 60 रुपये घटकर 990 रुपये प्रति किलो पर आ गए हैं। चंदौसी मंडी के मेंथा तेल कारोबारी धर्मेंद्र कुमार का भी कहना है कि नई आवक से दाम 50 रुपये गिरकर 985 रुपये पर आ गए हैं। उधर, पिछले साल अच्छे भाव मिलने के कारण किसानो ने इस बार मेंथा की खेती अधिक की है, जिससे इसका उत्पादन बढऩे की संभावना है। उत्तर प्रदेश मेंथा उद्योग के अध्यक्ष फूल प्रकाश का कहना है कि पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष मेंथा के उत्पादन में 30 फीसदी से अधिक बढ़ोतरी हो सकती है। रस्तोगी ने मेंथा तेल के उत्पादन में 35 फीसदी से अधिक बढ़ोतरी की संभावना जताई है। उद्योग के मुताबिक पिछले साल 30 से 32 हजार टन मेंथा तेल का उत्पादन हुआ था। रस्तोगी ने कहा कि अगले महीने के पहले सप्ताह से मेंथा तेल की आवक बढ़कर 1000 ड्रम तक पहुंचने की उम्मीद है, ऐसे में दाम घटकर 900 रुपये प्रति किलो से भी नीचे जा सकते हैं। धर्मेंद्र कुमार का कहना है कि आवक के दबाव से दाम गिरकर 850 रुपये प्रति किलो तक भी आ सकते हैं। रस्तोगी ने कहा कि ग्राहक नई फसल के इंतजार में थे, लेकिन अगले कुछ दिनों में दाम नीचे जाने के बाद मांग बढऩे की संभावना है। (BS Hindi)
मंडियों में मेंथा तेल की नई आवक शुरू हो गई है, जिससे बीते पांच दिनों में मेंथा तेल के दाम 5 फीसदी घट चुके हैं। मेंथा कारोबारियों के मुताबिक पिछले साल के मुकाबले इसकी पैदावार 30 से 35 फीसदी बढऩे का अनुमान है। साथ ही, अगले महीने से मेंथा तेल की आवक जोर पकडऩे लगेगी, ऐसे में दाम और घट सकते हैं।संभल स्थित ग्लोरियस केमिकल्स के निदेशक अनुराग रस्तोगी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि उत्पादक क्षेत्रों की मंडियों में मेंथा तेल की नई आवक शुरू हो गई है। हालांकि अभी आवक कम ही हो रही है। रस्तोगी के मुताबिक, उत्तर प्रदेश की मंडियों में 200 ड्रम (180 किलोग्राम) मेंथा तेल की दैनिक आवक हो रही है। नई आवक के कारण संभल मंडी में इसके दाम 60 रुपये घटकर 990 रुपये प्रति किलो पर आ गए हैं। चंदौसी मंडी के मेंथा तेल कारोबारी धर्मेंद्र कुमार का भी कहना है कि नई आवक से दाम 50 रुपये गिरकर 985 रुपये पर आ गए हैं। उधर, पिछले साल अच्छे भाव मिलने के कारण किसानो ने इस बार मेंथा की खेती अधिक की है, जिससे इसका उत्पादन बढऩे की संभावना है। उत्तर प्रदेश मेंथा उद्योग के अध्यक्ष फूल प्रकाश का कहना है कि पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष मेंथा के उत्पादन में 30 फीसदी से अधिक बढ़ोतरी हो सकती है। रस्तोगी ने मेंथा तेल के उत्पादन में 35 फीसदी से अधिक बढ़ोतरी की संभावना जताई है। उद्योग के मुताबिक पिछले साल 30 से 32 हजार टन मेंथा तेल का उत्पादन हुआ था। रस्तोगी ने कहा कि अगले महीने के पहले सप्ताह से मेंथा तेल की आवक बढ़कर 1000 ड्रम तक पहुंचने की उम्मीद है, ऐसे में दाम घटकर 900 रुपये प्रति किलो से भी नीचे जा सकते हैं। धर्मेंद्र कुमार का कहना है कि आवक के दबाव से दाम गिरकर 850 रुपये प्रति किलो तक भी आ सकते हैं। रस्तोगी ने कहा कि ग्राहक नई फसल के इंतजार में थे, लेकिन अगले कुछ दिनों में दाम नीचे जाने के बाद मांग बढऩे की संभावना है। (BS Hindi)
28 मई 2011
मल्टी रीटेल ब्रैंड में एफडीआई की वकालत
नई दिल्ली मंत्रालयों के एक उच्चस्तरीय समूह (आईएमजी) ने मुद्रास्फीति दर पर लगाम लगाने के लिए मल्टी-ब्रैंड रीटेल में विदेशी निवेश की इजाजत देने की वकालत की है। इससे वॉलमार्ट , टेस्को और कारफूर जैसे अंतरराष्ट्रीय रीटेलरों के लिए भारत में आउटलेट खोलने की उम्मीद बढ़ गई है। मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने कहा , ' भारत में मल्टी-प्रोडक्ट रीटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को इजाजत देने का वक्त आ गया है और आईएमजी सिफारिश करता है कि सरकार इस पर जल्द से जल्द विचार करे। ' किसी उच्चस्तरीय सरकारी पैनल की ओर से मल्टी-ब्रैंड रीटेल में एफडीआई की इजाजत देने की सिफारिश होने का यह पहला मामला है। इस मुद्दे पर बीते दस साल से विचार-विमर्श जारी है , लेकिन कभी समाधान नहीं निकल पाया। वामपंथी दल और बीजेपी काफी पहले से विदेशी रीटेल चेन के भारत में दाखिल होने का विरोध कर रहे हैं। उनकी दलील है कि इससे देश के छोटे दुकानदारों और कारोबारियों पर गहरा और बुरा असर होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऊंची मुद्रास्फीति दर से निपटने के उपाय सुझाने के लिए कई मंत्रियों के इस समूह (आईएमजी) का गठन किया था। इस समूह में वित्त , उद्योग , खाद्य , वाणिज्य और कृषि मंत्रालय के सचिव , कुछ जानकार और योजना आयोग की सदस्य सचिव सुधा पिल्लई शामिल हैं। बसु ने कहा , ' हम मल्टी-ब्रैंड रीटेल में एफडीआई के मामले में साफ रुख दिखा रहे हैं। जाहिर है , यह सिफारिश है न कि पॉलिसी। ' यह पैनल प्रधानमंत्री और दूसरे अहम मंत्रालयों को अपनी सिफारिशें सौंपेगा। उम्मीद है कि संगठित रीटेल से किसानों को मिलने वाली कीमत और ग्राहकों की जेब से निकलने वाली रकम का अंतर घटेगा। इससे महंगाई को काबू करने में मदद मिलेगी। फिलहाल , भारत में सिंगल-ब्रैंड रीटेल में 51 फीसदी एफडीआई और होलसेल कैश एंड कैरी में 100 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत है। वॉलमार्ट और कारफूर ने देश में कैश एंड कैरी कारोबार शुरू किया है , लेकिन वे सीधे तौर पर अंतिम ग्राहकों को अपने उत्पाद नहीं बेच सकतीं। देश की सबसे बड़ी रीटेल कंपनी फ्यूचर समूह के चेयरमैन किशोर बियानी ने कहा , ' आधुनिक रीटेल में सारा खेल डिस्ट्रीब्यूशन और दमदार सप्लाई चेन का है। जिस तरह से भारत बढ़ रहा है और उपभोग में इजाफा हो रहा है , डिस्ट्रीब्यूशन में भी बदलाव की जरूरत है। ' औद्योगिक नीति एवं संवर्द्धन विभाग (डीआईपीपी) ने मल्टी-ब्रैंड रीटेल के दरवाजे खोलने को औपचारिक कैबिनेट नोट की तैयारियों के लिए जमीनी कामकाज शुरू कर दिया है। सरकारी अधिकारी ने बताया कि पैनल कोल्ड चैनल के डिवेलपमेंट जैसे बैकएंड इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश के लिए मजबूत शर्तों के साथ सेक्टर में एफडीआई के लिए 51 फीसदी सीमा तय करने का मशविरा दे सकता है। (Navbharat Times Hindi)
रिटेल एफडीआई से महंगाई घटेगी:कौशिक बसु
रिटेल सेक्टर में एफडीआई आने से महंगाई घटेगी और ग्राहकों को कम कीमत में सामान मिलेंगे.
बढ़ती मुद्रास्फीति से चिंतित अंतर-मंत्रालयी समूह (आईएमजी) ने महंगाई पर नियंत्रण के लिये बहु-ब्रांड खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को मंजूरी देने तथा कृषि विपणन कानून में बदलाव का सुझाव दिया है.नई दिल्ली में शुक्रवार को मुख्य आर्थिक सलाहकार तथा आईएमजी के चेयरमैन कौशिक बसु ने कहा, 'हम बहु-ब्रांड खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में स्पष्ट रूख अपना रहे हैं. यह सिफारिश है न कि नीति.'कौशिक बसु की अगुवाई वाले इंटर मिनिस्ट्रियल ग्रुप ने रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश की जोरदार सिफारिश की है.कमेटी का मानना है कि रिटेल सेक्टर में एफडीआई आने से प्रतियोगिता बढ़ेगी. इसके अलावा कमेटी का कहना है कि रिटेल सेक्टर में एफडीआई आने से देश के छोटे सप्लायर्स विदेशी कंपनियों तक पहुंच पाएंगे. साथ ही, रिटेल सेक्टर के लिए रेगुलेटर भी बनने की सिफारिश की गई है.कौशिक बसु ने महंगाई पर लगाम के लिए कृषि उत्पादों के लिए बने एपीएमसी एक्ट में बदलाव की सिफारिश की है. महंगाई को देखते हुए एपीएमसी एक्ट में बदलाव करने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि अंतर मंत्रालयी समूह एक आदर्श कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) कानून तैयार किये जाने के पक्ष में है. इसे राज्य भी स्थानीय स्तर पर आपूर्ति संबंधी बाधाओं को दूर करने के लिये अपना सकते हैं. बसु ने कहा, 'खेत-खलिहान एवं उपभोक्ता मूल्य में अंतर को कम करने के लिये एपीएमसी कानून को संशोधित करने की जरूरत है. हमें ऐसे एक ऐसे नये कानून की जरूरत है जिसे राज्य अपना सकें.' उच्च मुद्रास्फीति से चिंतित सरकार ने जनवरी महीने में बढ़ती कीमत पर अंकुश लगाने के बारे में सुझाव देने के लिये अंतर-मंत्रालयी समूह का गठन किया था. अप्रैल महीने में सकल मुद्रास्फीति 8.66 प्रतिशत रही जो 5-6 प्रतिशत के सामान्य स्तर से कहीं अधिक है. खाद्य मुद्रास्फीति 14 मई को समाप्त सप्ताह में 8.55 प्रतिशत रही. सरकार के साथ साथ रिजर्व बैंक ने भी महंगाई को काबू में करने के लिये कई कदम उठाये हैं लेकिन इसके बावजदू यह उच्च स्तर पर बनी हुई है.बसु ने कहा कि सरकार और रिजर्व बैंक दोनों बढ़ती कीमत पर अंकुश लगाने के लिये साथ मिलकर काम कर रहे हैं. (Samay Live)
बढ़ती मुद्रास्फीति से चिंतित अंतर-मंत्रालयी समूह (आईएमजी) ने महंगाई पर नियंत्रण के लिये बहु-ब्रांड खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को मंजूरी देने तथा कृषि विपणन कानून में बदलाव का सुझाव दिया है.नई दिल्ली में शुक्रवार को मुख्य आर्थिक सलाहकार तथा आईएमजी के चेयरमैन कौशिक बसु ने कहा, 'हम बहु-ब्रांड खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में स्पष्ट रूख अपना रहे हैं. यह सिफारिश है न कि नीति.'कौशिक बसु की अगुवाई वाले इंटर मिनिस्ट्रियल ग्रुप ने रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश की जोरदार सिफारिश की है.कमेटी का मानना है कि रिटेल सेक्टर में एफडीआई आने से प्रतियोगिता बढ़ेगी. इसके अलावा कमेटी का कहना है कि रिटेल सेक्टर में एफडीआई आने से देश के छोटे सप्लायर्स विदेशी कंपनियों तक पहुंच पाएंगे. साथ ही, रिटेल सेक्टर के लिए रेगुलेटर भी बनने की सिफारिश की गई है.कौशिक बसु ने महंगाई पर लगाम के लिए कृषि उत्पादों के लिए बने एपीएमसी एक्ट में बदलाव की सिफारिश की है. महंगाई को देखते हुए एपीएमसी एक्ट में बदलाव करने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि अंतर मंत्रालयी समूह एक आदर्श कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) कानून तैयार किये जाने के पक्ष में है. इसे राज्य भी स्थानीय स्तर पर आपूर्ति संबंधी बाधाओं को दूर करने के लिये अपना सकते हैं. बसु ने कहा, 'खेत-खलिहान एवं उपभोक्ता मूल्य में अंतर को कम करने के लिये एपीएमसी कानून को संशोधित करने की जरूरत है. हमें ऐसे एक ऐसे नये कानून की जरूरत है जिसे राज्य अपना सकें.' उच्च मुद्रास्फीति से चिंतित सरकार ने जनवरी महीने में बढ़ती कीमत पर अंकुश लगाने के बारे में सुझाव देने के लिये अंतर-मंत्रालयी समूह का गठन किया था. अप्रैल महीने में सकल मुद्रास्फीति 8.66 प्रतिशत रही जो 5-6 प्रतिशत के सामान्य स्तर से कहीं अधिक है. खाद्य मुद्रास्फीति 14 मई को समाप्त सप्ताह में 8.55 प्रतिशत रही. सरकार के साथ साथ रिजर्व बैंक ने भी महंगाई को काबू में करने के लिये कई कदम उठाये हैं लेकिन इसके बावजदू यह उच्च स्तर पर बनी हुई है.बसु ने कहा कि सरकार और रिजर्व बैंक दोनों बढ़ती कीमत पर अंकुश लगाने के लिये साथ मिलकर काम कर रहे हैं. (Samay Live)
27 मई 2011
अगस्त तक आलू के दाम नरम रहने की संभावना
आर.एस. राणा नई दिल्ली
बदहाली - किसानों को आलू की उचित कीमत भी नहीं मिल रहीघाटे का सौदा:- किसान 250 से 350 रुपये प्रति क्विंटल की दर पर आलू बेचने को मजबूर हैं। जबकि 120 रुपये प्रति क्विंटल का कोल्ड स्टोर का किराए के अलावा दूसरे खर्च आ रहे हैं। किसानों का कुल खर्च करीब 160-170 रुपये प्रति क्विंटल आ रहा है। बंपर पैदावार के कारण मांग के मुकाबले काफी आवक ज्यादा होने से आलू की कीमतों में गिरावट थम नहीं रही है। दिल्ली आजादपुर मंडी में कोल्ड के आलू का भाव 250 से 325 रुपये, पंजाब के आलू का भाव 230 से 300 रुपये और हिमाचल के आलू का भाव 350 से 450 रुपये प्रति 50 किलो चल रहा है। वर्ष 2010-11 में देश में आलू की पैदावार 10 फीसदी बढ़कर 4.02 करोड़ टन होने का अनुमान है। ऐसे में जुलाई तक आलू की कीमतों में तेजी की संभावना नहीं है।
पोटेटो-ऑनियन मर्चेंट्स एसोसिएशन (पोमा) के अध्यक्ष त्रिलोक चंद शर्मा ने बताया कि बंपर उत्पादन होने से आलू की आवक ज्यादा हो रही है जबकि इसके मुकाबले मांग कम आ रही है। दिल्ली की आजादपुर मंडी में आलू की दैनिक आवक 110 से 115 ट्रकों (प्रति ट्रक 250 कट्टे, एक कट्टा 50 किलो) की हो रही है। लेकिन बिक्री 70 से 80 ट्रकों की हो पाती है। गर्मी होने के कारण मई से जुलाई तक मांग कम रहती है। वैसे भी हरी सब्जियों के दाम कम होने से आलू की खपत पर असर पड़ रहा है।
मेरठ के आलू किसान अंबुज शर्मा ने बताया कि आलू की खेती किसानों के लिए घाटे का सौदा बनती जा रही है। आलू की खेती का ज्यादातर काम मजदूरों से कराना होता है जबकि मजदूरी की दर लगातार बढ़ रही है।
किसान आलू की बिकवाली 250 से 350 रुपये प्रति क्विंटल की दर से कर रहे हैं। इसमें 120 रुपये प्रति क्विंटल का कोल्ड स्टोर का भाड़ा, परिवहन लागत, मंडी का खर्च और बोरी की कीमत मिलाकर कुल खर्च करीब 160-170 रुपये प्रति क्विंटल का आ जाता है। आगरा कोल्ड स्टोरेज एसोसिएशन के अध्यक्ष सुदर्शन सिंघल ने बताया कि कोल्ड स्टोर से केवल पांच फीसदी आलू की ही निकासी हो पाई है। बनवारी लाल एंड संस के पार्टनर उमेश अग्रवाल ने बताया कि अगस्त में आलू की खपत बढ़ जाती है।
जबकि पंजाब और हिमाचल से इस दौरान आलू की आवक बंद हो जाएगी। इसीलिए मंडी में आपूर्ति कोल्ड स्टोर के आलू की होगी जिससे मौजूदा कीमतों में हल्का सुधार आ सकता है। उन्होंने पश्चिम बंगाल की मंडियों में आलू की आवक कम होने से पिछले 15 दिनों में दाम सुधरे हैं। मंडी में आलू के थोक दाम बढ़कर 580-620 रुपये प्रति क्विंटल हो गए हैं लेकिन बंपर पैदावार से ज्यादा तेजी की संभावना नहीं है।
राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड (एनएचबी) के आरंभिक अनुमान के अनुसार वर्ष 2010-11 में देश में आलू की पैदावार बढ़कर 4.02 करोड़ टन होने का अनुमान है जबकि पिछले वर्ष 3.65 करोड़ टन का उत्पादन हुआ था। इसमें उत्तर प्रदेश में 140 लाख टन, पश्चिम बंगाल में 88 लाख टन, बिहार में 56 लाख टन और पंजाब में 21 लाख टन पैदावार होने का अनुमान है।
मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज (एमसीएक्स) पर पिछले बीस दिनों में आलू की कीमतों में 9 फीसदी की गिरावट आ चुकी है। जून महीने के वायदा अनुबंध में आलू का भाव पांच मई को 573 रुपये प्रति क्विंटल था जबकि गुरुवार को भाव घटकर 521 रुपये प्रति क्विंटल रह गया। (Business Bhaskar....R S Rana)
बदहाली - किसानों को आलू की उचित कीमत भी नहीं मिल रहीघाटे का सौदा:- किसान 250 से 350 रुपये प्रति क्विंटल की दर पर आलू बेचने को मजबूर हैं। जबकि 120 रुपये प्रति क्विंटल का कोल्ड स्टोर का किराए के अलावा दूसरे खर्च आ रहे हैं। किसानों का कुल खर्च करीब 160-170 रुपये प्रति क्विंटल आ रहा है। बंपर पैदावार के कारण मांग के मुकाबले काफी आवक ज्यादा होने से आलू की कीमतों में गिरावट थम नहीं रही है। दिल्ली आजादपुर मंडी में कोल्ड के आलू का भाव 250 से 325 रुपये, पंजाब के आलू का भाव 230 से 300 रुपये और हिमाचल के आलू का भाव 350 से 450 रुपये प्रति 50 किलो चल रहा है। वर्ष 2010-11 में देश में आलू की पैदावार 10 फीसदी बढ़कर 4.02 करोड़ टन होने का अनुमान है। ऐसे में जुलाई तक आलू की कीमतों में तेजी की संभावना नहीं है।
पोटेटो-ऑनियन मर्चेंट्स एसोसिएशन (पोमा) के अध्यक्ष त्रिलोक चंद शर्मा ने बताया कि बंपर उत्पादन होने से आलू की आवक ज्यादा हो रही है जबकि इसके मुकाबले मांग कम आ रही है। दिल्ली की आजादपुर मंडी में आलू की दैनिक आवक 110 से 115 ट्रकों (प्रति ट्रक 250 कट्टे, एक कट्टा 50 किलो) की हो रही है। लेकिन बिक्री 70 से 80 ट्रकों की हो पाती है। गर्मी होने के कारण मई से जुलाई तक मांग कम रहती है। वैसे भी हरी सब्जियों के दाम कम होने से आलू की खपत पर असर पड़ रहा है।
मेरठ के आलू किसान अंबुज शर्मा ने बताया कि आलू की खेती किसानों के लिए घाटे का सौदा बनती जा रही है। आलू की खेती का ज्यादातर काम मजदूरों से कराना होता है जबकि मजदूरी की दर लगातार बढ़ रही है।
किसान आलू की बिकवाली 250 से 350 रुपये प्रति क्विंटल की दर से कर रहे हैं। इसमें 120 रुपये प्रति क्विंटल का कोल्ड स्टोर का भाड़ा, परिवहन लागत, मंडी का खर्च और बोरी की कीमत मिलाकर कुल खर्च करीब 160-170 रुपये प्रति क्विंटल का आ जाता है। आगरा कोल्ड स्टोरेज एसोसिएशन के अध्यक्ष सुदर्शन सिंघल ने बताया कि कोल्ड स्टोर से केवल पांच फीसदी आलू की ही निकासी हो पाई है। बनवारी लाल एंड संस के पार्टनर उमेश अग्रवाल ने बताया कि अगस्त में आलू की खपत बढ़ जाती है।
जबकि पंजाब और हिमाचल से इस दौरान आलू की आवक बंद हो जाएगी। इसीलिए मंडी में आपूर्ति कोल्ड स्टोर के आलू की होगी जिससे मौजूदा कीमतों में हल्का सुधार आ सकता है। उन्होंने पश्चिम बंगाल की मंडियों में आलू की आवक कम होने से पिछले 15 दिनों में दाम सुधरे हैं। मंडी में आलू के थोक दाम बढ़कर 580-620 रुपये प्रति क्विंटल हो गए हैं लेकिन बंपर पैदावार से ज्यादा तेजी की संभावना नहीं है।
राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड (एनएचबी) के आरंभिक अनुमान के अनुसार वर्ष 2010-11 में देश में आलू की पैदावार बढ़कर 4.02 करोड़ टन होने का अनुमान है जबकि पिछले वर्ष 3.65 करोड़ टन का उत्पादन हुआ था। इसमें उत्तर प्रदेश में 140 लाख टन, पश्चिम बंगाल में 88 लाख टन, बिहार में 56 लाख टन और पंजाब में 21 लाख टन पैदावार होने का अनुमान है।
मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज (एमसीएक्स) पर पिछले बीस दिनों में आलू की कीमतों में 9 फीसदी की गिरावट आ चुकी है। जून महीने के वायदा अनुबंध में आलू का भाव पांच मई को 573 रुपये प्रति क्विंटल था जबकि गुरुवार को भाव घटकर 521 रुपये प्रति क्विंटल रह गया। (Business Bhaskar....R S Rana)
महंगा पड़ रहा है ड्रैगन का सोना प्रेम
मुंबई : भारतीय खरादारों को सोने के गहनों के लिए ज्यादा कीमत चुकानी होगी। इसकी वजह सिर्फ
सोने की बढ़ती कीमतें नहीं हैं। दरअसल, चीन में बढ़ी मांग के चलते भारतीय उपभोक्ताओं की जेब ढीली होगी। चीन में मांग बढ़ने और विमानों का ईंधन महंगा होने के चलते विदेशी सप्लाइकर्ताओं ने हाल में सोने पर प्रीमियम बढ़ा दिया है। एक प्रमुख सरकारी बैंक की बुलियन ब्रांच के एक अधिकारी ने कहा कि सप्लायरों ने इस महीने चीनी मांग में तेज उछाल के चलते एक औंस (31.10 ग्राम) के लिए प्रीमियम 75 सेंट से एक डॉलर तक बढ़ा दिया। घरेलू ज्वैलर्स को सोने की सप्लाई करने वाले स्कॉटियाबैंक के एक अधिकारी ने कहा कि जेट ईंधन में तेजी ने भी बैंक को प्रीमियम बढ़ाने के लिए मजबूर किया है। सरकारी बैंक के अधिकारी ने कहा, 'चीन से मांग लगातार बढ़ रही है। उनकी वजह से सप्लाई पर दबाव पड़ा है, जिसके चलते इस महीने प्रीमियम 1-1.5 डॉलर प्रति औंस से बढ़कर 1.5-2 डॉलर प्रति औंस हो गया।' बैंक सप्लायर के प्रीमियम के ऊपर 30-50 सेंट प्रति औंस का कमीशन लेता है। सप्लायर के प्रीमियम में पैकिंग, इंश्योरेंस और ट्रांसपोर्ट का खर्च शामिल होता है। स्कॉटियाबैंक की शाखा स्कॉटियामोकाटा के एमडी (बुलियन) राजन वेंकटेश के मुताबिक, हवाई ईंधन की ऊंची कीमतों की भरपाई के लिए सोने के प्रीमियम में 20-30 सेंट प्रति औंस की हल्की बढ़ोतरी की गई थी। सोने की ढुलाई मुख्य तौर पर हवाई रास्ते से होती है। क्रूड ऑयल की कीमतों में तेजी के साथ अंतरराष्ट्रीय जेट ईंधन के दाम मार्च के 918.5 डॉलर प्रति किलोलीटर से बढ़कर अप्रैल में 1020.66 डॉलर प्रति किलोलीटर और मई में 1061.14 प्रति किलोलीटर रहे। पिछले 11 वषोर्ं से हर साल सोने के भाव बढ़े हैं। डॉलर में कमजोरी और हाल में यूरो जोन के कर्ज संकट, साथ ही चीन और भारत जैसे उभरते बाजारों में महंगाई की वजह से पिछले एक साल में सोने के भाव में 21 फीसदी की तेजी आई है और यह 22,593 रुपए प्रति 10 ग्राम पर पहुंच गया है। सोने के भाव में डॉलर से उलटी गति देखी जाती है और महंगाई के खिलाफ हेजिंग के लिए इसका इस्तेमाल होता है। वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल (डब्ल्यूजीसी) ने पाया है कि साल 2011 की पहली तिमाही में चीन में सोने की मांग वहां के लोगों के सांस्कृतिक जुड़ाव, महंगाई पर काबू पाने के लिए की जा रही मौद्रिक सख्ती और सोने पर चीन के केंदीय बैंक की सकारात्मक नजर तथा रियल एस्टेट से नकदी दूसरे सेक्टरों में जाने की वजह से बढ़ी है। बैंकरों का कहना है, 'आज चीन दुनिया में सोने का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है। 2010 में सोने के भाव में औसतन सालाना 25 फीसदी की तेजी के बाद भी सोने की मांग 32 फीसदी बढ़ी। पहली बार ज्वैलरी, निवेश और टेकनेलॉजी सभी को मिलाकर सोने की सालाना मांग 700 टन के पार पहुंच गई।' बैंकरों का कहना है कि फिलहाल चीन की मांग भारत से ज्यादा है। चीन ने पिछले साल 958 टन सोने का आयात किया था। डब्ल्यूजीसी के मुताबिक, चालू साल की पहली तिमाही में सोने की ज्वैलरी के लिए भारतीय मांग 206.2 टन रही, जो वैश्विक मांग का 37 फीसदी है। (ET Hindi)
सोने की बढ़ती कीमतें नहीं हैं। दरअसल, चीन में बढ़ी मांग के चलते भारतीय उपभोक्ताओं की जेब ढीली होगी। चीन में मांग बढ़ने और विमानों का ईंधन महंगा होने के चलते विदेशी सप्लाइकर्ताओं ने हाल में सोने पर प्रीमियम बढ़ा दिया है। एक प्रमुख सरकारी बैंक की बुलियन ब्रांच के एक अधिकारी ने कहा कि सप्लायरों ने इस महीने चीनी मांग में तेज उछाल के चलते एक औंस (31.10 ग्राम) के लिए प्रीमियम 75 सेंट से एक डॉलर तक बढ़ा दिया। घरेलू ज्वैलर्स को सोने की सप्लाई करने वाले स्कॉटियाबैंक के एक अधिकारी ने कहा कि जेट ईंधन में तेजी ने भी बैंक को प्रीमियम बढ़ाने के लिए मजबूर किया है। सरकारी बैंक के अधिकारी ने कहा, 'चीन से मांग लगातार बढ़ रही है। उनकी वजह से सप्लाई पर दबाव पड़ा है, जिसके चलते इस महीने प्रीमियम 1-1.5 डॉलर प्रति औंस से बढ़कर 1.5-2 डॉलर प्रति औंस हो गया।' बैंक सप्लायर के प्रीमियम के ऊपर 30-50 सेंट प्रति औंस का कमीशन लेता है। सप्लायर के प्रीमियम में पैकिंग, इंश्योरेंस और ट्रांसपोर्ट का खर्च शामिल होता है। स्कॉटियाबैंक की शाखा स्कॉटियामोकाटा के एमडी (बुलियन) राजन वेंकटेश के मुताबिक, हवाई ईंधन की ऊंची कीमतों की भरपाई के लिए सोने के प्रीमियम में 20-30 सेंट प्रति औंस की हल्की बढ़ोतरी की गई थी। सोने की ढुलाई मुख्य तौर पर हवाई रास्ते से होती है। क्रूड ऑयल की कीमतों में तेजी के साथ अंतरराष्ट्रीय जेट ईंधन के दाम मार्च के 918.5 डॉलर प्रति किलोलीटर से बढ़कर अप्रैल में 1020.66 डॉलर प्रति किलोलीटर और मई में 1061.14 प्रति किलोलीटर रहे। पिछले 11 वषोर्ं से हर साल सोने के भाव बढ़े हैं। डॉलर में कमजोरी और हाल में यूरो जोन के कर्ज संकट, साथ ही चीन और भारत जैसे उभरते बाजारों में महंगाई की वजह से पिछले एक साल में सोने के भाव में 21 फीसदी की तेजी आई है और यह 22,593 रुपए प्रति 10 ग्राम पर पहुंच गया है। सोने के भाव में डॉलर से उलटी गति देखी जाती है और महंगाई के खिलाफ हेजिंग के लिए इसका इस्तेमाल होता है। वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल (डब्ल्यूजीसी) ने पाया है कि साल 2011 की पहली तिमाही में चीन में सोने की मांग वहां के लोगों के सांस्कृतिक जुड़ाव, महंगाई पर काबू पाने के लिए की जा रही मौद्रिक सख्ती और सोने पर चीन के केंदीय बैंक की सकारात्मक नजर तथा रियल एस्टेट से नकदी दूसरे सेक्टरों में जाने की वजह से बढ़ी है। बैंकरों का कहना है, 'आज चीन दुनिया में सोने का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है। 2010 में सोने के भाव में औसतन सालाना 25 फीसदी की तेजी के बाद भी सोने की मांग 32 फीसदी बढ़ी। पहली बार ज्वैलरी, निवेश और टेकनेलॉजी सभी को मिलाकर सोने की सालाना मांग 700 टन के पार पहुंच गई।' बैंकरों का कहना है कि फिलहाल चीन की मांग भारत से ज्यादा है। चीन ने पिछले साल 958 टन सोने का आयात किया था। डब्ल्यूजीसी के मुताबिक, चालू साल की पहली तिमाही में सोने की ज्वैलरी के लिए भारतीय मांग 206.2 टन रही, जो वैश्विक मांग का 37 फीसदी है। (ET Hindi)
कपास की पैदावार पर घटिया बीज की मार
अहमदाबाद May 26, 2011
रकबे में बढ़ोतरी के बावजूद भारत में पिछले तीन सालों से कपास की पैदावार में गिरावट दर्ज की गई है। खराब मौसम और देश के कई हिस्सों में बीटी कपास के घटिया बीज के बढ़ते इस्तेमाल की वजह से ऐसा हो रहा है। कपास सलाहकार बोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक, कपास की पैदावार साल 2007-08 में 554 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी, जो 2008-9, 2009-10 और 2010-11 में घटकर क्रमश: 524 किलोग्राम, 498 किलोग्राम और 475 किलोग्राम रह गई है। इसके उलट देश में कपास का रकबा साल 2007-08 के 94.1 लाख हेक्टेयर से बढ़कर साल 2010-11 में 110 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है। साल 2008-09 और 2009-10 में 94 लाख व 103.1 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में कपास की बुआई हुई थी।इस बीच, देश में कपास उत्पादन में धीमी गति से बढ़ोतरी हुई है। साल 2007-08 में 307 लाख गांठ कपास का उत्पादन हुआ था, जो साल 2008-09 में मामूली घटकर 290 लाख गांठ रह गया। हालांकि पिछले दो साल से उत्पादन में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। 2009-10 में 295 लाख गांठ कपास का उत्पादन हुआ था, जो 2010-11 में बढ़कर 312 लाख गांठ हो गया।विश्लेषक और उद्योग से जुड़े अन्य लोगों का मानना है कि खराब मौसम और घटिया बीज के इस्तेमाल की वजह से कपास की पैदावार में लगातार गिरावट आ रही है। विभा सीड्स के प्रबंध निदेशक विद्यासागर परचुरी ने कहा - प्रमाणीकृत बीटी कपास के बीज में न्यूनतम 90 फीसदी जिनेटिक शुद्धता की दरकार होती है, जो अवैध यानी घटिया बीज में काफी कम होता है। जिनेटिक शुद्धता में 1 फीसदी की कमी से कपास के उत्पादन में कम से कम एक क्विंटल की कमी आ जाती है। साथ ही, घटिया बीज के मामले में कपास की गुणवत्ता एकसमान नहीं हो पाती। इस वजह से न सिर्फ पैदावार पर असर पड़ता है, बल्कि कपास की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है और इससे किसानों को मिलने वाले प्रतिफल में कमी आती है।देश में सालाना 4 करोड़ पैकेट (450 ग्राम प्रति पैकेट) बीटी बीज की दरकार होती है, जिसमें से करीब 10 से 12 फीसदी अवैध या गैर-पंजीकृत बीटी कपास के बीज माने जाते हैं। उद्योग के सूत्रों के मुताबिक, ऐसे घटिया या अवैध बीज के इस्तेमाल से न सिर्फ पैदावार पर असर पड़ता है बल्कि कपास की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। बीटी कपास के घटिया बीज का इस्तेमाल वैसे तो सभी प्रमुख कपास उत्पादक इलाकों में होता है, लेकिन इसका ज्यादा इस्तेमाल गुजरात, हरियाणा व पंजाब में होता है।गुजरात स्टेट कोऑपरेटिव कॉटन फाउंडेशन के प्रबंध निदेशक एन. एम. शर्मा ने कहा - कपास उत्पादकों के लिए अवैध या नकली बीज का इस्तेमाल खतरनाक है क्योंकि यह कपास की खेती की वित्तीय उपयुक्तता को भी नुकसान पहुंचाता है। अकेले गुजरात में हर साल 11 लाख से 16 लाख पैकेट नकली बीज की खपत होती है। ऐसे घटिया बीज से अच्छी उत्पादकता की कोई गारंटी नहीं होती। इससे सिर्फ और सिर्फ पैदावार में कमी आती है। आदर्श रूप से बोलगार्ड-2 किस्म के बीज का इस्तेमाल शुरू होने के बाद प्रति हेक्टेयर पैदावार बढ़कर 900 किलोग्राम पर पहुंच जाना चाहिए, लेकिन साल 2010-11 में यह 659 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा है। गुजरात में साल 2007-08 में कपास की पैदावार 772 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रही है। राज्य में 26 लाख हेक्टेयर में कपास का उत्पादन होता है, जिसमें से 8 लाख हेक्टेयर में कपास के पारंपरिक बीज का इस्तेमाल होता है जबकि बाकी क्षेत्र में बीटी कपास के बीज का इस्तेमाल होता है।हालांकि, देश में कपास की घटती पैदावार के बारे में उद्योग की अलग राय है। नैशनल सीड्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया कपास की घटती पैदावार के लिए खराब मौसम को जिम्मेदार ठहरा रहा है न कि घटिया बीज के इस्तेमाल को। एनएसएआई के सचिव हरीश रेड्डी ने कहा - अनिश्चित मौसम की वजह से पिछले कुछ सालों में कपास की पैदावार में गिरावट आई है, न कि अवैध यानी घटिया बीज के इस्तेमाल से।उन्होंने कहा - आंध्र प्रदेश व महाराष्ट्र जैसे राज्य में कपास की बुआई का बड़ा इलाका बारिश पर आश्रित है और यहां कपास के कुल रकबे का करीब 60 फीसदी इलाका है। इन इलाकों में मौसम के चलते पैदावार में और गिरावट आ सकती है। ऐसे में पैदावार में गिरावट खराब मौसम के चलते आ रही है, न कि अवैध बीज के इस्तेमाल से।देश के कपास किसानों को पिछले कुछ सालों में बीटी कपास से भारी रिटर्न मिला है। कपास की अच्छी कीमतों के आकर्षित होकर ज्यादा से ज्यादा किसान बीटी कपास की खेती करने लगे और इस वजह से कपास का रकबा 94.1 लाख हेक्टेयर से बढ़कर साल 2010-11 में 110 लाख हेक्टेयर परपहुंच गया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, कपास के कुल रकबे में करीब 88 फीसदी इलाकों में बीटी कपास की खेती होती है, जो पिछले साल के मुकाबले 10 फीसदी ज्यादा है। (BS Hindi)
रकबे में बढ़ोतरी के बावजूद भारत में पिछले तीन सालों से कपास की पैदावार में गिरावट दर्ज की गई है। खराब मौसम और देश के कई हिस्सों में बीटी कपास के घटिया बीज के बढ़ते इस्तेमाल की वजह से ऐसा हो रहा है। कपास सलाहकार बोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक, कपास की पैदावार साल 2007-08 में 554 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी, जो 2008-9, 2009-10 और 2010-11 में घटकर क्रमश: 524 किलोग्राम, 498 किलोग्राम और 475 किलोग्राम रह गई है। इसके उलट देश में कपास का रकबा साल 2007-08 के 94.1 लाख हेक्टेयर से बढ़कर साल 2010-11 में 110 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है। साल 2008-09 और 2009-10 में 94 लाख व 103.1 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में कपास की बुआई हुई थी।इस बीच, देश में कपास उत्पादन में धीमी गति से बढ़ोतरी हुई है। साल 2007-08 में 307 लाख गांठ कपास का उत्पादन हुआ था, जो साल 2008-09 में मामूली घटकर 290 लाख गांठ रह गया। हालांकि पिछले दो साल से उत्पादन में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। 2009-10 में 295 लाख गांठ कपास का उत्पादन हुआ था, जो 2010-11 में बढ़कर 312 लाख गांठ हो गया।विश्लेषक और उद्योग से जुड़े अन्य लोगों का मानना है कि खराब मौसम और घटिया बीज के इस्तेमाल की वजह से कपास की पैदावार में लगातार गिरावट आ रही है। विभा सीड्स के प्रबंध निदेशक विद्यासागर परचुरी ने कहा - प्रमाणीकृत बीटी कपास के बीज में न्यूनतम 90 फीसदी जिनेटिक शुद्धता की दरकार होती है, जो अवैध यानी घटिया बीज में काफी कम होता है। जिनेटिक शुद्धता में 1 फीसदी की कमी से कपास के उत्पादन में कम से कम एक क्विंटल की कमी आ जाती है। साथ ही, घटिया बीज के मामले में कपास की गुणवत्ता एकसमान नहीं हो पाती। इस वजह से न सिर्फ पैदावार पर असर पड़ता है, बल्कि कपास की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है और इससे किसानों को मिलने वाले प्रतिफल में कमी आती है।देश में सालाना 4 करोड़ पैकेट (450 ग्राम प्रति पैकेट) बीटी बीज की दरकार होती है, जिसमें से करीब 10 से 12 फीसदी अवैध या गैर-पंजीकृत बीटी कपास के बीज माने जाते हैं। उद्योग के सूत्रों के मुताबिक, ऐसे घटिया या अवैध बीज के इस्तेमाल से न सिर्फ पैदावार पर असर पड़ता है बल्कि कपास की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। बीटी कपास के घटिया बीज का इस्तेमाल वैसे तो सभी प्रमुख कपास उत्पादक इलाकों में होता है, लेकिन इसका ज्यादा इस्तेमाल गुजरात, हरियाणा व पंजाब में होता है।गुजरात स्टेट कोऑपरेटिव कॉटन फाउंडेशन के प्रबंध निदेशक एन. एम. शर्मा ने कहा - कपास उत्पादकों के लिए अवैध या नकली बीज का इस्तेमाल खतरनाक है क्योंकि यह कपास की खेती की वित्तीय उपयुक्तता को भी नुकसान पहुंचाता है। अकेले गुजरात में हर साल 11 लाख से 16 लाख पैकेट नकली बीज की खपत होती है। ऐसे घटिया बीज से अच्छी उत्पादकता की कोई गारंटी नहीं होती। इससे सिर्फ और सिर्फ पैदावार में कमी आती है। आदर्श रूप से बोलगार्ड-2 किस्म के बीज का इस्तेमाल शुरू होने के बाद प्रति हेक्टेयर पैदावार बढ़कर 900 किलोग्राम पर पहुंच जाना चाहिए, लेकिन साल 2010-11 में यह 659 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा है। गुजरात में साल 2007-08 में कपास की पैदावार 772 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रही है। राज्य में 26 लाख हेक्टेयर में कपास का उत्पादन होता है, जिसमें से 8 लाख हेक्टेयर में कपास के पारंपरिक बीज का इस्तेमाल होता है जबकि बाकी क्षेत्र में बीटी कपास के बीज का इस्तेमाल होता है।हालांकि, देश में कपास की घटती पैदावार के बारे में उद्योग की अलग राय है। नैशनल सीड्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया कपास की घटती पैदावार के लिए खराब मौसम को जिम्मेदार ठहरा रहा है न कि घटिया बीज के इस्तेमाल को। एनएसएआई के सचिव हरीश रेड्डी ने कहा - अनिश्चित मौसम की वजह से पिछले कुछ सालों में कपास की पैदावार में गिरावट आई है, न कि अवैध यानी घटिया बीज के इस्तेमाल से।उन्होंने कहा - आंध्र प्रदेश व महाराष्ट्र जैसे राज्य में कपास की बुआई का बड़ा इलाका बारिश पर आश्रित है और यहां कपास के कुल रकबे का करीब 60 फीसदी इलाका है। इन इलाकों में मौसम के चलते पैदावार में और गिरावट आ सकती है। ऐसे में पैदावार में गिरावट खराब मौसम के चलते आ रही है, न कि अवैध बीज के इस्तेमाल से।देश के कपास किसानों को पिछले कुछ सालों में बीटी कपास से भारी रिटर्न मिला है। कपास की अच्छी कीमतों के आकर्षित होकर ज्यादा से ज्यादा किसान बीटी कपास की खेती करने लगे और इस वजह से कपास का रकबा 94.1 लाख हेक्टेयर से बढ़कर साल 2010-11 में 110 लाख हेक्टेयर परपहुंच गया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, कपास के कुल रकबे में करीब 88 फीसदी इलाकों में बीटी कपास की खेती होती है, जो पिछले साल के मुकाबले 10 फीसदी ज्यादा है। (BS Hindi)
गेहूं की बंपर पैदावार के बाद अब धान की बारी
चंडीगढ़ May 26, 2011
गेहूं की बंपर पैदावार के बाद अब धान की बारी है। अच्छे मॉनसून के पूर्वानुमानों के आधार पर भारत सरकार के कृषि विभाग ने 2011-12 में धान का उत्पादन 1030 लाख टन रहने का अनुमान जताया है। मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार, धान का रकबा संभवतया स्थिर (करीब 420-430 लाख हेक्टेयर) ही रहेगा, लेकिन इस साल कुल उत्पादन बढ़ सकता है, क्योंकि इस साल अनुकूल मॉनसून की उम्मीद है। पूर्वी भारत में हरित क्रांति लाकर इन राज्यों में सिंचाई की व्यवस्था सुनिश्चित करने से पैदावार में बढ़ोतरी होने की उम्मीद है। पूर्वी राज्यों के किसानों को आधुनिक कृषि विधियों से परिचित कराने के लिए पिछले साल राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत इस क्रांति की शुरुआत की गई थी। उन्होंने कहा कि उत्तर-पूर्व और झारखंड में मक्का और कपास जैसी फसलों के लिए भूमि की उपयुक्तता से धान के रकबे पर असर पड़ेगा, लेकिन इसकी भरपाई पूर्वी राज्यों की गहन खेती से हो जाएगी। भारत में धान का रिकॉर्ड उत्पादन 991.8 लाख टन वर्ष 2008-09 में दर्ज किया गया था। वहीं, इसके बाद के दो सूखे वर्षों में धान का उत्पादन 891.3 लाख टन (2009-10) और 940 लाख टन (2010-11) रहा। उन्होंने बताया कि जो जिले उत्पादन में पिछड़े हैं, उनके किसानों को प्रदर्शनी के जरिए कृषि विधियों की जानकारी मुहैया कराने के लिए भारत सरकार की योजना के तहत मजदूरों को किराए पर लिया गया है।केंद्रीय विज्ञान शोध संस्थान कटक, के निदेशक टी के आद्या ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से किसान चावल की फसल बोने के लिए प्रोत्साहित होते हैं, क्योंकि उन्हें अच्छी आमदनी प्राप्त होने की उम्मीद होती है। वहीं, पिछले कुछ वर्षों से लगातार एमएसपी बढ़ रहा है, लेकिन अब भी यह चावल उत्पादकों की उम्मीदों के अनुकूल नहीं है। अधिक उत्पादन उच्च उत्पादकता से ही हासिल किया जा सकता है। उन्हें कृषि के रकबे में बड़ी मात्रा में बढ़ोतरी होने की उम्मीद नहींं है, केवल अच्छे मॉनसून से धान के रकबे में मामूली वृद्धि हो सकती है। भारत में धान की पैदावार बढ़ाने की काफी संभावनाएं मौजूद हैं। मिस्र में धान की उत्पादकता सबसे अधिक 9.73 टन प्रति हेक्टेयर है, वहीं भारत इस मामले में 13वें स्थान पर है। देश में धान उत्पादकता 3.37 टन प्रति हेक्टेयर है। विश्व में भारत का धान के रकबे की दृष्टि से पहला स्थान, कुल उत्पादन में चीन के बाद दूसरा स्थान और उत्पादकता के मामले में 13वां स्थान है। (BS Hindi)
गेहूं की बंपर पैदावार के बाद अब धान की बारी है। अच्छे मॉनसून के पूर्वानुमानों के आधार पर भारत सरकार के कृषि विभाग ने 2011-12 में धान का उत्पादन 1030 लाख टन रहने का अनुमान जताया है। मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार, धान का रकबा संभवतया स्थिर (करीब 420-430 लाख हेक्टेयर) ही रहेगा, लेकिन इस साल कुल उत्पादन बढ़ सकता है, क्योंकि इस साल अनुकूल मॉनसून की उम्मीद है। पूर्वी भारत में हरित क्रांति लाकर इन राज्यों में सिंचाई की व्यवस्था सुनिश्चित करने से पैदावार में बढ़ोतरी होने की उम्मीद है। पूर्वी राज्यों के किसानों को आधुनिक कृषि विधियों से परिचित कराने के लिए पिछले साल राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत इस क्रांति की शुरुआत की गई थी। उन्होंने कहा कि उत्तर-पूर्व और झारखंड में मक्का और कपास जैसी फसलों के लिए भूमि की उपयुक्तता से धान के रकबे पर असर पड़ेगा, लेकिन इसकी भरपाई पूर्वी राज्यों की गहन खेती से हो जाएगी। भारत में धान का रिकॉर्ड उत्पादन 991.8 लाख टन वर्ष 2008-09 में दर्ज किया गया था। वहीं, इसके बाद के दो सूखे वर्षों में धान का उत्पादन 891.3 लाख टन (2009-10) और 940 लाख टन (2010-11) रहा। उन्होंने बताया कि जो जिले उत्पादन में पिछड़े हैं, उनके किसानों को प्रदर्शनी के जरिए कृषि विधियों की जानकारी मुहैया कराने के लिए भारत सरकार की योजना के तहत मजदूरों को किराए पर लिया गया है।केंद्रीय विज्ञान शोध संस्थान कटक, के निदेशक टी के आद्या ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से किसान चावल की फसल बोने के लिए प्रोत्साहित होते हैं, क्योंकि उन्हें अच्छी आमदनी प्राप्त होने की उम्मीद होती है। वहीं, पिछले कुछ वर्षों से लगातार एमएसपी बढ़ रहा है, लेकिन अब भी यह चावल उत्पादकों की उम्मीदों के अनुकूल नहीं है। अधिक उत्पादन उच्च उत्पादकता से ही हासिल किया जा सकता है। उन्हें कृषि के रकबे में बड़ी मात्रा में बढ़ोतरी होने की उम्मीद नहींं है, केवल अच्छे मॉनसून से धान के रकबे में मामूली वृद्धि हो सकती है। भारत में धान की पैदावार बढ़ाने की काफी संभावनाएं मौजूद हैं। मिस्र में धान की उत्पादकता सबसे अधिक 9.73 टन प्रति हेक्टेयर है, वहीं भारत इस मामले में 13वें स्थान पर है। देश में धान उत्पादकता 3.37 टन प्रति हेक्टेयर है। विश्व में भारत का धान के रकबे की दृष्टि से पहला स्थान, कुल उत्पादन में चीन के बाद दूसरा स्थान और उत्पादकता के मामले में 13वां स्थान है। (BS Hindi)
रिटेल एफडीआई से महंगाई घटेगी: कौशिक बसु
कौशिक बसु की अगुवाई वाले इंटर मिनिस्ट्रियल ग्रुप ने रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश की जोरदार सिफारिश की है। कमेटी का मानना है कि रिटेल सेक्टर में एफडीआई आने से प्रतियोगिता बढ़ेगी। जिसकी वजह से कंपनियों को मार्जिन कम रखने पड़ेंगे और ग्राहकों को कम कीमत में सामान मिलेंगे। इसके अलावा कमेटी का कहना है कि रिटेल सेक्टर में एफडीआई आने से देश के छोटे सप्लायर्स को विदेशी कंपनियों तक तक पहुंच पाएंगे। साथ ही, रिटेल सेक्टर के लिए रेगुलेटर भी बनने की सिफारिश की गई है। कौशिक बसु ने महंगाई पर लगाम के लिए कृषि उत्पादों के लिए बने एपीएमसी एक्ट में बदलाव की सिफारिश की है। महंगाई को देखते हुए एपीएमसी एक्ट में बदलाव करने की जरूरत है। (CNBC Aawaj)
अनाज भंडारण क्षमता 40 लाख टन बढ़ाने की तैयारी
आर.एस. राणा नई दिल्ली
अनाज भंडारण की समस्या को दूर करने के लिए खाद्य मंत्रालय ने अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। मंत्रालय ने संभावना जताई है कि 31 मार्च, 2012 तक देशभर में 40 लाख टन की अतिरिक्त खाद्यान्न भंडारण क्षमता तैयार हो जाएगी। केंद्रीय पूल में गत 1 मई को 593.11 लाख टन खाद्यान्न का स्टॉक मौजूदा था, जबकि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की अपनी और किराये पर ली गई कुल भंडारण क्षमता 1 अप्रैल 2011 को 316.1 लाख टन की ही थी।
खाद्य मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि 31 मार्च 2012 तक 40 लाख टन की अतिरिक्त भंडारण क्षमता तैयार हो जाएगी। हरियाणा व पंजाब में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल के तहत क्रमश: दस साल और सात साल के लिए संशोधित गारंटी योजना के तहत भंडारण क्षमता बढ़ाई जा रही है। केंद्र की योजना दो सालों में खाद्यान्न भंडारण क्षमता 165.65 लाख टन बढ़ाने की है।
सबसे ज्यादा भंडारण क्षमता पंजाब में 51.25 लाख टन की व हरियाणा में 38.80 लाख टन की बनाने की योजना है। एफसीआई पिछले सात साल में केवल 5.8 लाख टन की भंडारण क्षमता ही बढ़ा पाया है। वर्ष 2004-05 से वर्ष 2010-11 के दौरान निगम को केंद्र सरकार से भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिए 130.55 करोड़ रुपये का फंड आवंटित हुआ है।सूत्रों के अनुसार निगम को गोदाम बनाने के लिए वर्ष 2004-05 में 5.87 करोड़, वर्ष 2005-06 में 20.78 करोड़ रुपये, वर्ष 2006-07 में 7.50 करोड़ रुपये, वर्ष 2007-08 में 4 करोड़ रुपये, वर्ष 2008-09 में 16.45 करोड़ रुपये, वर्ष 2009-10 में 24.43 करोड़ रुपये और वर्ष 2010-11 में 35 करोड़ रुपये का आवंटन हुआ है। (Business Bhaskar....R S Rana)
अनाज भंडारण की समस्या को दूर करने के लिए खाद्य मंत्रालय ने अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। मंत्रालय ने संभावना जताई है कि 31 मार्च, 2012 तक देशभर में 40 लाख टन की अतिरिक्त खाद्यान्न भंडारण क्षमता तैयार हो जाएगी। केंद्रीय पूल में गत 1 मई को 593.11 लाख टन खाद्यान्न का स्टॉक मौजूदा था, जबकि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की अपनी और किराये पर ली गई कुल भंडारण क्षमता 1 अप्रैल 2011 को 316.1 लाख टन की ही थी।
खाद्य मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि 31 मार्च 2012 तक 40 लाख टन की अतिरिक्त भंडारण क्षमता तैयार हो जाएगी। हरियाणा व पंजाब में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल के तहत क्रमश: दस साल और सात साल के लिए संशोधित गारंटी योजना के तहत भंडारण क्षमता बढ़ाई जा रही है। केंद्र की योजना दो सालों में खाद्यान्न भंडारण क्षमता 165.65 लाख टन बढ़ाने की है।
सबसे ज्यादा भंडारण क्षमता पंजाब में 51.25 लाख टन की व हरियाणा में 38.80 लाख टन की बनाने की योजना है। एफसीआई पिछले सात साल में केवल 5.8 लाख टन की भंडारण क्षमता ही बढ़ा पाया है। वर्ष 2004-05 से वर्ष 2010-11 के दौरान निगम को केंद्र सरकार से भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिए 130.55 करोड़ रुपये का फंड आवंटित हुआ है।सूत्रों के अनुसार निगम को गोदाम बनाने के लिए वर्ष 2004-05 में 5.87 करोड़, वर्ष 2005-06 में 20.78 करोड़ रुपये, वर्ष 2006-07 में 7.50 करोड़ रुपये, वर्ष 2007-08 में 4 करोड़ रुपये, वर्ष 2008-09 में 16.45 करोड़ रुपये, वर्ष 2009-10 में 24.43 करोड़ रुपये और वर्ष 2010-11 में 35 करोड़ रुपये का आवंटन हुआ है। (Business Bhaskar....R S Rana)
26 मई 2011
सस्ता अनाज सभी के लिए
ख्याल - सस्ते अनाज की गारंटी में बीपीएल व एपीएल दोनों ही परिवार हो सकते हैं शामिलरंगराजन समिति की रायसस्ते अनाज की कानूनी गारंटी के दायरे में केवल बीपीएल परिवारों को किया जाए शामिलइस समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करने पर सरकार का खाद्य सब्सिडी बिल बढ़कर 83,000 करोड़ रुपये पर पहुंचेगा एनएसी का मत सस्ते अनाज की कानूनी गारंटी के दायरे में बीपीएल और एपीएल दोनों ही परिवारों को किया जाए शामिल समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करने पर सरकार का खाद्य सब्सिडी बिल बढ़कर 92,000 करोड़ रुपये पर पहुंचेगाखाद्य मंत्रालय प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक के लिए यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) की सिफारिशों के आधार पर तैयारी कर रहा है। खाद्य मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि 'सस्ते अनाज की कानूनी गारंटी में एनएसी की सिफारिशों के आधार पर बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) और एपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर) दोनों ही परिवारों को शामिल किया जाएगा।
उन्होंने बताया कि खाद्य पर उच्चाधिकार प्राप्त मंत्री समूह (ईजीओएम) की आगामी बैठक में इस पर चर्चा होगी। गत 1 मई को केंद्रीय पूल में तकरीबन 600 लाख टन अनाज का स्टॉक मौजूद था, जबकि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक लागू होने के बाद पहले चरण में लगभग 650 लाख टन अनाज की आवश्यकता होगी।
अधिकारी ने बताया कि खाद्य मंत्रालय इस विधेयक के लिए एनएसी की सिफारिशों के आधार पर तैयारी कर रहा है। एनएसी ने वर्ष 2011-12 से शुरू होने वाले पहले चरण में बीपीएल और एपीएल परिवारों की कम से कम 72 फीसदी आबादी को और दूसरे चरण में वर्ष 2013-14 तक 75 फीसदी आबादी को इस कानूनी गारंटी के दायरे में लाने का सुझाव दिया है।
उन्होंने बताया कि एनएसी की सिफारिशें मान लेने से सरकार को अनाज की खरीद बढ़ानी होगी। इससे सरकार पर सब्सिडी का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। इस समय सरकारी एजेंसियां कुल उत्पादन का केवल 25 से 30 फीसदी ही अनाज एमएसपी पर खरीदती हैं। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के पास गत 1 मई को 593.11 लाख टन अनाज का स्टॉक था। इसमें 277.60 लाख टन चावल और 256.59 लाख टन गेहूं है।
जहां तक प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) के चेयरमैन सी. रंगराजन की अगुवाई वाली विशेषज्ञ समिति का सवाल है, उसने कहा है कि किसी भी चरण के लिए खाद्यान्न से संबंधित एनएसी की सिफारिशें लागू करना संभव नहीं होगा। प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पर अगर रंगराजन समिति की रिपोर्ट स्वीकार कर ली जाती है
तो सरकार का खाद्य सब्सिडी बिल 2,000 करोड़ रुपये बढ़कर 83,000 करोड़ रुपये पर पहुंचने का अनुमान है। वहीं, अगर एनएसी की सिफारिशों के आधार पर बीपीएल और एपीएल परिवारों की 75 फीसदी आबादी को प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक के दायरे में लाया जाता है तो सरकार का खाद्य सब्सिडी बिल और भी ज्यादा बढ़कर 92,000 करोड़ रुपये पर पहुंच जाने की संभावना है।
मौजूदा समय में सरकार गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले 6.52 करोड़ परिवारों को राशन दुकानों के जरिए 35 किलो अनाज उपलब्ध कराती है। इन परिवारों को 4.15 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से गेहूं और 5.65 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से चावल मुहैया करवाया जाता है। इसके अलावा 11.5 करोड़ एपीएल परिवारों को सरकार हर महीने 15 किलो अनाज मुहैया करवाती है। (Business Bhaskar....R S Rana)
उन्होंने बताया कि खाद्य पर उच्चाधिकार प्राप्त मंत्री समूह (ईजीओएम) की आगामी बैठक में इस पर चर्चा होगी। गत 1 मई को केंद्रीय पूल में तकरीबन 600 लाख टन अनाज का स्टॉक मौजूद था, जबकि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक लागू होने के बाद पहले चरण में लगभग 650 लाख टन अनाज की आवश्यकता होगी।
अधिकारी ने बताया कि खाद्य मंत्रालय इस विधेयक के लिए एनएसी की सिफारिशों के आधार पर तैयारी कर रहा है। एनएसी ने वर्ष 2011-12 से शुरू होने वाले पहले चरण में बीपीएल और एपीएल परिवारों की कम से कम 72 फीसदी आबादी को और दूसरे चरण में वर्ष 2013-14 तक 75 फीसदी आबादी को इस कानूनी गारंटी के दायरे में लाने का सुझाव दिया है।
उन्होंने बताया कि एनएसी की सिफारिशें मान लेने से सरकार को अनाज की खरीद बढ़ानी होगी। इससे सरकार पर सब्सिडी का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। इस समय सरकारी एजेंसियां कुल उत्पादन का केवल 25 से 30 फीसदी ही अनाज एमएसपी पर खरीदती हैं। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के पास गत 1 मई को 593.11 लाख टन अनाज का स्टॉक था। इसमें 277.60 लाख टन चावल और 256.59 लाख टन गेहूं है।
जहां तक प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) के चेयरमैन सी. रंगराजन की अगुवाई वाली विशेषज्ञ समिति का सवाल है, उसने कहा है कि किसी भी चरण के लिए खाद्यान्न से संबंधित एनएसी की सिफारिशें लागू करना संभव नहीं होगा। प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पर अगर रंगराजन समिति की रिपोर्ट स्वीकार कर ली जाती है
तो सरकार का खाद्य सब्सिडी बिल 2,000 करोड़ रुपये बढ़कर 83,000 करोड़ रुपये पर पहुंचने का अनुमान है। वहीं, अगर एनएसी की सिफारिशों के आधार पर बीपीएल और एपीएल परिवारों की 75 फीसदी आबादी को प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक के दायरे में लाया जाता है तो सरकार का खाद्य सब्सिडी बिल और भी ज्यादा बढ़कर 92,000 करोड़ रुपये पर पहुंच जाने की संभावना है।
मौजूदा समय में सरकार गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले 6.52 करोड़ परिवारों को राशन दुकानों के जरिए 35 किलो अनाज उपलब्ध कराती है। इन परिवारों को 4.15 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से गेहूं और 5.65 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से चावल मुहैया करवाया जाता है। इसके अलावा 11.5 करोड़ एपीएल परिवारों को सरकार हर महीने 15 किलो अनाज मुहैया करवाती है। (Business Bhaskar....R S Rana)
गन्ने का रकबा व चीनी उत्पादन बढऩे की उम्मीद
नई दिल्ली May 25, 2011
गन्ना किसानों को बेहतर मूल्य मिलने और अनुकूल मौसम के आसार के मद्ïदेनजर इस वर्ष अक्टूबर से शुरू होने वाले फसल वर्ष में गन्ने का रकबा 8 से 10 फीसदी बढऩे का अनुमान है। आधिकारिक आकलन के अनुसार, वर्ष 2010-11 के दौरान देशभर में गन्ने की खेती 49.8 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में हुई थी। इनमें से महाराष्टï्र में 10 लाख हेक्टेयर और उत्तर प्रदेश में 20 लाख से अधिक हेक्टेयर क्षेत्र में गन्ने की खेती की गई थी। उत्तर प्रदेश और महाराष्टï्र देश के दो सबसे बड़े गन्ना उत्पादक राज्य हैं। देश में गन्ने की कुल उपज में इन दोनों राज्यों की 80 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी है।उद्योग के अधिकारियों का आकलन है कि आगामी फसल वर्ष के दौरान देश में गन्ने का रकबा बढ़कर 54.7 लाख हेक्टेयर तक पहुंच सकता है। इससे गन्ने के उत्पादन में भी बढ़ोतरी होने का अनुमान है। अधिकारियों के अनुसार आगामी वर्ष में गन्ने का वास्तविक उत्पादन लगभग 38 करोड़ टन रहने की उम्मीद है। वर्ष 2010-11 में कुल 34.6 करोड़ टन गन्ने का उत्पादन हुआ था।भारतीय चीनी मिलों के संगठन आईएसएमए के महानिदेशक अविनाश वर्मा ने कहा, 'गन्ने का उत्पादन बेहतर होने के साथ ही हम उम्मीद कर रहे हैं कि यदि गन्ने में सुक्रोज की मात्रा सामान्य रही और भारी मात्रा में इसे किसी अन्य उद्ïदेश्य से खपत नहीं किया गया तो वर्ष 2011-12 में 2.6 से 2.65 करोड़ टन चीनी का उत्पादन हो सकता है।Ó इस वर्ष चीनी का उत्पादन 2.42 से 2.45 करोड़ टन होने का अनुमान है। भारत में चीनी का सालाना खपत लगभग 2.2 से 2.3 करोड़ टन होता है। (BS Hindi)
गन्ना किसानों को बेहतर मूल्य मिलने और अनुकूल मौसम के आसार के मद्ïदेनजर इस वर्ष अक्टूबर से शुरू होने वाले फसल वर्ष में गन्ने का रकबा 8 से 10 फीसदी बढऩे का अनुमान है। आधिकारिक आकलन के अनुसार, वर्ष 2010-11 के दौरान देशभर में गन्ने की खेती 49.8 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में हुई थी। इनमें से महाराष्टï्र में 10 लाख हेक्टेयर और उत्तर प्रदेश में 20 लाख से अधिक हेक्टेयर क्षेत्र में गन्ने की खेती की गई थी। उत्तर प्रदेश और महाराष्टï्र देश के दो सबसे बड़े गन्ना उत्पादक राज्य हैं। देश में गन्ने की कुल उपज में इन दोनों राज्यों की 80 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी है।उद्योग के अधिकारियों का आकलन है कि आगामी फसल वर्ष के दौरान देश में गन्ने का रकबा बढ़कर 54.7 लाख हेक्टेयर तक पहुंच सकता है। इससे गन्ने के उत्पादन में भी बढ़ोतरी होने का अनुमान है। अधिकारियों के अनुसार आगामी वर्ष में गन्ने का वास्तविक उत्पादन लगभग 38 करोड़ टन रहने की उम्मीद है। वर्ष 2010-11 में कुल 34.6 करोड़ टन गन्ने का उत्पादन हुआ था।भारतीय चीनी मिलों के संगठन आईएसएमए के महानिदेशक अविनाश वर्मा ने कहा, 'गन्ने का उत्पादन बेहतर होने के साथ ही हम उम्मीद कर रहे हैं कि यदि गन्ने में सुक्रोज की मात्रा सामान्य रही और भारी मात्रा में इसे किसी अन्य उद्ïदेश्य से खपत नहीं किया गया तो वर्ष 2011-12 में 2.6 से 2.65 करोड़ टन चीनी का उत्पादन हो सकता है।Ó इस वर्ष चीनी का उत्पादन 2.42 से 2.45 करोड़ टन होने का अनुमान है। भारत में चीनी का सालाना खपत लगभग 2.2 से 2.3 करोड़ टन होता है। (BS Hindi)
25 मई 2011
मांग हुई खस्ता तो दूध पाउडर होगा सस्ता
नई दिल्ली May 24, 2011
पिछले कुछ महीनों में स्किम्ड मिल्क पाउडर (एसएमपी) के दाम 10-12 फीसदी बढ़कर 200 रुपये प्रति किलोग्राम के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचने के कारण इसकी मांग में बेहद कमी आई है। विनिर्माताओं का कहना है कि अधिक समय तक स्टॉक नहीं रख पाने की मजबूरी के कारण उन्हें अगले दो हफ्ते में इसके दाम घटाने पड़ेंगे। इन गर्मियों में एसएमपी का दाम 180 रुपये से बढ़कर 200 रुपये प्रति किलो हो गया है जबकि दिसंबर में इसका भाव 165 रुपये प्रति किलो था। मिल्क पाउडर के निर्यात पर पाबंदी है जबकि इसकी सबसे बड़ी खरीदार सहकारी कंपनियों ने इसका आयात कर लिया है। मुमकिन है कि जल्द ही कंपनियां इसके भाव में 10 रुपये प्रति किलो की कटौती कर सकती हैं। कृष्णा ब्रांड के तहत मिल्क पाउडर बनाने वाली भोले बाबा इंडस्ट्रीज के निदेशक जितेंद्र अग्रवाल का कहना है, 'आमतौर पर गर्मियों में एसएमपी की मांग अधिक रहती है। हालांकि इस साल इसकी मांग कम है। बाजार मौजूदा कीमतों पर खरीदारी नहीं कर रहा है। हम अधिक दिन तक स्टॉक नहीं रख सकते इसीलिए अगले 15 दिनों में दाम घटने की उम्मीद है।Óघरेलू मांग नहीं के बराबर होने के साथ ही फरवरी में एसएमपी के निर्यात पर लगी पाबंदी से कारोबारियों पर दोहरी मार पड़ रही है। एसएमपी के साथ ही कैसीन के निर्यात पर भी पाबंदी लगाई गई थी। पिछले वित्त वर्ष के दौरान देश से करीब 500 करोड़ रुपये के कैसीन का निर्यात हुआ था। निर्यात पर पाबंदी लगाने के बाद सरकार ने डेयरी उद्योग को 30,000 टन मिल्क पाउडर के शुल्क रहित आयात की अनुमति दे दी थी।सरकार ने दूध के बढ़ते दाम पर काबू करने के लिए मिल्क पाउडर के निर्यात पर पाबंदी लगाई थी। हालांकि इस पाबंदी के बावजूद दूध के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। अप्रैल से अब तक अमूल और मदर डेयरी ने दूध के दाम में 2 रुपये प्रति लीटर का इजाफा किया है। पिछले एक साल में दूध के दाम 20-25 फीसदी बढ़ें हैं। कंपनियां इसके पीछे लागत बढऩे का तर्क देती हैं। एसएमपी का इस्तेमाल दूध प्रसंस्करण कंपनियां फुल क्रीम दूध बनाने में करती हैं। परम प्रीमियम ब्रांड बनाने वाली परम डेयरी के प्रबंध निदेशक राजीव कुमार निर्यात पर पाबंदी और घरेलू बाजार में कमजोर मांग को मिल्क पाउडर की बिक्री में कमी आने की वजह बताते हैं। (BS Hindi)
पिछले कुछ महीनों में स्किम्ड मिल्क पाउडर (एसएमपी) के दाम 10-12 फीसदी बढ़कर 200 रुपये प्रति किलोग्राम के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचने के कारण इसकी मांग में बेहद कमी आई है। विनिर्माताओं का कहना है कि अधिक समय तक स्टॉक नहीं रख पाने की मजबूरी के कारण उन्हें अगले दो हफ्ते में इसके दाम घटाने पड़ेंगे। इन गर्मियों में एसएमपी का दाम 180 रुपये से बढ़कर 200 रुपये प्रति किलो हो गया है जबकि दिसंबर में इसका भाव 165 रुपये प्रति किलो था। मिल्क पाउडर के निर्यात पर पाबंदी है जबकि इसकी सबसे बड़ी खरीदार सहकारी कंपनियों ने इसका आयात कर लिया है। मुमकिन है कि जल्द ही कंपनियां इसके भाव में 10 रुपये प्रति किलो की कटौती कर सकती हैं। कृष्णा ब्रांड के तहत मिल्क पाउडर बनाने वाली भोले बाबा इंडस्ट्रीज के निदेशक जितेंद्र अग्रवाल का कहना है, 'आमतौर पर गर्मियों में एसएमपी की मांग अधिक रहती है। हालांकि इस साल इसकी मांग कम है। बाजार मौजूदा कीमतों पर खरीदारी नहीं कर रहा है। हम अधिक दिन तक स्टॉक नहीं रख सकते इसीलिए अगले 15 दिनों में दाम घटने की उम्मीद है।Óघरेलू मांग नहीं के बराबर होने के साथ ही फरवरी में एसएमपी के निर्यात पर लगी पाबंदी से कारोबारियों पर दोहरी मार पड़ रही है। एसएमपी के साथ ही कैसीन के निर्यात पर भी पाबंदी लगाई गई थी। पिछले वित्त वर्ष के दौरान देश से करीब 500 करोड़ रुपये के कैसीन का निर्यात हुआ था। निर्यात पर पाबंदी लगाने के बाद सरकार ने डेयरी उद्योग को 30,000 टन मिल्क पाउडर के शुल्क रहित आयात की अनुमति दे दी थी।सरकार ने दूध के बढ़ते दाम पर काबू करने के लिए मिल्क पाउडर के निर्यात पर पाबंदी लगाई थी। हालांकि इस पाबंदी के बावजूद दूध के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। अप्रैल से अब तक अमूल और मदर डेयरी ने दूध के दाम में 2 रुपये प्रति लीटर का इजाफा किया है। पिछले एक साल में दूध के दाम 20-25 फीसदी बढ़ें हैं। कंपनियां इसके पीछे लागत बढऩे का तर्क देती हैं। एसएमपी का इस्तेमाल दूध प्रसंस्करण कंपनियां फुल क्रीम दूध बनाने में करती हैं। परम प्रीमियम ब्रांड बनाने वाली परम डेयरी के प्रबंध निदेशक राजीव कुमार निर्यात पर पाबंदी और घरेलू बाजार में कमजोर मांग को मिल्क पाउडर की बिक्री में कमी आने की वजह बताते हैं। (BS Hindi)
मंडियों को मिले हरी झंडी
मुंबई May 24, 2011
कृषि मंत्रालय ने राज्यों को सुझाव दिया है कि वे उर्वरक कंपनियों के साथ सार्वजनिक निजी भागीदारी (पीपीपी)मॉडल के तहत मृदा परीक्षण प्रयोगशाला स्थापित करने में अपनी कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) को भी शामिल करें। उर्वरकों के सर्वोत्तम उपयोग पर नंद कुमार समिति की रिपोर्ट में की गई सिफारिशों के आधार पर मंत्रालय ने स्थान विशेष मृदा परीक्षण कार्यक्रम (एसएसएसपी) के लिए सार्वजनिक निजी भागीदारी का सुझाव दिया है। एसएसएसपी, साइट स्पेसिाफिक न्यूट्रिएंट मैनेजमेंंट (एसएसएनएम) के तहत उïर्वरकों के उपयोग से भूमि की उपज को बढ़ाने के लिए मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया उपक्रम है। एसएसएनपी का मकसद उर्वरकों के उपयोग की सलाह देने से पहले मिट्टïी के नमूनों की जांच करना है। अधिकारियों ने कहा कि 50 फीसदी से अधिक एनपीके (नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम) की खपत वाले जिलों में सबसे पहले एसएसएसएम परियोजना शुरू की जाएगी। इसके बाद इस परियोजना में उन जिलों को शामिल किया जाएगा जहां मृदा में उर्वरकता की कमी है।गुजरात सरकार पहले ही मृदा परीक्षण प्रयोगशाला और किसानों को सहयोग देने के लिए एपीएमसी को परियोजना में शामिल कर रही है। इसी तरह हरियाणा ने 30 मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं के साथ ही एक मोबाइल मृदा परीक्षण प्रयोगशाला सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के तहत स्थापित की है। तमिलनाडु सरकार ने कृषि चिकित्सालय के साथ ही मृदा परीक्षण प्रयोगशाला स्थापित करने की एक अनोखी योजना तैयार की है। इनका परिचालन बेरोजगार युवाओं द्वारा किया जाएगा, जिन्हें इनकी स्थापना के लिए बैंक लोन और सरकारी सब्सिडी मुहैया कराई जाएगी। तमिलनाडु सरकार ने एक विशेष किट बनाया है, जिसमें यूरिया, फार्म कंपोस्ट, और तकनीकी पुस्तिकाएं होंगी, जिन्हें किसानों में वितरित किया जाएगा। सरकार को सौंपी अपनी योजना में राज्य ने भूमि के अनुकूल बीजों के वितरण में 25 फीसदी सब्सिडी देने का प्रस्ताव रखा है। हर साल इन बीजों का करीब 250 टन वितरण होता है। सरकार वर्मी कंपोस्ट इकाइयों और शहरी कंपोस्ट इकाइयों की स्थापना पर 50 फीसदी सब्सिडी मुहैया करा रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि उर्वरकों की खपत के साथ ही कृषि उपज और उर्वरकों के बीच नकारात्मक उर्वरता संतुलन बढ़ रहा है। 1970 में पैदा होने वाली उपज के स्तर को बनाए रखने के लिए अब चार गुना अधिक 218 किलो प्रति हेक्टेयर उर्वरकों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। (BS Hindi)
कृषि मंत्रालय ने राज्यों को सुझाव दिया है कि वे उर्वरक कंपनियों के साथ सार्वजनिक निजी भागीदारी (पीपीपी)मॉडल के तहत मृदा परीक्षण प्रयोगशाला स्थापित करने में अपनी कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) को भी शामिल करें। उर्वरकों के सर्वोत्तम उपयोग पर नंद कुमार समिति की रिपोर्ट में की गई सिफारिशों के आधार पर मंत्रालय ने स्थान विशेष मृदा परीक्षण कार्यक्रम (एसएसएसपी) के लिए सार्वजनिक निजी भागीदारी का सुझाव दिया है। एसएसएसपी, साइट स्पेसिाफिक न्यूट्रिएंट मैनेजमेंंट (एसएसएनएम) के तहत उïर्वरकों के उपयोग से भूमि की उपज को बढ़ाने के लिए मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया उपक्रम है। एसएसएनपी का मकसद उर्वरकों के उपयोग की सलाह देने से पहले मिट्टïी के नमूनों की जांच करना है। अधिकारियों ने कहा कि 50 फीसदी से अधिक एनपीके (नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम) की खपत वाले जिलों में सबसे पहले एसएसएसएम परियोजना शुरू की जाएगी। इसके बाद इस परियोजना में उन जिलों को शामिल किया जाएगा जहां मृदा में उर्वरकता की कमी है।गुजरात सरकार पहले ही मृदा परीक्षण प्रयोगशाला और किसानों को सहयोग देने के लिए एपीएमसी को परियोजना में शामिल कर रही है। इसी तरह हरियाणा ने 30 मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं के साथ ही एक मोबाइल मृदा परीक्षण प्रयोगशाला सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के तहत स्थापित की है। तमिलनाडु सरकार ने कृषि चिकित्सालय के साथ ही मृदा परीक्षण प्रयोगशाला स्थापित करने की एक अनोखी योजना तैयार की है। इनका परिचालन बेरोजगार युवाओं द्वारा किया जाएगा, जिन्हें इनकी स्थापना के लिए बैंक लोन और सरकारी सब्सिडी मुहैया कराई जाएगी। तमिलनाडु सरकार ने एक विशेष किट बनाया है, जिसमें यूरिया, फार्म कंपोस्ट, और तकनीकी पुस्तिकाएं होंगी, जिन्हें किसानों में वितरित किया जाएगा। सरकार को सौंपी अपनी योजना में राज्य ने भूमि के अनुकूल बीजों के वितरण में 25 फीसदी सब्सिडी देने का प्रस्ताव रखा है। हर साल इन बीजों का करीब 250 टन वितरण होता है। सरकार वर्मी कंपोस्ट इकाइयों और शहरी कंपोस्ट इकाइयों की स्थापना पर 50 फीसदी सब्सिडी मुहैया करा रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि उर्वरकों की खपत के साथ ही कृषि उपज और उर्वरकों के बीच नकारात्मक उर्वरता संतुलन बढ़ रहा है। 1970 में पैदा होने वाली उपज के स्तर को बनाए रखने के लिए अब चार गुना अधिक 218 किलो प्रति हेक्टेयर उर्वरकों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। (BS Hindi)
एकसमान स्तर पर पहुंचीं रुई और धागे की कीमतें
मुंबई May 24, 2011
देश भर के हजारों गिनर्स व स्पिनर्स के लिए यह झटके से कम नहीं है क्योंकि सूती धागे व रुई की कीमतें इतिहास में पहली बार लुढ़ककर एकसमान स्तर पर आ गई हैं। यहां रुई से तात्पर्य ऐसे उत्पाद से है जो साफ-सुथरी है यानी इसका इस्तेमाल तत्काल प्रसंस्करण में किया जा सकता है।सामान्य तौर पर कच्चे कपास में 6-7 फीसदी ऐसे तत्व होते हैं जिसे प्रसंस्करण के जरिए निकाल बाहर करने के बाद साफ रुई मिल पाती है। कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन टैक्सटाइल इंडस्ट्री (सिटी) के महानिदेशक डी के नायर ने कहा - सामान्यत: धागे की कीमतें कच्चे कपास की 65 फीसदी होती है और 35 फीसदी बदलाव की लागत होती है। इसे दूसरे तरीके से इस तरह देखा जा सकता है कि 70-72 फीसदी साफ रुई की कीमत होती है और 28-30 फीसदी प्रसंस्करण की लागत। उन्होंने कहा - चूंकि सूती धागे की कीमतें साफ रुई के स्तर पर आ गई हैं, लिहाजा फैब्रिक विनिर्माता बदलाव की लागत वसूल करने में सक्षम नहीं हैं।नायर ने कहा - मौजूदा निचले स्तर पर भी मिलें खरीदारी इसलिए नहीं कर रही हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अभी कीमतों में और गिरावट आएगी। इसके परिणामस्वरूप मिलें नुकसान में चल रही हैं।मौजूदा समय में सूती धागे की कीमतें 190-200 रुपये प्रति किलोग्राम के स्तर पर है, जो साफ रुई की कीमत के बराबर है। पिछले एक महीने में सूती धागे की कीमतें 280 रुपये प्रति किलोग्राम से लुढ़ककर 200 रुपये प्रति किलोग्राम के आसपास आ गई हैं। कीमतों में गिरावट मुख्य रूप से धागे के बढ़ते स्टॉक और निर्यात सीमा की वजह से आई है। कपास की कीमतों में गिरावट से भी मिलों की परेशानियां बढ़ गई हैं। बेंचमार्क शंकर-6 किस्म के कपास की कीमतें गिरकर 47,000 रुपये प्रति कैंडी पर आ गई हैं जबकि इस साल अप्रैल में यह 62,000 रुपये प्रति कैंडी के भाव पर बिक रहा था।लेकिन इस माहौल में एक पखवाड़े के भीतर बदलाव आने की उम्मीद है जब मिलों के पास पड़ा सूती धागे का मौजूदा स्टॉक बिक जाएगा। मुद्रा लाइस्टाइल लिमिटेड के कंपनी सेक्रेटरी और प्रवक्ता महेश पोद्दार ने कहा - धागे की ताजा खरीद के लिए हम बाजार के स्थिर होने का इंतजार कर रहे हैं। लेकिन खरीदारी को अनिश्चितकाल के लिए नहीं टाला जा सकता क्योंकि मिलों को संचालित किए रखना भी जरूरी है। ऐसे में हम अगले महीने से आक्रामक तरीके से खरीदारी करेंगे। यह कंपनी परिधानों का उत्पादन करती हैं और इसके पास कपड़ा मिलें भी है। स्पष्ट रूप से वैश्विक स्तर पर सूती धागे की कीमतें कम हैं क्योंकि मौजूदा समय में विदेशों से आयात के ऑर्डर काफी कम हैं।1 अप्रैल से घरेलू खिलाडिय़ों के लिए वैश्विक बाजार खुल जाने के बाद भी सूती धागे के निर्यातकों की दुर्दशा जारी है क्योंकि सरकार ने निर्यात प्रोत्साहन मसलन ड्यूटी ड्रॉबैक स्कीम वापस ले ली है। इसके परिणास्वरूप घरेलू बाजार फिलहाल जरूरत से ज्यादा आपूर्ति से जूझ रहा है और पूरे माहौल को नकारात्मक बना रहा है।बड़े उत्पादक मसलन आलोक इंडस्ट्रीज को हालांकि सूती धागे के कीमतों मेंं हो रहे उतारचढ़ाव से किसी तरह की परेशानी नहीं हो रही है। आलोक इंडस्ट्रीज के मुख्य वित्तीय अधिकारी सुनील खंडेलवाल ने कहा - सूती धागे की ज्यादातर जरूरतें हम खुद के मिलों से पूरी करते हैं, वहीं इसका कुछ हिस्सा खुले बाजार से खरीदा जाता है। ऐसे में कीमतों में बार-बार होने वाले बदलाव से कंपनी पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ता।खंडेलवाल ने कहा - निर्यात और घरेलू मांग हमारे लिए अच्छी है। हम जो कुछ बनाते हैं उसे हम बेचने में सक्षम हैं। ऐसे में हमें परिधान आदि की मांग पर किसी तरह का असर नहीं देख रहे हैं। इस बीच, कताई मिलों ने अपनी क्षमता में पिछले एक साल के दौरान काफी विस्तार किया है और यह 90 लाख स्प्लिंडर्स से बढ़कर 350 लाख स्प्लिंडर्स परपहुंच गया है। भारत में धागे का सालाना उत्पादन करीब 400 करोड़ किलोग्राम का है। (BS Hindi)
देश भर के हजारों गिनर्स व स्पिनर्स के लिए यह झटके से कम नहीं है क्योंकि सूती धागे व रुई की कीमतें इतिहास में पहली बार लुढ़ककर एकसमान स्तर पर आ गई हैं। यहां रुई से तात्पर्य ऐसे उत्पाद से है जो साफ-सुथरी है यानी इसका इस्तेमाल तत्काल प्रसंस्करण में किया जा सकता है।सामान्य तौर पर कच्चे कपास में 6-7 फीसदी ऐसे तत्व होते हैं जिसे प्रसंस्करण के जरिए निकाल बाहर करने के बाद साफ रुई मिल पाती है। कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन टैक्सटाइल इंडस्ट्री (सिटी) के महानिदेशक डी के नायर ने कहा - सामान्यत: धागे की कीमतें कच्चे कपास की 65 फीसदी होती है और 35 फीसदी बदलाव की लागत होती है। इसे दूसरे तरीके से इस तरह देखा जा सकता है कि 70-72 फीसदी साफ रुई की कीमत होती है और 28-30 फीसदी प्रसंस्करण की लागत। उन्होंने कहा - चूंकि सूती धागे की कीमतें साफ रुई के स्तर पर आ गई हैं, लिहाजा फैब्रिक विनिर्माता बदलाव की लागत वसूल करने में सक्षम नहीं हैं।नायर ने कहा - मौजूदा निचले स्तर पर भी मिलें खरीदारी इसलिए नहीं कर रही हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अभी कीमतों में और गिरावट आएगी। इसके परिणामस्वरूप मिलें नुकसान में चल रही हैं।मौजूदा समय में सूती धागे की कीमतें 190-200 रुपये प्रति किलोग्राम के स्तर पर है, जो साफ रुई की कीमत के बराबर है। पिछले एक महीने में सूती धागे की कीमतें 280 रुपये प्रति किलोग्राम से लुढ़ककर 200 रुपये प्रति किलोग्राम के आसपास आ गई हैं। कीमतों में गिरावट मुख्य रूप से धागे के बढ़ते स्टॉक और निर्यात सीमा की वजह से आई है। कपास की कीमतों में गिरावट से भी मिलों की परेशानियां बढ़ गई हैं। बेंचमार्क शंकर-6 किस्म के कपास की कीमतें गिरकर 47,000 रुपये प्रति कैंडी पर आ गई हैं जबकि इस साल अप्रैल में यह 62,000 रुपये प्रति कैंडी के भाव पर बिक रहा था।लेकिन इस माहौल में एक पखवाड़े के भीतर बदलाव आने की उम्मीद है जब मिलों के पास पड़ा सूती धागे का मौजूदा स्टॉक बिक जाएगा। मुद्रा लाइस्टाइल लिमिटेड के कंपनी सेक्रेटरी और प्रवक्ता महेश पोद्दार ने कहा - धागे की ताजा खरीद के लिए हम बाजार के स्थिर होने का इंतजार कर रहे हैं। लेकिन खरीदारी को अनिश्चितकाल के लिए नहीं टाला जा सकता क्योंकि मिलों को संचालित किए रखना भी जरूरी है। ऐसे में हम अगले महीने से आक्रामक तरीके से खरीदारी करेंगे। यह कंपनी परिधानों का उत्पादन करती हैं और इसके पास कपड़ा मिलें भी है। स्पष्ट रूप से वैश्विक स्तर पर सूती धागे की कीमतें कम हैं क्योंकि मौजूदा समय में विदेशों से आयात के ऑर्डर काफी कम हैं।1 अप्रैल से घरेलू खिलाडिय़ों के लिए वैश्विक बाजार खुल जाने के बाद भी सूती धागे के निर्यातकों की दुर्दशा जारी है क्योंकि सरकार ने निर्यात प्रोत्साहन मसलन ड्यूटी ड्रॉबैक स्कीम वापस ले ली है। इसके परिणास्वरूप घरेलू बाजार फिलहाल जरूरत से ज्यादा आपूर्ति से जूझ रहा है और पूरे माहौल को नकारात्मक बना रहा है।बड़े उत्पादक मसलन आलोक इंडस्ट्रीज को हालांकि सूती धागे के कीमतों मेंं हो रहे उतारचढ़ाव से किसी तरह की परेशानी नहीं हो रही है। आलोक इंडस्ट्रीज के मुख्य वित्तीय अधिकारी सुनील खंडेलवाल ने कहा - सूती धागे की ज्यादातर जरूरतें हम खुद के मिलों से पूरी करते हैं, वहीं इसका कुछ हिस्सा खुले बाजार से खरीदा जाता है। ऐसे में कीमतों में बार-बार होने वाले बदलाव से कंपनी पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ता।खंडेलवाल ने कहा - निर्यात और घरेलू मांग हमारे लिए अच्छी है। हम जो कुछ बनाते हैं उसे हम बेचने में सक्षम हैं। ऐसे में हमें परिधान आदि की मांग पर किसी तरह का असर नहीं देख रहे हैं। इस बीच, कताई मिलों ने अपनी क्षमता में पिछले एक साल के दौरान काफी विस्तार किया है और यह 90 लाख स्प्लिंडर्स से बढ़कर 350 लाख स्प्लिंडर्स परपहुंच गया है। भारत में धागे का सालाना उत्पादन करीब 400 करोड़ किलोग्राम का है। (BS Hindi)
गन्ने की पेराई के लिए प्रोत्साहन
मुंबई May 24, 2011
महाराष्ट्र सरकार 95 लाख टन चीनी उत्पादन के लिए राज्य में 810 लाख टन गन्ने की पेराई सुनिश्चित करने के लिए चीनी उद्योग को वित्तीय सहायता मुहैया कराने पर विचार कर रही है। चीनी उद्योग ने 450 करोड़ रुपये के पैकेज की मांग की है। अब तक चीनी मिलें 88 लाख टन चीनी उत्पादन के लिए 779 लाख टन गन्ने की पेराई कर चुकी हैं। हालांकि उद्योग के साथ ही राज्य सहकारिता मंत्री हषवर्धन पाटिल को डर है कि मॉनसून के जल्द आने से ये अनुमान घट सकते हैं और इस स्थिति में करीब 40 लाख टन गन्ना बिना पेराई के खेतों में खड़ा रह सकता है। राज्य सरकार ने पहले ही प्रमुख गन्ना उत्पादक क्षेत्रों पुणे, अहमदनगर और सोलापुर की 60 मिलों को निर्देश दिया है कि जब तक पूरे गन्ने की पेराई न हो जाए तब तक मिलों का परिचालन बंद न किया जाए। राज्य सरकार के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि 'राज्य सरकार इस स्थिति के प्रति सजग है और गन्ने की समय से कटाई और परिवहन के लिए अतिरिक्त प्रोत्साहन मुहैया कराने पर विचार कर रही है, जिससे खेतों में बिल्कुल भी गन्ना खड़ा न रहे। उद्योग ने गन्ने की कटाई के लिए सरकारी अनुदान के रूप में 500 रुपये प्र्रति टन देने की मांग की है। इसलिए सरकार 200 करोड़ रुपये का पैकेज तैयार कर सकती है।Ó इसके अलावा अगर गन्ना बिना पेराई के खेतों में खड़ा रह जाता है तो उद्योग ने 50,000 रुपये प्रति हेक्टेयर का मुआवजा मांगा है और इसके कारण राज्य सरकार को 250 करोड़ रुपये मुहैया कराने पड़ेंगे। सूत्रों ने कहा कि राज्य सकार ने 2006-07 के दौरान खेतों में खड़े रह गए गन्ने के लिए किसानों को 25,000 रुपये प्रति हेक्टेयर और उद्योग को 184 करोड़ रुपये बांटे थे। 'अगर सरकार खेतों में खड़े रह गए गन्ने के लिए प्रोत्साहन मुहैया कराने की योजना बनाती है तो यह समय से उठाया गया कदम होगा।Ó महाराष्ट्र में 165 से अधिक मिलों के प्रतिनिधि संगठन फेडरेशन ऑफ कॉपरेटिव शुगर फैक्ट्रीज के एक अधिकारी ने बताया कि सरकार दो प्रोत्साहनों की पहले ही घोषणा कर चुकी है, जिनमें 3 रुपये प्रति टन प्रति किलोमीटर की परिवहन सब्सिडी और मई के पहले पखवाड़े में पेराई से होने रिकवरी नुकसान के लिए 65 रुपये प्रति टन सब्सिडी मुहैया कराना शामिल है। (BS Hindi)
महाराष्ट्र सरकार 95 लाख टन चीनी उत्पादन के लिए राज्य में 810 लाख टन गन्ने की पेराई सुनिश्चित करने के लिए चीनी उद्योग को वित्तीय सहायता मुहैया कराने पर विचार कर रही है। चीनी उद्योग ने 450 करोड़ रुपये के पैकेज की मांग की है। अब तक चीनी मिलें 88 लाख टन चीनी उत्पादन के लिए 779 लाख टन गन्ने की पेराई कर चुकी हैं। हालांकि उद्योग के साथ ही राज्य सहकारिता मंत्री हषवर्धन पाटिल को डर है कि मॉनसून के जल्द आने से ये अनुमान घट सकते हैं और इस स्थिति में करीब 40 लाख टन गन्ना बिना पेराई के खेतों में खड़ा रह सकता है। राज्य सरकार ने पहले ही प्रमुख गन्ना उत्पादक क्षेत्रों पुणे, अहमदनगर और सोलापुर की 60 मिलों को निर्देश दिया है कि जब तक पूरे गन्ने की पेराई न हो जाए तब तक मिलों का परिचालन बंद न किया जाए। राज्य सरकार के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि 'राज्य सरकार इस स्थिति के प्रति सजग है और गन्ने की समय से कटाई और परिवहन के लिए अतिरिक्त प्रोत्साहन मुहैया कराने पर विचार कर रही है, जिससे खेतों में बिल्कुल भी गन्ना खड़ा न रहे। उद्योग ने गन्ने की कटाई के लिए सरकारी अनुदान के रूप में 500 रुपये प्र्रति टन देने की मांग की है। इसलिए सरकार 200 करोड़ रुपये का पैकेज तैयार कर सकती है।Ó इसके अलावा अगर गन्ना बिना पेराई के खेतों में खड़ा रह जाता है तो उद्योग ने 50,000 रुपये प्रति हेक्टेयर का मुआवजा मांगा है और इसके कारण राज्य सरकार को 250 करोड़ रुपये मुहैया कराने पड़ेंगे। सूत्रों ने कहा कि राज्य सकार ने 2006-07 के दौरान खेतों में खड़े रह गए गन्ने के लिए किसानों को 25,000 रुपये प्रति हेक्टेयर और उद्योग को 184 करोड़ रुपये बांटे थे। 'अगर सरकार खेतों में खड़े रह गए गन्ने के लिए प्रोत्साहन मुहैया कराने की योजना बनाती है तो यह समय से उठाया गया कदम होगा।Ó महाराष्ट्र में 165 से अधिक मिलों के प्रतिनिधि संगठन फेडरेशन ऑफ कॉपरेटिव शुगर फैक्ट्रीज के एक अधिकारी ने बताया कि सरकार दो प्रोत्साहनों की पहले ही घोषणा कर चुकी है, जिनमें 3 रुपये प्रति टन प्रति किलोमीटर की परिवहन सब्सिडी और मई के पहले पखवाड़े में पेराई से होने रिकवरी नुकसान के लिए 65 रुपये प्रति टन सब्सिडी मुहैया कराना शामिल है। (BS Hindi)
अनाज की जगह नकद सब्सिडी के हक में खाद्य मंत्रालय
नई दिल्ली March 16, 2011
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत जरूरी खाद्यान्न की पर्याप्त उपलब्धता पर प्रधानमंत्री द्वारा डॉ. सी. रंगराजन की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ पैनल और सोनिया गांधी की अगुआई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के बीच की खाई पाटने के लिए खाद्य मंत्रालय ने अनाज की जगह नकद सब्सिडी के वितरण का समर्थन किया है, अगर पर्याप्त मात्रा में अनाज उपलब्ध न हो।मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि अगर किसी वर्ष में जरूरत के मुताबिक खरीद न हो पाए तो अधिनियम के तहत मंत्रालय ने नकद सब्सिडी के वितरण का प्रस्ताव रखा है। खाद्य मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी ने कहा - खाद्य सुरक्षा अधिनियम को वास्तविकता में बदलने के लिए यह विचार सामने रखा गया है और ऐसा करने के लिए हम प्रतिबद्ध हैं। पिछले महीने खाद्य राज्य मंत्री के. वी. थॉमस ने कहा था कि उनका मंत्रालय देश की 65 से 70 फीसदी आबादी को रियायती दर पर अनाज उपलब्ध करा सकता है और इनमें सामान्य व प्राथमिकता वाले परिवार शामिल हैं। एनएसी ने प्राथमिकता व सामान्य परिवारों की 75 फीसदी आबादी को कानूनी तौर पर रियायती दर पर अनाज उपलब्ध कराने की सिफारिश की थी। प्राथमिकता वाले परिवारों में 46 फीसदी शहरी आबादी और 28 फीसदी ग्रामीण आबादी शामिल है जबकि सामान्य वर्ग में 44 फीसदी शहरी आबादी और 22 फीसदी ग्रामीण आबादी शामिल है। डॉ. सी. रंगराजन की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री द्वारा गठित विशेषज्ञ समूह ने प्राथमिकता वाले परिवारों की बाबत एनएसी की सिफारिशों का समर्थन किया था, लेकिन यह भी कहा था कि अगर पर्याप्त अनाज उपलब्ध हो तभी सामान्य श्रेणी के परिवारों को सस्ते अनाज का वितरण किया जाए। विशेषज्ञ समूह ने कहा है कि एनएसी की सिफारिशों के मुताबिक सभी चरणों के लिए खाद्यान्न के अधिकार लागू करना संभव नहीं है।इसने तर्क दिया है कि अगर एनएसी की सिफारिशों को अपना लिया जाता है तो फिर इससे सरकार पर सब्सिडी का भारी बोझ पड़ेगा, साथ ही यह बाजार को भी नष्ट कर सकता है, अगर खरीद का स्तर अकारण बढ़ाया जाता है। पैनल ने कहा है कि प्रस्तावित अधिनियम अनाज की मांग पूरी करने की बाबत सरकार पर कानूनी बाध्यता आरोपित करता है। उन्होंने कहा है कि विधेयक के मसौदे को अंतिम रूप देने से पहले कुछ परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए मसलन, अगर लगातार दो साल तक सूखा पड़े तो फिर इसे कैसे पूरा किया जाएगा। अधिकारी ने कहा कि यही वजह है कि हम आबादी के उस वर्ग के लिए नकद सब्सिडी की बात कर रहे हैं जिनकी कानूनी तौर पर अनाज की मांग पूरी न हो।मौजूदा समय में सरकार गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले 6.52 करोड़ परिवारों को राशन दुकानों के जरिए 35 किलोग्राम अनाज उपलब्ध कराती है। इन परिवारों को 4.15 रुपये प्रति किलोग्राम पर गेहूं और 5.65 रुपये प्रति किलोग्राम पर चावल उपलब्ध कराया जाता है। गरीबी रेखा से ऊपर रहने वाले परिवारों को सरकार 15 से 35 किलोग्राम अनाज हर महीने उपलब्ध कराती है।प्रधानमंत्री द्वारा गठित विशेषज्ञ समूह का अनुमान है कि भारत का खाद्यान्न सब्सिडी खर्च बढ़कर करीब 92,060 करोड़ रुपये पर पहुंच जाएगा, अगर 75 फीसदी परिवारों को अनाज उपलब्ध कराने की एनएसी की सिफारिशें मान ली जाती हैं। वहीं यह खर्च घटकर करीब 83,000 करोड़ पर आ सकती है अगर गरीबी रेखा के ऊपर रहने वाले परिवारों को इससे अलग करने के उनके सुझाव को मान लिया जाता है या फिर उनके आवंटन में कमी की उनकी सिफारिशें मान ली जाती हैं। विशेषज्ञ समूह ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि खाद्य सुरक्षा अधिनियम की जरूरतों के अलावा सब्सिडी में निर्धन वरिष्ठ नागरिकों के लिए चलाई जाने वाली कल्याणकारी अन्नपूर्णा योजना के लिए आवंटन शामिल होगा। (BS Hindi)
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत जरूरी खाद्यान्न की पर्याप्त उपलब्धता पर प्रधानमंत्री द्वारा डॉ. सी. रंगराजन की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ पैनल और सोनिया गांधी की अगुआई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के बीच की खाई पाटने के लिए खाद्य मंत्रालय ने अनाज की जगह नकद सब्सिडी के वितरण का समर्थन किया है, अगर पर्याप्त मात्रा में अनाज उपलब्ध न हो।मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि अगर किसी वर्ष में जरूरत के मुताबिक खरीद न हो पाए तो अधिनियम के तहत मंत्रालय ने नकद सब्सिडी के वितरण का प्रस्ताव रखा है। खाद्य मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी ने कहा - खाद्य सुरक्षा अधिनियम को वास्तविकता में बदलने के लिए यह विचार सामने रखा गया है और ऐसा करने के लिए हम प्रतिबद्ध हैं। पिछले महीने खाद्य राज्य मंत्री के. वी. थॉमस ने कहा था कि उनका मंत्रालय देश की 65 से 70 फीसदी आबादी को रियायती दर पर अनाज उपलब्ध करा सकता है और इनमें सामान्य व प्राथमिकता वाले परिवार शामिल हैं। एनएसी ने प्राथमिकता व सामान्य परिवारों की 75 फीसदी आबादी को कानूनी तौर पर रियायती दर पर अनाज उपलब्ध कराने की सिफारिश की थी। प्राथमिकता वाले परिवारों में 46 फीसदी शहरी आबादी और 28 फीसदी ग्रामीण आबादी शामिल है जबकि सामान्य वर्ग में 44 फीसदी शहरी आबादी और 22 फीसदी ग्रामीण आबादी शामिल है। डॉ. सी. रंगराजन की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री द्वारा गठित विशेषज्ञ समूह ने प्राथमिकता वाले परिवारों की बाबत एनएसी की सिफारिशों का समर्थन किया था, लेकिन यह भी कहा था कि अगर पर्याप्त अनाज उपलब्ध हो तभी सामान्य श्रेणी के परिवारों को सस्ते अनाज का वितरण किया जाए। विशेषज्ञ समूह ने कहा है कि एनएसी की सिफारिशों के मुताबिक सभी चरणों के लिए खाद्यान्न के अधिकार लागू करना संभव नहीं है।इसने तर्क दिया है कि अगर एनएसी की सिफारिशों को अपना लिया जाता है तो फिर इससे सरकार पर सब्सिडी का भारी बोझ पड़ेगा, साथ ही यह बाजार को भी नष्ट कर सकता है, अगर खरीद का स्तर अकारण बढ़ाया जाता है। पैनल ने कहा है कि प्रस्तावित अधिनियम अनाज की मांग पूरी करने की बाबत सरकार पर कानूनी बाध्यता आरोपित करता है। उन्होंने कहा है कि विधेयक के मसौदे को अंतिम रूप देने से पहले कुछ परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए मसलन, अगर लगातार दो साल तक सूखा पड़े तो फिर इसे कैसे पूरा किया जाएगा। अधिकारी ने कहा कि यही वजह है कि हम आबादी के उस वर्ग के लिए नकद सब्सिडी की बात कर रहे हैं जिनकी कानूनी तौर पर अनाज की मांग पूरी न हो।मौजूदा समय में सरकार गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले 6.52 करोड़ परिवारों को राशन दुकानों के जरिए 35 किलोग्राम अनाज उपलब्ध कराती है। इन परिवारों को 4.15 रुपये प्रति किलोग्राम पर गेहूं और 5.65 रुपये प्रति किलोग्राम पर चावल उपलब्ध कराया जाता है। गरीबी रेखा से ऊपर रहने वाले परिवारों को सरकार 15 से 35 किलोग्राम अनाज हर महीने उपलब्ध कराती है।प्रधानमंत्री द्वारा गठित विशेषज्ञ समूह का अनुमान है कि भारत का खाद्यान्न सब्सिडी खर्च बढ़कर करीब 92,060 करोड़ रुपये पर पहुंच जाएगा, अगर 75 फीसदी परिवारों को अनाज उपलब्ध कराने की एनएसी की सिफारिशें मान ली जाती हैं। वहीं यह खर्च घटकर करीब 83,000 करोड़ पर आ सकती है अगर गरीबी रेखा के ऊपर रहने वाले परिवारों को इससे अलग करने के उनके सुझाव को मान लिया जाता है या फिर उनके आवंटन में कमी की उनकी सिफारिशें मान ली जाती हैं। विशेषज्ञ समूह ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि खाद्य सुरक्षा अधिनियम की जरूरतों के अलावा सब्सिडी में निर्धन वरिष्ठ नागरिकों के लिए चलाई जाने वाली कल्याणकारी अन्नपूर्णा योजना के लिए आवंटन शामिल होगा। (BS Hindi)
कब तक मानसून भरोसे किसान
मौसम विभाग के मुताबिक भारत की सालाना बारिश में 83 फीसद हिस्सेदारी रखने वाले दक्षिण-पश्चिमी मानसून के इस बार सामान्य रहने की उम्मीद है.
इस बार भी कागजों पर फसल के अनुमान लगाने वालों ने डबल डिजीट विकास दर के सपने देखने शुरू कर दिये हैं. शेयर बाजार भी फुहार के सहारे 30 अंक ऊपर चढ़ा और नीतिकारों ने खाद्य वस्तुओं की मंहगाई कम होने के दावे शुरू कर दिए हैं. जश्न के सरकारी शोरगुल में अहम किरदार किसान की सुध किसी को नहीं है.
लेकिन न भूलें कि 2002 और 2009 में भारतीय मौसम की भविष्यवाणी गलत साबित हुई थी और करोड़ों रुपए के उपकरणों से लैस इस विभाग के पिछले 22 में से 17 अनुमानों में फेरबदल हुआ है. खेती के लिए दक्षिण-पश्चिमी मानसून बेहद अहम है क्योंकि गन्ना, धान, तिलहन और दलहन की पैदावार इसी पर निर्भर करती है और रबी की कटाई के लिए जरूरी नमी भी इसी बारिश से मिलती है.
हालांकि मानसून की सही तस्वीर जून की समीक्षा में सामने आएगी लेकिन ताजा अनुमानों पर आगे की योजनाएं बन सकती हैं मगर मौसम विभाग के आधे-अधूरे आंकड़े किसानों की खास मदद नहीं कर पाएंगे. देशभर में बारिश का वितरण समान नहीं है, लिहाजा जिलों के स्तर पर बारिश के आंकड़े जारी किए जाने चाहिए ताकि किसानों को सुविधा हो. मिसाल के तौर पर मध्यप्रदेश में 32 फीसद भूमि ही सिंचित इलाके में आती है जबकि पंजाब में 98 फीसद भूमि सिंचित क्षेत्र में है. अगर मौसम विभाग के अनुमान धराशायी होते हैं तो सबसे ज्यादा खामियाजा मध्यप्रदेश के किसानों को भुगतना पड़ेगा. बेशक पंजाब सरकार के सब्सिडी बिल में बढ़ोतरी हो सकती है लेकिन वहां के किसान सुरक्षित रहेंगे.
देश की 60 फीसद कृषि भूमि गैर-सिंचित है और महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार, उड़ीसा और राजस्थान जैसे राज्यों में खेती पर आश्रित लोगों की तादाद ज्यादा है. ऐसे में मौसम विभाग की भविष्यवाणी गलत साबित होने पर किसानों का बड़ा तबका बर्बाद हो जाएगा.
बेहतर मानसून की संभावना शुभ संकेत है लेकिन महज इसके बलबूते उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं हो सकती. किसान को सही बीज, समय पर खाद और किफायती दर पर कृषि उपकरण मुहैया करवाकर ही उत्पादन में बढ़ोतरी की आस लगाई जा सकती है. यह सरकारी नीतियों में झोल का ही नतीजा है कि किसानों को फसल का उचित दाम नहीं मिलता और एफसीआई के गोदामों में गेहूं रखने की जगह नहीं है जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं की कीमतें आसमान पर हैं और भारत 50 लाख टन तक गेंहूं निर्यात कर सकता है. पूंजीपतियों की लॉबिंग के चलते ही वैश्विक बाजार में माकूल अवसर होने के बावजूद कपास और चीनी के निर्यात की अनुमित नहीं दी गई थी. अगर सरकार कृषि-उत्पादन बढ़ाने को प्रतिबद्ध है तो किसानों को उपज का सही दाम देने की गारंटी देनी होगी.
भारत जब भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में खरीदारी के लिए उतरता है तो जिंसों की कीमतें आसमान छूने लगती हैं. उसने जब भी गेंहूं, चीनी व दालों से लेकर क्रूड ऑयल आयात करने की घोषणा की तो कीमतों में उछाल देखने को मिला है. सवाल है कि आस्ट्रेलियाई और अमेरिकी किसानों से मंहगी दर पर खाद्य वस्तुएं खरीदने वाली सरकार घरेलू किसानों को उनका हक देते समय क्यों कतराती है. कहने की जरूरत नहीं कि किसानों के हक में लॉबिंग करने वाला कोई नहीं है.
बेहतर मानसून के दावों पर उछलने की बजाए यह वक्त कृषि सेक्टर में बुनियादी सुधार का है. दस फीसद विकास दर के पीछे दौड़ने वाले भी स्वीकारेंगे कि कृषि सेक्टर की पांच फीसद से ज्यादा हिस्सेदारी के बगैर यह लक्ष्य पाना मुश्किल है. देश इस समय नाजुक दौर से गुजर रहा है. सरकार खाद्य सुरक्षा देने का दावा कर रही है वहीं खाद्य वस्तुओं की मंहगाई दर पिछले नौ महीने से दहाई में चल रही है. खराब मानसून से कृषि-उत्पादन प्रभावित होने के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में खेती से जुड़े मजदूरों की रोजी-रोटी भी छिन जाती है. यह समय है कि जब सरकार अनाज भंडारण, भूजल के पुनर्भरण की योजनाएं, अतिवृष्टि व सूखे क्षेत्रों में सामंजस्य और कृषि उत्पादों की वितरण प्रणाली में सुधार समेत दूसरी बुनियादी दिक्कतों में सुधार के प्रयास शुरू करे. (अरविंद कुमार सेन )
इस बार भी कागजों पर फसल के अनुमान लगाने वालों ने डबल डिजीट विकास दर के सपने देखने शुरू कर दिये हैं. शेयर बाजार भी फुहार के सहारे 30 अंक ऊपर चढ़ा और नीतिकारों ने खाद्य वस्तुओं की मंहगाई कम होने के दावे शुरू कर दिए हैं. जश्न के सरकारी शोरगुल में अहम किरदार किसान की सुध किसी को नहीं है.
लेकिन न भूलें कि 2002 और 2009 में भारतीय मौसम की भविष्यवाणी गलत साबित हुई थी और करोड़ों रुपए के उपकरणों से लैस इस विभाग के पिछले 22 में से 17 अनुमानों में फेरबदल हुआ है. खेती के लिए दक्षिण-पश्चिमी मानसून बेहद अहम है क्योंकि गन्ना, धान, तिलहन और दलहन की पैदावार इसी पर निर्भर करती है और रबी की कटाई के लिए जरूरी नमी भी इसी बारिश से मिलती है.
हालांकि मानसून की सही तस्वीर जून की समीक्षा में सामने आएगी लेकिन ताजा अनुमानों पर आगे की योजनाएं बन सकती हैं मगर मौसम विभाग के आधे-अधूरे आंकड़े किसानों की खास मदद नहीं कर पाएंगे. देशभर में बारिश का वितरण समान नहीं है, लिहाजा जिलों के स्तर पर बारिश के आंकड़े जारी किए जाने चाहिए ताकि किसानों को सुविधा हो. मिसाल के तौर पर मध्यप्रदेश में 32 फीसद भूमि ही सिंचित इलाके में आती है जबकि पंजाब में 98 फीसद भूमि सिंचित क्षेत्र में है. अगर मौसम विभाग के अनुमान धराशायी होते हैं तो सबसे ज्यादा खामियाजा मध्यप्रदेश के किसानों को भुगतना पड़ेगा. बेशक पंजाब सरकार के सब्सिडी बिल में बढ़ोतरी हो सकती है लेकिन वहां के किसान सुरक्षित रहेंगे.
देश की 60 फीसद कृषि भूमि गैर-सिंचित है और महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार, उड़ीसा और राजस्थान जैसे राज्यों में खेती पर आश्रित लोगों की तादाद ज्यादा है. ऐसे में मौसम विभाग की भविष्यवाणी गलत साबित होने पर किसानों का बड़ा तबका बर्बाद हो जाएगा.
बेहतर मानसून की संभावना शुभ संकेत है लेकिन महज इसके बलबूते उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं हो सकती. किसान को सही बीज, समय पर खाद और किफायती दर पर कृषि उपकरण मुहैया करवाकर ही उत्पादन में बढ़ोतरी की आस लगाई जा सकती है. यह सरकारी नीतियों में झोल का ही नतीजा है कि किसानों को फसल का उचित दाम नहीं मिलता और एफसीआई के गोदामों में गेहूं रखने की जगह नहीं है जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं की कीमतें आसमान पर हैं और भारत 50 लाख टन तक गेंहूं निर्यात कर सकता है. पूंजीपतियों की लॉबिंग के चलते ही वैश्विक बाजार में माकूल अवसर होने के बावजूद कपास और चीनी के निर्यात की अनुमित नहीं दी गई थी. अगर सरकार कृषि-उत्पादन बढ़ाने को प्रतिबद्ध है तो किसानों को उपज का सही दाम देने की गारंटी देनी होगी.
भारत जब भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में खरीदारी के लिए उतरता है तो जिंसों की कीमतें आसमान छूने लगती हैं. उसने जब भी गेंहूं, चीनी व दालों से लेकर क्रूड ऑयल आयात करने की घोषणा की तो कीमतों में उछाल देखने को मिला है. सवाल है कि आस्ट्रेलियाई और अमेरिकी किसानों से मंहगी दर पर खाद्य वस्तुएं खरीदने वाली सरकार घरेलू किसानों को उनका हक देते समय क्यों कतराती है. कहने की जरूरत नहीं कि किसानों के हक में लॉबिंग करने वाला कोई नहीं है.
बेहतर मानसून के दावों पर उछलने की बजाए यह वक्त कृषि सेक्टर में बुनियादी सुधार का है. दस फीसद विकास दर के पीछे दौड़ने वाले भी स्वीकारेंगे कि कृषि सेक्टर की पांच फीसद से ज्यादा हिस्सेदारी के बगैर यह लक्ष्य पाना मुश्किल है. देश इस समय नाजुक दौर से गुजर रहा है. सरकार खाद्य सुरक्षा देने का दावा कर रही है वहीं खाद्य वस्तुओं की मंहगाई दर पिछले नौ महीने से दहाई में चल रही है. खराब मानसून से कृषि-उत्पादन प्रभावित होने के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में खेती से जुड़े मजदूरों की रोजी-रोटी भी छिन जाती है. यह समय है कि जब सरकार अनाज भंडारण, भूजल के पुनर्भरण की योजनाएं, अतिवृष्टि व सूखे क्षेत्रों में सामंजस्य और कृषि उत्पादों की वितरण प्रणाली में सुधार समेत दूसरी बुनियादी दिक्कतों में सुधार के प्रयास शुरू करे. (अरविंद कुमार सेन )
पीडीएस घोटालों पर गंभीर नहीं सरकारें
सार्वजनिक वितरण प्रणाली आज कालाबाजारियों, बिचौलियों, छुटभैये नेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों के लिए भ्रष्टाचार का जरिया बनकर रह गई है.
गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे परिवारों की खाद्य सुरक्षा के मकसद से शुरू की गई सार्वजनिक वितरण प्रणाली आज कालाबाजारियों, बिचौलियों, छुटभैये नेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों के लिए भ्रष्टाचार का जरिया बनकर रह गई है. इस योजना को अमली जामा पहनाने वाले महकमें में ऊपर से लेकर नीचे तक रिश्वत, आपूर्ति में हेरा-फेरी, घटिया व कम अनाज वितरण और घोटाले का राज है. यही वजह है कि हमारी सर्वोच्च अदालत कई बार केंद्र और प्रदेश सरकारों को इस मामले में फटकार लगा चुकी है. वितरण प्रणाली को अधिक व्यावहारिक व पारदर्शी बनाने के लिए उसने अपनी ओर से कई निर्देश भी दिए, लेकिन पीडीएस को लेकर सूबाई सरकारों की उदासीनता कहें या फिर कोताही, उन्होंने इस राह में कोई कारगर पहल नहीं की.
हालिया मामला, उत्तर प्रदेश का है. सीबीआई ने हाल में व्यापक छानबीन के बाद यूपी के छह जिलों में पीडीएस में भ्रष्टाचार के आरोप में वितरकों और अफसरों के खिलाफ मामले दर्ज किए हैं. सीबीआई ने जांच के बाद स्वीकार किया कि यह घोटाला करीबन दो लाख करोड़ रुपए का है और यह केवल यूपी तक सीमित नहीं है. यानी, उत्तर प्रदेश के पीडीएस भ्रष्टाचार के तार मुल्क के बाकी हिस्सों में भी फैले हुए हैं. सीबीआई ने अपनी जांच में अनियमितताओं के लिए वितरकों और अफसरों के साथ-साथ राजनीतिकों को भी कसूरवार ठहराया है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार पर कमोबेश ऐसी ही राय सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त जस्टिस डीपी वाधवा कमेटी की है. जस्टिस वाधवा ने मुल्क के कई सूबों में विस्तृत छानबीन की और यह निष्कर्ष निकाला कि गरीबों को सस्ते दामों पर अनाज मुहैया कराने की केन्द्र सरकार की यह महत्वाकांक्षी योजना महज भ्रष्टाचार की वितरण प्रणाली बनकर रह गई है.
दरअसल, फर्जी राशन कार्ड और गलत नाम दर्ज करके गरीबों के हिस्से का अनाज खुले बाजार में बेच देने के मामले पूरे देश में जब-तब सामने आते रहे हैं. कई प्रदेशों में फर्जी नंबर वाले ट्रकों के जरिए भारतीय खाद्य निगम के गोदामों से अनाज उठाकर सीधे व्यापारियों के यहां पहुंचाने के सैकड़ों मामले दर्ज किए गए हैं. भारतीय खाद्य निगम एवं नागरिक आपूर्ति निगम के गोदामों से पीडीएस दुकानों की दूरी ज्यादा होती है. ऐसे में बीच से ही खाद्यान्न से भरे ट्रक गायब कर दिए जाते हैं जो अक्सर फ्लोर मिलों, बिस्कुट बनाने वाली कंपनियों को बेच दिए जाते हैं. लेकिन, यूपी में हालात और भी विकराल हैं. सीबीआई ने अपने खुलासे में बताया है कि सूबे में पीडीएस के खाद्यान्न को पड़ोसी मुल्कों में गैरकानूनी ढंग से बेच दिया जाता है. यानी, सूबे में अनाज की कालाबाजारी करने वाले सिंडिकेट के हौसले इतने बुलंद हैं कि उन्हें गरीबों के हक के अनाज को मुल्क के बाहर बेच देने में भी कोई हिचक नहीं.
गौरतलब है कि पीडीएस के तहत बांटा जाने वाला अनाज लाईसेंसशुदा वितरकों को उस इलाके में जरूरतमंदों की संख्या के आधार पर जारी किया जाता है. गोदाम से भेजे गए अनाज की रसीद पर वितरक के हस्ताक्षर और उसकी टिप्पणी भी आवश्यक है. फिर फर्जी वितरक भारतीय खाद्य निगम के गोदामों से अनाज किस तरह से उठा लेते हैं, यह सचमुच शोध का विषय है. सरकारी राशन की दुकानों के अनाज की लूट बढ़ती जा रही है. जरूरतमंदो के हिस्से का अनाज कालाबाजारी कर बाजार में खुलेआम बेचा जा रहा है. यह लूट घटने की बजाय साल दर साल बढ़ती जा रही है.
एक अनुमान के मुताबिक साल 2004-05 में 9918 करोड़ रुपए का अनाज कालाबाजारी के जरिए बाजार में पहुंचा तो साल 2005-06 में यह लूट 10,330 करोड़ रुपए की हो गई और 2006-07 में 11336 करोड़ रुपए की आंकी गई. यानी, इन तीन सालों में जरूरतमंद लोगों को आवंटित 31,500 करोड़ रुपए के गेहूं और चावल डीलरों, नौकरशाहों और नेताओं ने लूट लिए. जाहिर है यह छोटी लूट नहीं है. यह कितनी बड़ी है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह राशि स्वास्थ्य पर दो साल के सरकारी बजट के बराबर है तो शिक्षा पर सालाना होने वाले खर्च के बराबर है. खुद, केंद्र सरकार द्वारा तैयार एक अध्ययन के आंकड़े बतलाते हैं कि हर साल पीडीएस का 53 फीसद गेहूं और 39 फीसद चावल कालाबाजारी के जरिए खुले बाजार में चला जाता है. यानी, आधा गेहूं और चावल जरूरतमंदों तक पहुच ही नहीं पाता.
बहरहाल, उत्तर प्रदेश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों के हक पर इतना बड़ा डाका चौंकाने वाला है और यह हैरानी इसलिए भी है सरकार पीडीएस के अनाज की कालाबाजारी पर चुप्पी साधे बैठी है. इतने बड़े घोटाले के उजागर होने के बाद भी दोषियों की धरपकड़ के लिए राज्य में कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई है. सिर्फ 6 जिलों में, कुछ मामले रस्मअदायगी की खातिर केस दर्ज किए गए हैं. यदि सरकार इस मामले में जरा भी संजीदा होती तो, गुनहगारों पर तुरंत कार्रवाई की जाती. मालूूम नहीं सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि उसकी आंखों के सामने गरीबों का निवाला छिन रहा है और वह उसे देखकर भी लगातार नजरअंदाज कर रही है. लगता है सार्वजनिक वितरण प्रणाली में फैला भ्रष्टाचार सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है. यह उसकी असंवेदनशीलता ही दर्शाता है. जहां तक सीबीआई की तहकीकात का सवाल है, सीबीआई के कई जांच दलों की महीनों की छान-बीन के बाद भी सूबे में कोई बेहतर तस्वीर सामने निकलकर नहीं आई है. हालांकि, उसने यह इशारा जरूर किया है कि इस घोटाले में नेताओं का भी हाथ है, फिर भी इस मामले में अभी तक कोई बड़ी गिरफ्तारी न होना सीबीआई की कार्यशैली पर भी सवालिया निशान लगाता है. (जाहिद खान)
गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे परिवारों की खाद्य सुरक्षा के मकसद से शुरू की गई सार्वजनिक वितरण प्रणाली आज कालाबाजारियों, बिचौलियों, छुटभैये नेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों के लिए भ्रष्टाचार का जरिया बनकर रह गई है. इस योजना को अमली जामा पहनाने वाले महकमें में ऊपर से लेकर नीचे तक रिश्वत, आपूर्ति में हेरा-फेरी, घटिया व कम अनाज वितरण और घोटाले का राज है. यही वजह है कि हमारी सर्वोच्च अदालत कई बार केंद्र और प्रदेश सरकारों को इस मामले में फटकार लगा चुकी है. वितरण प्रणाली को अधिक व्यावहारिक व पारदर्शी बनाने के लिए उसने अपनी ओर से कई निर्देश भी दिए, लेकिन पीडीएस को लेकर सूबाई सरकारों की उदासीनता कहें या फिर कोताही, उन्होंने इस राह में कोई कारगर पहल नहीं की.
हालिया मामला, उत्तर प्रदेश का है. सीबीआई ने हाल में व्यापक छानबीन के बाद यूपी के छह जिलों में पीडीएस में भ्रष्टाचार के आरोप में वितरकों और अफसरों के खिलाफ मामले दर्ज किए हैं. सीबीआई ने जांच के बाद स्वीकार किया कि यह घोटाला करीबन दो लाख करोड़ रुपए का है और यह केवल यूपी तक सीमित नहीं है. यानी, उत्तर प्रदेश के पीडीएस भ्रष्टाचार के तार मुल्क के बाकी हिस्सों में भी फैले हुए हैं. सीबीआई ने अपनी जांच में अनियमितताओं के लिए वितरकों और अफसरों के साथ-साथ राजनीतिकों को भी कसूरवार ठहराया है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार पर कमोबेश ऐसी ही राय सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त जस्टिस डीपी वाधवा कमेटी की है. जस्टिस वाधवा ने मुल्क के कई सूबों में विस्तृत छानबीन की और यह निष्कर्ष निकाला कि गरीबों को सस्ते दामों पर अनाज मुहैया कराने की केन्द्र सरकार की यह महत्वाकांक्षी योजना महज भ्रष्टाचार की वितरण प्रणाली बनकर रह गई है.
दरअसल, फर्जी राशन कार्ड और गलत नाम दर्ज करके गरीबों के हिस्से का अनाज खुले बाजार में बेच देने के मामले पूरे देश में जब-तब सामने आते रहे हैं. कई प्रदेशों में फर्जी नंबर वाले ट्रकों के जरिए भारतीय खाद्य निगम के गोदामों से अनाज उठाकर सीधे व्यापारियों के यहां पहुंचाने के सैकड़ों मामले दर्ज किए गए हैं. भारतीय खाद्य निगम एवं नागरिक आपूर्ति निगम के गोदामों से पीडीएस दुकानों की दूरी ज्यादा होती है. ऐसे में बीच से ही खाद्यान्न से भरे ट्रक गायब कर दिए जाते हैं जो अक्सर फ्लोर मिलों, बिस्कुट बनाने वाली कंपनियों को बेच दिए जाते हैं. लेकिन, यूपी में हालात और भी विकराल हैं. सीबीआई ने अपने खुलासे में बताया है कि सूबे में पीडीएस के खाद्यान्न को पड़ोसी मुल्कों में गैरकानूनी ढंग से बेच दिया जाता है. यानी, सूबे में अनाज की कालाबाजारी करने वाले सिंडिकेट के हौसले इतने बुलंद हैं कि उन्हें गरीबों के हक के अनाज को मुल्क के बाहर बेच देने में भी कोई हिचक नहीं.
गौरतलब है कि पीडीएस के तहत बांटा जाने वाला अनाज लाईसेंसशुदा वितरकों को उस इलाके में जरूरतमंदों की संख्या के आधार पर जारी किया जाता है. गोदाम से भेजे गए अनाज की रसीद पर वितरक के हस्ताक्षर और उसकी टिप्पणी भी आवश्यक है. फिर फर्जी वितरक भारतीय खाद्य निगम के गोदामों से अनाज किस तरह से उठा लेते हैं, यह सचमुच शोध का विषय है. सरकारी राशन की दुकानों के अनाज की लूट बढ़ती जा रही है. जरूरतमंदो के हिस्से का अनाज कालाबाजारी कर बाजार में खुलेआम बेचा जा रहा है. यह लूट घटने की बजाय साल दर साल बढ़ती जा रही है.
एक अनुमान के मुताबिक साल 2004-05 में 9918 करोड़ रुपए का अनाज कालाबाजारी के जरिए बाजार में पहुंचा तो साल 2005-06 में यह लूट 10,330 करोड़ रुपए की हो गई और 2006-07 में 11336 करोड़ रुपए की आंकी गई. यानी, इन तीन सालों में जरूरतमंद लोगों को आवंटित 31,500 करोड़ रुपए के गेहूं और चावल डीलरों, नौकरशाहों और नेताओं ने लूट लिए. जाहिर है यह छोटी लूट नहीं है. यह कितनी बड़ी है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह राशि स्वास्थ्य पर दो साल के सरकारी बजट के बराबर है तो शिक्षा पर सालाना होने वाले खर्च के बराबर है. खुद, केंद्र सरकार द्वारा तैयार एक अध्ययन के आंकड़े बतलाते हैं कि हर साल पीडीएस का 53 फीसद गेहूं और 39 फीसद चावल कालाबाजारी के जरिए खुले बाजार में चला जाता है. यानी, आधा गेहूं और चावल जरूरतमंदों तक पहुच ही नहीं पाता.
बहरहाल, उत्तर प्रदेश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों के हक पर इतना बड़ा डाका चौंकाने वाला है और यह हैरानी इसलिए भी है सरकार पीडीएस के अनाज की कालाबाजारी पर चुप्पी साधे बैठी है. इतने बड़े घोटाले के उजागर होने के बाद भी दोषियों की धरपकड़ के लिए राज्य में कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई है. सिर्फ 6 जिलों में, कुछ मामले रस्मअदायगी की खातिर केस दर्ज किए गए हैं. यदि सरकार इस मामले में जरा भी संजीदा होती तो, गुनहगारों पर तुरंत कार्रवाई की जाती. मालूूम नहीं सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि उसकी आंखों के सामने गरीबों का निवाला छिन रहा है और वह उसे देखकर भी लगातार नजरअंदाज कर रही है. लगता है सार्वजनिक वितरण प्रणाली में फैला भ्रष्टाचार सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है. यह उसकी असंवेदनशीलता ही दर्शाता है. जहां तक सीबीआई की तहकीकात का सवाल है, सीबीआई के कई जांच दलों की महीनों की छान-बीन के बाद भी सूबे में कोई बेहतर तस्वीर सामने निकलकर नहीं आई है. हालांकि, उसने यह इशारा जरूर किया है कि इस घोटाले में नेताओं का भी हाथ है, फिर भी इस मामले में अभी तक कोई बड़ी गिरफ्तारी न होना सीबीआई की कार्यशैली पर भी सवालिया निशान लगाता है. (जाहिद खान)
अब परिवार के सदस्यों के हिसाब से मिलेगा राशन
नई दिल्ली । केंद्र सरकार की प्रस्तावित नई राशन प्रणाली में हर माह परिवार को दिए जाने वाला राशन अब परिवार के सदस्यों की संख्या के आधार पर तय होगा। इसके तहत प्रत्येक व्यक्ति को सात किलो राशन हर महीने दिया जाएगा। अनाज की मात्रा राशन कार्ड पर दर्ज सदस्यों की संख्या के आधार पर तय की जाएगी।
नई राशन प्रणाली के इस प्रावधान से उन बीपीएल [गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले] परिवारों को सीधा लाभ मिलेगा, जिनके परिवार के सदस्यों की संख्या पांच से अधिक है। फिलहाल हर बीपीएल परिवार को प्रति माह 35 किलो अनाज मिलता है। नया नियम लागू होने के बाद अनाज के आवंटन में भारी वृद्धि करनी होगी। प्रणाली में इस संशोधन की सिफारिश प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निर्देश पर गठित मुख्यमंत्रियों की समिति ने की है। इस समूह के अध्यक्ष योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया हैं। इस समिति में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह और असम के मुख्यमंत्री तरुण गगोई सदस्य हैं। यह समिति राशन प्रणाली में सुधार पर अपनी सिफारिशें इस महीने के आखिर तक प्रधानमंत्री को सौंपेगी। योजना आयोग के वर्ष 1993-94 के अनुमान के मुताबिक केंद्र सरकार हर महीने 6.52 करोड़ गरीब परिवारों को रियायती दर पर राशन बेचती है, लेकिन राज्यों में कुल गरीब परिवारों की संख्या 11 करोड़ है। इस मामले में राज्य सरकारों के जवाब को समिति ने गंभीरता से सुना है। इसी के आधार पर कमेटी ने अपनी सिफारिशों में कहा है कि गरीब परिवारों के टूटने से यह संख्या लगातार बढ़ी है, जिसे केंद्र सरकार की ओर से नजरअंदाज किया गया है।
समिति ने राशन प्रणाली में सुधार के लिए जो सुझाव दिए हैं, उसमें विचाराधीन खाद्य सुरक्षा विधेयक पर खास ध्यान दिया गया है। इस विधेयक में सरकार गरीब परिवारों को रियायती अनाज देने की गारंटी के स्थान पर हर गरीब को खाद्य सुरक्षा की गारंटी देगी। राशन प्रणाली में सुधार की दिशा में गरीब परिवारों को राशन कार्ड की जगह स्मार्ट कार्ड दिए जाने का प्रावधान है। खाद्य सब्सिडी की राशि उसके इसी कार्ड में भरी जाएगी, जिससे वह खुदरा दुकानों अथवा रियायती दर की दुकानों से गेहूं, चावल, अंडा, मीट और दालें खरीद सकता है। (Jagran)
नई राशन प्रणाली के इस प्रावधान से उन बीपीएल [गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले] परिवारों को सीधा लाभ मिलेगा, जिनके परिवार के सदस्यों की संख्या पांच से अधिक है। फिलहाल हर बीपीएल परिवार को प्रति माह 35 किलो अनाज मिलता है। नया नियम लागू होने के बाद अनाज के आवंटन में भारी वृद्धि करनी होगी। प्रणाली में इस संशोधन की सिफारिश प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निर्देश पर गठित मुख्यमंत्रियों की समिति ने की है। इस समूह के अध्यक्ष योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया हैं। इस समिति में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह और असम के मुख्यमंत्री तरुण गगोई सदस्य हैं। यह समिति राशन प्रणाली में सुधार पर अपनी सिफारिशें इस महीने के आखिर तक प्रधानमंत्री को सौंपेगी। योजना आयोग के वर्ष 1993-94 के अनुमान के मुताबिक केंद्र सरकार हर महीने 6.52 करोड़ गरीब परिवारों को रियायती दर पर राशन बेचती है, लेकिन राज्यों में कुल गरीब परिवारों की संख्या 11 करोड़ है। इस मामले में राज्य सरकारों के जवाब को समिति ने गंभीरता से सुना है। इसी के आधार पर कमेटी ने अपनी सिफारिशों में कहा है कि गरीब परिवारों के टूटने से यह संख्या लगातार बढ़ी है, जिसे केंद्र सरकार की ओर से नजरअंदाज किया गया है।
समिति ने राशन प्रणाली में सुधार के लिए जो सुझाव दिए हैं, उसमें विचाराधीन खाद्य सुरक्षा विधेयक पर खास ध्यान दिया गया है। इस विधेयक में सरकार गरीब परिवारों को रियायती अनाज देने की गारंटी के स्थान पर हर गरीब को खाद्य सुरक्षा की गारंटी देगी। राशन प्रणाली में सुधार की दिशा में गरीब परिवारों को राशन कार्ड की जगह स्मार्ट कार्ड दिए जाने का प्रावधान है। खाद्य सब्सिडी की राशि उसके इसी कार्ड में भरी जाएगी, जिससे वह खुदरा दुकानों अथवा रियायती दर की दुकानों से गेहूं, चावल, अंडा, मीट और दालें खरीद सकता है। (Jagran)
24 मई 2011
'वायदा बाजार आयोग को मिले पूर्ण स्वायत्ता'
नई दिल्ली May 23, 2011
जिंस व्यापारियों की संस्था कमोडिटी पार्टिसिपेन्ट्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीपीएआई) ने वायदा बाजार आयोग (एफएमसी) को पूर्ण स्वायत्त देने और शेयर बाजार नियामक सेबी के समकक्ष रखे जाने की सरकार से अपील की है।
सीपीएआई के नव निर्वाचित अध्यक्ष और एसएमसी कॉमट्रेड फर्म के प्रबंध निदेशक डी के अग्रवाल ने कहा कि स्वायत्ता के अभाव में वायदा बाजार आयोग जिंस कारोबार के नियमन में वैसी प्रभावी भूमिका नहीं निभा पा रहा है, जैसी होनी चाहिए। अग्रवाल ने आयोग को 'पूर्ण स्वायत्ताÓ देने के लिए अध्यादेश जारी करने की मांग की है।
अग्रवाल ने आज एक बयान में कहा कि वायदा बाजार नियमन विधेयक, जो इस समय संसद की स्थाई समिति के समक्ष लंबित है, उसमें जिंस वायदा बाजार आयोग को शेयर बाजार के नियामक के समकक्ष रखने के प्रावधान हैं। यह बिल 2006 से लंबित है। उन्होंने कहा कि वायदा बाजार आयोग को एक अध्यादेश के जरिए पूर्ण स्वायत्ता दी जानी चाहिए और आयोग को इतने अधिकार होने चाहिए कि वह बाजार नियमन के विवादों को सुलझाने के लिए सरकार द्वारा बुलाई जाने वाली नियामक संस्थाओं की बैठक में भाग ले सके।
सीपीएआई का कहना है कि जिंस वायदा बाजार के तेजी से प्र्रसार को देखते हुए इसके नियामक को स्वायत्ता देना जरूरी हो गया है। एक अनुमान के मुताबिक 2010-11 में जिंस वायदा बाजार 100 लाख करोड़ रुपए के आंकड़ों को पार कर गया और चालू वित्त वर्ष में जिंस वायदा कारोबार 150 लाख करोड़ रुपए के स्तर को छू जाएगा। (BS Hindi)
जिंस व्यापारियों की संस्था कमोडिटी पार्टिसिपेन्ट्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीपीएआई) ने वायदा बाजार आयोग (एफएमसी) को पूर्ण स्वायत्त देने और शेयर बाजार नियामक सेबी के समकक्ष रखे जाने की सरकार से अपील की है।
सीपीएआई के नव निर्वाचित अध्यक्ष और एसएमसी कॉमट्रेड फर्म के प्रबंध निदेशक डी के अग्रवाल ने कहा कि स्वायत्ता के अभाव में वायदा बाजार आयोग जिंस कारोबार के नियमन में वैसी प्रभावी भूमिका नहीं निभा पा रहा है, जैसी होनी चाहिए। अग्रवाल ने आयोग को 'पूर्ण स्वायत्ताÓ देने के लिए अध्यादेश जारी करने की मांग की है।
अग्रवाल ने आज एक बयान में कहा कि वायदा बाजार नियमन विधेयक, जो इस समय संसद की स्थाई समिति के समक्ष लंबित है, उसमें जिंस वायदा बाजार आयोग को शेयर बाजार के नियामक के समकक्ष रखने के प्रावधान हैं। यह बिल 2006 से लंबित है। उन्होंने कहा कि वायदा बाजार आयोग को एक अध्यादेश के जरिए पूर्ण स्वायत्ता दी जानी चाहिए और आयोग को इतने अधिकार होने चाहिए कि वह बाजार नियमन के विवादों को सुलझाने के लिए सरकार द्वारा बुलाई जाने वाली नियामक संस्थाओं की बैठक में भाग ले सके।
सीपीएआई का कहना है कि जिंस वायदा बाजार के तेजी से प्र्रसार को देखते हुए इसके नियामक को स्वायत्ता देना जरूरी हो गया है। एक अनुमान के मुताबिक 2010-11 में जिंस वायदा बाजार 100 लाख करोड़ रुपए के आंकड़ों को पार कर गया और चालू वित्त वर्ष में जिंस वायदा कारोबार 150 लाख करोड़ रुपए के स्तर को छू जाएगा। (BS Hindi)
पिछले साल के मुकाबले 15 फीसदी तक बढ़ गईं चाय की कीमतें
नई दिल्ली May 23, 2011
चाय का प्याला भी गर्म होने लगा है। पिछले साल के मुकाबले चाय की कीमतें 10 से 15 रुपये बढ़ चुकी हैं। चाय की कीमतों में तेजी की वजह इसके स्टॉक में कमी आना है। चाय उद्योग का कहना है कि स्टॉक में गिरावट की वजह पिछले साल उत्पादन में आई गिरावट है। उद्योग ने अगले माह तक चाय की कीमतों में तेजी जारी रहने की संभावना जताई है। उद्योग का यह भी कहना है कि केन्या और श्रीलंका में भी उत्पादन गिरने से चाय के दामों में कमी आने की उम्मीद कम ही है।भारतीय चाय संघ के निदेशक कमल वाहिदी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि सत्र की शुरुआत में चाय का ओपनिंग स्टॉक 5 करोड़ किलोग्राम कम है। इसकी वजह से चाय के दाम पिछले साल की तुलना में 10-15 रुपये प्रति किलो ज्यादा हैं। वाहिदी के मुताबिक उत्पादक इलाकों में असम की चाय के नीलामी भाव 150 रुपये प्रति किलो हैं। स्टॉक में कमी के बारे में वाहिदी का कहना है कि पिछले साल चाय उत्पादन घटने के कारण इसमें कमी आई है। भारतीय चाय बोर्ड के मुताबिक वर्ष 2010 में देश में 96.64 करोड़ किलोग्र्राम चाय का उत्पादन हुआ था जो वर्ष 2009 में 97.89 करोड़ किलोग्राम था। चालू वर्ष के जनवरी-फरवरी महीनों में चाय उत्पादन 16 फीसदी से अधिक गिरकर 3.76 करोड़ किलो रहा, लेकिन मार्च में इसमें 16 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इस वजह से शुरुआती तीन महीनों में चाय उत्पादन पिछली वर्ष की समान अवधि के बराबर ही है। चाय की कीमतों के संदर्भ में बाघ बकरी ब्रांड के नाम से चाय बेचने वाली कंपनी गुजरात टी प्रोसेसर्स ऐंड पैकर्स लिमिटेड के चेयरमैन पीयूष देसाई भी इसकी कीमतों में तेजी की बात से इत्तेफाक रखते है। उनका कहना है कि देश में मांग के मुकाबले चाय की आपूर्ति कम है, इसलिए चाय के दाम बढ़े है। उनके मुताबिक अच्छी गुणवत्ता वाली चाय के नीलामी भाव 150-220 रुपये प्रति किलो हैं। ये भाव पिछले साल की तुलना में 10 से 15 फीसदी अधिक हैं। पैकेज्ड चाय का एमआरपी दाम 300-320 रुपये प्रति किलो है। दिल्ली के चाय कारोबारी राकेश तायल ने बताया कि उत्पादक इलाकों में चाय के दाम बढऩे से दिल्ली में भी चाय की कीमतों में 15 रुपये प्रति किलो का इजाफा हुआ है। आने वाले समय में चाय की कीमतों के बारे में कमल वाहिदी का कहना है कि जुलाई के बाद चाय उत्पादन का पीक समय शुरू होगा, उस समय चाय उत्पादन की सही तस्वीर साफ होने पर कीमतों में के बारे में सही अनुमान लगाए जा सकेंगे। लेकिन केन्या और श्रीलंका में चाय उत्पादन में कमी को देखते हुए इस साल कीमतों में कमी आने की उम्मीद कम ही है। देसाई ने कहा कि अगले माह तक तो चाय की कीमतों में तेजी बरकरार रहेगी। उसके बाद चाय के उत्पादन और निर्यात मांग पर इसके दाम काफी हद तक निर्भर करेंगे। (BS Hindi)
चाय का प्याला भी गर्म होने लगा है। पिछले साल के मुकाबले चाय की कीमतें 10 से 15 रुपये बढ़ चुकी हैं। चाय की कीमतों में तेजी की वजह इसके स्टॉक में कमी आना है। चाय उद्योग का कहना है कि स्टॉक में गिरावट की वजह पिछले साल उत्पादन में आई गिरावट है। उद्योग ने अगले माह तक चाय की कीमतों में तेजी जारी रहने की संभावना जताई है। उद्योग का यह भी कहना है कि केन्या और श्रीलंका में भी उत्पादन गिरने से चाय के दामों में कमी आने की उम्मीद कम ही है।भारतीय चाय संघ के निदेशक कमल वाहिदी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि सत्र की शुरुआत में चाय का ओपनिंग स्टॉक 5 करोड़ किलोग्राम कम है। इसकी वजह से चाय के दाम पिछले साल की तुलना में 10-15 रुपये प्रति किलो ज्यादा हैं। वाहिदी के मुताबिक उत्पादक इलाकों में असम की चाय के नीलामी भाव 150 रुपये प्रति किलो हैं। स्टॉक में कमी के बारे में वाहिदी का कहना है कि पिछले साल चाय उत्पादन घटने के कारण इसमें कमी आई है। भारतीय चाय बोर्ड के मुताबिक वर्ष 2010 में देश में 96.64 करोड़ किलोग्र्राम चाय का उत्पादन हुआ था जो वर्ष 2009 में 97.89 करोड़ किलोग्राम था। चालू वर्ष के जनवरी-फरवरी महीनों में चाय उत्पादन 16 फीसदी से अधिक गिरकर 3.76 करोड़ किलो रहा, लेकिन मार्च में इसमें 16 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इस वजह से शुरुआती तीन महीनों में चाय उत्पादन पिछली वर्ष की समान अवधि के बराबर ही है। चाय की कीमतों के संदर्भ में बाघ बकरी ब्रांड के नाम से चाय बेचने वाली कंपनी गुजरात टी प्रोसेसर्स ऐंड पैकर्स लिमिटेड के चेयरमैन पीयूष देसाई भी इसकी कीमतों में तेजी की बात से इत्तेफाक रखते है। उनका कहना है कि देश में मांग के मुकाबले चाय की आपूर्ति कम है, इसलिए चाय के दाम बढ़े है। उनके मुताबिक अच्छी गुणवत्ता वाली चाय के नीलामी भाव 150-220 रुपये प्रति किलो हैं। ये भाव पिछले साल की तुलना में 10 से 15 फीसदी अधिक हैं। पैकेज्ड चाय का एमआरपी दाम 300-320 रुपये प्रति किलो है। दिल्ली के चाय कारोबारी राकेश तायल ने बताया कि उत्पादक इलाकों में चाय के दाम बढऩे से दिल्ली में भी चाय की कीमतों में 15 रुपये प्रति किलो का इजाफा हुआ है। आने वाले समय में चाय की कीमतों के बारे में कमल वाहिदी का कहना है कि जुलाई के बाद चाय उत्पादन का पीक समय शुरू होगा, उस समय चाय उत्पादन की सही तस्वीर साफ होने पर कीमतों में के बारे में सही अनुमान लगाए जा सकेंगे। लेकिन केन्या और श्रीलंका में चाय उत्पादन में कमी को देखते हुए इस साल कीमतों में कमी आने की उम्मीद कम ही है। देसाई ने कहा कि अगले माह तक तो चाय की कीमतों में तेजी बरकरार रहेगी। उसके बाद चाय के उत्पादन और निर्यात मांग पर इसके दाम काफी हद तक निर्भर करेंगे। (BS Hindi)
16 मई 2011
वैश्विक स्तर पर कॉफी का रिकॉर्ड निर्यात
नई दिल्ली May 16, 2011
वैश्विक कॉफी निर्यात अप्रैल 2010 से मार्च 2011 के बीच की अवधि में 7 प्रतिशत बढ़कर 10.1 करोड़ बैग रहा जो अबतक का रिकॉर्ड है। खपत बढऩे से निर्यात में वृद्धि दर्ज की गई है। अंतरराष्ट्रीय काफी संगठन (आईसीओ) के अनुसार इससे एक वर्ष पूर्व की अवधि में 9.4 करोड़ बैग (एक बैग बराबर 60 किलो) का निर्यात किया गया था।
आईसीओ ने कहा कि पिछले 12 महीने (अप्रैल 2010 से मार्च 2011 के बीच) में कॉफी निर्यात 10.1 करोड़ बैग पहुंच गया जो अबतक का रिकार्ड है। मौजूदा मूल्य स्तर पर मांग बढऩे से निर्यात में वृद्धि दर्ज की गई है।
हालांकि वैश्विक काफी संगठन ने कहा कि परिवहन एवं उर्वरक समेत अन्य उत्पादन कारकों की लागत बढ़ रही है। आंकड़ों के मुताबिक काफी वर्ष (अक्तूबर 2010 से सितंबर 2011) के पहले छह महीने में निर्यात 5.3 करोड़ बैग रहा जो अबतक का उच्च स्तर है। इससे पूर्व वर्ष की इसी अवधि में निर्यात 4.58 करोड़ बैग था। (BS Hindi)
वैश्विक कॉफी निर्यात अप्रैल 2010 से मार्च 2011 के बीच की अवधि में 7 प्रतिशत बढ़कर 10.1 करोड़ बैग रहा जो अबतक का रिकॉर्ड है। खपत बढऩे से निर्यात में वृद्धि दर्ज की गई है। अंतरराष्ट्रीय काफी संगठन (आईसीओ) के अनुसार इससे एक वर्ष पूर्व की अवधि में 9.4 करोड़ बैग (एक बैग बराबर 60 किलो) का निर्यात किया गया था।
आईसीओ ने कहा कि पिछले 12 महीने (अप्रैल 2010 से मार्च 2011 के बीच) में कॉफी निर्यात 10.1 करोड़ बैग पहुंच गया जो अबतक का रिकार्ड है। मौजूदा मूल्य स्तर पर मांग बढऩे से निर्यात में वृद्धि दर्ज की गई है।
हालांकि वैश्विक काफी संगठन ने कहा कि परिवहन एवं उर्वरक समेत अन्य उत्पादन कारकों की लागत बढ़ रही है। आंकड़ों के मुताबिक काफी वर्ष (अक्तूबर 2010 से सितंबर 2011) के पहले छह महीने में निर्यात 5.3 करोड़ बैग रहा जो अबतक का उच्च स्तर है। इससे पूर्व वर्ष की इसी अवधि में निर्यात 4.58 करोड़ बैग था। (BS Hindi)
11 मई 2011
मैंथा तेल का उत्पादन 20फीसदी तक बढऩे की संभावना
निर्यात बाजार निर्यातक 30 डॉलर प्रति किलो का भाव बोल रहे हैं लेकिन इन भावों में नए निर्यात सौदे नहीं हो रहे हैं। चालू वित्त वर्ष 2010-11 के पहले 11 महीनों के दौरान मेंथा उत्पादों के निर्यात में 8 फीसदी की गिरावट आई है।उत्पादक मंडी उत्पादक मंडियों संभल, चंदौसी और बाराबंकी में मेंथा तेल की दैनिक आवक 200-250 ड्रम (एक ड्रम-180 किलो) की हो रही है। आवक के मुकाबले मांग कम होने से मेंथा तेल की कीमतें घटकर 1,120-1,125 रुपये प्रति किलो रह गई। पैदावार में बढ़ोतरी और निर्यात मांग कमजोर होने से मेंथा तेल की कीमतों में करीब आठ से दस फीसदी की गिरावट आने की संभावना है। चालू महीने के आखिर तक उत्पादक मंडियों में आवक का दबाव बनने पर मेंथा तेल की कीमतों में 100 से 125 रुपये प्रति किलो की गिरावट आने का अनुमान है। चालू सीजन में बुवाई क्षेत्रफल में बढ़ोतरी और अनुकूल मौसम से पैदावार में करीब 15 से 20 फीसदी की बढ़ोतरी होने की संभावना है। इस समय निर्यातक 30 डॉलर प्रति किलो का भाव बोल रहे हैं लेकिन इन भावों में नए निर्यात सौदे नहीं हो रहे हैं। एसेंशियल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष योगेश दुबे ने बताया कि मेंथा तेल में निर्यातकों के साथ ही घरेलू फार्मा कंपनियों की मांग पहले की तुलना में कम हो गई है। इसीलिए पिछले सप्ताह भर में इसकी कीमतों में करीब 50 रुपये प्रति किलो की गिरावट आ चुकी है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रिस्टल बोल्ड का भाव 30 डॉलर प्रति किलो है लेकिन इन भावों में नए निर्यात सौदे नहीं हो रहे हैं। अमेरिका, यूरोप और खाड़ी देशों के आयातक नई फसल को देखते हुए इंतजार करो और देखों की नीति अपना रहे हैं। उत्तर प्रदेश मेंथा उद्योग एसोसिएशन के अध्यक्ष फूल प्रकाश ने बताया कि उत्पादक मंडियों में छिटपुट आवक शुरू हो गई है। मौसम अनुकूल रहा तो चालू महीने के आखिर तक आवक का दबाव बन जाएगा। चालू सीजन में अभी तक के मौसम और बुवाई क्षेत्रफल में बढ़ोत्तरी को देखते हुए मेंथा की पैदावार पिछले साल के मुकाबले 15 से 20 फीसदी बढऩे की संभावना है। इसीलिए भविष्य मंदे का ही है। पिछले सीजन में देश में मेंथा तेल का 27 से 28 हजार टन का उत्पादन हुआ था। जबकि उत्पादक मंडियों में इस समय बकाया करीब 10 से 12 फीसदी स्टॉक बचा हुआ है। भारतीय मसाला बोर्ड के अनुसार चालू वित्त वर्ष 2010-11 के पहले 11 महीनों (अप्रैल से फरवरी) के दौरान मेंथा उत्पादों के निर्यात में 8 फीसदी की गिरावट आई है। इस दौरान निर्यात घटकर 16,250 टन का ही हुआ है। जबकि पिछले साल की समान अवधि में 17,725 टन का निर्यात हुआ था। चंदौसी मंडी स्थित ग्लोरिस केमिकल के डायरेक्टर अनुराग रस्तोगी ने बताया कि उत्पादक मंडियों संभल, चंदौसी और बाराबंकी में मेंथा तेल की दैनिक आवक 200-250 ड्रम (एक ड्रम-180 किलो) की हो रही है। आवक के मुकाबले मांग कम होने से मेंथा तेल की कीमतें घटकर 1,120-1,125 रुपये प्रति किलो रह गई। क्रिस्टल बोल्ड के दाम घटकर 1,300 से 1,325 रुपये प्रति किलो रह गए। (Business Bhaskar....R S Rana)
अक्षय तृतीया पर 15 फीसदी बढ़ी सोने की बिक्री
मुंबई May 06, 2011
अक्षय तृतीया के मौके पर सोने के खरीदारों के चेहरे दमकते नजर आए क्योंकि इस मौके पर बहुमूल्य धातुओं की कीमतों में गिरावट आने से उपभोक्ताओं को खरीद में काफी सहूलियत मिली। अक्षय तृतीया केमौके पर सोने की खरीद को शुभ माना जाता है और कहा जाता है कि इससे समृद्धि आती है।वल्र्ड गोल्ड काउंसिल के प्रबंध निदेशक (भारतीय उपमहाद्वीप) अजय मित्रा ने कहा - अक्षय तृतीया के मौके पर सोने की कुल मांग 50 टन को पार कर जाने का अनुमान है जबकि पिछले साल इस मौकेपर 45 टन सोने की बिक्री हुई थी। रिद्धि-सिद्धि बुलियन के निदेशक पृथ्वीराज कोठारी ने कुछ इसी तरह की राय व्यक्त की। उन्होंने कहा कि कीमत के लिहाज से 25-30 फीसदी की बढ़ोतरी का अनुमान है जबकि मात्रात्मक लिहाज से इसमें पिछले साल के मुकाबले 15 फीसदी की बढ़त दर्ज की जा सकती है।कोठारी ने कहा कि सोने की कीमतों में पिछले साल 16 मई (अक्षय तृतीया के दिन से) से बढ़त जारी है। सोने में पिछले एक साल में 19 फीसदी तेजी आई है और यह 21685 रुपये प्रति 10 ग्राम पर है जबकि चांदी में 81 फीसदी तेजी आई है और यह 54,305 रुपये प्रति किलोग्राम पर है।अक्षय तृतीया के लिए सोने की खरीदारी शुरू होने के समय यानी 30 अप्रैल को 22710 रुपये प्रति 10 ग्राम की ऊंचाई पर पहुंचने के बाद सोने में 4.51 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है और यह 21685 रुपये प्रति 10 ग्राम पर आ गया है, लिहाजा खरीदारों के लिए इसकी कीमतें बेहतर हो गई हैं। इसी तरह चांदी भी 24 अप्रैल के 75020 रुपये प्रति किलोग्राम से घटकर 54305 रुपये प्रति किलोग्राम पर आ गई है। अक्षय तृतीया के मौके पर सोने में 220 रुपये प्रति 10 ग्राम की और चांदी में 4350 रुपये प्रति 10 ग्राम की गिरावट दर्ज की गई।पुष्पक बुलियन के निदेशक केतन श्रॉफ ने कहा कि उपभोक्ता फिलहाल सोने की खरीदारी कर रहे हैं। देश भर के ज्वैलरोंं ने एक हफ्ते पहले ही 6 मई को डिलिवरी देने के लिए सोने की बुकिंग शुरू कर दी थी। जिन उपभोक्ताओं ने अग्रिम बुकिंग की, वे 1010 रुपये प्रति 10 ग्राम के नुकसान में रहे। कोठारी ने कहा कि इस मौके पर उपभोक्ता शायद ही कीमत के बारे में सोचते हैं। उन्होंने कहा कि पुरानी खरीदारों ने हालांकि इस मौके पर सोने की डिलिवरी लेने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई।गोल्ड एक्सचेंज ट्रेडेड फंड (ईटीएफ) में शाम तक मात्रात्मक लिहाज से 1.5 टन सोने का रिकॉर्ड दर्ज हुआ। रिद्धि सिद्धि बुलियन ने इस मौके पर 250 किलोग्राम सोना और 2100 किलोग्राम चांदी की बिक्री की और पिछले साल के मुकाबले इसकी बिक्री में 20 फीसदी की उछाल आई। देश के सबसे बड़े चांदी आयातक सुरेश हुंडिया ने कहा कि मुख्य रूप से सोने की खरीदारी हुई। जो सोना नहीं खरीद सकते थे, उन्होंने ही चांदी खरीदी। एनएसईएल पर ई-गोल्ड व ई-सिल्वर का कारोबार क्रमश: 250 करोड़ और 450 करोड़ रुपये पर पहुंचने की उम्मीद है। (BS Hindi)
अक्षय तृतीया के मौके पर सोने के खरीदारों के चेहरे दमकते नजर आए क्योंकि इस मौके पर बहुमूल्य धातुओं की कीमतों में गिरावट आने से उपभोक्ताओं को खरीद में काफी सहूलियत मिली। अक्षय तृतीया केमौके पर सोने की खरीद को शुभ माना जाता है और कहा जाता है कि इससे समृद्धि आती है।वल्र्ड गोल्ड काउंसिल के प्रबंध निदेशक (भारतीय उपमहाद्वीप) अजय मित्रा ने कहा - अक्षय तृतीया के मौके पर सोने की कुल मांग 50 टन को पार कर जाने का अनुमान है जबकि पिछले साल इस मौकेपर 45 टन सोने की बिक्री हुई थी। रिद्धि-सिद्धि बुलियन के निदेशक पृथ्वीराज कोठारी ने कुछ इसी तरह की राय व्यक्त की। उन्होंने कहा कि कीमत के लिहाज से 25-30 फीसदी की बढ़ोतरी का अनुमान है जबकि मात्रात्मक लिहाज से इसमें पिछले साल के मुकाबले 15 फीसदी की बढ़त दर्ज की जा सकती है।कोठारी ने कहा कि सोने की कीमतों में पिछले साल 16 मई (अक्षय तृतीया के दिन से) से बढ़त जारी है। सोने में पिछले एक साल में 19 फीसदी तेजी आई है और यह 21685 रुपये प्रति 10 ग्राम पर है जबकि चांदी में 81 फीसदी तेजी आई है और यह 54,305 रुपये प्रति किलोग्राम पर है।अक्षय तृतीया के लिए सोने की खरीदारी शुरू होने के समय यानी 30 अप्रैल को 22710 रुपये प्रति 10 ग्राम की ऊंचाई पर पहुंचने के बाद सोने में 4.51 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है और यह 21685 रुपये प्रति 10 ग्राम पर आ गया है, लिहाजा खरीदारों के लिए इसकी कीमतें बेहतर हो गई हैं। इसी तरह चांदी भी 24 अप्रैल के 75020 रुपये प्रति किलोग्राम से घटकर 54305 रुपये प्रति किलोग्राम पर आ गई है। अक्षय तृतीया के मौके पर सोने में 220 रुपये प्रति 10 ग्राम की और चांदी में 4350 रुपये प्रति 10 ग्राम की गिरावट दर्ज की गई।पुष्पक बुलियन के निदेशक केतन श्रॉफ ने कहा कि उपभोक्ता फिलहाल सोने की खरीदारी कर रहे हैं। देश भर के ज्वैलरोंं ने एक हफ्ते पहले ही 6 मई को डिलिवरी देने के लिए सोने की बुकिंग शुरू कर दी थी। जिन उपभोक्ताओं ने अग्रिम बुकिंग की, वे 1010 रुपये प्रति 10 ग्राम के नुकसान में रहे। कोठारी ने कहा कि इस मौके पर उपभोक्ता शायद ही कीमत के बारे में सोचते हैं। उन्होंने कहा कि पुरानी खरीदारों ने हालांकि इस मौके पर सोने की डिलिवरी लेने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई।गोल्ड एक्सचेंज ट्रेडेड फंड (ईटीएफ) में शाम तक मात्रात्मक लिहाज से 1.5 टन सोने का रिकॉर्ड दर्ज हुआ। रिद्धि सिद्धि बुलियन ने इस मौके पर 250 किलोग्राम सोना और 2100 किलोग्राम चांदी की बिक्री की और पिछले साल के मुकाबले इसकी बिक्री में 20 फीसदी की उछाल आई। देश के सबसे बड़े चांदी आयातक सुरेश हुंडिया ने कहा कि मुख्य रूप से सोने की खरीदारी हुई। जो सोना नहीं खरीद सकते थे, उन्होंने ही चांदी खरीदी। एनएसईएल पर ई-गोल्ड व ई-सिल्वर का कारोबार क्रमश: 250 करोड़ और 450 करोड़ रुपये पर पहुंचने की उम्मीद है। (BS Hindi)
एनसीडीईएक्स ने बदला शुल्क ढांचा
मुंबई May 09, 2011
साल 2007 के बाद पहली बार नैशनल कमोडिटी ऐंड डेरिवेटिव एक्सचेंज ने सभी वर्गों में लेन-देन शुल्क (ट्रांजेक्शन चार्ज) में कटौती की है और इसके ढांचे में भी संशोधन किया है। हालांकि इस दौरान अदालती हस्तक्षेप की बात भी हुई थी।समझा जाता है कि एक्सचेंज ने यह कदम कारोबार में बढ़ोतरी (खास तौर से गैर-कृषि क्षेत्र में) की खातिर किया है। साथ ही खुदरा व दूसरे ग्राहकों की पहुंच जिंस बाजारों तक आसान बनाने के लिए भी यह कदम उठाया है। एनसीडीईएक्स ने लेनदेन शुल्क 4 रुपये प्रति लाख से घटाकर 2 रुपये प्रति लाख कर दिया है जबकि बड़े निवेशक के लिए 1 रुपये से घटाकर 50 पैसे। एक्सचेंज के अधिकारियों ने कहा कि इससे एक्सचेंज पर कारोबार बढ़ेगा और इसका लक्ष्य खुदरा कारोबारियों को भी इससे जोडऩा है।साल 2007 में जारी सर्कुलर के मुताबिक, सदस्यों को 20 लाख रुपये तक रोजाना औसत कारोबार पर 4 रुपये प्रति लाख के हिसाब से शुल्क चुकाना पड़ता था। 20 करोड़ से 50 करोड़ रुपये के कारोबार पर सदस्यों को प्रति लाख 3 रुपये चुकाना होता था जबकि 50 करोड़ रुपये से 125 करोड़ रुपये रोजाना औसत कारोबार पर 2 रुपये प्रति लाख। इसके अलावा रोजाना औसत कारोबार अगर 125 करोड़ रुपये से ज्यादा होता था तब सदस्यों को 1 रुपये प्रति लाख के हिसाब से शुल्क देना पड़ता था।संशोधित ढांचे के मुताबिक अब सदस्यों को 100 करोड़ रुपये के रोजाना औसत कारोबार के लिए 2 रुपये प्रति लाख और 100-200 करोड़ रुपये के रोजाना औसत कारोबार पर 1 रुपये प्रति लाख के हिसाब से शुल्क चुकाना होगा। इसके अलावा अगर रोजाना औसत कारोबार 200 करोड़ रुपये से ज्यादा हो तो सदस्यों को 50 पैसे प्रति लाख के हिसाब से शुल्क देना होगा।शुल्क के ढांचे में संशोधन की प्रक्रिया में एक्सचेंज ने चार स्तर वाले ढांचे को घटाकर तीन कर दिया है और प्रति लाख पर न्यूनतम 50 पैसे शुल्क की वसूली 200 करोड़ रुपये के रोजाना औसत कारोबार पर होगी जबकि पहले 125 करोड़ रुपये पर ऐसा शुल्क वसूला जाता था। 2 रुपये प्रति लाख की वसूली पहले 20 करोड़ रुपये पर होती थी, जिसे अब पांच गुना बढ़ाकर 100 करोड़ रुपये कर दिया गया है।सदस्यों के रोजाना औसत कारोबार का आकलन पूरे महीने हुए कारोबार में कारोबारी सत्र (शनिवार समेत) से भाग देकर किया जाता है। नियम के मुताबिक हर सदस्य को रोजाना औसत कारोबार के शुल्क के तौर पर सालाना 50,000 रुपये देने होते हैं, जो सदस्यों द्वारा किसी खास वर्ष में किए गए कारोबार के शुल्क से समायोजित कर दिए जाते हैं और असमायोजित राशि अगले साल ले जायी जाती है।इससे पहले साल 2009 में एनसीडीईएक्स ने सुबह 10 बजे से 5 बजे तक किए जाने वाले सभी जिंसों के कारोबार के लिए 3 रुपये प्रति लाख के हिसाब से एकसमान शुल्क वसूलने का फैसला किया था। इसके अलावा शाम 5 बजे से रात 11 बजे के सत्र के लिए प्रति लाख 2 रुपये का शुल्क वसूलने का फैसला हुआ था। हालांकि एफएमसी ने तब शाम के सत्र में प्रति लाख 5 पैसे शुल्क वसूलने की पेशकश को नामंजूर कर दिया था। एफएमसी ने कहा था कि यह नियमों का उल्लंघन है और बाजार के हित में नहीं है। एफएमसी के दिशानिर्देशों के मुताबिक, जिंस एक्सचेंज प्रति लाख के कारोबार पर अधिकतम 4 रुपये और न्यूनतम 1 रुपये का शुल्क वसूल सकते हैं। (BS Hindi)
साल 2007 के बाद पहली बार नैशनल कमोडिटी ऐंड डेरिवेटिव एक्सचेंज ने सभी वर्गों में लेन-देन शुल्क (ट्रांजेक्शन चार्ज) में कटौती की है और इसके ढांचे में भी संशोधन किया है। हालांकि इस दौरान अदालती हस्तक्षेप की बात भी हुई थी।समझा जाता है कि एक्सचेंज ने यह कदम कारोबार में बढ़ोतरी (खास तौर से गैर-कृषि क्षेत्र में) की खातिर किया है। साथ ही खुदरा व दूसरे ग्राहकों की पहुंच जिंस बाजारों तक आसान बनाने के लिए भी यह कदम उठाया है। एनसीडीईएक्स ने लेनदेन शुल्क 4 रुपये प्रति लाख से घटाकर 2 रुपये प्रति लाख कर दिया है जबकि बड़े निवेशक के लिए 1 रुपये से घटाकर 50 पैसे। एक्सचेंज के अधिकारियों ने कहा कि इससे एक्सचेंज पर कारोबार बढ़ेगा और इसका लक्ष्य खुदरा कारोबारियों को भी इससे जोडऩा है।साल 2007 में जारी सर्कुलर के मुताबिक, सदस्यों को 20 लाख रुपये तक रोजाना औसत कारोबार पर 4 रुपये प्रति लाख के हिसाब से शुल्क चुकाना पड़ता था। 20 करोड़ से 50 करोड़ रुपये के कारोबार पर सदस्यों को प्रति लाख 3 रुपये चुकाना होता था जबकि 50 करोड़ रुपये से 125 करोड़ रुपये रोजाना औसत कारोबार पर 2 रुपये प्रति लाख। इसके अलावा रोजाना औसत कारोबार अगर 125 करोड़ रुपये से ज्यादा होता था तब सदस्यों को 1 रुपये प्रति लाख के हिसाब से शुल्क देना पड़ता था।संशोधित ढांचे के मुताबिक अब सदस्यों को 100 करोड़ रुपये के रोजाना औसत कारोबार के लिए 2 रुपये प्रति लाख और 100-200 करोड़ रुपये के रोजाना औसत कारोबार पर 1 रुपये प्रति लाख के हिसाब से शुल्क चुकाना होगा। इसके अलावा अगर रोजाना औसत कारोबार 200 करोड़ रुपये से ज्यादा हो तो सदस्यों को 50 पैसे प्रति लाख के हिसाब से शुल्क देना होगा।शुल्क के ढांचे में संशोधन की प्रक्रिया में एक्सचेंज ने चार स्तर वाले ढांचे को घटाकर तीन कर दिया है और प्रति लाख पर न्यूनतम 50 पैसे शुल्क की वसूली 200 करोड़ रुपये के रोजाना औसत कारोबार पर होगी जबकि पहले 125 करोड़ रुपये पर ऐसा शुल्क वसूला जाता था। 2 रुपये प्रति लाख की वसूली पहले 20 करोड़ रुपये पर होती थी, जिसे अब पांच गुना बढ़ाकर 100 करोड़ रुपये कर दिया गया है।सदस्यों के रोजाना औसत कारोबार का आकलन पूरे महीने हुए कारोबार में कारोबारी सत्र (शनिवार समेत) से भाग देकर किया जाता है। नियम के मुताबिक हर सदस्य को रोजाना औसत कारोबार के शुल्क के तौर पर सालाना 50,000 रुपये देने होते हैं, जो सदस्यों द्वारा किसी खास वर्ष में किए गए कारोबार के शुल्क से समायोजित कर दिए जाते हैं और असमायोजित राशि अगले साल ले जायी जाती है।इससे पहले साल 2009 में एनसीडीईएक्स ने सुबह 10 बजे से 5 बजे तक किए जाने वाले सभी जिंसों के कारोबार के लिए 3 रुपये प्रति लाख के हिसाब से एकसमान शुल्क वसूलने का फैसला किया था। इसके अलावा शाम 5 बजे से रात 11 बजे के सत्र के लिए प्रति लाख 2 रुपये का शुल्क वसूलने का फैसला हुआ था। हालांकि एफएमसी ने तब शाम के सत्र में प्रति लाख 5 पैसे शुल्क वसूलने की पेशकश को नामंजूर कर दिया था। एफएमसी ने कहा था कि यह नियमों का उल्लंघन है और बाजार के हित में नहीं है। एफएमसी के दिशानिर्देशों के मुताबिक, जिंस एक्सचेंज प्रति लाख के कारोबार पर अधिकतम 4 रुपये और न्यूनतम 1 रुपये का शुल्क वसूल सकते हैं। (BS Hindi)
गन्ने से सीधे एथेनॉल को ना
मुंबई May 09, 2011
कानून मंत्रालय ने खाद्य मंत्रालय के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है जिसमें उसने गन्ने से सीधे एथेनॉल तैयार करने के लिए कानून में संशोधन की मांग की थी। अब तक चीनी के उत्पाद के तौर पर एथेनॉल तैयार किया जाता है जिससे देश में मांग के अनुरूप काफी कम मात्रा में एथेनॉल उपलब्ध हो पाता है। इसलिए सीधे गन्ने से एथेनॉल तैयार करने की अनुमति के लिए खाद्य मंत्रालय ने आवश्यक वस्तु अधिनियम की धारा 3 में जरूरी संशोधन का प्रास्ताव कानून मंत्रालय के पास भेजा था। प्रस्ताव को खारिज करते हुए कानून मंत्रालय ने कहा कि इस प्रस्ताव को अलग प्रावधानों के तहत विचार किया जा सकता है। चूंकि देश में आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत सरकार चीनी के विनिर्माण, वितरण और विपणन को नियंत्रित करती है ऐसे में मौजूदा कानून में संभव नहीं है। मामले से जुड़े कानून मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि एथेनॉल आवश्यक वस्तु के अंतर्गत नहीं आता है, भले ही एक नियंत्रित वस्तु के रूप में इसे निर्मित किया जाता है लेकिन इसे चीनी जैसी आवश्यक वस्तु की सूची में नहीं रखा जा सकता है। चूंकि एथेनॉल आवश्यक वस्तु नहीं है ऐसे में इसे आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत एक अधीनस्थ विधान में शामिल नहीं किया जा सकता है। अधीनस्थ विधान का दायरा संशोधन के जरिये नहीं बढ़ाया जा सकता है। इसलिए एथेनॉल को सीधे गन्ने से तैयार करने संबंधी प्रस्ताव चीनी नियंत्रण आदेश के दायरे से बाहर है। सूत्रों के मुताबिक खाद्य मंत्रालय और कानून मंत्रालय के अधिकारियों के बीच इस संबंध में पहले ही बातचीत हो गई है। कानून मंत्रालय ने इस संबंध में संविधान के अनुच्छेद 47 का उल्लेख करते हुए कहा कि इस विषय पर शुल्क लगाने और पोषण स्तर बढ़ाने आदि को लेकर निर्णय लेने का अधिकार राज्य को है। सूत्रों ने कहा कि अनुच्छेद 47 के प्रावधान के मुताबिक एथेनॉल को नियंत्रित वस्तु की सूची में शामिल करने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करना जरूरी होगा।इसके पहले प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) ने भी आवश्यक वस्तुओं विशेषकर चीनी की आपूर्ति चिंता के मद्देनजर सीधे गन्ने से एथेनॉल के उत्पादन का विरोध किया था। पीएमईएसी का मानना है कि आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। बिहार सरकार की पहल पर खाद्य मंत्रालय द्वारा इस प्रस्ताव को कानून राय के लिए भेजा गया था। बिहार सरकार ने सीधे गन्ने से एथेनॉल तैयार करने के लिए कई परियोजनाओं से करार किया है। झारखंड से अलग होने के बाद बिहार पूरी तरह कृषि पर निर्भर हो गया है ऐसे में कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार गन्ने से सीधे एथेनॉल तैयार करने की नीति पर विचार कर रही है। इस समय कुल 122 ऐसे प्लांट हैं जिनमें चीनी के सह उत्पाद के तौर पर एथेनॉल का निर्माण किया जाता है। भारत में एथेनॉल उत्पादन की कुल क्षमता 1.2 अरब लीटर सालाना है। (BS Hindi)
कानून मंत्रालय ने खाद्य मंत्रालय के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है जिसमें उसने गन्ने से सीधे एथेनॉल तैयार करने के लिए कानून में संशोधन की मांग की थी। अब तक चीनी के उत्पाद के तौर पर एथेनॉल तैयार किया जाता है जिससे देश में मांग के अनुरूप काफी कम मात्रा में एथेनॉल उपलब्ध हो पाता है। इसलिए सीधे गन्ने से एथेनॉल तैयार करने की अनुमति के लिए खाद्य मंत्रालय ने आवश्यक वस्तु अधिनियम की धारा 3 में जरूरी संशोधन का प्रास्ताव कानून मंत्रालय के पास भेजा था। प्रस्ताव को खारिज करते हुए कानून मंत्रालय ने कहा कि इस प्रस्ताव को अलग प्रावधानों के तहत विचार किया जा सकता है। चूंकि देश में आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत सरकार चीनी के विनिर्माण, वितरण और विपणन को नियंत्रित करती है ऐसे में मौजूदा कानून में संभव नहीं है। मामले से जुड़े कानून मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि एथेनॉल आवश्यक वस्तु के अंतर्गत नहीं आता है, भले ही एक नियंत्रित वस्तु के रूप में इसे निर्मित किया जाता है लेकिन इसे चीनी जैसी आवश्यक वस्तु की सूची में नहीं रखा जा सकता है। चूंकि एथेनॉल आवश्यक वस्तु नहीं है ऐसे में इसे आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत एक अधीनस्थ विधान में शामिल नहीं किया जा सकता है। अधीनस्थ विधान का दायरा संशोधन के जरिये नहीं बढ़ाया जा सकता है। इसलिए एथेनॉल को सीधे गन्ने से तैयार करने संबंधी प्रस्ताव चीनी नियंत्रण आदेश के दायरे से बाहर है। सूत्रों के मुताबिक खाद्य मंत्रालय और कानून मंत्रालय के अधिकारियों के बीच इस संबंध में पहले ही बातचीत हो गई है। कानून मंत्रालय ने इस संबंध में संविधान के अनुच्छेद 47 का उल्लेख करते हुए कहा कि इस विषय पर शुल्क लगाने और पोषण स्तर बढ़ाने आदि को लेकर निर्णय लेने का अधिकार राज्य को है। सूत्रों ने कहा कि अनुच्छेद 47 के प्रावधान के मुताबिक एथेनॉल को नियंत्रित वस्तु की सूची में शामिल करने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करना जरूरी होगा।इसके पहले प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) ने भी आवश्यक वस्तुओं विशेषकर चीनी की आपूर्ति चिंता के मद्देनजर सीधे गन्ने से एथेनॉल के उत्पादन का विरोध किया था। पीएमईएसी का मानना है कि आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। बिहार सरकार की पहल पर खाद्य मंत्रालय द्वारा इस प्रस्ताव को कानून राय के लिए भेजा गया था। बिहार सरकार ने सीधे गन्ने से एथेनॉल तैयार करने के लिए कई परियोजनाओं से करार किया है। झारखंड से अलग होने के बाद बिहार पूरी तरह कृषि पर निर्भर हो गया है ऐसे में कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार गन्ने से सीधे एथेनॉल तैयार करने की नीति पर विचार कर रही है। इस समय कुल 122 ऐसे प्लांट हैं जिनमें चीनी के सह उत्पाद के तौर पर एथेनॉल का निर्माण किया जाता है। भारत में एथेनॉल उत्पादन की कुल क्षमता 1.2 अरब लीटर सालाना है। (BS Hindi)
सोने-चांदी में गिरावट के बाद हीरे की बारी!
मुंबई May 10, 2011
पिछले महीने 76,000 रुपये प्रति किलोग्राम का आंकड़ा छूने के बाद चांदी के भाव 53,000 रुपये प्रति किलोग्राम तक लुढ़क चुका है। रिकॉर्ड बना चुके सोने का भाव भी अब उतार पर है। तो क्या अब जेवरात में जमकर इस्तेमाल होने वाले बारी हीरे की है? इसकी मांग जिस तरह ठंडी पड़ रही है, उससे तो यही अंदेशा जताया जा रहा है।दरअसल दीवाली के बाद से भारतीय बाजार में हीरे के दाम 40 से 45 फीसदी तक बढ़ चुके हैं। हालांकि मांग अधिक नहीं है, लेकिन आपूर्ति कम होने की वजह से इसके भाव में उछाल आ रही है। मांग इतनी कम है कि हीरे तराशने वाले 50 फीसदी से ज्यादा कारखानों में काम बंद है। जो कारखाने खुले हैं, वहां भी कारीगरों के पास ज्यादा काम नहीं है। इसी वजह से जानकार हीरे में भी जल्द गिरावट आने की संभावना व्यक्त कर रहे हैं।इसके संकेत भी मिल रहे हैं। शादी-ब्याह का मौसम चल रहा है, लेकिन हीरे और हीरे के जेवरात की मांग देसी बाजार में न के बराबर है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी यही हाल है। हीरा कंपनी गोल्ड स्टार के प्रबंध निदेशक सतीश शाह कहते हैं, 'इस वक्त हीरा बाजार अमूमन ठंडा ही रहता है। दरअसल शादी-ब्याह की बुकिंग लगभग खत्म हो जाती है और विदेश में छुट्टिïयों का मौसम होने की वजह से मांग नहीं रहती। हीरा कारोबार के लिए क्रिसमस अहम होता है और मांग भी जुलाई से शुरू होती है। इसलिए सही तस्वीर का पता तभी चलेगा।'शाह इसके पीछे जिम्बाब्वे को भी वजह बताते हैं। जिम्बाब्वे में बड़ी तादाद में कच्चे हीरे होते हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजारों में उनकी बिक्री पर पाबंदी है। इसी वजह से आपूर्ति कम है और हीरे की कीमत ज्यादा है। कीमत 30 फीसदी बढऩे और मजदूरों की कमी के कारण तैयार हीरे 50 फीसदी महंगे हो चुके हैं। लेकिन उम्मीद है कि जून में जिम्बाब्वे को किंबर्ली सर्टिफिकेट मिल जाएगा, जिसके बाद बाजार में वहां के हीरे आने लगेंगे और आपूर्ति बढऩे से भाव भी नीचे आएंगे।भाव बढऩे का खमियाजा बाजार भुगत भी रहा है। पिछले कुछ साल में युवाओं में हीरे का आकर्षण बढ़ा है, लेकिन आम ग्राहक अब बाजार से दूर है। हीरे की सबसे बड़ी मंडी पंचरत्न के सचिव नरेश महेता कहते हैं, 'सबसे ज्यादा मांग दिल्ली और आसपास से आई थी। लेकिन अब वहां भी खामोशी है। मांग नहीं होने से कारखानों में हीरे तराशने का काम भी धीमा है, कारीगर गांव चले गए हैं ओर 50 फीसदी कारखानों में काम बंद है। इससे छोटे कारोबारी और कर्ज लेकर काम करने वाले परेशान हैं।'इसलिए अब जिम्बाब्वे से ही उनकी उम्मीद जुड़ी है। हीरा पारखी हार्दिक हुंडिया कहते हैं कि बाजार में मांग नहीं होने से छोटे कारोबारियों की जान सांसत में है। मसला आपूर्ति का ही है। दुनिया भर में सालाना 500 से 800 लाख कैरेट कच्चे हीरों की मांग है। लेकिन अब खदानों से ज्यादा हीरे निकालने की गुंजाइश नहीं है। हां, जिम्बाब्वे में इसका अकूत भंडार है और जून से अगर आपूर्ति चालू हो गई तो देसी भाव भी एक झटके में नीचे आ जाएंगे।कारोबार को बैंकों ने दिया झटकाहीरा कारोबार में बढ़ते गोलमाल पर बैंकों के साथ-साथ आयकर विभाग ने भी नजर टेढ़ी कर दी है, लिहाजा कारोबाारियों की बेचैनी बढऩे लगी है। ज्यादा परेशानी छोटे और नए उद्यमियों को हो रही है। एक ओर बैंक हीरा कारोबारियों को कर्ज देने से तौबा कर रहे हैं और दूसरी ओर आयकर विभाग बही खातों पर सवालिया निशान लगा रहा है।हीरा बाजार के कारोबार को बैंकों के सामने बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने का चलन जोर पकड़ रहा है। इस कारण बैकों को यह भय सताने लगा है कि इस क्षेत्र में कारोबार करने वाली कोई कंपनी कहीं दिवालिया तो होने वाली नहीं है। इसीलिए बैंक कर्ज देने में कोताही बरतने लगे हैं। आरबीआई ने भी बैंकों को सावधान रहने का सर्कुलर जारी कर दिया है। कारोबारियों के मुताबिक पिछले 1 साल से बैंकों ने कोई नया ऋण नहीं दिया है। इसके उलट उनका ध्यान पुराने कर्ज वसूलने में लगा है। इससे छोटे कारोबारियों के पैर उखडऩे लगे हैं और वे मजबूरी में बाजार से 2 फीसदी प्रति महीना ब्याज पर कर्ज ले रहे हैं।एक कारोबारी ने बताया कि बड़े उद्यमी अलग नाम से दुबई में कंपनी खोलते हैं और उसी से आयात-निर्यात करते रहते हैं, वह भी कागजों पर। उनके रिकॉर्ड को देखकर लगता है कि उनका कारोबार बहुत बड़ा है, लेकिन वाकई ऐसा नहीं होता। ये लोग करोड़ों रुपये का कारोबार दिखाकर बैंकों से 5-7 फीसदी ब्याज पर कर्ज लेते हैं और उस पैसे को बाजार में 2 फीसदी प्रति महीने के ब्याज पर कर्ज देते हैं। इस तरह बिना कुछ किए 15-20 फीसदी का फायदा होता रहता है। इस गोलमाल को बैंक समझ गए हैं जिससे वे ऋण देने से इनकार कर रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि उन्होंने किसी उद्योग पर प्रतिबंध नहीं लगाया है, लेकिन जोखिम देखते हुए जांच प्रक्रिया बढ़ा दी है। (BS Hindi)
पिछले महीने 76,000 रुपये प्रति किलोग्राम का आंकड़ा छूने के बाद चांदी के भाव 53,000 रुपये प्रति किलोग्राम तक लुढ़क चुका है। रिकॉर्ड बना चुके सोने का भाव भी अब उतार पर है। तो क्या अब जेवरात में जमकर इस्तेमाल होने वाले बारी हीरे की है? इसकी मांग जिस तरह ठंडी पड़ रही है, उससे तो यही अंदेशा जताया जा रहा है।दरअसल दीवाली के बाद से भारतीय बाजार में हीरे के दाम 40 से 45 फीसदी तक बढ़ चुके हैं। हालांकि मांग अधिक नहीं है, लेकिन आपूर्ति कम होने की वजह से इसके भाव में उछाल आ रही है। मांग इतनी कम है कि हीरे तराशने वाले 50 फीसदी से ज्यादा कारखानों में काम बंद है। जो कारखाने खुले हैं, वहां भी कारीगरों के पास ज्यादा काम नहीं है। इसी वजह से जानकार हीरे में भी जल्द गिरावट आने की संभावना व्यक्त कर रहे हैं।इसके संकेत भी मिल रहे हैं। शादी-ब्याह का मौसम चल रहा है, लेकिन हीरे और हीरे के जेवरात की मांग देसी बाजार में न के बराबर है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी यही हाल है। हीरा कंपनी गोल्ड स्टार के प्रबंध निदेशक सतीश शाह कहते हैं, 'इस वक्त हीरा बाजार अमूमन ठंडा ही रहता है। दरअसल शादी-ब्याह की बुकिंग लगभग खत्म हो जाती है और विदेश में छुट्टिïयों का मौसम होने की वजह से मांग नहीं रहती। हीरा कारोबार के लिए क्रिसमस अहम होता है और मांग भी जुलाई से शुरू होती है। इसलिए सही तस्वीर का पता तभी चलेगा।'शाह इसके पीछे जिम्बाब्वे को भी वजह बताते हैं। जिम्बाब्वे में बड़ी तादाद में कच्चे हीरे होते हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजारों में उनकी बिक्री पर पाबंदी है। इसी वजह से आपूर्ति कम है और हीरे की कीमत ज्यादा है। कीमत 30 फीसदी बढऩे और मजदूरों की कमी के कारण तैयार हीरे 50 फीसदी महंगे हो चुके हैं। लेकिन उम्मीद है कि जून में जिम्बाब्वे को किंबर्ली सर्टिफिकेट मिल जाएगा, जिसके बाद बाजार में वहां के हीरे आने लगेंगे और आपूर्ति बढऩे से भाव भी नीचे आएंगे।भाव बढऩे का खमियाजा बाजार भुगत भी रहा है। पिछले कुछ साल में युवाओं में हीरे का आकर्षण बढ़ा है, लेकिन आम ग्राहक अब बाजार से दूर है। हीरे की सबसे बड़ी मंडी पंचरत्न के सचिव नरेश महेता कहते हैं, 'सबसे ज्यादा मांग दिल्ली और आसपास से आई थी। लेकिन अब वहां भी खामोशी है। मांग नहीं होने से कारखानों में हीरे तराशने का काम भी धीमा है, कारीगर गांव चले गए हैं ओर 50 फीसदी कारखानों में काम बंद है। इससे छोटे कारोबारी और कर्ज लेकर काम करने वाले परेशान हैं।'इसलिए अब जिम्बाब्वे से ही उनकी उम्मीद जुड़ी है। हीरा पारखी हार्दिक हुंडिया कहते हैं कि बाजार में मांग नहीं होने से छोटे कारोबारियों की जान सांसत में है। मसला आपूर्ति का ही है। दुनिया भर में सालाना 500 से 800 लाख कैरेट कच्चे हीरों की मांग है। लेकिन अब खदानों से ज्यादा हीरे निकालने की गुंजाइश नहीं है। हां, जिम्बाब्वे में इसका अकूत भंडार है और जून से अगर आपूर्ति चालू हो गई तो देसी भाव भी एक झटके में नीचे आ जाएंगे।कारोबार को बैंकों ने दिया झटकाहीरा कारोबार में बढ़ते गोलमाल पर बैंकों के साथ-साथ आयकर विभाग ने भी नजर टेढ़ी कर दी है, लिहाजा कारोबाारियों की बेचैनी बढऩे लगी है। ज्यादा परेशानी छोटे और नए उद्यमियों को हो रही है। एक ओर बैंक हीरा कारोबारियों को कर्ज देने से तौबा कर रहे हैं और दूसरी ओर आयकर विभाग बही खातों पर सवालिया निशान लगा रहा है।हीरा बाजार के कारोबार को बैंकों के सामने बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने का चलन जोर पकड़ रहा है। इस कारण बैकों को यह भय सताने लगा है कि इस क्षेत्र में कारोबार करने वाली कोई कंपनी कहीं दिवालिया तो होने वाली नहीं है। इसीलिए बैंक कर्ज देने में कोताही बरतने लगे हैं। आरबीआई ने भी बैंकों को सावधान रहने का सर्कुलर जारी कर दिया है। कारोबारियों के मुताबिक पिछले 1 साल से बैंकों ने कोई नया ऋण नहीं दिया है। इसके उलट उनका ध्यान पुराने कर्ज वसूलने में लगा है। इससे छोटे कारोबारियों के पैर उखडऩे लगे हैं और वे मजबूरी में बाजार से 2 फीसदी प्रति महीना ब्याज पर कर्ज ले रहे हैं।एक कारोबारी ने बताया कि बड़े उद्यमी अलग नाम से दुबई में कंपनी खोलते हैं और उसी से आयात-निर्यात करते रहते हैं, वह भी कागजों पर। उनके रिकॉर्ड को देखकर लगता है कि उनका कारोबार बहुत बड़ा है, लेकिन वाकई ऐसा नहीं होता। ये लोग करोड़ों रुपये का कारोबार दिखाकर बैंकों से 5-7 फीसदी ब्याज पर कर्ज लेते हैं और उस पैसे को बाजार में 2 फीसदी प्रति महीने के ब्याज पर कर्ज देते हैं। इस तरह बिना कुछ किए 15-20 फीसदी का फायदा होता रहता है। इस गोलमाल को बैंक समझ गए हैं जिससे वे ऋण देने से इनकार कर रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि उन्होंने किसी उद्योग पर प्रतिबंध नहीं लगाया है, लेकिन जोखिम देखते हुए जांच प्रक्रिया बढ़ा दी है। (BS Hindi)
रबर के शुल्क मुक्त आयात की मांगी अनुमति
कोच्चि May 10, 2011
प्राकृतिक रबर का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों ने इस वित्त वर्ष में टैरिफ रेट कोटा (टीआरक्यू) के आधार पर 2 लाख टन रबर के शुल्क मुक्त आयात की अनुमति देने की मांग की है। इसके साथ ही इन्होंने 5000 टन लेटेक्स के आयात की अनुमति भी मांगी है। इनका कहना है कि घरेलू मांग व आपूर्ति के बीच की खाई को पाटने के लिए यह आवश्यक है।ऑल इंडिया रबर इंडस्ट्रीज एसोसिएशन (एआईआरआईए) और ऑटोमोटिव टायर मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (एटमा) ने कहा है कि प्राकृतिक रबर के घरेलू उत्पादन और खपत के बीच बढ़ता अंतर चिंता का विषय है और ऐसे गंभीर मुद्दे को सुलझाने में शुल्क मुक्त आयात महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।एआईआरआईए के प्रेसिडेंट विनोद साइमन और एटमा के महानिदेशक राजीव बुद्धिराजा ने कहा कि पिछले चार वित्त वर्ष में प्राकृतिक रबर का उत्पादन महज 1 फीसदी बढ़ा है, वहीं खपत में 15 फीसदी का इजाफा हुआ है। उद्योग के अनुमान के मुताबिक, मौजूदा वित्त वर्ष में घरेलू खपत और उत्पादन के बीच 1.89 लाख टन का अंतर रहने की संभावना है। ऑटो उद्योग की बढ़ती रफ्तार का फायदा उठाने के लिए टायर कंपनियोंं ने क्षमता विस्तार की योजना बनाई है और इसके चलते इस वित्त वर्ष में खपत में 1.5 लाख टन का इजाफा होगा। रबर बोर्ड के अनुमान के मुताबिक, साल 2011-12 में 9.77 लाख टन रबर की खपत होगी, जो पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले 40,000 टन ज्यादा है। इस अनुमान के उलट एआईआरआईए व एटमा ने कहा है कि इस वित्त वर्ष के आखिर तक 10.8 लाख टन रबर की खपत होगी और पिछले साल के मुकाबले यह 1.5 लाख टन ज्यादा है? इस तरह स्थानीय आपूर्ति व मांग के बीच 1.89 लाख टन की कमी होगी। लेकिन बोर्ड ने महज 75,000 टन रबर की किल्लत का अनुमान जताया है।बुद्धिराजा ने कहा कि टायरों की मांग में बढ़ोतरी की वजह से मांग-आपूर्ति के बीच बढ़ते अंतर से तैयार उत्पाद के आयात में बढ़ोतरी होगी। इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक रबर से तैयार उत्पाद में गुणवत्ता का सुधार (खास तौर से टायर में) देश से बाहर (चीन में) होगा। साल 2010-11 में ट्रक व बसों के टायर का आयात पिछले वित्त वर्ष के 13,62,010 से बढ़कर 19,63,815 पर पहुंच गया था। (BS Hindi)
प्राकृतिक रबर का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों ने इस वित्त वर्ष में टैरिफ रेट कोटा (टीआरक्यू) के आधार पर 2 लाख टन रबर के शुल्क मुक्त आयात की अनुमति देने की मांग की है। इसके साथ ही इन्होंने 5000 टन लेटेक्स के आयात की अनुमति भी मांगी है। इनका कहना है कि घरेलू मांग व आपूर्ति के बीच की खाई को पाटने के लिए यह आवश्यक है।ऑल इंडिया रबर इंडस्ट्रीज एसोसिएशन (एआईआरआईए) और ऑटोमोटिव टायर मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (एटमा) ने कहा है कि प्राकृतिक रबर के घरेलू उत्पादन और खपत के बीच बढ़ता अंतर चिंता का विषय है और ऐसे गंभीर मुद्दे को सुलझाने में शुल्क मुक्त आयात महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।एआईआरआईए के प्रेसिडेंट विनोद साइमन और एटमा के महानिदेशक राजीव बुद्धिराजा ने कहा कि पिछले चार वित्त वर्ष में प्राकृतिक रबर का उत्पादन महज 1 फीसदी बढ़ा है, वहीं खपत में 15 फीसदी का इजाफा हुआ है। उद्योग के अनुमान के मुताबिक, मौजूदा वित्त वर्ष में घरेलू खपत और उत्पादन के बीच 1.89 लाख टन का अंतर रहने की संभावना है। ऑटो उद्योग की बढ़ती रफ्तार का फायदा उठाने के लिए टायर कंपनियोंं ने क्षमता विस्तार की योजना बनाई है और इसके चलते इस वित्त वर्ष में खपत में 1.5 लाख टन का इजाफा होगा। रबर बोर्ड के अनुमान के मुताबिक, साल 2011-12 में 9.77 लाख टन रबर की खपत होगी, जो पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले 40,000 टन ज्यादा है। इस अनुमान के उलट एआईआरआईए व एटमा ने कहा है कि इस वित्त वर्ष के आखिर तक 10.8 लाख टन रबर की खपत होगी और पिछले साल के मुकाबले यह 1.5 लाख टन ज्यादा है? इस तरह स्थानीय आपूर्ति व मांग के बीच 1.89 लाख टन की कमी होगी। लेकिन बोर्ड ने महज 75,000 टन रबर की किल्लत का अनुमान जताया है।बुद्धिराजा ने कहा कि टायरों की मांग में बढ़ोतरी की वजह से मांग-आपूर्ति के बीच बढ़ते अंतर से तैयार उत्पाद के आयात में बढ़ोतरी होगी। इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक रबर से तैयार उत्पाद में गुणवत्ता का सुधार (खास तौर से टायर में) देश से बाहर (चीन में) होगा। साल 2010-11 में ट्रक व बसों के टायर का आयात पिछले वित्त वर्ष के 13,62,010 से बढ़कर 19,63,815 पर पहुंच गया था। (BS Hindi)
2010-11 में चीनी उत्पादन 2.45 करोड़ टन रह सकता है : इसमा
नई दिल्ली May 11, 2011
भारतीय चीनी मिल संघ (इसमा) ने कहा है कि चीनी सत्र 2010-11 के दौरान देश में कुल चीनी उत्पादन 2.45 करोड़ टन रह सकता है। इसमा का कहना है कि उत्तर प्रदेश में चीनी उत्पादन पहले लगाए गए अनुमान की तुलना में कम रहने की आशंका है।
इस वजह से देश स्तर पर चीनी उत्पादन का अनुमान घटाया गया है। इसमा ने पहले 2.55 करोड़ टन चीनी उत्पादन का अनुमान लगाया था। चीनी सत्र अक्टूबर से सितंबर माह के बीच होता है। अपना संशोधित आंकड़ा जारी करते हुए इसमा ने कहा कि चीन सीजन 2010-11 के दौरान देश में 2.42 से 2.45 करोड़ टन के करबी चीनी उत्पादन होने का अनुमान है। (BS Hindi)
भारतीय चीनी मिल संघ (इसमा) ने कहा है कि चीनी सत्र 2010-11 के दौरान देश में कुल चीनी उत्पादन 2.45 करोड़ टन रह सकता है। इसमा का कहना है कि उत्तर प्रदेश में चीनी उत्पादन पहले लगाए गए अनुमान की तुलना में कम रहने की आशंका है।
इस वजह से देश स्तर पर चीनी उत्पादन का अनुमान घटाया गया है। इसमा ने पहले 2.55 करोड़ टन चीनी उत्पादन का अनुमान लगाया था। चीनी सत्र अक्टूबर से सितंबर माह के बीच होता है। अपना संशोधित आंकड़ा जारी करते हुए इसमा ने कहा कि चीन सीजन 2010-11 के दौरान देश में 2.42 से 2.45 करोड़ टन के करबी चीनी उत्पादन होने का अनुमान है। (BS Hindi)
देश के चौथे एक्सचेंज आईसीईएक्स को एफएमसी की मंजूरी
मुंबई इंडिया बुल्स और एमएमटीसी के इंडियन कमोडिटी एक्सचेंज (आईसीईएक्स) को राष्ट्रीय स्तर के स्टॉक एक्सचेंज के रूप में काम करने की नियामक मंजूरी शुक्रवार को मिल गई। एक्सचेंज में वायदा कारोबार अगले महीने से शुरू होने की संभावना है।वायदा कारोबार नियामक, वायदा बाजार आयोग के चेयरमैन बीसी खटुआ ने कहा, ' हां, आज आईसीई को पूर्ण एक्सचेंज के रूप में मान्यता दे दी गई। अब एक्सचेंज की लॉन्चिंग प्रवर्तकों की तैयारियों पर निर्भर करता है। मुझे उम्मीद है कि वे भारतीय अर्थव्यवस्था और कृषि क्षेत्र में गुणवत्ता बढ़ाने में अहम भूमिका निभाएंगे।'एफ एमसी ने अब तक मंजूरी इसलिए रोक रखी थी कि आईसीई अपनी 10 प्रतिशत हिस्सेदारी यूनाइटेड स्टॉक एक्सचेंज को दे रही थी, जो नियामक के दिशानिर्देशों के खिलाफ था। इसके बाद आईसीई ने आईडीएफसी और कृषक भारती कोआपरेटिव लिमिटेड (क्रिभको) को पिछले महीने 5-5 प्रतिशत हिस्सेदारी बेंची।अगस्त महीने में एफएमसी ने एक्सचेंज को निर्देश दिया था कि वह दिशानिर्देशों के मुताबिक सितंबर के अंत तक फिर से मंजूरी के लिए आवेदन करे। वहीं आईसीई के प्रबंध निदेशक और सीईओ अजित मित्तल ने मंजूरी मिलने की पुष्टि की और कहा कि नवंबर के पहले सप्ताह से वायदा कारोबार शुरू हो जाएगा।उन्होंने कहा कि एक्सचेंज कृषि गैर-कृषि क्षेत्र में 10 अनुबंध शुरू करेगा और इस बारे में मंजूरी के लिए अगले सप्ताह एफएमसी के समक्ष आवेदन किया जाएगा। खटुआ ने कहा, 'काम शुरू करने का यह उचित समय होगा।' पहले चरण में आईसीईएक्स 10 उन जिंसों का वायदा कारोबार शुरू करने पर विचार कर रहा है जिनका कारोबार बड़े पैमाने पर होता है।एक्सचेंज उन्हीं जिंसों का कारोबार करने की तैयारी कर रहा है, जो कारोबारियों को पूरी तरह स्वीकार्य है। मित्तल ने कहा कि कृषि उत्पादों के अलावा आईसीई सोना, चांदी, तांबा, जस्ता, कच्चा तेल के लिए भी अनुबंध शुरू करेगी। उन्होंने कहा कि पहले चरण की सफलता के बाद एक्सचेंज कुछ खास जिंसों के कारोबार की शुरुआत करेगा। एमसीएक्स, एनसीडीईएक्स और एनएमसीई के बाद आईसीई चौथा राष्ट्रीय एक्सचेंज हो गया है।(BS Hindi)
रिलायंस कैपिटल ने खरीदा आईसीईएक्स में 26फीसदी हिस्सा
खरीदआर-कैपिटल की सब्सिडियरी आर-नेक्सट ने किया सौदासौदे की राशि का खुलासा नहीं किया गय कंपनी की ओर सेवर्ष 2009 के आखिर में शुरुआत की गई थी आईसीईएक्स कीआईसीईएक्स में इंडियाबुल्स की थी 40 फीसदी हिस्सेदारीएक्सचेंज में एमएमटीसी की भी है 26 फीसदी की हिस्सेदारी18 कमोडिटी में ट्रेडिंग की सुविधा प्रदान करता है आईसीईएक्सअनिल धीरूभाई अंबानी समूह (एडीएजी) की कंपनी रिलायंस कैपिटल ने इंडियन कमोडिटी एक्सचेंज लिमिटेड (आईसीईएक्स) में 26 फीसदी हिस्सेदारी खरीद ली है। रिलायंस कैपिटल ने यह सौदा अपनी पूर्ण स्वामित्व वाली सब्सिडियरी रिलायंस एक्सचेंजनेक्सट (आर-नेक्सट) के जरिए किया है। कंपनी ने यह हिस्सेदारी इंडियाबुल्स फाइनेंशियल सर्विसेज से खरीदी है। हालांकि, इस सौदे की रकम का खुलासा नहीं किया गया है। कमोडिटी बाजार नियामक एफएमसी ने बीते साल सितंबर माह में ही अनिल अंबानी समूह को इसकी एक कंपनी के जरिए आईसीईएक्स में इंडियाबुल्स की हिस्सेदारी खरीदने की इजाजत दी थी। आईसीईएक्स एक राष्ट्रीय स्तर का कमोडिटी एक्सचेंज है। इसकी शुरुआत वर्ष 2009 के आखिर में की गई थी। आईसीईएक्स बुलियन, मेटल्स व एग्रीकल्चर क्षेत्र की 18 कमोडिटीज में ट्रेडिंग की सुविधा प्रदान करता है। आईसीईएक्स को इंडियाबुल्स फाइनेंशियल सर्विसेज एवं मिनरल एंड मेटल ट्रेडिंग कॉरपोरेशन (एमएमटीसी) द्वारा संयुक्त रूप से प्रमोट किया गया था। इंडियाबुल्स फाइनेंशियल सर्विसेज की आईसीईएक्स में 40 फीसदी हिस्सेदारी थी, जो कि इस सौदे के बाद घटकर 14 फीसदी रह जाएगी। दूसरी ओर, एमएमटीसी की इसमें 26 फीसदी हिस्सेदारी है। आर-नेक्सट के प्रेसीडेंट एवं सीईओ रजनीकांत पटेल ने कहा है कि कमोडिटी एक्सचेंज कारोबार में कंपनी को खासी संभावनाएं नजर आ रही हैं। उन्होंने कहा कि इस अधिग्रहण के जरिए कंपनी की योजना एक पारदर्शी एवं एकीकृत राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक कमोडिटी मार्केट प्लेस तैयार करने की है। आर-नेक्सट ने भी वर्ष 2009 के आखिर में ही परिचालन शुरू किया था। उस समय आर-नेक्सट ने अपनी शाखा रिलायंस स्पॉट एक्सचेंज के जरिए एक राष्ट्रीय कमोडिटी स्पॉट एक्सचेंज की स्थापना की थी। देश में इस समय 23 कमोडिटी एक्सचेंज काम कर रहे हैं। इनमें से राष्ट्रीय स्तर के पांच कमोडिटी एक्सचेंज हैं। वर्ष 2010 के दौरान इनका कुल टर्नओवर 1,000 खरब रुपये के स्तर को पार कर गया था। आईसीईएक्स ने वर्ष 2010 में 3,780 अरब रुपये का कारोबार किया था, जो कि देश के सबसे पुराने कमोडिटी एक्सचेंज एनएमसीई से भी ज्यादा था। इस खबर के असर से बाजारों में रिलायंस कैपिटल के शेयरों में खासी लिवाली का रुख बन गया। मुंबई स्टॉक एक्सचेंज में कंपनी के शेयर का भाव 673.70 रुपये पर खुला और शुक्रवार की तुलना में 2.05 फीसदी की तेजी दर्ज करते हुए 681.75 रुपये के स्तर पर बंद हुआ। सत्र के दौरान कंपनी के शेयरों ने 687.10 रुपये का ऊपरी स्तर भी छुआ। बाजार बंद होते समय कंपनी का पूंजीकरण 16,746 करोड़ रुपये पर दर्ज किया गया। (Business Bhaskar)
09 मई 2011
गेहूं उत्पादन : सरकारी अनुमान को लग सकता है झटका
पीला रतुआ और बारिश व ओलावृष्टि से हरियाणा के कई जिलों में फसल को 15 से 20' तक नुकसान हुआ हैआर.एस. राणा/नरेश बातिश कुरुक्षेत्र/लुधियाना <ङ्खद्बठ्ठद्दस्रद्बठ्ठद्दह्य>ह्व<क्चद्धड्डह्यद्मड्डह्म्> इस बार गेहूं उत्पादन के सरकारी अनुमानों को झटका लग सकता है। कृषि मंत्रालय के तीसरे आरंभिक अनुमान के मुताबिक इस वर्ष 842.7 लाख टन गेहूं का रिकार्ड उत्पादन होगा। लेकिन बिजनेस भास्कर ने दो प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्यों हरियाणा और पंजाब का दौरा किया तो हकीकत डगमगाती नजर आई। पंजाब में तो हालात काफी ठीक दिखे लेकिन हरियाणा के कई जिलों में पैदावार कम रहने का अंदेशा नजर आया। यहां कई इलाकों में फसल पीला रतुआ बीमारी और बारिश-ओलावृष्टि का शिकार हुई है। दूसरी ओर पंजाब की कुछ मंडियों में अभी गेहूं उठान की समस्या बनी हुई है।करनाल जिले में अभी तक हुई गेहूं की खरीद पिछले साल से 16 फीसदी कम है। करनाल की मंडी में तो गेहूं की आवक 27 फीसदी कम है। कुरुक्षेत्र में खरीद पिछले साल से 17 फीसदी और पानीपत में करीब 2.5 फीसदी कम है। कैथल और सोनीपत जिले की कई मंडियों में अभी तक दो से छह फीसदी कम खरीद हुई है। हरियाणा में किसान उत्पादन प्रभावित होने की बात कर ही रहे हैं, सरकारी अमला भी इसे मान रहा है। करनाल के एक किसान ने बताया कि पिछले साल प्रति एकड़ 23 से 24 क्विंटल गेहूं का उत्पादन हुआ था लेकिन इस साल यह घटकर 14 से 15 क्विंटल रह गया। गेहूं अनुसंधान निदेशालय की प्रोजेक्ट डायरेक्टर डॉ. इंदु शर्मा ने भी माना कि जिन इलाकों में किसानों ने पीला रतुआ की बीमारी से बचाव के लिए दवाई का छिड़काव नहीं किया वहां उत्पादन प्रभावित हुआ है। पंजाब की ग्राउंड रिपोर्ट हरियाणा के विपरीत निकली। यहां प्रति एकड़ पैदावार बढऩे से किसान खुश हैं। मंडियों में भी गेहूं की आवक भी पिछले साल से ज्यादा है। हालांकि यहां की मंडियों में उठान की समस्या बनी हुई है। यहां निजी कंपनियों की तरफ से खरीद बहुत कम हो रही है। राज्य में इस बार गेहूं का उत्पादन सात-आठ लाख टन बढऩे की संभावना है। कुल उत्पादन 160 लाख टन तक पहुंच सकता है। मंडियों में अब तक 100 लाख टन तक गेहूं पहुंच चुका है। हफ्ते भर में यहां गेहूं की आवक पूरी हो जाएगी। इस साल 108-110 लाख टन तक गेहूं की आवक की उम्मीद है। पिछले साल मंडियों में 103.95 लाख टन गेहूं की आवक हुई थी। पंजाब कृषि विभाग के संयुक्त निदेशक गुरदयाल सिंह के मुताबिक राज्य में इस बार मौसम अनुकूल रहने से गेहूं का कुल उत्पादन 160 लाख टन तक पहुंचने की संभावना है, जो पिछले साल करीब 151.69 लाख टन था। (Business Bhaskar....R S Rana)
मंडियों में गेहूं का अंबार आवक ज्यादा उठान धीमी
ग्राउंड रिपोर्ट : पंजाबगेहूं का सीजन आता है तो पूरे देश की नजरें पंजाब और हरियाणा पर टिक जाती हैं। आखिर ये दोनों ही राज्य देश के गोदामों को हर साल भरते हैं। पूरे देश के इन 'अन्नदाताÓ राज्यों में इस साल विपरीत स्थिति दिखाई दे रही है। पंजाब में जहां अनुकूल मौसम के चलते गेहूं के दाने का बेहतर विकास हुआ और उत्पादन बढऩे का अनुमान है। इस वजह से वहां मंडियों में आवक पिछले साल से ज्यादा हो रही है। इसके विपरीत हरियाणा में रतुआ रोग के चलते फसल को नुकसान हुआ। इस वजह से वहां उत्पादन और मंडियों में आवक पिछले साल से कम चल रही है। बिजनेस भास्कर ने इन दोनों राज्यों की मंडियों का जमीनी जायजा लेने के लिए अपने संवाददाताओं को भेजा। पंजाब की मंडियों का दौरा नरेश बातिश ने किया, वहीं हरियाणा की मंडियों का जायजा आर. एस. राणा ने लिया। पेश है दोनों संवाददाताओं की ग्राउंड रिपोर्ट। बटाला, फतेहगढ़ चूडिय़ां, फगवाड़ा, जगरांव, माछीवाड़ा, अटारी, जंडियाला मंडियों में गेहूं का अंबार लगा है। ठेकेदारों ने कम रेट भरकर गेहूं उठान का काम तो ले लिया लेकिन सस्ते मजदूर न मिलने के कारण मंडियों से गेहू का उठान धीमा है। कुछ मंडियों में उठान में दिक्कत आ रही है। इसके अलग-अलग कारण हैं। अधिकारियों के साथ लगातार संपर्क बना हुआ है ताकि इन मंडियों में पड़े गेहूं की लिफ्टिंग में तेजी आ सके।- रविंदर सिंह चीमा वाइस चेयरमैन, पंजाब मंडी बोर्डगेहूं पंजाबचालू सीजन में 110 लाख टन आवक होने का अनुमानअब तक मंडियों में 100 लाख टन गेहूं की सप्लाई हुईपंजाब में इस बार गेहूं का उत्पादन सात-आठ लाख टन बढऩे की संभावना है। कुल उत्पादन 160 लाख टन तक पहुंच सकता है। पंजाब की मंडियों में अब तक 100 लाख टन तक गेहूं पहुंच चुका है। अगले एक सप्ताह के भीतर पंजाब की मंडियों में गेहूं की आवक पूरी हो जाएगी। संभावना है कि पंजाब की मंडियों में इस साल 108-110 लाख टन तक गेहूं की आवक हो सकती है। पिछले साल मंडियों में 103.95 लाख टन गेहूं की आवक हुई थी। हालांकि पंजाब की कुछ मंडियां ऐसी हैं, जहां पर अभी भी गेहूं उठान की समस्या आ रही है।पंजाब की काफी संख्या में ऐसी मंडियां हैं, जहां पर मंडियों में गेहूं का उठान नहीं हो पा रहा है। करीब 25 लाख टन गेहूं अभी भी विभिन्न मंडियों में उठान के इंतजार में पड़ा हुआ है। आढ़ती लगातार मांग उठा रहे हैं कि गेहूं की उठान में तेज की जाए। आढ़तियों के मुताबिक पिछले कुछ दिनों में बूंदा-बांदी हो रही है।ऐसे में बारिश होने पर गेहूं को होने वाले नुकसान की जिम्मेदारी उनकी ही रहेगी। पंजाब के बटाला, फतेहगढ़ चूडिय़ां, फगवाड़ा, जगरांव, माछीवाड़ा, अटारी, जंडियाला मुख्य रूप से ऐसी मंडियां हैं, जहां पर गेहूं का उठान जल्दी नहीं हो पा रहा है। कुछ मंडियां तो ऐसी हैं जहां पर ठेकेदारों ने कम रेट लगाकर गेहूं उठान के ठेके तो ले लिए, लेकिन अब वे गेहूं की उठान नहीं कर रहे हैं क्योंकि उन्हें सस्ते श्रमिक नहीं मिल पा रहे हैं। वहीं कुछ मंडियों के नजदीक गोदाम न होने के चलते फिलहाल गेहूं में ही को मंडियों में पड़ा है। तरनतारन, अमृतसर एवं गुरदासपुर मंडी में अभी गेहूं की आवक अन्य मंडियों के मुकाबले ज्यादा हो रही है। पंजाब में रोजाना अभी भी 5-6 लाख टन गेहूं की आवक मंडियों में हो रही है।मंडी बोर्ड के वाइस चेयरमैन रविंदर सिंह चीमा के मुताबिक मंडियों में अभी तक 100 लाख टन के गेहूं पहुंच चुका है। पिछले साल मंडियों में 103.95 लाख टन गेहूं पहुंचा था। इस बार उत्पादन बढ़ोतरी से मंडियों में गेहूं पिछले साल के मुकाबले ज्यादा पहुंच रहा है।इस साल पंजाब की मंडियों में 108-110 लाख टन गेहूं की कुल आवक हो सकती है। चीमा के मुताबिक गेहूं का उठान ज्यादातर मंडियों में तेजी से हुआ है हालांकि अभी भी कुछ मंडियां ऐसी हैं जहां पर उठान में दिक्कत आ रही है। इसके अलग-अलग स्थानीय कारण हैं। मंडी बोर्ड भी मंडियों के अधिकारियों के साथ लगातार संपर्क बनाए हुए है ताकि इन मंडियों में पड़ी गेहूं की लिफ्टिंग में तेजी आ सके।कृषि विभाग पंजाब के संयुक्त निदेशक गुरदयाल सिंह के मुताबिक पंजाब में इस बार मौसम अनुकूल रहने के चलते गेहूं का कुल उत्पादन 160 लाख टन तक पहुंचने की संभावना है, जो पिछले साल करीब 151.69 लाख टन था। पंजाब में 8 लाख टन के करीब गेहूं का उत्पादन बढ़ा है। गेहूं की फसल पकने में देरी होने से इसके दाने का अच्छा विकास हुआ। पंजाब में जिन किसानों ने समय पर अपनी फसलों पर स्प्रे नहीं किया, वहां पर पीली कुंगी बीमारी का भी असर पड़ा है। जिससे कुछ किसानों का उत्पादन घटा है। हालांकि कुल मिलाकर उत्पादन बढ़ा है। (Business Bhaskar)
03 मई 2011
परिवार नहीं, सदस्य होगा आधार!
नई दिल्ली May 01, 2011
खाद्य व जन वितरण पर मोंटेक सिंह अहलूवालिया की अध्यक्षता वाला कार्य समूह जन वितरण प्रणाली के तहत पूरे परिवार के बजाय हर पात्र व्यक्ति विशेष को खाद्यान्न का वितरण करने की सिफारिश कर सकता है। मौजूदा समय में पीडीएस के तहत सब्सिडी वाले अनाज का वितरण गरीबी रेखा से नीचे व ऊपर रहने वाले परिवारों को किया जाता है, चाहे उस परिवार में सदस्यों की संख्या कितनी भी हो। विशेषज्ञों को लगता है कि इस वजह से आïबंटन में गड़बड़ी होती है क्योंकि अलग-अलग परिवार में सदस्यों की संख्या अलग-अलग होती है।अगर नया प्रस्ताव स्वीकार किया जाता है तो अनाज का वितरण व्यक्ति विशेष के आधार पर होगा, न कि चिह्नित किए गए परिवारों के आधार पर। कार्य समूह की रिपोर्ट के मसौदे के मुताबिक, प्रति व्यक्ति के हिसाब से अनाज का वितरण प्रगतिशील कदम होगा क्योंकि नैशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) के आंकड़ों से पता चलता है कि कम आय वाले परिवारों में सदस्यों की संख्या उच्च आय वाले परिवारों के मुकाबले ज्यादा होती है। इसमें यह भी कहा गया है कि प्रति व्यक्ति के हिसाब से अनाज का वितरण होने से राज्यों को इसके लाभ का विस्तार वास्तविक स्थिति के हिसाब से करने में मदद मिलेगी।पिछले साल अप्रैल में राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ संपन्न बैठक के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कृषि, खाद्य व जन वितरण और उपभोक्ता मामलों पर तीन कार्य समूह का गठन किया था। इस बैठक का आयोजन खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों और खाद्य महंगाई में कमी लाने के लिए ठोस कदम उठाने की खातिर विचार-विमर्श करने के लिए हुआ था।कृषि पर गठित कार्य समूह की अगुआई हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा कर रहे हैं, वहीं उपभोक्ता मामले पर गठित कार्यसमूह की अध्यक्षता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी। तीसरा कार्यसमूह अहलूवालिया की अध्यक्षता में गठित हुआ था। इस कार्यसमूह को पीडीएस में सुधार, भंडारण और नुकसान को कम से कम करने के लिए उपाय सुझाने का काम सौंपा गया है। अधिकारियों ने कहा कि अहलूवालिया की अध्यक्षता वाला कार्यसमूह गैर-पीडीएस सामानों की बिक्री राशन दुकानों के जरिए करने और उचित मूल्य की दुकानों का आवंटन संस्थाओं व समूहों को करने की सिफारिश कर सकता है। इसके अलावा कार्यसमूह इसकी उचित निगरानी और उचित मूल्य की दुकानों पर नियंत्रण की भी सिफारिशें कर सकता है। अधिकारियों ने कहा कि अहलूवालिया की अगुआई वाला पैनल पीडीएस के तहत वितरित किए जाने वाले अनाज के वितरण व परिवहन की निगरानी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कंप्यूटराइज्ड सिस्टम की वकालत कर सकता है। यह समूह अनाज का वितरण नेक्स्ट-जेन स्मार्ट कार्ड के जरिए करने की सिफारिश कर सकता है ताकि सब्सिडी की रकम सीधे लाभार्थियों को करने का रास्ता साफ हो सके। यह समूह नंदन नीलेकणी की अध्यक्षता वाले टास्क फोर्स को अनाज व खाद्यान्न सब्सिडी के प्रभावी वितरण के लिए सुझाव दे सकता है। (BS Hindi)
खाद्य व जन वितरण पर मोंटेक सिंह अहलूवालिया की अध्यक्षता वाला कार्य समूह जन वितरण प्रणाली के तहत पूरे परिवार के बजाय हर पात्र व्यक्ति विशेष को खाद्यान्न का वितरण करने की सिफारिश कर सकता है। मौजूदा समय में पीडीएस के तहत सब्सिडी वाले अनाज का वितरण गरीबी रेखा से नीचे व ऊपर रहने वाले परिवारों को किया जाता है, चाहे उस परिवार में सदस्यों की संख्या कितनी भी हो। विशेषज्ञों को लगता है कि इस वजह से आïबंटन में गड़बड़ी होती है क्योंकि अलग-अलग परिवार में सदस्यों की संख्या अलग-अलग होती है।अगर नया प्रस्ताव स्वीकार किया जाता है तो अनाज का वितरण व्यक्ति विशेष के आधार पर होगा, न कि चिह्नित किए गए परिवारों के आधार पर। कार्य समूह की रिपोर्ट के मसौदे के मुताबिक, प्रति व्यक्ति के हिसाब से अनाज का वितरण प्रगतिशील कदम होगा क्योंकि नैशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) के आंकड़ों से पता चलता है कि कम आय वाले परिवारों में सदस्यों की संख्या उच्च आय वाले परिवारों के मुकाबले ज्यादा होती है। इसमें यह भी कहा गया है कि प्रति व्यक्ति के हिसाब से अनाज का वितरण होने से राज्यों को इसके लाभ का विस्तार वास्तविक स्थिति के हिसाब से करने में मदद मिलेगी।पिछले साल अप्रैल में राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ संपन्न बैठक के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कृषि, खाद्य व जन वितरण और उपभोक्ता मामलों पर तीन कार्य समूह का गठन किया था। इस बैठक का आयोजन खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों और खाद्य महंगाई में कमी लाने के लिए ठोस कदम उठाने की खातिर विचार-विमर्श करने के लिए हुआ था।कृषि पर गठित कार्य समूह की अगुआई हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा कर रहे हैं, वहीं उपभोक्ता मामले पर गठित कार्यसमूह की अध्यक्षता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी। तीसरा कार्यसमूह अहलूवालिया की अध्यक्षता में गठित हुआ था। इस कार्यसमूह को पीडीएस में सुधार, भंडारण और नुकसान को कम से कम करने के लिए उपाय सुझाने का काम सौंपा गया है। अधिकारियों ने कहा कि अहलूवालिया की अध्यक्षता वाला कार्यसमूह गैर-पीडीएस सामानों की बिक्री राशन दुकानों के जरिए करने और उचित मूल्य की दुकानों का आवंटन संस्थाओं व समूहों को करने की सिफारिश कर सकता है। इसके अलावा कार्यसमूह इसकी उचित निगरानी और उचित मूल्य की दुकानों पर नियंत्रण की भी सिफारिशें कर सकता है। अधिकारियों ने कहा कि अहलूवालिया की अगुआई वाला पैनल पीडीएस के तहत वितरित किए जाने वाले अनाज के वितरण व परिवहन की निगरानी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कंप्यूटराइज्ड सिस्टम की वकालत कर सकता है। यह समूह अनाज का वितरण नेक्स्ट-जेन स्मार्ट कार्ड के जरिए करने की सिफारिश कर सकता है ताकि सब्सिडी की रकम सीधे लाभार्थियों को करने का रास्ता साफ हो सके। यह समूह नंदन नीलेकणी की अध्यक्षता वाले टास्क फोर्स को अनाज व खाद्यान्न सब्सिडी के प्रभावी वितरण के लिए सुझाव दे सकता है। (BS Hindi)
बैगिंग से पकाए जा रहे हैं आम
लखनऊ May 02, 2011
कमजोर फसल के बावजूद बेहतर मुनाफे की आस में इस साल मलिहाबाद के किसान आमों को पकाने के लिए बैगिंग तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के फल-पट्टी क्षेत्र मलिहाबाद और काकोरी में बागवान इस हफ्ते से पेड़ों पर बढ़े आमों को पकाने के लिए बैगिंग तकनीक अपना रहे हैं। इस तकनीक के इस्तेमाल से न केवल आम की गुणवत्ता में सुधार आता है बल्कि इसकी शेल्फ लाइफ भी बढ़ जाती है। बैगिंग तकनीक का इस्तेमाल आम में गुठली पडऩे के बाद किया जाता है। इसके तहत आम को अखबारी कागज, विशेष पैकेट या कागजी बैग में लपेट कर पोसा जाता है। पकने के बाद इन आमों के रंग में भी निखार आ जाता है।मलिहाबाद क्षेत्र के बागवान शिवसरन सिंह बताते हैं कि बैगिंग तकनीक के इस्तेमाल से पके आम को 10 से 15 दिन तक बचाया जा सकता है। खासतौर पर विदेश में भेजने के लिए इस तरह से पके आम सबसे मुफीद साबित होंगे। आम का आकार बढ़ाने में भी बैगिंग तकनीक सहायक साबित होती है। सिंह के मुताबिक मलिहाबाद क्षेत्र में कुछ बागवानों ने बीते साल इस तकनीक का इस्तेमाल शुरू किया था और इन आमों को बाजार में हाथों-हाथ लिया गया। बड़े रिटेल स्टोरों पर तो बैगिंग तकनीक से पके आमों की अच्छी मांग रही। बैगिंग की सफलता से उत्साहित हो इस बार मलिहाबाद-काकोरी के आधे से ज्यादा बागवान इस तकनीक का इस्तेमाल करने जा रहे हैं। दशहरी के अलावा इस बार मलिहाबाद में आम्रपाली आम की भी आमद हो रही हैं। मलिहाबाद से कई बागवानों ने 4-5 साल पहले आम्रपाली आम के पौधे लगाए थे। इस बार इन पेड़ों पर भी आम आए हैं और बाजार में दशहरी के अलावा इनकी भी आमद नजर आएगी। कम रेशे ज्यादा खुशबू और भीतर से ठोस आम्रपाली की बाजार में अच्छी मांग रहने की उम्मीद जताई जा रही है। गौरतलब है बौर में ही फंगस लग जाने के चलते इस साल प्रदेश के फल पट्टी क्षेत्र मलिहाबाद ही नहीं बल्कि संडीला, सहारनपुर और मुजफ्फरनगर में भी आम की फसल खराब हुई है। केंद्रीय बागवानी एवं उप्पोषण संस्थान (सीआईएसएच) के अधिकारियों के मुताबिक फंगस लग जाने के चलते इस साल आम के उत्पादन में करीब 40 फीसदी की कमी आएगी। हालांकि फंगस का सबसे ज्यादा असर दशहरी पर पड़ा है पर राज्य के फैजाबाद, सुल्तानपुर और आजमगढ़ में होने वाला चौसा और सफेदा आम भी इससे बच नहीं सका है। (BS Hindi)
कमजोर फसल के बावजूद बेहतर मुनाफे की आस में इस साल मलिहाबाद के किसान आमों को पकाने के लिए बैगिंग तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के फल-पट्टी क्षेत्र मलिहाबाद और काकोरी में बागवान इस हफ्ते से पेड़ों पर बढ़े आमों को पकाने के लिए बैगिंग तकनीक अपना रहे हैं। इस तकनीक के इस्तेमाल से न केवल आम की गुणवत्ता में सुधार आता है बल्कि इसकी शेल्फ लाइफ भी बढ़ जाती है। बैगिंग तकनीक का इस्तेमाल आम में गुठली पडऩे के बाद किया जाता है। इसके तहत आम को अखबारी कागज, विशेष पैकेट या कागजी बैग में लपेट कर पोसा जाता है। पकने के बाद इन आमों के रंग में भी निखार आ जाता है।मलिहाबाद क्षेत्र के बागवान शिवसरन सिंह बताते हैं कि बैगिंग तकनीक के इस्तेमाल से पके आम को 10 से 15 दिन तक बचाया जा सकता है। खासतौर पर विदेश में भेजने के लिए इस तरह से पके आम सबसे मुफीद साबित होंगे। आम का आकार बढ़ाने में भी बैगिंग तकनीक सहायक साबित होती है। सिंह के मुताबिक मलिहाबाद क्षेत्र में कुछ बागवानों ने बीते साल इस तकनीक का इस्तेमाल शुरू किया था और इन आमों को बाजार में हाथों-हाथ लिया गया। बड़े रिटेल स्टोरों पर तो बैगिंग तकनीक से पके आमों की अच्छी मांग रही। बैगिंग की सफलता से उत्साहित हो इस बार मलिहाबाद-काकोरी के आधे से ज्यादा बागवान इस तकनीक का इस्तेमाल करने जा रहे हैं। दशहरी के अलावा इस बार मलिहाबाद में आम्रपाली आम की भी आमद हो रही हैं। मलिहाबाद से कई बागवानों ने 4-5 साल पहले आम्रपाली आम के पौधे लगाए थे। इस बार इन पेड़ों पर भी आम आए हैं और बाजार में दशहरी के अलावा इनकी भी आमद नजर आएगी। कम रेशे ज्यादा खुशबू और भीतर से ठोस आम्रपाली की बाजार में अच्छी मांग रहने की उम्मीद जताई जा रही है। गौरतलब है बौर में ही फंगस लग जाने के चलते इस साल प्रदेश के फल पट्टी क्षेत्र मलिहाबाद ही नहीं बल्कि संडीला, सहारनपुर और मुजफ्फरनगर में भी आम की फसल खराब हुई है। केंद्रीय बागवानी एवं उप्पोषण संस्थान (सीआईएसएच) के अधिकारियों के मुताबिक फंगस लग जाने के चलते इस साल आम के उत्पादन में करीब 40 फीसदी की कमी आएगी। हालांकि फंगस का सबसे ज्यादा असर दशहरी पर पड़ा है पर राज्य के फैजाबाद, सुल्तानपुर और आजमगढ़ में होने वाला चौसा और सफेदा आम भी इससे बच नहीं सका है। (BS Hindi)
सेब उत्पादन पर मौसम की मार, घटेगी पैदावार
नई दिल्ली May 02, 2011
इस साल उपभोक्ताओं को सेब के लिए ज्यादा कीमतें चुकानी पड़ सकती है। इसकी वजह सेब की फसल के लिए प्रतिकूल मौसम को माना जा रहा हैं। दरअसल सेब उत्पादक इलाकों में असमय हुई बर्फबारी और बारिश के कारण इसकी फसल को भारी नुकसान होने की आशंका जताई जा रही हैं, जिससे देश के कुल सेब उत्पादन में 50 फीसदी की गिरावट मुमकिन है। कश्मीर में सामान्य तौर पर 9-10 करोड़ पेटी (प्रति पेटी करीब 20 किलोग्राम) सेब का उत्पादन होता है और हिमाचल प्रदेश में यह आंकड़ा 2 से 2.5 करोड़ पेटी हैं। इसके अलावा 50 लाख पेटी सेब का उत्पादन उत्तराखंड में होता है। इस तरह सामान्य तौर पर देश का कुल सेब उत्पादन 11.5 से 13 करोड़ पेटी बैठता है। इस साल प्रतिकूल मौसम के चलते कुल सेब उत्पादन 50 फीसदी घटकर 6 से 7 करोड़ पेटी रह सकता है। अखिल भारतीय सेब उत्पादक संघ के अध्यक्ष रवींद्र चौहान ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि इस बार तापमान में ज्यादा उतारचढ़ाव देखा गया हैं, जिसका सेब की फसल पर बुरा प्रभाव पड़ता है। उनके मुताबिक मार्च और अप्रैल महीने की शुरुआत में असमय ज्यादा बर्फ पड़ी थी और इस दौरान पेड़ों में फूल आने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। ऐसे में वर्फ पडऩे से इसका विकास ढंग से नहीं हो पाया। चौहान का कहना है कि आमतौर इन दिनों तापमान 20-23 डिग्री सेल्सियस रहता है, जो घटकर 7 से 8 डिग्री सेल्सियस तक चला गया था। परिणामस्वरूप सेब की फसल को भारी नुकसान हुआ है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए कश्मीर, हिमाचल सहित देश के कुल सेब उत्पादन में 50 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। हिमाचल प्रदेश के बागवानी बोर्ड के निदेशक डॉ. गुरुदेव सिंह भी सेब के उत्पादन में कमी बात से इत्तिफाक रखते हैं। सिंह बताते है कि असमय बारिश और मौसम अत्यधिक ठंडा होने से सेब की फसल को नुकसान हुआ है। सिंह का कहना है कि प्रतिकूल मौसम सेब का उत्पादन कम रहेगा, लेकिन कितनी गिरावट आएगी, इस बारे कुछ नहीं कहा जा सकता। हिमाचल सेब उत्पादक संघ के अध्यक्ष लेखराज चौहान हिमाचल में सेब की पैदावार 50 फीसदी तक गिरने की संभावना व्यक्त करते हैं। चौहान भी इस बात से इत्तिफाक रखते हैं। इस समय हिमाचल में कोल्ड स्टोर वाले सेब के दाम 2500-3000 रुपये प्रति पेटी चल रहे हैं। ये दाम पिछले साल से ज्यादा हैं। (BS Hindi)
इस साल उपभोक्ताओं को सेब के लिए ज्यादा कीमतें चुकानी पड़ सकती है। इसकी वजह सेब की फसल के लिए प्रतिकूल मौसम को माना जा रहा हैं। दरअसल सेब उत्पादक इलाकों में असमय हुई बर्फबारी और बारिश के कारण इसकी फसल को भारी नुकसान होने की आशंका जताई जा रही हैं, जिससे देश के कुल सेब उत्पादन में 50 फीसदी की गिरावट मुमकिन है। कश्मीर में सामान्य तौर पर 9-10 करोड़ पेटी (प्रति पेटी करीब 20 किलोग्राम) सेब का उत्पादन होता है और हिमाचल प्रदेश में यह आंकड़ा 2 से 2.5 करोड़ पेटी हैं। इसके अलावा 50 लाख पेटी सेब का उत्पादन उत्तराखंड में होता है। इस तरह सामान्य तौर पर देश का कुल सेब उत्पादन 11.5 से 13 करोड़ पेटी बैठता है। इस साल प्रतिकूल मौसम के चलते कुल सेब उत्पादन 50 फीसदी घटकर 6 से 7 करोड़ पेटी रह सकता है। अखिल भारतीय सेब उत्पादक संघ के अध्यक्ष रवींद्र चौहान ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि इस बार तापमान में ज्यादा उतारचढ़ाव देखा गया हैं, जिसका सेब की फसल पर बुरा प्रभाव पड़ता है। उनके मुताबिक मार्च और अप्रैल महीने की शुरुआत में असमय ज्यादा बर्फ पड़ी थी और इस दौरान पेड़ों में फूल आने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। ऐसे में वर्फ पडऩे से इसका विकास ढंग से नहीं हो पाया। चौहान का कहना है कि आमतौर इन दिनों तापमान 20-23 डिग्री सेल्सियस रहता है, जो घटकर 7 से 8 डिग्री सेल्सियस तक चला गया था। परिणामस्वरूप सेब की फसल को भारी नुकसान हुआ है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए कश्मीर, हिमाचल सहित देश के कुल सेब उत्पादन में 50 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। हिमाचल प्रदेश के बागवानी बोर्ड के निदेशक डॉ. गुरुदेव सिंह भी सेब के उत्पादन में कमी बात से इत्तिफाक रखते हैं। सिंह बताते है कि असमय बारिश और मौसम अत्यधिक ठंडा होने से सेब की फसल को नुकसान हुआ है। सिंह का कहना है कि प्रतिकूल मौसम सेब का उत्पादन कम रहेगा, लेकिन कितनी गिरावट आएगी, इस बारे कुछ नहीं कहा जा सकता। हिमाचल सेब उत्पादक संघ के अध्यक्ष लेखराज चौहान हिमाचल में सेब की पैदावार 50 फीसदी तक गिरने की संभावना व्यक्त करते हैं। चौहान भी इस बात से इत्तिफाक रखते हैं। इस समय हिमाचल में कोल्ड स्टोर वाले सेब के दाम 2500-3000 रुपये प्रति पेटी चल रहे हैं। ये दाम पिछले साल से ज्यादा हैं। (BS Hindi)
पीडीएस के लिए 5 करोड़ टन अतिरिक्त अनाज
नई दिल्ली May 02, 2011
सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत गेहूं और चावल के वितरण के लिए 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज आवंटित करने का फैसला किया है। यह फैसला वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता वाली मंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति की बैठक में किया गया। इस फैसले से गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले 6.52 करोड़ परिवारों को लाभ होगा। इन परिवारों को गेहूं 4.15 रुपये प्रति किलोग्राम और चावल 5.65 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से दिया जाता है। इन परिवारों को हर महीने 35 किलोग्राम अनाज दिया जाता है। समिति ने गेहूं निर्यात को मंजूरी दिए जाने की मांग पर कोई फैसला नहीं किया। बढ़ती महंगाई को देखते हुए निर्यात पर पाबंदी लगी हुई है। कूटनीतिक वजहों से समिति ने यह फैसला किया कि मालदीव को 1 लाख टन आटा और गैर बासमती चावल का निर्यात किया जाएगा। भारत कुछ पड़ोसी और छोटे देशों को गेहूं और गैर बासमती चावल के निर्यात में नियमों में थोड़ी ढील दे रहा है। BS Hindi)
सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत गेहूं और चावल के वितरण के लिए 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज आवंटित करने का फैसला किया है। यह फैसला वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता वाली मंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति की बैठक में किया गया। इस फैसले से गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले 6.52 करोड़ परिवारों को लाभ होगा। इन परिवारों को गेहूं 4.15 रुपये प्रति किलोग्राम और चावल 5.65 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से दिया जाता है। इन परिवारों को हर महीने 35 किलोग्राम अनाज दिया जाता है। समिति ने गेहूं निर्यात को मंजूरी दिए जाने की मांग पर कोई फैसला नहीं किया। बढ़ती महंगाई को देखते हुए निर्यात पर पाबंदी लगी हुई है। कूटनीतिक वजहों से समिति ने यह फैसला किया कि मालदीव को 1 लाख टन आटा और गैर बासमती चावल का निर्यात किया जाएगा। भारत कुछ पड़ोसी और छोटे देशों को गेहूं और गैर बासमती चावल के निर्यात में नियमों में थोड़ी ढील दे रहा है। BS Hindi)
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