31 मई 2013
जीएम फसलों का जंजाल
देश में आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के अंतर्गत आनुवांशिक बदलाव वाली या जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फसलों और देश की खाद्य सुरक्षा के संभावित मूल्यांकन को लेकर बहस चल रही है। बीटी फसलों में टॉक्सिन (जहर) बनाने वाली जीन डाली जाती है, जो मिट्टी में पाए जाने वाले एक बैक्टीरिया बैसिलस थूरिजेनेसिस (बीटी) में पाई जाती है। इससे तैयार होने वाली फसल बीटी फसल कहलाती है।
यह जीन फसलों पर खुद जहर बनकर उन पर लगने वाले कीट को मार देती है। कुछ बड़ी जैव प्रौद्योगिकी कंपनियां, कृषि वैज्ञानिक और प्रबुद्ध लोगों का एक वर्ग बढ़ती आबादी, घटती खेतिहर भूमि के कारण देश में खाद्य सुरक्षा के लिए जीएम बीज तकनीक को अपनाने पर जोर दे रहा है। मगर क्या वाकई जीएम फसलें हमारे लिए उपयोगी हैं?
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के बीटी बैंगन के व्यावसायीकरण के स्थगन के बाद बहुराष्ट्रीय बीज उद्योग ने भारत में जीएम फसलों के पक्ष में अभियान छेड़ दिया। प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार समिति ने देश की खाद्यान्न सुरक्षा के लिए जीएम फसल अपनाने की सलाह दे डाली है। स्वयं कृषि मंत्री शरद पवार इसके बड़े पैरोकार हैं।
मगर देश में पहले ही हरित क्रांति ने रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग करके भूमि की उर्वरता, भूमिगत जल और पर्यावरण को इस कदर विषैला बना दिया है कि इसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं है। जीएम फसलों के घोड़े पर सवार होकर जो दूसरी कथित हरित क्रांति आ रही है, उससे कृषि पर्यावरण, मानव स्वास्थ्य, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर पड़ने वाले असर का आकलन करना आवश्यक है।
दुनिया भर के विशेषज्ञ पिछले 50 वर्षों में सभी कृषि प्रौद्योगिकियों और पद्धतियों का मूल्यांकन कर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ऐसी कृषि पद्धति, जो पारिस्थितिकी दृष्टिकोण एवं टिकाऊ कृषि पद्धतियों को अपनाते हुए जैविक खेती का समर्थन करती है, गरीबी कम करने और खाद्य सुरक्षा को आत्मनिर्भर बनाने में ज्यादा सार्थक सिद्ध हुई हैं। स्वामीनाथन टास्क फोर्स ने 2004 में सरकार को सौंपी रिपोर्ट में कहा है कि जीएम फसल अपनाने की तकनीक उन्हीं परिस्थितियों में अपनाई जाए, जब और कोई विकल्प न बचे।
वर्तमान में देश के बाजार में उपलब्ध बीटी कपास एकमात्र जीएम फसल है, जिसकी अनुमति भाजपा के शासनकाल में राजनाथ सिंह के कृषि मंत्री रहने के दौरान व्यवसायिक प्रयोग के लिए दी गई थी। कपास उत्पादक किसानों और कपास वैज्ञानिकों की रिपोर्टों का विश्लेषण करने के बाद विभिन्न दलों की बासुदेव आचार्य की अध्यक्षता वाली 31 सांसदों की समिति अपनी रिपोर्ट में इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि बीटी कपास की खेती इतनी उत्साहवर्धक नहीं है, जितनी बताई जा रही है।
गौरतलब है कि देश के बीटी कपास की खेती करने वाले प्रांतों महाराष्ट्र (विदर्भ), आंध्र प्रदेश और पंजाब के किसानों ने ही सर्वाधिक आत्महत्या की है। बीटी कपास के बाद मोनसैंटो और उसकी सहयोगी माइको कंपनी बीटी बैंगन को व्यवसायिक खेती के प्रयोग में लाना चाहती है। पूरे देश में व्यापक विरोध को देखते हुए पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इसकी व्यवसायिक खेती की अनुमति नहीं दी है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, केरल, बिहार, पश्चिम बंगाल, गुजरात, ओडिशा, कर्नाटक और पंजाब की सरकारों ने बीटी की जरूरत को सिरे से खारिज कर दिया है।
अमेरिकी कृषि विभाग भी स्वीकार कर चुका है कि जीएम मक्का और जीएम सोया की उत्पादकता सामान्य प्रजातियों से कम ही है। चीन में बेशक जीएम धान पर काम चल रहा है, परंतु वहां जल्दबाजी नहीं है। हमारे देश में चावल की हजारों अच्छी किस्में हैं, फिर भी हम जल्दी में क्यों हैं?
खाद्य सुरक्षा का भय दिखाकर जीएम फसलों को देश पर थोपने की कोशिश की जा रही है, जबकि देश का अन्न भंडार आवश्यकता से ढाई गुना अधिक है। मूल प्रश्न यह भी है कि भारतीय वैज्ञानिक टिकाऊ खेती की तकनीकी को पर्यावरण एवं परंपरागत कृषि विधियों से क्यों प्रोत्साहित नहीं करते? सरकार को चाहिए कि वह जनहित में बर्बादी की फसलों पर रोक लगाकर भारतीय किसान और कृषि को नष्ट होने से बचाए।
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