देश के किसानों के बुनियादी सवाल वर्ष 2018 में प्रमुख राजनीतिक
मुद्दे बनकर उभरे, जो आगे अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में भी छाए रह
सकते हैं. खासतौर से किसानों को उनकी फसलों का वाजिब दाम नहीं मिलने और
अनाजों की सरकारी खरीद की प्रक्रिया दुरुस्त नहीं होने को विपक्ष आगामी आम
चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खिलाफ अहम मसला बनाना चाहेगा.
हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में हिंदीभाषी तीन प्रमुख प्रदेशों में
बीजेपी का सत्ता से बेदखल हो जाना इस बात की तस्दीक करता है कि ग्रामीण
इलाकों में लोग सरकार की नीतियों और काम से खुश नहीं थे. बीते एक साल में
देश की राजधानी में ही किसानों की पांच बड़ी रैलियां हुईं, जबकि केंद्र में
भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य
(एमएसपी) निर्धारण में नए फॉर्मूले का उपयोग किया. साथ ही, सरकार ने
किसानों को खुश करने के लिए कई योजनाएं लाई हैं. मध्यप्रदेश के मंदसौर में
पिछले साल पुलिस की गोली से छह किसानों की मौत हो जाने के बाद देशभर में
मसला गरमा गया था और किसानों का विरोध-प्रदर्शन तेज हो गया था. किसानों का
मसला इस साल एक बड़ा राजनीतिक और सामाजिक मसला बना रहा.
विभिन्न
राजनीतिक दल आज भले ही अलग-अगल मुद्दों को लेकर अपनी आवाज बुलंद करें, मगर
किसानों के मसले को लेकर उनमें एका है. इसकी एक मिसाल दिल्ली में 30 नवंबर
की किसान रैली में देखने को मिली जब किसानों उनकी फसलों का बेहतर दाम
दिलाने और उनका कर्ज माफ मरने के मसले पर राजनीतिक दलों ने अपनी एकजुटता
दिखाई थी. उसी रैली में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा, "पूरे देश
में अब जो आवाज गूंज रही है वह किसानों की है जो गंभीर विपदा व संकट में
हैं." स्वराज इंडिया के योगेंद्र यादव ने कहा, "लोकसभा चुनाव 2019 में
ग्रामीण क्षेत्र के संकट से संबंधित मसले छाए रहेंगे." किसानों के 200 से
अधिक संगठनों को अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) के
बैनर तले लाने का श्रेय योगेंद्र यादव को ही जाता है.
यादव
ने आईएएनएस से बातचीत में कहा, "देश में हमेशा कृषि संकट रहा है. लेकिन यह
कभी चुनावों में प्रमुख मुद्दा नहीं बना. विधानसभा चुनावों में भाजपा की
हार और किसानों बनी नई एकता से यह सुनिश्चित हुआ है कि कृषि क्षेत्र का
संकट लोकसभा चुनाव-2019 में केंद्रीय मसला बनेगा." उन्होंने कहा कि
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा का शासन स्वतंत्र भारत के
इतिहास में सबसे ज्यादा किसान विरोधी रहा है, क्योंकि पिछले साढ़े चार साल
के शासन काल में किसानों के साथ असहानुभूति का रवैया रहा है. पूरे साल कई
ऐसे वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए हैं, जिनमें सड़कों पर फसल और दूध
फेंककर किसानों का गुस्सा दिखा गया है. किसानों ने उनकी उपज का उचित मूल्य
नहीं मिलने को लेकर अपनी नाराजगी दिखाई है. किसानों का विरोध-प्रदर्शनों
के बीच सरकार ने कुछ फसलों के एमएसपी में बढ़ोतरी की. हालांकि किसानों ने
इस बढ़ोतरी को अपनी मांगों व अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं पाया. जिन सब्जियों
के दाम प्रमुख शहरों में 20-30 रुपये प्रति किलो हैं, किसानों को वहीं
सब्जियां औने-पौने भाव बेचना पड़ता है. किसानों के मुद्दों को प्रमुखता से
उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि कृषि मंत्रालय सुधार तंत्र
विकसित करने में अप्रभावी प्रतीत होता है, जबकि सरकार ने खरीद की तीन
योजनाएं लाईं.
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