भारत के कृषि बाजार में किसान भी हैं और कारोबारी भी, एक्सपोर्ट्स भी हैं और कंज्यूमर्स भी। बेहद व्यापक है ये बाजार। लेकिन वक्त के साथ देश का एग्रीकल्चर मार्केट अब बदल रहा है और साथ ही बदल रही है खेती की तस्वीर भी। एग्रीकल्चर मार्केट में जहां पारदर्शिता को लेकर सवाल उठते रहे थे, वहां टेक्नोलॉजी से अब ये दिक्कत दूर हो रही है। हालांकि ये बदलाव की अभी शुरूआत है। और इसी बदलाव को समझाने के लिए सीएनबीसी आवाज़ लेकर आया है ये खास पेशकश - कृषि महाकुंभ, जहां हम एग्रीकल्चर और उससे जुड़े बाजार के हर पहलू पर डालेंगे नजर।
हम बात बदलाव की कर रहे हैं। कैसे बदल रहा है देश का कृषि बाजार। मंडियों में होने वाला कारोबार किस तरह से एसी चैंबर्स तक अपनी दखल बना चुका है। कहां तक इसकी पहुंच है और क्या करना अभी बाकी है, आइए जानते हैं।
कंप्युटर का स्क्रीन और की बोर्ड पर नाचती अंगुलियां भारत में कृषि बाजार की नई कहानी लिख रही हैं। ये उसी मंडी का ऑननाइल रूप है, जहां किसान भी हैं और कारोबारी भी। अनाज भी है और उसे तौलने का पैमाना भी। सबकुछ मौजूद है यहां और सिर्फ अंगुलियों की चंद हरकत से हो जाता है सौदा। न छल है, न कपट है। न झूठ है और न सामने वाले को ठगने की मंशा। क्योंकि भाव से लेकर माल की क्वालिटी तक सबकुछ सीसे की तरह ट्रांसपैरेंट है। ये है भारत में तेजी से पांव पसारता मंडियों का ऑनलाइन रूप। जहां हासिए पर रहने वाले किसान अब जश्न के मूड में हैं।
भारत, जहां करीब 55 फीसदी आबादी खेती पर आधारित है। देश भर में 7000 से भी ज्यादा रेगुलेडेट मंडियां हैं और करीब 22500 स्थानीय कृषि बाजार। विदेश व्यापार में भी खेती की बड़ी दखल है। आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले 5 साल में भारत से होने वाले कृषि उत्पादों का एक्सपोर्ट करीब 50 फीसदी बढ़ चुका है।
कुल एक्सपोर्ट में कृषि उत्पादों की करीब 10 फीसदी हिस्सेदारी है। खेती के मामले में भारत नेट एक्सपोर्टर है। इसके बावजूद भारत की जीडीपी में कृषि सेक्टर की हिस्सेदारी लगातार गिर रही है। आंकड़े बेहद चौकाने वाले हैं क्योंकि जिस सेक्टर ने देश में इंप्लॉयमेंट जनरेशन में पिछले 10 सालों के दौरान 48 फीसदी की बढ़त हासिल की, उसी सेक्टर की जीडीपी में हिस्सेदारी करीब 40 फीसदी घट गई है। बेशक अब इसपर गंभीरता से सोचना जरूरी हो गया है।
आखिर क्या है ये ऑनलाइन, कैसे होता है इसमें कारोबार और क्या है इसकी खसियत। और क्यों इससे जुड़े किसान बेहद खुश हैं। आमतौर पर यहां से भी वैसे ही कारोबार होता है, जैसे मंडियों में होता है। यहां भी एक खरीदार के लिए एक बिकवाल का होना जरूरी है। अंतर है तो सिर्फ कारोबार के तौर तरीकों की। क्योंकि इस प्लेटफॉर्म पर माल की क्वालिटी क्या होनी चाहिए ये पहले से तय होती है। कंप्यूटर के स्क्रीन पर कमोडिटी की कीमत से लेकर उसकी क्वांटिटी और बेचने और खरीदने वाले की पूरी जानकारी मौजूद होती है।
हालांकि पिछले करीब दस सालों से ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर सिर्फ वायदा बाजार ही मौजूद था। लेकिन अब बाजार के दो और चेहरे स्पॉट एक्सचेंज और एक्सचेंज ट्रेडेट फॉरवर्ड भी इस प्लेटफॉर्म पर आ गए हैं। बात साल 2008-09 की है। जब केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय कमोडिटी एक्सचेंजों को स्पॉट एक्सचेंज बनाने की इजाजत दी थी। तब उस समय के तीनों राष्ट्रीय एक्सचेंजों को स्पॉट एक्सचेंज शुरू करने की इजाजत मिली थी। हालांकि इसमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली एनसीडीईएक्स स्पॉट एक्सचेंज रहा, जो अब एनसीडीईएक्स ई-मार्केट्स लिमिटेड के नाम से जाना जाता है।
दरअसल ये एक ऐसा ऑनलाइन प्लेटफॉर्म है जिसके जरिए किसान, प्रोसेसर्स और एक्सपोर्टर्स सीधे बाजार में अपनी पहुंच बना सकते हैं। रियल टाईम एक्सेसबिलिटी होने से ये किसानों को जहां उचित भाव दिलाने में मददगार रहा है, वहीं बिचौलियों के ना होने से प्रोसेसर्स और एक्सपोर्टर्स की लागत भी घटाता है। यहां पर कमोडिटी की कीमतें वायदा बाजार से प्रभावित होती हैं। यानि इस प्लेटफॉर्म पर किसी व्यक्ति या ग्रुप की मोनोपॉली की गुंजाइश खत्म हो जाती है।
इन एक्सचेंजों पर वेयरहाउस रसीद की भी ट्रेडिंग की सुविधा उपलब्ध है। इन्हीं खासियत की वजह से दक्षिण भारत में कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना और केरल के अलावा पश्चिम में मध्यप्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों ने इसमें रूचि दिखाई है। अब इसका प्रसार राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी हो रहा है। अब सवाल उठता है कि जब फ्यूचर है। स्पॉट है। ऐसे मे फिर फॉरवर्ड क्या चीज है।
फॉरवर्ड सौदे मतलब भविष्य के किसी तय समय पर होने वाले सौदे। इसमें कीमत से लेकर डिलिवरी लोकेशन पहले से तय होती है। वैसे तो देश में पहले से इस तरह के सौदे होते रहे हैं। लेकिन लीगल प्लेटफॉर्म न होने से इसमें पूंजी फंसने और डिफॉल्ट का भी खतरा रहता था। लेकिन एनसीडीईएक्स फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट पूरी तरह से रेगुलेटेड है। इसमें कांउटर पार्टी डिफॉल्ट से सुरक्षा की व्यवस्था है। बेहतर रिस्क मैनेजमेंट और ज्यादा लिक्विडिटी होने से मोनोपोली की स्थिति वैसे ही कम हो जाती है। इसमें नेटिंग की भी व्यवस्था है और रेफरेंस और फिक्स्ड प्राइस कॉन्ट्रैक्ट में ट्रडिंग की सुविधा है। बेशक इसे भारतीय कमोडिटी बाजार का बदलता हुआ चेहरा ही कहेंगे।
लेकिन क्या इस शुरुआत से बदल जाएगी खेती की दकदीर। जरूरत क्या है देश के एग्रीकल्चर सेक्टर के लिए। भारत को आजाद हुए 60 साल से भी ज्यादा हो गए हैं। इसके बावजूद देश के सबसे बड़े एंटरप्राइज सेक्टर की ये हालात, आखिर वजह क्या है।
खेत में लहलहाती फसल और गोदामों में रखी अनाज की बोरियां 125 करोड़ की आबादी का पेट भरने के साथ-साथ देश में डॉलर लाने का भी काम करती हैं। इसके बावजूद जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी लगातार गिर रही है। दरअसल खेती को लेकर पॉलिसी बनाने में राज्यों और केंद्र के बीच में तालमेल का अभाव है। जिसका खामियाजा इस पूरे सेक्टर को भुगतना पड़ रहा है। अभी तक सरकारों का ज्यादा फोकस एमएसपी और सब्सिडी पर ज्यादा है। जबकि इस सेक्टर में बुनियादी सुविधाओं तक का अकाल है।
हालांकि ऐसा नहीं कि इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ। मंडी कानूनों को कारगर बनाने के लिए साल 2003 में ही केंद्र सरकार ने राज्यों को मॉडल एपीएमसी एक्ट लागू करने का सुझाव दिया, लेकिन अबतक महज 16 राज्यों में नया मंडी कानून लागू हो सका है। कुछ राज्यों में तो एपीएमसी का नामोनिशान तक नहीं है।
बेशक जिन राज्यों ने इसे अपनाया वहां खेती और इससे जुड़े मार्केट की तस्वीर अलग है। लेकिन देश में एग्री मार्केटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहद लचर है। एक तरफ हर सेकेंड कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव दिखाने वाला ऑनलाइन वायदा प्लेटफॉर्म है, तो दूसरी ओर मंडियों में बिचौलियों के बीच होने वाला परंपरागत कारोबार है। जहां न पर्याप्त वेयरहाउसिंग की सुविधा है और ना क्वालिटी जांचने का जरिया।
एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के कृषि बाजार को पटरी पर लाने के लिए बारहवीं पंचवर्षीय योजना में करीब 56000 करोड़ रुपये निवेश की जरूरत है। इनमें से ज्यादातर निवेश प्राइवेट सेक्टर से होना चाहिए। लेकिन मौजूदा माहौल में ये कितना संभव हो सकेगा, से सबसे बड़ा सवाल है।(hindimoneycantorl.com)
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