बदलते सुरसरकार मल्टी ब्रांड रिटेल में एफडीआई जैसे पेचीदा मसले पर जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं करेगी। राज्यों से विचार करके आम सहमति बनाने की कोशिश की जाएगी। - प्रणब मुखर्जी, वित्त मंत्री (25 मार्च 2011, लोकसभा में)मल्टीब्रांड रिटेल में 51 फीसदी एफडीआई की इजाजत दी जानी चाहिए। - मोंटेक सिंह अहलूवालिया, उपाध्यक्ष, योजना आयोग (25 अक्टूबर 2010)रिटेल में एफडीआई से प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलेगा और उपभोक्ताओं को बाजार में चुनने के लिए ज्यादा विकल्प मिल सकेंगे। - डॉ. मनमोहन सिंह, प्रधानमंत्री (फरवरी 2010)हम फूड रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश की अनुमति देने पर विचार करेंगे, बशर्ते इससे किसानों को लाभ होने की संभावना हो।- सुबोध कांत सहाय, फूड प्रोसेसिंग मंत्री (अप्रैल 2008)भारत अपने 330 अरब डॉलर के रिटेल मार्केट को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोलेगा। आर्थिक सुधारों की दिशा में यह अत्यंत महत्वपूर्ण कदम होगा। - पी. चिदंबरम, तत्कालीन वित्त मंत्री, सितंबर 2007भारत अपने 330 अरब डॉलर के रिटेल मार्केट को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोलेगा। आर्थिक सुधारों की दिशा में यह अत्यंत महत्वपूर्ण कदम होगा। - पी. चिदंबरम, तत्कालीन वित्त मंत्री, सितंबर 2007मल्टीब्रांड रिटेल सेक्टर में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) ऐसा मुद्दा है जो सरकार के समर्थन के बावजूद अभी तक टल रहा है। लगातार विरोध के कारण अब यह मसला सरकार की प्राथमिकताओं में काफी नीचे जा चुका है। करीब छह साल पहले यूपीए-1 के दौरान मल्टीब्रांड रिटेल में 51 फीसदी एफडीआई की चर्चा शुरू हुई। तब लेफ्ट के विरोध के कारण कुछ नहीं हो सका। सितंबर 2007 में तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने इसके समर्थन में बयान दिया।
पिछले साल की शुरूआत में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी किसानों को मिलने वाली कीमत और उपभोक्ताओं द्वारा चुकाए जाने वाले दाम में भारी अंतर का हवाला देते हुए इस सेक्टर को खोलने पर बहस छेडऩे की बात की। जुलाई 2010 में डीआईपीपी की तरफ से जारी डिस्कशन पेपर से लगा जैसे सरकार सभी पक्षों की राय लेने के बजाय एफडीआई के पक्ष में आमराय बनाने की कोशिश कर रही है। इसमें कहा गया, 'यह किसानों और उपभोक्ताओं, दोनों की समस्याएं दूर कर सकता है। इससे उपभोक्ताओं के लिए कीमतें कम होंगी और महंगाई पर अंकुश लग सकेगा।'
लेकिन जैसे-जैसे इस प्रस्ताव का विरोध तीखा होता गया, सरकार के सुर भी बदलते गए। 25 मार्च 2011 को वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने संसद में कहा कि सरकार ऐसे पेचीदा मसले पर जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं करेगी, राज्यों से विचार करके आम सहमति बनाने की कोशिश की जाएगी।इस समय देश में सिंगल ब्रांड रिटेल सेक्टर में 51 फीसदी और कैश एंड कैरी यानी थोक व्यापार में 100 फीसदी विदेशी निवेश की अनुमति है। सिंगल ब्रांड रिटेल में नाइके, ल्युइस व्यूटोन कंपनी भारत में व्यवसाय कर रही हैं।
कैश एंड कैरी व्यवसाय में वालमार्ट और कारफूर हैं। वालमार्ट ने रिटेल में काम करने के लिए भारती के साथ मिलकर ज्वाइंट वेंचर भी बनाया है। दरअसल, विकसित देशों की अर्थव्यवस्था डांवाडोल होने के चलते बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत और चीन जैसी उभरती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में अवसर दिख रहे हैं। इसीलिए उनकी कोशिश है कि मल्टीब्रांड रिटेल में उन्हें निवेश की इजाजत मिल जाए।
अक्टूबर 2010 में वालमार्ट के सीईओ माइक ड्यूक इसके पक्ष में लॉबिंग के लिए आए तो उनसे मिलने के बाद योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने बयान दिया कि मल्टीब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश की इजाजत दी जानी चाहिए। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए रिटेल सेक्टर में भले ही संभावनाएं हों, लेकिन देश की बड़ी आबादी रोजगार के लिए इस सेक्टर पर निर्भर है।
इस वर्ग को अंदेशा है कि अगर रिटेल कारोबार में विदेशी कंपनियां आती हैं तो उनके सामने टिक पाना मुश्किल होगा। इससे बेरोजगारी बढ़ सकती है। यह अंदेशा बेवजह नहीं है। भारत में असंगठित क्षेत्र में करीब 1.1 करोड़ दुकानें चल रही हैं। भारत में छोटी दुकानों का घनत्व शायद दुनिया में सबसे ज्यादा है।
चंडीगढ़ मर्चेंट्स एसोसिएशन के चेयरमैन और व्यापारी आर.पी. कंसल कहते हैं, 'गनीमत है कि सरकार पहले जैसी सक्रिय नहीं है। लेकिन छोटे दुकानदारों पर संकट अभी टला नहीं है। अगर विदेशी कंपनियां आती हैं तो बाजार का मौजूदा ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जाएगा। छोटी दुकानें किसी भी हालत में बड़ी कंपनियों का सामना नहीं कर पाएंगी। इससे बड़ी संख्या में व्यापारियों की रोजी-रोटी छिन जाएगी।'
मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई के सरकारी प्रस्ताव के अनुसार विदेशी निवेश की इजाजत तभी मिलेगी जब कंपनी कम से कम 10 करोड़ डॉलर यानी करीब 450 करोड़ रुपये निवेश करे और इसमें से कम से कम 50 फीसदी पैसा बैक-एंड इंफ्रास्ट्रक्चर यानी कोल्ड स्टोर, वेयरहाउस और कोल्ड चेन विकसित करने में लगाए।
इन कंपनियों को उन्हीं शहरों में स्टोर खोलने की अनुमति होगी जिनकी आबादी कम से कम 10 लाख हो। इस तरह ये कंपनियां देश के करीब 36 शहरों में ही काम कर सकेंगी। केंद्र की इस रक्षात्मक रुख से भी विरोध के स्वर कम होंगे, इसकी उम्मीद कम है।
पंजाब के किसान और भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के नेता बलवीर सिंह राजेवाल के मुताबिक विदेशी कंपनियों का एकाधिकार होगा तो अपनी उपज बेचने के लिए किसानों के विकल्प सीमित हो जाएंगे।
इससे किसानों का शोषण बढ़ेगा। कृषि उपज खरीदने के विकल्प ज्यादा होने और स्पर्धा होने पर ही किसानों को फायदा होगा। मौजूदा व्यवस्था में किसानों का पारंपरिक व्यापारियों के हाथों शोषण होता है, लेकिन विदेशी कंपनियां आने पर शोषण नहीं होगा, यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता।
रिटेल कंपनियों की राय इससे अलग है। रिटेल सेक्टर में सबसे मजबूत पकड़ रखने वाले फ्यूचर ग्रुप (बिग बाजार) के सीईओ किशोर बियानी कहते हैं, 'आर्थिक तरक्की से उपभोक्ताओं की आमदनी बढ़ रही है, उनकी जरूरतें बढ़ रही हैं। इसलिए रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश समय की मांग है।' बियानी के मुताबिक विदेशी निवेश आने से बेरोजगारी बढऩे की आशंका ठीक नहीं है। बाजार काफी बड़ा है और बड़ी कंपनियों के साथ छोटे दुकानदारों के विकास के लिए पर्याप्त अवसर मौजूद हैं। बिज़नेस भास्कर का योगदान :- इस मसले पर सरकार को छोटे और मझोले व्यापारियों का विरोध झेलना पड़ रहा है। इन व्यापारियों की चिंताओं को बिजनेस भास्कर ने बुलंद आवाज दी और देश के लाखों-करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी से जुड़े इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया। हमने व्यापारियों के विरोध के बिंदुओं को सरकार के संबंधित अधिकारियों तक पहुंचाया। (Business Bhaskar)
29 जून 2011
पेट्रो कंपनियों को 58 करोड़ लीटर एथनॉल की सप्लाई होगी
बिजनेस भास्कर नई दिल्ली चीनी मिलें चालू पेराई सीजन में पेट्रेलियम कंपनियों को 58 करोड़ लीटर एथनॉल की सप्लाई करेंगी। पांच फीसदी मिश्रण के हिसाब से पेट्रेलियम कंपनियों को सालाना करीब 92 करोड़ लीटर एथनॉल की आवश्यकता होगी। इस तरह पेट्रोलियम कंपनियों को उनकी आवश्यकता के मुकाबले सिर्फ 63 फीसदी एथनॉल की सप्लाई मिल सकेगी। एथनॉल की सप्लाई राज्यों की नीतियों से भी प्रभावित हो रही है। तमिलनाडु में राज्य सरकार ने एथनॉल के उत्पादन पर रोक लगा रखी है। जबकि उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार ने अप्रैल से एथनॉल की दूसरे राज्यों को सप्लाई रोक दी है। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) के महानिदेशक अबिनाश वर्मा ने बताया कि मिलों को चालू पेराई सीजन में 58 करोड़ एथनॉल सप्लाई करने की निविदा प्राप्त हुई हैं। इसमें से करीब 40 फीसदी एथनॉल की सप्लाई हो चुकी है। उन्होंने बताया कि मौजूदा प्रावधानों के मुताबिक पेट्रोल में पांच फीसदी एथनॉल मिलाना अनिवार्य है। सरकार ने पेट्रोल में मिलाने वाले एथनॉल की अंतरिम कीमत 27 रुपये प्रति लीटर तय कर रखी है। पांच फीसदी मिश्रण के आधार पर करीब 92 करोड़ लीटर एथनॉल की सालाना आवश्यकता होगी लेकिन कई राज्यों में सरकारों ने चीनी मिलों को एथनॉल बनाने की अनुमति नहीं दे रखी है। तमिलनाडु में चीनी मिलों को एथनॉल बनाने की अनुमति नहीं है जबकि उत्तर प्रदेश ने अप्रैल से एथनॉल की दूसरे राज्यों में सप्लाई रोक लगा रखी है। ऑल इंडिया डिस्टीलरीज एसोसिएशन के महानिदेशक वी. के. रैना ने बताया कि चालू सीजन में शराब उद्योग की अल्कोहल की मांग बढ़कर 40 करोड़ केसैज (एक कैसेज-चार लीटर) की होने का अनुमान है। शराब बनाने में एक्स्ट्रा न्यूट्रल अल्कोहल का उपयोग होता है। करीब 40-45 फीसदी शीरे की खपत शराब कंपनियों में होती है। मवाना शुगर लिमिटेड के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि चालू पेराई सीजन में शीरे की उपलब्धता 110 लाख टन होने का अनुमान है। मिलों की शीरा रखने के टैंक भर चुके हैं। चालू सीजन में चीनी मिलें अभी तक छह लाख टन शीरे का निर्यात कर चुकी हैं। उत्तर प्रदेश में शीरे का दाम 2,800 से 3,000 रुपये प्रति टन चल रहा है। पिछले साल की तुलना में भाव करीब 1,500 से 2,000 रुपये प्रति टन कम है। एथनॉल इंडिया के मैनेजिंग डायरेक्टर दीपक देसाई ने बताया कि शराब उद्योग में एक्स्ट्रा न्यूट्रल अल्कोहल (ईएनए) का उपयोग होता है। जबकि पेट्रोलियम कंपनियां 99.9 फीसदी शुद्ध एथनॉल का उपयोग करती है। उधर केमिकल उद्योग में 94.68 फीसदी शुद्ध एथनॉल का उपयोग होता है। (R S Rana)
27 जून 2011
बदल गया मक्के का गणित
बिजनेस भास्कर नई दिल्लीकभी मोटे अनाजों का शुमार होने वाले मक्का का औद्योगिक उपयोग बढ़ रहा है। मक्का का उपयोग देश में स्टार्च, ग्लूकोज, मक्का तेल के लिए ज्यादा होने लगा है। विश्व स्तर पर मक्का का उपयोग एथनॉल बनाने में बढ़ रहा है। अमेरिका में मक्के का बड़े पैमाने पर उपयोग एथनॉल बनाने में हो रहा है। यही वजह है कि मक्का के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। भारत से मक्के का निर्यात भी बढ़ रहा है। इससे घरेलू पॉल्ट्री उद्योग कच्चे माल यानि पॉल्ट्री फीड की तेजी से दबाव महसूस कर रहा है।देश में मक्का की कुल खपत में सालाना करीब 10 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हो रही है। वर्ष 2010-11 में मक्का में घरेलू मांग करीब 184.7 लाख टन होने का अनुमान है। वर्ष 2011-12 में खपत बढ़कर 203 लाख टन की होने की संभावना है। जबकि मक्का की पैदावार देश में पिछले पांच साल में करीब 34 फीसदी बढ़ी है। वर्ष 2006-07 में देश में मक्का की पैदावार 151 लाख टन की हुई थी जबकि वर्ष 2010-11 में पैदावार बढ़कर 202.3 लाख टन होने का अनुमान है। भारत से मक्का का निर्यात पिछले महीनों में काफी ज्यादा रहा। हालांकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में मक्का की कीमतों में नरमी आने से भारत से निर्यात सौदों में कमी आई है। भारतीय निर्यातक 280-290 डॉलर प्रति टन (एफओबी) भाव ऑफर कर रहे हैं लेकिन इन भावों में मांग खरीदार तैयार नहीं हैं। (Business Bhaskar.....R S Rana)
पेट्रोल में एथॅनाल मिलाने के कार्यक्रम पर संकट के बादल
नई दिल्लीः पेट्रोल में अनिर्वाय रूप से 5 फीसदी एथनॉल मिलाने के प्रस्ताव पर काले बादल घिर आए हैं। एक प्रभावशाली सलाहकार समिति ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस कार्यक्रम पर दोबारा विचार करने या कम से कम फिलहाल इसे अनिवार्य न बनाने का मशविरा दिया है। सी रंगराजन की अगुवाई वाली प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी) ने कहा है कि देशभर में पेट्रोल में एथनॉल मिलाने का कार्यक्रम शुरू करने से पहले से कुछ सवालों के जवाब ढूंढे जाने चाहिए। एक सरकारी अधिकारी ने बताया कि ईएसी ने सरकार को फिलहाल एथनॉल मिश्रण को अनिवार्य बनाने से बचने और रसायन तथा पोटेबल अल्कोहल जैसे दूसरे अहम क्षेत्रों की जरूरत पूरा होने के बाद बचने वाले एथनॉल पर काम करने की सलाह दी थी। अप्रैल के मध्य में लिखे गए एक पत्र में दलील दी गई है कि मंत्रालय की ओर से बताए गए उद्देश्यों और इन उद्देश्यों का समर्थन करने वाले सबूतों के बीच 'तालमेल' की भारी कमी है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने इन सवालों को खाद्य, पीडीएस और उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के सामने रखा था, जिसने ब्लेंडिंग के इस कार्यक्रम पर विचार-विमर्श किया। एथनॉल मिलाने को अनिवार्य बनाने के पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे विदेशी मुद्रा की बचत होगी, ऊर्जा सुरक्षा मिलेगी, चीनी सेक्टर को फायदा पहुंचेगा और साथ ही पर्यावरण की दृष्टि से भी यह कदम वाजिब रहेगा। यह कार्यक्रम तभी कामयाब रहेगा, जब पर्याप्त मात्रा में एथनॉल हो। और इस बारे में राय बंटी हुई है। रसायन और अल्कोहल उद्योग का कहना है कि सभी के लिए पर्याप्त एथनॉल नहीं है। अगर एथनॉल को ब्लेंडिंग के लिए घुमा दिया जाता है, तो उन्हें अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए आयात करने पर मजबूर होना होगा। तमिलनाडु ने पहले ही एथनॉल ब्लेंडिंग कार्यक्रम के लिए होने वाली सप्लाई पर पाबंदी लगा दी है, जबकि बिहार ने 'अनाधिकारिक' रूप से इसे प्रोत्साहित न करने का रुख दिखाया है। योजना आयोग के सदस्य सौमित्र चौधरी की अगुवाई में सरकार की ओर से गठित एक समिति ने एथनॉल की उपलब्धता को लेकर सवाल खड़े किए थे। चौधरी ईएसी के सदस्य भी हैं। हालांकि, चौधरी पैनल के आठ सदस्यों में से पांच ने एथनॉल के सेक्टरवार आवंटन के मुद्दे के खिलाफ जाने का फैसला किया है, जिसमें एथनॉल ब्लेंडिंग कार्यक्रम भी शामिल है। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) के महानिदेशक ए वर्मा ने 5 फीसदी ब्लेंडिंग कार्यक्रम के लिए एथनॉल की सप्लाई में कमी आने वाली चिंताओं को सिरे से दरकिनार किया है। उन्होंने बताया कि 58 करोड़ लीटर की सप्लाई के लिए पहले ही अनुबंध हो चुका है। सौमित्र चौधरी पैनल का कहना है कि ब्लेंडिंग के लिए 60 करोड़ लीटर एथनॉल उपलब्ध है। अक्टूबर से शुरू होने वाले साल में एथनॉल की कुल मांग 100 करोड़ लीटर रहने की उम्मीद जताई जा रही है। ईएसी ने खाद्य सुरक्षा चिंताओं को लेकर सीधे गन्ने से एथनॉल का उत्पादन करने का भी विरोध किया है। फिलहाल एथनॉल का उत्पादन चीनी मैन्युफैक्चरिंग के बाई-प्रोडक्ट के रूप में होता है। (ET Hindi)
22 जून 2011
चीनी पर लगेगा आयात शुल्क!
मुंबई June 20, 2011
वित्त मंत्रालय चीनी पर आयात शुल्क की समीक्षा कर रहा है, जो फिलहाल शून्य है। खाद्य मंत्रालय की सिफारिशों के आधार पर यह शुल्क 4 फीसदी यथामूल्य सहित 15 फीसदी हो सकता है। मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के उपायों के तहत इस साल के प्रारंभ में चीनी पर आयात शुल्क को समाप्त कर दिया गया था, जिसे 31 मार्च 2011 के बाद आगे बढ़ा दिया गया।एक आधिकारिक सूत्र ने बताया कि 'हालांकि देसी बाजार में चीनी की स्थिति सामान्य है और वास्तव में अब उद्योग निर्यात कर रहा है। इस तरह के परिदृश्य में यह ज्यादा मायने नहीं रखता है कि आयात शुल्क कितना है। लेकिन हम स्थिति देख रहे हैं और शून्य शुल्क का शासनादेश 30 जून 2011 को समाप्त हो रहा है। सिफारिशों के आधार पर 15 फीसदी शुल्क उचित है।सूत्र ने बताया कि किसी जिंस पर शून्य शुल्क या 60 फीसदी तक आयात शुल्क लगना असामान्य है। इसलिए 15 फीसदी आयात शुल्क वाजिब है, लेकिन इसमें 4 फीसदी यथामूल्य शुल्क हो सकता है। खाद्य मंत्रालय ने वित्त मंत्रालय को 15-20 फीसदी आयात शुल्क की सिफारिश की है। सीमा शुल्क विभाग का यथामू्ल्य वस्तु के मूल्य के आधार पर लगाया जाता है, जिसे आमतौर पर कीमत के प्रतिशत के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। इस तरह के शुल्क जिंसों पर लगाए जाने वाले विशेष करों से अलग होते हैं। वर्ष 2010-11 के सीजन (अक्टूबर-सितंबर) में मिलें पहले ही अग्रिम लाइसेंस योजना (एएलएस) के तहत 10 लाख टन का निर्यात कर चुकी हैं और ओपन जनरल लाइसेंस (ओजीएल) के तहत 4,50,000 टन चीनी निर्यात की प्रक्रिया चल रही है।भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा चीनी उत्पादक और सबसे बड़ा उपभोक्ता है। देश में 2010-11 के सीजन में 242 लाख टन चीनी उत्पादन का अनुमान है, जो पिछले वर्ष में 188 लाख टन रहा था। देश की वार्षिक घरेलू मांग 220-225 लाख टन है। घरेलू आपूर्ति बढ़ाने के लिए 2009 के प्रारंभ में चीनी पर आयात शुल्क खत्म कर दिया गया था। इससे पहले आयात शुल्क 60 फीसदी था। वर्ष 2008-09 और 2009-10 में घरेलू उत्पादन क्रमश: 147 लाख टन और 190 लाख टन रहा था, जो घरेलू मांग से कम था। देश को इस दो सीजनों में करीब 60 लाख टन चीनी का आयात करना पड़ा। अत्यधिक आपूर्ति की वजह से उपभोक्ता मामलात मंत्रालय बाजार आपूर्ति में सुधार के लिए चीनी स्टॉक रखने की सीमा में ढील दे रहा है। मार्च में मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह ने चीनी की सीमा को बढ़ाकर 500 टन प्रति माह कर दिया है, जो पहले 200 टन प्रतिमाह थी। (BS Hindi)
वित्त मंत्रालय चीनी पर आयात शुल्क की समीक्षा कर रहा है, जो फिलहाल शून्य है। खाद्य मंत्रालय की सिफारिशों के आधार पर यह शुल्क 4 फीसदी यथामूल्य सहित 15 फीसदी हो सकता है। मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के उपायों के तहत इस साल के प्रारंभ में चीनी पर आयात शुल्क को समाप्त कर दिया गया था, जिसे 31 मार्च 2011 के बाद आगे बढ़ा दिया गया।एक आधिकारिक सूत्र ने बताया कि 'हालांकि देसी बाजार में चीनी की स्थिति सामान्य है और वास्तव में अब उद्योग निर्यात कर रहा है। इस तरह के परिदृश्य में यह ज्यादा मायने नहीं रखता है कि आयात शुल्क कितना है। लेकिन हम स्थिति देख रहे हैं और शून्य शुल्क का शासनादेश 30 जून 2011 को समाप्त हो रहा है। सिफारिशों के आधार पर 15 फीसदी शुल्क उचित है।सूत्र ने बताया कि किसी जिंस पर शून्य शुल्क या 60 फीसदी तक आयात शुल्क लगना असामान्य है। इसलिए 15 फीसदी आयात शुल्क वाजिब है, लेकिन इसमें 4 फीसदी यथामूल्य शुल्क हो सकता है। खाद्य मंत्रालय ने वित्त मंत्रालय को 15-20 फीसदी आयात शुल्क की सिफारिश की है। सीमा शुल्क विभाग का यथामू्ल्य वस्तु के मूल्य के आधार पर लगाया जाता है, जिसे आमतौर पर कीमत के प्रतिशत के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। इस तरह के शुल्क जिंसों पर लगाए जाने वाले विशेष करों से अलग होते हैं। वर्ष 2010-11 के सीजन (अक्टूबर-सितंबर) में मिलें पहले ही अग्रिम लाइसेंस योजना (एएलएस) के तहत 10 लाख टन का निर्यात कर चुकी हैं और ओपन जनरल लाइसेंस (ओजीएल) के तहत 4,50,000 टन चीनी निर्यात की प्रक्रिया चल रही है।भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा चीनी उत्पादक और सबसे बड़ा उपभोक्ता है। देश में 2010-11 के सीजन में 242 लाख टन चीनी उत्पादन का अनुमान है, जो पिछले वर्ष में 188 लाख टन रहा था। देश की वार्षिक घरेलू मांग 220-225 लाख टन है। घरेलू आपूर्ति बढ़ाने के लिए 2009 के प्रारंभ में चीनी पर आयात शुल्क खत्म कर दिया गया था। इससे पहले आयात शुल्क 60 फीसदी था। वर्ष 2008-09 और 2009-10 में घरेलू उत्पादन क्रमश: 147 लाख टन और 190 लाख टन रहा था, जो घरेलू मांग से कम था। देश को इस दो सीजनों में करीब 60 लाख टन चीनी का आयात करना पड़ा। अत्यधिक आपूर्ति की वजह से उपभोक्ता मामलात मंत्रालय बाजार आपूर्ति में सुधार के लिए चीनी स्टॉक रखने की सीमा में ढील दे रहा है। मार्च में मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह ने चीनी की सीमा को बढ़ाकर 500 टन प्रति माह कर दिया है, जो पहले 200 टन प्रतिमाह थी। (BS Hindi)
नैफेड पर लगाम कसने की तैयारी में सरकार
नई दिल्ली [सुरेंद्र प्रसाद सिंह]। सरकारी खरीद एजेंसी नैफेड की 'मनमानी' पर अंकुश लगाने के लिए कृषि मंत्रालय ने लगाम कसनी शुरू कर दी है। अब यह सरकार के लिए सिर्फ तिलहन व दलहन की ही खरीद कर सकेगी। इसके इतर उसके अन्य कारोबार करने पर बंदिश लगाने की तैयारी कर ली गई है। कृषि मंत्रालय ने इसका मसौदा तैयार कर लिया है। इसे जल्दी ही केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी के लिए भेजा जाएगा।
खुले बाजार में कीमतें समर्थन मूल्य से नीचे होने की दशा में तिलहन व दलहन की सरकारी खरीद करने वाली नैफेड [नेशनल एग्रीकल्चरल कोआपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन] एक मात्र सरकारी एजेंसी है। कृषि मंत्रालय ने नैफेड के एकाधिकार को भी खत्म करने का फैसला कर लिया है। अब इस कारोबार में नेशनल कंज्यूमर को-ऑपरेटिव फेडरेशन [एनसीसीएफ], सेंट्रल वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन और भारतीय खाद्य निगम [एफसीआई] जैसी बड़ी एजेंसियों को शामिल करने का प्रस्ताव है।
नैफेड के पिछले कुछ सालों के कामकाज को लेकर कृषि मंत्रालय खासा नाराज है। किसानों के हित संरक्षण और कृषि उत्पादों की खरीद करने के लिए गठित इस एजेंसी ने पिछले सालों में गैर कृषि कारोबार में हाथ आजमा कर हजारों करोड़ का नुकसान किया है। लौह अयस्क के आयात-निर्यात में एजेंसी को अच्छा खासा चूना लगा है। नैफेड के इस भ्रष्टाचार से आजिज केंद्र सरकार ने उसकी नकेल कसने की तैयारी कर ली है।
हाल ही में उभरे एक और नए विवाद ने गंभीर रूप पकड़ लिया है। नैफेड के अध्यक्ष व बोर्ड ने नवनियुक्त प्रबंध निदेशक पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर उसे कार्यमुक्त कर दिया गया है। नैफेड में तैनात कई पूर्व अधिकारी जांच के घेरे में हैं। यह मुद्दा समय-समय पर गरम होता रहता है। कभी खराब कपास की खरीद तो कभी सरसों व प्याज की खरीद में घपले को लेकर नैफेड बराबर चर्चा में रहा है। इन सारी गतिविधियों पर लगाम कसने के मकसद से ही कैबिनेट नोट तैयार किया गया है। इसे जल्दी ही अंतिम रूप दे दिए जाने की संभावना है। (Jagran)
खुले बाजार में कीमतें समर्थन मूल्य से नीचे होने की दशा में तिलहन व दलहन की सरकारी खरीद करने वाली नैफेड [नेशनल एग्रीकल्चरल कोआपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन] एक मात्र सरकारी एजेंसी है। कृषि मंत्रालय ने नैफेड के एकाधिकार को भी खत्म करने का फैसला कर लिया है। अब इस कारोबार में नेशनल कंज्यूमर को-ऑपरेटिव फेडरेशन [एनसीसीएफ], सेंट्रल वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन और भारतीय खाद्य निगम [एफसीआई] जैसी बड़ी एजेंसियों को शामिल करने का प्रस्ताव है।
नैफेड के पिछले कुछ सालों के कामकाज को लेकर कृषि मंत्रालय खासा नाराज है। किसानों के हित संरक्षण और कृषि उत्पादों की खरीद करने के लिए गठित इस एजेंसी ने पिछले सालों में गैर कृषि कारोबार में हाथ आजमा कर हजारों करोड़ का नुकसान किया है। लौह अयस्क के आयात-निर्यात में एजेंसी को अच्छा खासा चूना लगा है। नैफेड के इस भ्रष्टाचार से आजिज केंद्र सरकार ने उसकी नकेल कसने की तैयारी कर ली है।
हाल ही में उभरे एक और नए विवाद ने गंभीर रूप पकड़ लिया है। नैफेड के अध्यक्ष व बोर्ड ने नवनियुक्त प्रबंध निदेशक पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर उसे कार्यमुक्त कर दिया गया है। नैफेड में तैनात कई पूर्व अधिकारी जांच के घेरे में हैं। यह मुद्दा समय-समय पर गरम होता रहता है। कभी खराब कपास की खरीद तो कभी सरसों व प्याज की खरीद में घपले को लेकर नैफेड बराबर चर्चा में रहा है। इन सारी गतिविधियों पर लगाम कसने के मकसद से ही कैबिनेट नोट तैयार किया गया है। इसे जल्दी ही अंतिम रूप दे दिए जाने की संभावना है। (Jagran)
नैफेड पर नकेल डालने की तैयारी
नई दिल्ली नैफेड की मनमानी पर अंकुश लगाने के लिए कृषि मंत्रालय ने लगाम कसनी शुरू कर दी है। नैफेड अब सरकार के लिए सिर्फ तिलहन व दलहन की ही खरीद कर सकेगा। इसके इतर उसके अन्य कारोबार करने पर बंदिश लगाने की तैयारी कर ली गई है। कृषि मंत्रालय ने इसका मसौदा तैयार कर लिया है, जिसे जल्दी ही केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी के लिए भेजा जाएगा। खुले बाजार में कीमतें समर्थन मूल्य से नीचे होने की दशा में तिलहन व दलहन की सरकारी खरीद करने वाली नैफेड (नेशनल एग्रीकल्चरल को-ऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन) एक मात्र सरकारी एजेंसी है। कृषि मंत्रालय ने नैफेड के एकाधिकार को भी खत्म करने का फैसला कर लिया है। अब इस कारोबार में नेशनल कंज्यूमर को-ऑपरेटिव फेडरेशन (एनसीसीएफ), सेंट्रल वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन और भारतीय खाद्य निगम जैसी बड़ी एजेंसियों को शामिल करने का प्रस्ताव है। नैफेड के पिछले कुछ सालों के कामकाज को लेकर कृषि मंत्रालय खासा नाराज है। किसानों के हित संरक्षण और कृषि उत्पादों की खरीद करने के लिए गठित इस एजेंसी ने पिछले सालों में गैर कृषि कारोबार में हाथ आजमा कर हजारों करोड़ का नुकसान किया है। लौह अयस्क के आयात निर्यात में एजेंसी को अच्छा खासा चूना लगा है। नैफेड के इस भ्रष्टाचार से आजिज केंद्र सरकार ने उसकी नकेल कसने की तैयारी कर ली है। हाल ही में उभरे एक और नए विवाद ने गंभीर रूप अख्तियार कर लिया है। नैफेड के अध्यक्ष व बोर्ड ने नवनियुक्त प्रबंध निदेशक पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर उसे कार्यमुक्त कर दिया है। जबकि इसमें तैनात कई पूर्व अधिकारी जांच के घेरे में हैं। यह मुद्दा समय-समय पर गरम होता रहता है। कभी खराब कपास की खरीद तो कभी सरसों व प्याज की खरीद में घपले को लेकर नैफेड बराबर चर्चा में रहा है। इन सारी गतिविधियों पर लगाम कसने के मकसद से ही कैबिनेट नोट तैयार किया गया है। इसे जल्दी ही अंतिम रूप दे दिए जाने की संभावना है। (Press Not)
मौजूदा अध्यक्ष के रहते नैफेड को पैकेज नहीं
नई दिल्ली । मौजूदा अध्यक्ष के रहते सरकार ने नैफेड को राहत पैकेज देने से हाथ पीछे खींच लिया है। संस्था में 51 फीसदी की हिस्सेदारी के बदले ही सरकार पैकेज दे सकती है। यह प्रस्ताव देश के प्रमुख सहकारी संगठन नैफेड को भेज दिया गया है। प्रस्ताव पर शुक्रवार को बोर्ड की बैठक में विचार- विमर्श भी किया गया, लेकिन कोई पुख्ता फैसला नहीं लिया जा सका है।
नैफेड के अध्यक्ष बिजेंदर सिंह व पूर्व प्रबंध निदेशक आनंद बोस के बीच की कलह से भी हालत और खराब हुई है। अध्यक्ष की जिद के आगे आनंद को हटना पड़ा। बोस के समर्थन में उतरे कृषि व खाद्य राज्यमंत्री केवी. थॉमस नैफेड बोर्ड से सख्त नाराज हैं। सूत्रों की मानें तो बोस को हटाने के निर्णय के समय शरद पवार के सामने बिजेंदर ने भी कुछ दिनों बाद अपना इस्तीफा सौंप देने का वादा किया था, लेकिन अब वह ना-नुकुर कर रहे हैं।
दरअसल नैफेड अध्यक्ष को हटाने का निर्णय सरकार सीधे तौर पर नहीं कर सकती। उसके लिए नैफेड के निदेशक मंडल की सहमति जरूरी होती है, लेकिन बोर्ड में सरकार के सदस्यों की संख्या न के बराबर है। यही वजह है कि अध्यक्ष पर सरकार दबाव बनाने में नाकाम रही है। इसीलिए अब सरकार ने 1200 करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज के बदले 51 फीसदी हिस्सेदारी मांगी है। इससे साफ है कि अध्यक्ष वही होगा, जिसे सरकार चाहेगी। हालांकि इससे सबसे अधिक फायदा उन कर्मचारियों को होगा, जिनका पिछले 10 साल से वेतन नहीं बढ़ा है।
मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि सिंह पर प्राइवेट कंपनियों को 4,000 करोड़ रुपये का असुरक्षित कर्ज देने के मामले में कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। इस मामले में नैफेड को 1,600 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। इसकी भरपाई के लिए नैफेड को सरकार से राहत पैकेज की सख्त जरूरत है।
कृषि मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी का मानना है कि अगर सरकार ऐसे 'दागी' संस्थानों को राहत देती है, जिसके बोर्ड के ज्यादातर सदस्य अनियमितताओं के आरोपों में घिरे हों तो कई तरह की मुश्किलें पैदा होंगी। उनका कहना है कि ऐसे मामले में संस्था के हित में अध्यक्ष को स्वेच्छा से हट जाना चाहिए। नैफेड में वित्तीय अनियमितताओं की जांच के लिए गठित समितियों ने गैर कारोबारी गठजोड़ पाया, जो नैफेड के नियमों के हिसाब से गलत है। (Jagran)
नैफेड के अध्यक्ष बिजेंदर सिंह व पूर्व प्रबंध निदेशक आनंद बोस के बीच की कलह से भी हालत और खराब हुई है। अध्यक्ष की जिद के आगे आनंद को हटना पड़ा। बोस के समर्थन में उतरे कृषि व खाद्य राज्यमंत्री केवी. थॉमस नैफेड बोर्ड से सख्त नाराज हैं। सूत्रों की मानें तो बोस को हटाने के निर्णय के समय शरद पवार के सामने बिजेंदर ने भी कुछ दिनों बाद अपना इस्तीफा सौंप देने का वादा किया था, लेकिन अब वह ना-नुकुर कर रहे हैं।
दरअसल नैफेड अध्यक्ष को हटाने का निर्णय सरकार सीधे तौर पर नहीं कर सकती। उसके लिए नैफेड के निदेशक मंडल की सहमति जरूरी होती है, लेकिन बोर्ड में सरकार के सदस्यों की संख्या न के बराबर है। यही वजह है कि अध्यक्ष पर सरकार दबाव बनाने में नाकाम रही है। इसीलिए अब सरकार ने 1200 करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज के बदले 51 फीसदी हिस्सेदारी मांगी है। इससे साफ है कि अध्यक्ष वही होगा, जिसे सरकार चाहेगी। हालांकि इससे सबसे अधिक फायदा उन कर्मचारियों को होगा, जिनका पिछले 10 साल से वेतन नहीं बढ़ा है।
मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि सिंह पर प्राइवेट कंपनियों को 4,000 करोड़ रुपये का असुरक्षित कर्ज देने के मामले में कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। इस मामले में नैफेड को 1,600 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। इसकी भरपाई के लिए नैफेड को सरकार से राहत पैकेज की सख्त जरूरत है।
कृषि मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी का मानना है कि अगर सरकार ऐसे 'दागी' संस्थानों को राहत देती है, जिसके बोर्ड के ज्यादातर सदस्य अनियमितताओं के आरोपों में घिरे हों तो कई तरह की मुश्किलें पैदा होंगी। उनका कहना है कि ऐसे मामले में संस्था के हित में अध्यक्ष को स्वेच्छा से हट जाना चाहिए। नैफेड में वित्तीय अनियमितताओं की जांच के लिए गठित समितियों ने गैर कारोबारी गठजोड़ पाया, जो नैफेड के नियमों के हिसाब से गलत है। (Jagran)
नैफेड के खातों की सीएजी द्वारा जांच के लिए उच्च न्यायालय का आदेश
दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय राष्ट्रीय कृषि विपणन संघ (नैफेड) में 900 करोड़ रुपये की वित्तीय अनियमितताओं के आरोप के मामले में जांच के लिए नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) को निर्देश दिया .
अदालत का अवलोकन सार्वजनिक हित (पीआईएल) के एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान आया जिसे विकास जैन ने दायर किया है. मामला की अगली सुनवाई 25 मई को होगी.
जैन के वकील सुग्रीव दुबे ने कहा कि नैफेड ने किसानों के 3700 करोड़ रुपए को अन्य मद मे लगा दिया.
उच्च न्यायालय ने जांच एजेंसी को नैफेड के दोषी अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज करने का निर्देश दिया था. (Bhartiya Shahkari)
अदालत का अवलोकन सार्वजनिक हित (पीआईएल) के एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान आया जिसे विकास जैन ने दायर किया है. मामला की अगली सुनवाई 25 मई को होगी.
जैन के वकील सुग्रीव दुबे ने कहा कि नैफेड ने किसानों के 3700 करोड़ रुपए को अन्य मद मे लगा दिया.
उच्च न्यायालय ने जांच एजेंसी को नैफेड के दोषी अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज करने का निर्देश दिया था. (Bhartiya Shahkari)
नैफेड बोर्ड के आगे पवार की भी नहीं चली
केंद्रीय कृषि व खाद्य मंत्री शरद पवार राजनीतिक रूप से चाहे जितने ताकतवर हों, लेकिन उन्हें अपने मंत्रालय के अधीन कृषि सहकारी संगठन नैफेड के बोर्ड के आगे हार माननी पड़ी। गंभीर विवादों के बीच जिस प्रबंध निदेशक [एमडी] को नैफेड बोर्ड ने हटा दिया है, पवार के हस्तक्षेप के बाद भी उसकी बहाली नहीं हो पा रही है। पवार के जूनियर केंद्रीय मंत्री केवी. थॉमस ने तो दबाव बनाने के लिए नैफेड को बंद करने तक की धमकी दे दी, लेकिन इसका कोई असर नहीं पड़ा है।
लंबे समय से खिंच रहे नैफेड के विवाद को निपटाने के लिए पवार ने बोर्ड के चेयरमैन बिजेंदर सिंह को दो बार बुलाकर मसले को सुलझाने की हिदायत दी। इसके बावजूद चेयरमैन व बोर्ड सदस्यों के जिद के आगे शरद की एक नहीं चली। विजेंदर ने तो पवार के समक्ष अपना इस्तीफा देने पेशकश कर दी। इतना ही नहीं, उन्होंने बोस के कामकाज के तरीकों पर एतराज जताते हुए वापस लेने से साफ मना कर दिया। बोर्ड ने तो अब बर्खास्त तीनों सलाहकारों को भी लेने से इन्कार कर दिया है। अब तो कृषि मंत्रालय में संयुक्त सचिव संदीप चोपड़ा को नैफेड के एमडी का अतिरिक्त का प्रभार भी दे दिया गया है।
पिछले दिनों पूर्व एमडी आनंद बोस को नैफेड बोर्ड ने एक प्रस्ताव पारित कर पद से हटा दिया था। साथ ही बोर्ड ने तीन सलाहकारों को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसके बाद कृषि व खाद्य राज्य मंत्री केवी. थॉमस के इस विवाद में कूद जाने से मामला और उलझ गया था। उन्होंने मंत्रालय की ओर से नैफेड पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। राज्यमंत्री थॉमस ने नैफेड के बंद करने तक की धमकी दे दी। इस सहकारी संगठन के पुनर्गठन के लिए सरकार की ओर से दिए जाने वाले पैकेज को परोक्ष तौर पर रोक दिया गया। इन दबावों के बावजूद नैफेड बोर्ड अपने पारित प्रस्तावों पर अड़ा रहा। (DH1 News)
लंबे समय से खिंच रहे नैफेड के विवाद को निपटाने के लिए पवार ने बोर्ड के चेयरमैन बिजेंदर सिंह को दो बार बुलाकर मसले को सुलझाने की हिदायत दी। इसके बावजूद चेयरमैन व बोर्ड सदस्यों के जिद के आगे शरद की एक नहीं चली। विजेंदर ने तो पवार के समक्ष अपना इस्तीफा देने पेशकश कर दी। इतना ही नहीं, उन्होंने बोस के कामकाज के तरीकों पर एतराज जताते हुए वापस लेने से साफ मना कर दिया। बोर्ड ने तो अब बर्खास्त तीनों सलाहकारों को भी लेने से इन्कार कर दिया है। अब तो कृषि मंत्रालय में संयुक्त सचिव संदीप चोपड़ा को नैफेड के एमडी का अतिरिक्त का प्रभार भी दे दिया गया है।
पिछले दिनों पूर्व एमडी आनंद बोस को नैफेड बोर्ड ने एक प्रस्ताव पारित कर पद से हटा दिया था। साथ ही बोर्ड ने तीन सलाहकारों को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसके बाद कृषि व खाद्य राज्य मंत्री केवी. थॉमस के इस विवाद में कूद जाने से मामला और उलझ गया था। उन्होंने मंत्रालय की ओर से नैफेड पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। राज्यमंत्री थॉमस ने नैफेड के बंद करने तक की धमकी दे दी। इस सहकारी संगठन के पुनर्गठन के लिए सरकार की ओर से दिए जाने वाले पैकेज को परोक्ष तौर पर रोक दिया गया। इन दबावों के बावजूद नैफेड बोर्ड अपने पारित प्रस्तावों पर अड़ा रहा। (DH1 News)
नैफेड जिम्मेदारी टालना छोडे
कृषि सहकारी संस्था नैफेड बिना बोर्ड या सरकार की दिलचस्पी आकृष्ट किए अधर में इंतज़ार कर रहा है. बेल-आउट पैकेज दोनों पक्षों के लिए छलावा बना हुआ है - सरकार और नैफेड-बोर्ड अपने स्टैंड पर अडे हुए हैं.
नुकसान किसका है? वास्तव में न तो सरकार का और न ही नैफेड का. असहाय और मौन किसान, जिसके लिए यह सहकारी संस्था बनी, इसके शिकार बन रहे हैं. लेकिन कौन परवाह करता है?
सूत्रों के अनुसार नैफेड बोर्ड की अंतिम बैठक में बोर्ड उन शर्तों को मानने के लिए तैयार था, जिनसे सरकार को संगठन पर अत्यधिक नियंत्रण रखने का अधिकार प्राप्त हो सकता है. यदि प्रस्ताव स्वीकार हो जाते हैं तो सरकार यह भी सुनिश्चित करेगी कि नैफेड को किसी भी गैर-कोर गतिविधियों में लिप्त न होने दिया जाय, विशेषकर लापरवाह प्रकृति के व्यापारिक गठबन्धन.
सरकारी शर्तों की सूची में 51% इक्विटी का सरकार के पक्ष में हस्तांतरण का मामला शीर्ष पर है जब तक उचित पर्यवेक्षण और वित्तीय अनुशासन की दृष्टि से कृषि मंत्रालय को ऋण का भुगतान कर दिया जाता है.
अन्य शर्तों में नैफेड के बाइ-लॉ में बदलाव की बात शामिल है जिससे कि वह खुद को मुख्य कृषि संबंधी गतिविधियों तक सीमित रहे.
लेकिन अध्यक्ष की शक्ति में कटौती की बात ने मुद्दे को निपटने नहीं दी.
हालांकि विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार वर्तमान अध्यक्ष सहित बोर्ड के अधिकांश सदस्य इस बात पर सहमत थे लेकिन NCUI के अध्यक्ष और नैफेड के उपाध्यक्ष चन्द्रपाल सिंह ने असहमति व्यक्त की और अध्यक्ष के अधिकार को अक्षुण्ण रखना चाहा.
सरकार अपनी ओर से चुप्पी साधे हुए है. पूर्व प्रबंध निदेशक सी.ह्वी.आनंद बोस की बर्खास्तगी के मुद्दे पर अपनी अप्रसन्नता दिखाते हुए सरकार ने अपने पत्ते बन्द रखे हुए हैं. नए प्रबंध निदेशक संजीव चोपड़ा से संपर्क करने के प्रयास व्यर्थ साबित हुए क्योंकि वे प्रेस का सामना करने में झिझक रहे हैं.
इस बीच, सूत्रों के अनुसार, भ्रष्टाचार के मामलों में जांच जारी है जिसके लिए केन्द्रीय पंजीयक प्रत्येक अभियुक्त से व्यक्तिगत रूप से मिल रहे हैं जिससे कि सच्चाई का पता लग सके. पाठकों को ज्ञात होना चाहिए कि जांच समिति ने कुछ निदेशकों और नैफेड के 29 अधिकारियों को नोटिस भेजा है.
नैफेड के मामलों पर नजर रखने वालों को आशंका है कि अभियुक्त सारे आरोप स्व. अजित सिंह पर मढने का प्रयाश करेंगे जो स्वयं को बचाने के लिए जीवित नहीं है. जांच का एक सरल और प्रभावी तरीका यह हो सकता कि अभियुक्त की पूर्व और वर्तमान परिसंपत्तियों की तुलना की जाय. अगर संपत्ति में वृद्धि तर्कसंगत हो तो ठीक वरना उपयुक्त कारवार्ई शुरु कर देनी चाहिए.
नैफेड, जो कभी एक प्रतिष्ठित कृषि सहकारी संस्था थी, का इस स्तर तक पतन भारत में सहकारी आंदोलन के लिए चिंता का विषय. नैफेड का भविष्य अब क्या वास्तव में भगवान के हाथों है? (Bhartiya Sahkari)
नुकसान किसका है? वास्तव में न तो सरकार का और न ही नैफेड का. असहाय और मौन किसान, जिसके लिए यह सहकारी संस्था बनी, इसके शिकार बन रहे हैं. लेकिन कौन परवाह करता है?
सूत्रों के अनुसार नैफेड बोर्ड की अंतिम बैठक में बोर्ड उन शर्तों को मानने के लिए तैयार था, जिनसे सरकार को संगठन पर अत्यधिक नियंत्रण रखने का अधिकार प्राप्त हो सकता है. यदि प्रस्ताव स्वीकार हो जाते हैं तो सरकार यह भी सुनिश्चित करेगी कि नैफेड को किसी भी गैर-कोर गतिविधियों में लिप्त न होने दिया जाय, विशेषकर लापरवाह प्रकृति के व्यापारिक गठबन्धन.
सरकारी शर्तों की सूची में 51% इक्विटी का सरकार के पक्ष में हस्तांतरण का मामला शीर्ष पर है जब तक उचित पर्यवेक्षण और वित्तीय अनुशासन की दृष्टि से कृषि मंत्रालय को ऋण का भुगतान कर दिया जाता है.
अन्य शर्तों में नैफेड के बाइ-लॉ में बदलाव की बात शामिल है जिससे कि वह खुद को मुख्य कृषि संबंधी गतिविधियों तक सीमित रहे.
लेकिन अध्यक्ष की शक्ति में कटौती की बात ने मुद्दे को निपटने नहीं दी.
हालांकि विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार वर्तमान अध्यक्ष सहित बोर्ड के अधिकांश सदस्य इस बात पर सहमत थे लेकिन NCUI के अध्यक्ष और नैफेड के उपाध्यक्ष चन्द्रपाल सिंह ने असहमति व्यक्त की और अध्यक्ष के अधिकार को अक्षुण्ण रखना चाहा.
सरकार अपनी ओर से चुप्पी साधे हुए है. पूर्व प्रबंध निदेशक सी.ह्वी.आनंद बोस की बर्खास्तगी के मुद्दे पर अपनी अप्रसन्नता दिखाते हुए सरकार ने अपने पत्ते बन्द रखे हुए हैं. नए प्रबंध निदेशक संजीव चोपड़ा से संपर्क करने के प्रयास व्यर्थ साबित हुए क्योंकि वे प्रेस का सामना करने में झिझक रहे हैं.
इस बीच, सूत्रों के अनुसार, भ्रष्टाचार के मामलों में जांच जारी है जिसके लिए केन्द्रीय पंजीयक प्रत्येक अभियुक्त से व्यक्तिगत रूप से मिल रहे हैं जिससे कि सच्चाई का पता लग सके. पाठकों को ज्ञात होना चाहिए कि जांच समिति ने कुछ निदेशकों और नैफेड के 29 अधिकारियों को नोटिस भेजा है.
नैफेड के मामलों पर नजर रखने वालों को आशंका है कि अभियुक्त सारे आरोप स्व. अजित सिंह पर मढने का प्रयाश करेंगे जो स्वयं को बचाने के लिए जीवित नहीं है. जांच का एक सरल और प्रभावी तरीका यह हो सकता कि अभियुक्त की पूर्व और वर्तमान परिसंपत्तियों की तुलना की जाय. अगर संपत्ति में वृद्धि तर्कसंगत हो तो ठीक वरना उपयुक्त कारवार्ई शुरु कर देनी चाहिए.
नैफेड, जो कभी एक प्रतिष्ठित कृषि सहकारी संस्था थी, का इस स्तर तक पतन भारत में सहकारी आंदोलन के लिए चिंता का विषय. नैफेड का भविष्य अब क्या वास्तव में भगवान के हाथों है? (Bhartiya Sahkari)
17 जून 2011
सितंबर तक नया रेकॉर्ड बना सकता है सोना
मुंबई/ नई दिल्ली : तमाम टेक्निकल चार्ट भले ही सोने की कीमत घटकर 1,500 डॉलर प्रति औंस (31.10 ग्राम) से नीचे जाने का इशारा कर रहे हों, आम मध्यवर्गीय उपभोक्ता की पहुंच से यह पीली धातु आने वाले दिनों में भी दूर रह सकती है। इसकी वजह यह है कि भारत और चीन की ओर से निचले स्तर पर होने वाली खरीदारी के चलते इसकी कीमत 20,000 रुपये प्रति 10 ग्राम से ऊपर बनी हुई है। एक विदेशी बैंक और दो सरकारी बैंकों के बुलियन डीलर्स ने माना है कि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जून के अंत तक सोने का दाम गिरकर 1,470 डॉलर प्रति औंस के आसपास पहुंच जाए, लेकिन 1,505-1,510 डॉलर प्रति औंस के स्तर पर गोल्ड की फिजिकल खरीदारी इसकी कीमत को मजबूत बनाए रखने में मदद दे रही है। विदेशी बाजारों में सोने का हाजिर भाव करीब 1,518 डॉलर प्रति औंस पर बना हुआ है। मौजूदा वित्त वर्ष के पहले दो महीनों के लिए ज्यादातर सरकारी व्यापार आंकडे़ निचले स्तर पर सोने की खरीदारी के बारे में बुलियन डीलर्स के रुख का समर्थन कर रहे हैं। खासतौर पर मई में, जब सोने का आयात करीब 9 अरब डॉलर पर वैल्यू किया गया, जबकि इसका सालाना औसत करीब 22 अरब डॉलर का होता है।2 मई को गोल्ड की कीमत 1,575 डॉलर प्रति औंस के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई थी, लेकिन परंपरागत धार्मिक आधार पर सोने की खरीदारी का दिन माने जाने वाले अक्षय तृतीया के दिन 5 मई को भाव 110 डॉलर गिरकर 1,465 डॉलर पर आ गया। मई के पहले पखवाड़े में सोने का औसत भाव 1,512 डॉलर प्रति औंस रहा, जबकि जून के पहले पखवाड़े में औसत कीमत 1,533 डॉलर प्रति औंस रही। एक सरकारी बैंक के बुलियन ट्रेडर ने कहा कि सोने की कीमतों में तेज गिरावट और मजबूत रुपए की बदौलत आयात में बढ़ोतरी हुई है। एक बहुराष्ट्रीय बैंक के बुलियन डीलर के मुताबिक, 'टेक्निकल्स के हिसाब से कीमतों में गिरावट लंबे वक्त से तय दिख रही है, लेकिन निचले स्तर पर खरीदारी एक मजबूत अवरोध के तौर पर सामने आ रही है और इस वजह से कीमतों में गिरावट नहीं हो पा रही है। अक्षय तृतीया की वजह से मई में कीमतों में तेज उछाल आया और इससे ही कीमतें गिरकर 1,500 डॉलर प्रति औंस से नीचे आ गईं।' एक और डीलर ने कहा कि सोने की कीमतों में गिरावट हमेशा टेक्निकल स्वरूप में होती है, हालांकि बाजार में उछाल सेंटिमेंट आधारित होता है। ईटी ने जिन तीन डीलरों से बात की, उन्होंने जून अंत तक कीमतों के मौजूदा 1,518-1,520 डॉलर प्रति औंस के स्तर से गिरने की संभावना जताई है, लेकिन उनका अनुमान है कि कीमतें सितंबर तिमाही तक फिर नए रिकॉर्ड पर पहुंच जाएंगी क्योंकि उस वक्त देश के ग्रामीण इलाकों में खर्च शुरू हो जाएगा और साथ ही क्रिसमस से पहले होने वाली खरीदारी भी जोर पकड़ने लगेगी। एक डीलर ने कहा, 'अगर सोना 1,555 डॉलर का स्तर पार कर जाता है तो यह नया रेकॉर्ड बना सकता है। साथ ही, यह कुछ वक्त तक इस स्तर पर कायम भी रह सकता है।' (ET Hindi)
14 जून 2011
अनिश्चितता के चलते फल उत्पादन में आशातीत वृद्धि नहीं
आर.एस. राणा नई दिल्ली
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विरोधाभास - किसानों को फसल से कम फायदा जबकि उपभोक्ताओं के लिए दाम दोगुनेसेब :- नए बाग लगाने के लिए उच्च क्वालिटी के पौधों की कमी है। खाद और दवाइयां भी नहीं मिल रहीं।संतरा :- मौसम में बदलाव के कारण फलों की खेती लाभकारी नहीं है। नई पीढ़ी बागानों में कम रुचि ले रही है।आम:- फलों के उत्पादन में प्रकृति का बड़ा महत्वपूर्ण रोल है। आंधी-तूफान से आम की फसल को काफी नुकसान हुआ। केला :- जलगांव में भाव तेजी से गिरे। दो माह में भाव 600 रुपये से घटकर 400-500 रुपये क्विंटल रह गए।फलों की खेती में मौसम और बाजार संबंधी अनिश्चितता के चलते ज्यादा जोखिम होने के कारण इसका उत्पादन ज्यादा नहीं बढ़ रहा है। फलों की खेती का क्षेत्रफल में भी आशातीन बढ़ोतरी नहीं हो रही है। वर्ष 2010-11 में देश में फलों के बुवाई क्षेत्रफल में केवल 1.9 फीसदी की बढ़ोतरी हुई जबकि इस दौरान फलों के उत्पादन में मात्र पांच फीसदी की बढ़ोतरी का अनुमान है। राष्ट्रीय बागवानी मिशन (एनएचएम) के अनुसार वर्ष 2010-11 में फलों की बुवाई 64.52 लाख हैक्टेयर में हुई है जबकि इस दौरान उत्पादन 7.51 करोड़ टन होने का अनुमान है।
राष्ट्रीय बागवानी मिशन (एनएचएम) के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि वर्ष 2010-11 में फलों की बुवाई 64.52 लाख हैक्टेयर में हुई है जबकि इसके पिछले साल 63.29 लाख हैक्टेयर में हुई थी।
वर्ष 2010-11 में देश में फलों का उत्पादन बढ़कर 7.51 करोड़ टन होने का अनुमान है जबकि इसके पिछले साल 7.15 करोड़ टन का हुआ था। वित्त वर्ष 2011-12 में बागवानी फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों के लिए 1,200 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया गया है। जबकि 2010-11 में 986 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया था जिसमें से 970.86 करोड़ रुपये जारी किए गए।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) में बागवानी विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि जिस अनुपात में जनसंख्या में बढ़ोतरी हो रही है, उसके अनुसार फलों का उत्पादन नहीं बढ़ रहा है। इसके अलावा पिछले दो-तीन सालों में आम आदमी की फल खरीदने की शक्ति भी बढ़ी है। इसीलिए फलों के दाम पिछले दो-तीन साल में लगभग दोगुने हो चुके हैं।
मांग के अनुरूप उत्पादन नहीं बढऩे से उपभोक्ता को महंगे दाम पर फल खरीदने पड़ रहे हैं। दिल्ली में एक दर्जन केले का दाम 40 रुपये, एक किलो आम 50 रुपये, एक किलो लीची 70 रुपये किलो की दर से बिक रही है। हिमाचल प्रदेश में सेब उत्पादक संघ के अध्यक्ष रविंद्र सिंह चौहान ने बताया कि नए बाग लगाने के लिए उच्च क्वालिटी के पौधों की कमी है। साथ ही खाद और दवाइयां उचित मात्रा में नहीं मिलने से उत्पादन प्रभावित होता है।
इसके अलावा नए बाग सीमित मात्रा में लग रहे हैं। आम उत्पादन संघ के अध्यक्ष इंशराम अली ने बताया कि फलों के उत्पादन में प्रकृति का बड़ा महत्वपूर्ण रोल है। चालू सीजन में आंधी-तूफान से आम की फसल को काफी नुकसान हुआ है। फलों की फसलों में जोखिम ज्यादा होने के कारण नए बाग सीमित मात्रा में ही लग रहे हैं।
संतरा उत्पादक संघ के अध्यक्ष मोहनरावजी टोटे ने बताया कि मार्केटिंग की सुविधा नहीं होने के कारण किसानों को औने-पौने दाम पर अपनी फसल बेचनी पड़ती है। इसीलिए नए किसान बागान लगाने में रुचि नहीं ले रहे हैं। फलों की फसलों पर मौसम की मार भी पड़ती रहती है। वर्ष 2008-09 में महाराष्ट्र के विदर्भ में सूखे जैसे हालात बनने से संतरे के करीब 20 हजार बाग सूख गए थे।
जलगांव कि केला किसान भागवत विश्वनाथ पाटिल ने बताया कि मौसम में बदलाव के कारण किसानों के लिए फलों की खेती लाभकारी नहीं रह गई है। इसीलिए नई पीढ़ी बागानों में कम रुचि ले रही है। जलगांव में केला 400 से 500 रुपये क्विंटल की दर से बिक रहा है। पिछले दो महीने में इसकी कीमतों में करीब 600 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आ चुकी है। (Business Bhaskar....R S Rana)
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विरोधाभास - किसानों को फसल से कम फायदा जबकि उपभोक्ताओं के लिए दाम दोगुनेसेब :- नए बाग लगाने के लिए उच्च क्वालिटी के पौधों की कमी है। खाद और दवाइयां भी नहीं मिल रहीं।संतरा :- मौसम में बदलाव के कारण फलों की खेती लाभकारी नहीं है। नई पीढ़ी बागानों में कम रुचि ले रही है।आम:- फलों के उत्पादन में प्रकृति का बड़ा महत्वपूर्ण रोल है। आंधी-तूफान से आम की फसल को काफी नुकसान हुआ। केला :- जलगांव में भाव तेजी से गिरे। दो माह में भाव 600 रुपये से घटकर 400-500 रुपये क्विंटल रह गए।फलों की खेती में मौसम और बाजार संबंधी अनिश्चितता के चलते ज्यादा जोखिम होने के कारण इसका उत्पादन ज्यादा नहीं बढ़ रहा है। फलों की खेती का क्षेत्रफल में भी आशातीन बढ़ोतरी नहीं हो रही है। वर्ष 2010-11 में देश में फलों के बुवाई क्षेत्रफल में केवल 1.9 फीसदी की बढ़ोतरी हुई जबकि इस दौरान फलों के उत्पादन में मात्र पांच फीसदी की बढ़ोतरी का अनुमान है। राष्ट्रीय बागवानी मिशन (एनएचएम) के अनुसार वर्ष 2010-11 में फलों की बुवाई 64.52 लाख हैक्टेयर में हुई है जबकि इस दौरान उत्पादन 7.51 करोड़ टन होने का अनुमान है।
राष्ट्रीय बागवानी मिशन (एनएचएम) के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि वर्ष 2010-11 में फलों की बुवाई 64.52 लाख हैक्टेयर में हुई है जबकि इसके पिछले साल 63.29 लाख हैक्टेयर में हुई थी।
वर्ष 2010-11 में देश में फलों का उत्पादन बढ़कर 7.51 करोड़ टन होने का अनुमान है जबकि इसके पिछले साल 7.15 करोड़ टन का हुआ था। वित्त वर्ष 2011-12 में बागवानी फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों के लिए 1,200 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया गया है। जबकि 2010-11 में 986 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया था जिसमें से 970.86 करोड़ रुपये जारी किए गए।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) में बागवानी विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि जिस अनुपात में जनसंख्या में बढ़ोतरी हो रही है, उसके अनुसार फलों का उत्पादन नहीं बढ़ रहा है। इसके अलावा पिछले दो-तीन सालों में आम आदमी की फल खरीदने की शक्ति भी बढ़ी है। इसीलिए फलों के दाम पिछले दो-तीन साल में लगभग दोगुने हो चुके हैं।
मांग के अनुरूप उत्पादन नहीं बढऩे से उपभोक्ता को महंगे दाम पर फल खरीदने पड़ रहे हैं। दिल्ली में एक दर्जन केले का दाम 40 रुपये, एक किलो आम 50 रुपये, एक किलो लीची 70 रुपये किलो की दर से बिक रही है। हिमाचल प्रदेश में सेब उत्पादक संघ के अध्यक्ष रविंद्र सिंह चौहान ने बताया कि नए बाग लगाने के लिए उच्च क्वालिटी के पौधों की कमी है। साथ ही खाद और दवाइयां उचित मात्रा में नहीं मिलने से उत्पादन प्रभावित होता है।
इसके अलावा नए बाग सीमित मात्रा में लग रहे हैं। आम उत्पादन संघ के अध्यक्ष इंशराम अली ने बताया कि फलों के उत्पादन में प्रकृति का बड़ा महत्वपूर्ण रोल है। चालू सीजन में आंधी-तूफान से आम की फसल को काफी नुकसान हुआ है। फलों की फसलों में जोखिम ज्यादा होने के कारण नए बाग सीमित मात्रा में ही लग रहे हैं।
संतरा उत्पादक संघ के अध्यक्ष मोहनरावजी टोटे ने बताया कि मार्केटिंग की सुविधा नहीं होने के कारण किसानों को औने-पौने दाम पर अपनी फसल बेचनी पड़ती है। इसीलिए नए किसान बागान लगाने में रुचि नहीं ले रहे हैं। फलों की फसलों पर मौसम की मार भी पड़ती रहती है। वर्ष 2008-09 में महाराष्ट्र के विदर्भ में सूखे जैसे हालात बनने से संतरे के करीब 20 हजार बाग सूख गए थे।
जलगांव कि केला किसान भागवत विश्वनाथ पाटिल ने बताया कि मौसम में बदलाव के कारण किसानों के लिए फलों की खेती लाभकारी नहीं रह गई है। इसीलिए नई पीढ़ी बागानों में कम रुचि ले रही है। जलगांव में केला 400 से 500 रुपये क्विंटल की दर से बिक रहा है। पिछले दो महीने में इसकी कीमतों में करीब 600 रुपये प्रति क्विंटल की गिरावट आ चुकी है। (Business Bhaskar....R S Rana)
09 जून 2011
बर्बादी और परिवहन खर्च से बढ़ी सब्जी उत्पादन की मुश्किलें
सब्जियों की पैदावार और उत्पादन के इलाके के मामले में भारत सिर्फ चीन से पीछे है। फूलगोभी की पैदावार में भारत सबसे आगे हैं। वहीं, प्याज की खेती में दूसरे और पत्ता गोभी के मामले में यह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है। देश के लगभग 63 लाख हेक्टेयर इलाके में करीब 9.30 करोड़ टन सब्जियों की खेती होती है। दिलचस्प है कि शांगडॉन्ग प्रांत में सब्जियों की खेती करने वाले एक किसान की आत्महत्या के बाद चीन गंभीर सामाजिक चुनौती से जूझ रहा है। पिछले साल जब सब्जियों की कीमतों में तेजी आई तो किसानों ने इस उम्मीद से बड़े पैमाने पर पत्ता गोभी की खेती की कि उन्हें अच्छी कीमत हासिल होगी। हालांकि, पत्ता गोभी की पैदावार बहुत ज्यादा होने की वजह से आपूर्ति ज्यादा और मांग कम हो गई। नतीजतन, बाजार में आए पत्ता गोभी के थोक भाव में जबरदस्त गिरावट आई। मांग में जबरदस्त से एक किसान की पूरी खेप सड़ गई। नतीजतन उस निराश किसान ने आत्महत्या कर ली। भारत में फलों और सब्जियों का रोजाना का कारोबार 275 करोड़ रुपए का है। इनमें से आमतौर पर हर दिन 130 करोड़ रुपए की फल और सब्जियां 'बर्बाद' हो जाती हैं। दुनिया के कुल सब्जी उत्पादन का करीब 15 फीसदी भारत में होने के बावजूद निर्यात में इसकी हिस्सेदारी बहुत मामूली 1.5 फीसदी है। भारतीय सब्जी बाजार में छोटे उत्पादकों की पकड़ है। देश में अनाज से होने वाली आमदनी कम है। यही वजह है कि ज्यादा आमदनी के लिए किसान महंगी सब्जियों का उत्पादन कर रहे हैं। चीन में मुद्रास्फीति, खासतौर पर खाने-पीने की चीजों में महंगाई होने के बावजूद सब्जियों की कीमतों में हैरतअंगेज गिरावट चिंता का मुद्दा बन गया है। भारत की तरह चीनी किसान भी छोटे पैमाने पर सब्जियों की खेती करते हैं, जबकि घरेलू सब्जियों का बाजार काफी बड़ा है। इस वजह से आपूर्ति और मांग के बीच लगातार असंतुलन बना रहता है। नतीजतन, चीन की अर्थव्यवस्था मुक्त होने के बावजूद सब्जियों की कीमतों में बड़े पैमाने पर उतार-चढ़ाव होता है। चीन के किसानों को अपनी सब्जियों के लिए बहुत कम कीमत हासिल हो रही है, क्योंकि उत्पादन बहुत ज्यादा हो गया है और मांग में उस अनुपात से तेजी नहीं आई है। सब्जियों की कुल लागत का करीब दो तिहाई हिस्सा देश भर में सब्जियों के परिवहन पर खर्च होता है। परिवहन खर्च के अलावा हाईवे और टॉल ब्रिज पर शुल्क भुगतान से कुल लागत का दो तिहाई रकम परिवहन पर खर्च होता है। दिलचस्प है कि दुनिया भर की 70 फीसदी टोल सड़कें चीन में हैं। हाल के सालों में दुनिया भर के कई प्रांतों में सब्जियों की खेती और मजदूरी का खर्च बढ़ा है। शहर के बाजारों में सब्जियों और फलों की कीमतों में भी तेजी बरकरार है। खेत से बाजार तक सब्जियां आने में बिचौलिए भी हैं, जिससे भी लागत में बढ़ोतरी और अंतर है। सब्जियों की बर्बादी और आधुनिक भंडारगृह की बात करते हुए आमतौर पर हम यह भूल जाते हैं कि खेत में सब्जियों की कीमतें और उसके बाजार भाव में परिवहन खर्च की वजह से जमीन आसमान का अंतर है। भारत का हाल भी चीन की तरह है। दोनों जगह कुल लागत का 30 फीसदी रकम सब्जियों के परिवहन पर खर्च होता है। इसके अलावा 45 फीसदी लागत सब्जियों की बर्बादी के नाम रहता है। इन सब की वजह से ग्राहकों की जेब पर सब्जियों के खर्च का बोझ बढ़ जाता है, लेकिन इसका फायदा किसानों तक नहीं पहुंच पाता है। पेट्रोलियम की कीमतों में 5 रुपए प्रति लीटर का इजाफा होने से ग्राहकों और वितरकों की मुश्किल और बढ़ गई है, क्योंकि परिवहन खर्च बढ़ने से सब्जियों की लागत और बढ़ गई है। (ET Hindi)
08 जून 2011
पावर एक्सचेंजों में बोली के लिए होंगे 15 मिनट
मुंबई June 06, 2011
केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग (सीईआरसी) ने पावर एक्सचेंजों को बोली का समय एक घंटे से घटाकर 15 मिनट करने को कहा है। वहीं, नियामक ने पावर एक्सचेंजों में सायंकालीन ट्रेडिंग के प्रस्ताव को फिलहाल टाल दिया है। अधिकारियों ने कहा कि बोली में भाग लेने वालों के लिए समय में कटौती करने का मकसद बिजली बाजार के ढांचे में सुधार लाना है और एक्सचेंजों को प्रक्रियागत विवरण तैयार करने के लिए इस महीने के अंत तक का समय दिया गया है। एक अधिकारी ने बताया कि 'इससे बाजार में केवल निश्चित समय पर ऊर्जा की फिजिकली डिलिवरी का ही कारोबार हो सकेगा। इससे एक्सचेंज से बिजली खरीदने वालों के लिए अनिश्चितता खत्म हो जाएगी। कम समय और वास्तविक बोली और उपलब्धता से निर्माताओं को भी बिजली की उचित कीमत मिल सकेगी' अधिकारी ने कहा कि ओटीसी बाजार में बोली के समय को घटाकर 15 मिनट करने से एक्सचेंजों में बिजली की खरीद और द्विपक्षीय या बाजार से इतर सौदों के बीच कीमत अंतर कम हो जाएगा। उन्होंने कहा कि रिन्यूएबल संसाधनों पर आधारित बिजली को बढ़ावा मिलेगा, क्योंकि अनुबंध करने और पवन ऊर्जा व सोलर ऊर्जा की वास्तवित डिलिवरी के समय में कमी आएगी। उन्होंने कहा कि एक घंटे का समय बहुत अधिक होता है, क्योंकि ये दोनों पवन की गति और सूर्य की रोशनी पर आधारित प्राकृतिक संसाधन हैं, जो मानव के वश में नहीं हैं। सायंकालीन ट्रेडिंग के बारे में सीईआरसी का यह मानना है कि सुबह का बाजार ही कारोबार के लिए पर्याप्त है और अभी तरलता काफी कम है। एक उच्च अधिकारी ने कहा कि सायंकालीन बाजार शुरू करने से बाजार की तरलता खत्म हो जाएगी। सुबह के सत्र में प्राइस डिस्कवरी पर विपरीत असर पड़ेगा। इसके अलावा सीईआरसी ने पावर एक्सचेंजों को इंट्रा-डे में कम तरलता पर एक रिपोर्ट तैयार करने को कहा है। एक्सचेंजों ने लेन-देन के लिए एक अलग क्लीयरिंग हाउस के गठन का भी आग्रह किया है। एक अधिकारी के मुताबिक, 'ट्रेडिंग एक्सचेंज से अलग एक क्लीयरिंग हाउस स्थापित करने की मांग की गई। इस पर कार्य करने के लिए एक्सचेंजों के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित की गई है। हालांकि आयोग की विद्युत नियामक निर्देशों में इसका प्रावधान किया गया है, लेकिन इसकी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है।' (BS Hindi)
केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग (सीईआरसी) ने पावर एक्सचेंजों को बोली का समय एक घंटे से घटाकर 15 मिनट करने को कहा है। वहीं, नियामक ने पावर एक्सचेंजों में सायंकालीन ट्रेडिंग के प्रस्ताव को फिलहाल टाल दिया है। अधिकारियों ने कहा कि बोली में भाग लेने वालों के लिए समय में कटौती करने का मकसद बिजली बाजार के ढांचे में सुधार लाना है और एक्सचेंजों को प्रक्रियागत विवरण तैयार करने के लिए इस महीने के अंत तक का समय दिया गया है। एक अधिकारी ने बताया कि 'इससे बाजार में केवल निश्चित समय पर ऊर्जा की फिजिकली डिलिवरी का ही कारोबार हो सकेगा। इससे एक्सचेंज से बिजली खरीदने वालों के लिए अनिश्चितता खत्म हो जाएगी। कम समय और वास्तविक बोली और उपलब्धता से निर्माताओं को भी बिजली की उचित कीमत मिल सकेगी' अधिकारी ने कहा कि ओटीसी बाजार में बोली के समय को घटाकर 15 मिनट करने से एक्सचेंजों में बिजली की खरीद और द्विपक्षीय या बाजार से इतर सौदों के बीच कीमत अंतर कम हो जाएगा। उन्होंने कहा कि रिन्यूएबल संसाधनों पर आधारित बिजली को बढ़ावा मिलेगा, क्योंकि अनुबंध करने और पवन ऊर्जा व सोलर ऊर्जा की वास्तवित डिलिवरी के समय में कमी आएगी। उन्होंने कहा कि एक घंटे का समय बहुत अधिक होता है, क्योंकि ये दोनों पवन की गति और सूर्य की रोशनी पर आधारित प्राकृतिक संसाधन हैं, जो मानव के वश में नहीं हैं। सायंकालीन ट्रेडिंग के बारे में सीईआरसी का यह मानना है कि सुबह का बाजार ही कारोबार के लिए पर्याप्त है और अभी तरलता काफी कम है। एक उच्च अधिकारी ने कहा कि सायंकालीन बाजार शुरू करने से बाजार की तरलता खत्म हो जाएगी। सुबह के सत्र में प्राइस डिस्कवरी पर विपरीत असर पड़ेगा। इसके अलावा सीईआरसी ने पावर एक्सचेंजों को इंट्रा-डे में कम तरलता पर एक रिपोर्ट तैयार करने को कहा है। एक्सचेंजों ने लेन-देन के लिए एक अलग क्लीयरिंग हाउस के गठन का भी आग्रह किया है। एक अधिकारी के मुताबिक, 'ट्रेडिंग एक्सचेंज से अलग एक क्लीयरिंग हाउस स्थापित करने की मांग की गई। इस पर कार्य करने के लिए एक्सचेंजों के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित की गई है। हालांकि आयोग की विद्युत नियामक निर्देशों में इसका प्रावधान किया गया है, लेकिन इसकी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है।' (BS Hindi)
बिहार में बारिश से मक्के की फसल बर्बाद
मुंबई June 06, 2011
देश के चौथे सबसे बड़े मक्का उत्पादक राज्य बिहार में मॉनसून पूर्व की बारिश और अंधड़ से मक्के की 5 फीसदी खड़ी हुई फसल खराब हुई है। फसल में फफूंदी लगने की भी खबरें हैं, जिसके कारण भविष्य में नुकसान बढ़ सकता है। विशेषज्ञों द्वारा फसल के नुकसान की मात्रा का आकलन अभी नहीं किया जा सका है, क्योंकि लगातार बारिश जारी है। लेकिन उनका मानना है राज्य में कुल फसल के 60 फीसदी भाग का प्रसंस्करण किया जा चुका है और यह विपणन के लिए तैयार है। राज्य में बाकी की 40 फीसदी फसल में भारी नुकसान होने की चिंताएं हैं। मक्का की बुआई और कटाई गर्मी और सर्दी दोनों ही ऋतुओं में होती है। बिहार में इसकी कटाई अपने अंतिम चरण में है, जबकि दक्षिण और पश्चिमी भारत में मॉनसून के पहुंचने के साथ ही बुआई शुरू होने वाली है। फसल के नुकसान का प्रभाव हाजिर बाजार में मक्का के भावों पर भी दिखने लगा है। औद्योगिक गुणवत्ता वाली मक्का के दाम पिछले कुछ दिनों में 20-40 रुपये प्रति क्विंटल बढ़कर निजामाबाद में फिलहाल 1,174.75 रुपये प्रति क्विंटल पर कारोबार कर रहे हैं। इसी तरह बिहार में भी अच्छी मक्का के भाव बढ़कर 1,070 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे हैं। निजामाबाद मंडी में किसानों और स्टॉकिस्टों ने बंपर पैदावार के अनुमानों से पिछले साल के स्टॉक की बिक्री शुरू कर दी है। इस बार मौसमी बारिश भारत में निर्धारित समय से एक सप्ताह पहले ही शुरू हो गई है। इससे किसानों और कारोबारियों को पूरे साल मॉनसून अनुकूल रहने की उम्मीद है। स्थानीय मक्का की गुणवत्ता बिहार आदि दूरस्थ क्षेत्रों से आयातित फसल से बेहतर है। इसके कारण स्थानीय मक्का आयातित मक्का के बजाए अच्छे भावों पर बिक रही है। आंध्र प्रदेश में बुआई का सीजन प्रारंभ होने से अगली फसल चार महीनों में बाजार में आने की संभावना है। आंध्र प्रदेश के बुआई वाले क्षेत्रों में मक्के की बुआई शुरू हो चुकी है और अगले 15-20 दिन में समाप्त होने की संभावना है। दामगिरी स्थित विजया एंड कंपनी के विजय ने कहा कि 'बिहार में फसल के नुकसान के कारण कीमतों में बढ़ोतरी हो चुकी है, लेकिन मक्का के भाव इस स्तर से ऊपर जाने की संभावना नहीं है।'ऐंजल कमोडिटीज की एक विश्लेषक नलिनी राव का कहना है कि 'अधिक क्षेत्रफल में मक्का की फसल के नुकसान के अनुमान से अगर इसके दाम 1,300 रुपये प्रति क्विंटल को पार करते हैं तो इस महीने के अंत तक मक्का के जुलाई अनुबंध घटकर 1,260 रुपये प्रति क्विंटल पर आ जाएंगे। राव ने कहा कि अगर आंध्र प्रदेश में बारिश में देरी हुई तो मक्का का क्षेत्रफल घट सकता है, लेकिन अभी तक बारिश में देरी के कोई संकेत नहीं हैं। बंपर घरेलू उत्पादन की बदौलत भारत का मक्का निर्यात अक्टूबर में समाप्त होने वाले विपणन वर्ष 2010-11 में 33 फीसदी बढ़कर 24 लाख टन रहने की संभावना है। यूएस ग्रेन काउंसिल (यूएसजीसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, विपणन वर्ष 2009-10 (नवंबर-अक्टूबर) में भारत ने 18 लाख टन मक्के का निर्यात किया था। कृषि मंत्रालय के तीसरे अनुमानों के मुताबिक, देश में मक्का का उत्पादन 2010-11 के सत्र में 202.3 लाख टन के आंकड़े को छूने की संभावना है, जिसमें से 158.7 लाख टन का उत्पादन खरीफ सत्र में हुआ है। लेकिन कारोबारियों का मानना है कि देश में मक्का का कुुल उत्पादन सरकारी अनुमानों से कम रहेगा और इसके 185 लाख टन रहने का अनुमान हैै। 2009-10 के सीजन में भारत में मक्के का कुल उत्पादन 167.2 लाख टन रहा था। (BS Hindi)
देश के चौथे सबसे बड़े मक्का उत्पादक राज्य बिहार में मॉनसून पूर्व की बारिश और अंधड़ से मक्के की 5 फीसदी खड़ी हुई फसल खराब हुई है। फसल में फफूंदी लगने की भी खबरें हैं, जिसके कारण भविष्य में नुकसान बढ़ सकता है। विशेषज्ञों द्वारा फसल के नुकसान की मात्रा का आकलन अभी नहीं किया जा सका है, क्योंकि लगातार बारिश जारी है। लेकिन उनका मानना है राज्य में कुल फसल के 60 फीसदी भाग का प्रसंस्करण किया जा चुका है और यह विपणन के लिए तैयार है। राज्य में बाकी की 40 फीसदी फसल में भारी नुकसान होने की चिंताएं हैं। मक्का की बुआई और कटाई गर्मी और सर्दी दोनों ही ऋतुओं में होती है। बिहार में इसकी कटाई अपने अंतिम चरण में है, जबकि दक्षिण और पश्चिमी भारत में मॉनसून के पहुंचने के साथ ही बुआई शुरू होने वाली है। फसल के नुकसान का प्रभाव हाजिर बाजार में मक्का के भावों पर भी दिखने लगा है। औद्योगिक गुणवत्ता वाली मक्का के दाम पिछले कुछ दिनों में 20-40 रुपये प्रति क्विंटल बढ़कर निजामाबाद में फिलहाल 1,174.75 रुपये प्रति क्विंटल पर कारोबार कर रहे हैं। इसी तरह बिहार में भी अच्छी मक्का के भाव बढ़कर 1,070 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे हैं। निजामाबाद मंडी में किसानों और स्टॉकिस्टों ने बंपर पैदावार के अनुमानों से पिछले साल के स्टॉक की बिक्री शुरू कर दी है। इस बार मौसमी बारिश भारत में निर्धारित समय से एक सप्ताह पहले ही शुरू हो गई है। इससे किसानों और कारोबारियों को पूरे साल मॉनसून अनुकूल रहने की उम्मीद है। स्थानीय मक्का की गुणवत्ता बिहार आदि दूरस्थ क्षेत्रों से आयातित फसल से बेहतर है। इसके कारण स्थानीय मक्का आयातित मक्का के बजाए अच्छे भावों पर बिक रही है। आंध्र प्रदेश में बुआई का सीजन प्रारंभ होने से अगली फसल चार महीनों में बाजार में आने की संभावना है। आंध्र प्रदेश के बुआई वाले क्षेत्रों में मक्के की बुआई शुरू हो चुकी है और अगले 15-20 दिन में समाप्त होने की संभावना है। दामगिरी स्थित विजया एंड कंपनी के विजय ने कहा कि 'बिहार में फसल के नुकसान के कारण कीमतों में बढ़ोतरी हो चुकी है, लेकिन मक्का के भाव इस स्तर से ऊपर जाने की संभावना नहीं है।'ऐंजल कमोडिटीज की एक विश्लेषक नलिनी राव का कहना है कि 'अधिक क्षेत्रफल में मक्का की फसल के नुकसान के अनुमान से अगर इसके दाम 1,300 रुपये प्रति क्विंटल को पार करते हैं तो इस महीने के अंत तक मक्का के जुलाई अनुबंध घटकर 1,260 रुपये प्रति क्विंटल पर आ जाएंगे। राव ने कहा कि अगर आंध्र प्रदेश में बारिश में देरी हुई तो मक्का का क्षेत्रफल घट सकता है, लेकिन अभी तक बारिश में देरी के कोई संकेत नहीं हैं। बंपर घरेलू उत्पादन की बदौलत भारत का मक्का निर्यात अक्टूबर में समाप्त होने वाले विपणन वर्ष 2010-11 में 33 फीसदी बढ़कर 24 लाख टन रहने की संभावना है। यूएस ग्रेन काउंसिल (यूएसजीसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, विपणन वर्ष 2009-10 (नवंबर-अक्टूबर) में भारत ने 18 लाख टन मक्के का निर्यात किया था। कृषि मंत्रालय के तीसरे अनुमानों के मुताबिक, देश में मक्का का उत्पादन 2010-11 के सत्र में 202.3 लाख टन के आंकड़े को छूने की संभावना है, जिसमें से 158.7 लाख टन का उत्पादन खरीफ सत्र में हुआ है। लेकिन कारोबारियों का मानना है कि देश में मक्का का कुुल उत्पादन सरकारी अनुमानों से कम रहेगा और इसके 185 लाख टन रहने का अनुमान हैै। 2009-10 के सीजन में भारत में मक्के का कुल उत्पादन 167.2 लाख टन रहा था। (BS Hindi)
06 जून 2011
जिंस वायदा के उदारीकरण में जुटा एफएमसी
मुंबई June 02, 2011
जिंस वायदा बाजार नियामक वायदा बाजार आयोग (एफएमसी) ने जिंस वायदा कारोबार के उदारीकरण के लिए कई कदम उठाने का फैसला किया है। सभी जिंस एक्सचेंजों के लिए एकसमान जुर्माने का ढांचा तैयार करने की खातिर एफएमसी ने दिशा-निर्देशों का मसौदा बनाने की योजना बना रहा है। मौजूदा समय में जुर्माने का फैसला एक्सचेंज विशेष करता है और यह एक्सचेंज प्लैटफॉर्म पर कारोबारी की गलती और प्रदर्शन पर निर्भर करता है। ऐसे में जुर्माना हर मामले में अलग-अलग होता है।दूसरा, बुधवार देर शाम आयोजित एक्सचेंज के अधिकारियों की बैठक में नियामक ने नो योअर क्लाइंट (केवाईसी) के नियमों को कारोबारियों के और ज्यादा अनुकूल बनाने के प्रति बचनबद्धता जाहिर की है। कारोबारियों और एक्सचेंज के अधिकारियों को लगता है कि केवाईसी नियमों में अस्पष्टता ने कारोबार को मुश्किल बना दिया है, इसलिए उन्होंने इसके सरलीकरण की मांग की है।इसके साथ ही एफएमसी ने जिंस वायदा कारोबार में आमूल बदलाव की खातिर अन्य नियमों की देखरेख के लिए अनुभवी सदस्य डी एस कमलाकर की अध्यक्षता में अधिकारियों की एक कमेटी बनाई है। कमलाकर की अध्यक्षता वाली कमेटी सोयाबीन व सोया तेल जैसे अंतरराष्ट्रीय जिंसों के लिए कारोबारी समय का विस्तार 5 बजे से रात 11.30 करने जैसे मुद्दे पर नियामक को सहयोग दे सकता है। कारोबारियों को लगता है कि इन जिंसों का कारोबार वैश्विक स्तर पर होता है और भारतीय एक्सचेंज अमेरिका व यूरोपीय यूनियन जैसे विकसित देशों में एक्सचेंज खुलने के पहले ही बंद हो जाते हैं।ऐसे में घरेलू एक्सचेंज में अनुबंध या तो प्रीमियम पर होते हैं या फिर छूट पर, जो वैश्विक बाजार में होने वाले उतारचढ़ाव पर निर्भर करता है। उस समय हालांकि लाभ मिलता दिखता है, लेकिन इसके फंडामेंटल्स सामान्यत: बदल जाते हैं। इसलिए भारतीय कारोबारी वैश्विक कारोबारी समय के दौरान कीमतों में होने वाले उतारचढ़ाव से वस्तुत: दूर रहते हैं। लेकिन एफएमसी चेयरमैन बी सी खटुआ ने इस मुद्दे पर अंतिम फैसला लेने से पहले और ज्यादा बातचीत पर जोर दे रहे हैं।माना जा रहा है कि खटुआ ने कोमलकर को निर्देश दिया है कि मार्केट मेकर्स की नियुक्ति, सोने-चांदी व ऊर्जा कारोबार पर लेन-देन शुल्क घटाने, एकसमान पोजिशन सीमा आदि जैसे मुद्दों पर वह सभी जिंस एक्सचेंजों के बीच आमराय बनाने की कोशिश करे। लेकिन एक्सचेंज के विभिन्न अधिकारी इन मुद्दों के प्रति आशंकित हैं।मार्केट मेकर्स की बाबत एक्सचेंज के अधिकारियों का तर्क है कि जिंस वायदा बाजार ऐसी व्यवस्था के लिए अभी पर्याप्त रूप से परिपक्व नहीं हुआ है। विदेश से इस व्यवस्था की प्रतिकृति किसी एक एक्सचेंज में कारोबार होने वाली किसी एक जिंस में नहीं दोहराई जा सकती। भारत में हालांकि एक जिंस का कारोबार विभिन्न एक्सचेंजों में होता है और दुर्भाग्य से किसी एक एक्सचेंज में वह तरल (लिक्विड) होता है जबकि दूसरे में नहीं। ऐसे में मार्केट मेकर्स को प्रोत्साहन देने से एक एक्सचेंज का कारोबार व मात्रा दूसरे एक्सचेंज द्वारा छीन लिया जाएगा और एक्सचेंजों के बीच विवाद उसी रफ्तार से बढ़ेगा, जो जिंस वायदा कारोबार के लिए अच्छा नहीं होगा।जिंस एक्सचेंजों की स्थापना शुरुआती दौर में कृषि जिंसों को प्रोत्साहित करने ेक लिए हुई थी। ऐसे में गैर-कृषि जिंसों के लिए लेन-देन शुल्क में कमी लाने का मतलब होगा जिंस वायदा के प्राथमिक मकसद को कुचल देना। इसके उलट कई एक्सचेंज के अधिकारियों ने कहा था कि खुदरा सहभागिता बढ़ाने के लिए कृषि जिंसों के लेन-देन शुल्क में कमी लाई जाए।एकसमान पोजिशन सीमा के लिए कारोबार का पता लगाना काफी मुश्किल है, जब तक कि सेबी की तरह एफएमसी केंद्रीकृत सर्वर के जरिए पूरे कारोबार की निगरानी न करे। चूंकि हर एक्सचेंज की पोजिशन सीमा अलग-अलग होती है, लिहाजा हर एक्सचेंज के लिए हर जिंस में एकसमान पोजिशन सीमा तय करना अव्यवहारिक होगा। हालांकि इस बैठक में कृषि जिंसों के मिनी कॉन्ट्रैक्ट पेश करने जैसे मुद्दों पर भी चर्चा हुई, लेकिन इस पर कोई आमराय नहीं बन पाई।स्टांप ड्यूटी में बढ़ोतरी टलीमहाराष्ट्र सरकार ने जिंस वायदा कारोबार में स्टांप ड््यूटी में प्रस्तावित बढ़ोतरी को फिलहाल टाल दिया है। राज्य सरकार ने हालांकि नई तारीख की घोषणा नहींं की है, लेकिन इस कदम से कारोबारियों को बड़ी राहत मिली है। इसकी पुष्टि करते हुए एफएमसी के चेयरमैन बी सी खटुआ ने कहा - जिंस एक्सचेंजों की बात सरकार के सामने रखने में नियामक उसकी अगुआई कर रहा था और राज्य के वित्त मंत्री से लगातार संपर्क में था। उन्होंने कहा - यह अच्छा हुआ कि सरकार ने फैसला टाल दिया है। खटुआ ने कहा कि नई तारीख पर फैसला लेने से पहले सरकार एफएमसी से संपर्क करेगी। 23 मार्च को पेश बजट में सरकार ने जिंस कारोबार में हर एक लाख के लेनदेन पर 5 रुपये की स्टांप ड्यूटी लगाने का प्रस्ताव रखा था, जो मौजूदा प्रति लाख 1 रुपये के मुकाबले काफी ज्यादा है। इसे 1 जून से लागू किया जाना था। महाराष्ट्र में पंजीकृत ब्रोकरों को इस निर्देश का पालन करना था, अगर उन्हें अपनी दुकानें बंद न करनी हों तो। महाराष्ट्र के ब्रोकरों को इसका भार अपने क्लाइंट पर डालना होगा। 5 रुपये प्रति लाख के कारोबार पर या 0.005 फीसदी सभी नकद व डेरिवेटिव लेनदेन पर (डिलिवरी व गैर-डिलिवरी दोनों पर)।आदर्श रूप में लेनदेन की लागत का भार उपभोक्ताओं पर डाला जाएगा क्योंकि लेनदेन शुल्क बढऩे के बाद जिंस की लागत काफी ज्यादा बढ़ जाएगी।एमसीएक्स के प्रबंध निदेशक और सीईओ लेमन रूटेन ने कहा - स्टांप ड््यूटी में प्रस्तावित बढ़ोतरी को टाल देने के महाराष्ट्र सरकार के फैसले का मैं स्वागत करता हूं। इससे राज्य को अन्य प्रतिस्पर्धी राज्यों से नए कारोबारियों को मुंबई व राज्य के दूसरे हिस्से में आने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा। साथ ही जिंस वायदा कारोबार भारतीय की विकास दर में और ज्यादा योगदान दे पाएगा।फिलहाल, जिंस एक्सचेंज प्रति करोड़ रुपये के कारोबार पर 200 रुपये शुल्क वसूलते हैं। अगर सरकार ने ड्यूटी में बढ़ोतरी की तो शुल्क बढ़कर 700 रुपये प्रति करोड़ हो जाएगा, जो देश में सबसे महंगा होगा। इससे डब्बा कारोबार को भी प्रोत्साहन मिलेगा। एनसीडीईएक्स के चीफ बिजनेस अफसर विजय कुमार ने कहा कि इस फैसले के टलने से हेजर्स व सटोरियों को लाभ मिलेगा और वे जिंस बाजार में बिना किसी परेशानी के कारोबार कर पाएंगे।कई ब्रोकिंग फर्म महाराष्ट्र से अपना कारोबार समेटकर गुजरात जाने लगे थे क्योंकि वहां स्टांप ड्यूटी न के बराबर है। गुजरात सरकार ने महाराष्ट्र के कारोबारियों को आकर्षित करने के लिए राज्य में बड़ा बिजनेस पार्क स्थापित किया है। ऐश डेरिवेटिव ऐंड कमोडिटी एक्सचेंज के सीईओ दिलीप भाटिया ने कहा कि इससे महाराष्ट्र के बाहर कारोबार करने की इच्छा रखने वाले अब वहीं रूक जाएंगे यानी वहीं उनका कारोबार चलता रहेगा।पिछले दो महीने में जिंस वायदा कारोबार की मात्रा में करीब 50 फीसदी की उछाल आई है और यह 70,000 करोड़ रुपये पर पहुंच गई है जबकि पहले 40,000-45,000 करोड़ रुपये था। ऐंजल ब्रोकिंग के सहायक निदेशक (कमोडिटी) नवीन माथुर ने कहा कि इस फैसले से कम से कम अनिश्चितता दूर हो गई है। (BS Hindi)
जिंस वायदा बाजार नियामक वायदा बाजार आयोग (एफएमसी) ने जिंस वायदा कारोबार के उदारीकरण के लिए कई कदम उठाने का फैसला किया है। सभी जिंस एक्सचेंजों के लिए एकसमान जुर्माने का ढांचा तैयार करने की खातिर एफएमसी ने दिशा-निर्देशों का मसौदा बनाने की योजना बना रहा है। मौजूदा समय में जुर्माने का फैसला एक्सचेंज विशेष करता है और यह एक्सचेंज प्लैटफॉर्म पर कारोबारी की गलती और प्रदर्शन पर निर्भर करता है। ऐसे में जुर्माना हर मामले में अलग-अलग होता है।दूसरा, बुधवार देर शाम आयोजित एक्सचेंज के अधिकारियों की बैठक में नियामक ने नो योअर क्लाइंट (केवाईसी) के नियमों को कारोबारियों के और ज्यादा अनुकूल बनाने के प्रति बचनबद्धता जाहिर की है। कारोबारियों और एक्सचेंज के अधिकारियों को लगता है कि केवाईसी नियमों में अस्पष्टता ने कारोबार को मुश्किल बना दिया है, इसलिए उन्होंने इसके सरलीकरण की मांग की है।इसके साथ ही एफएमसी ने जिंस वायदा कारोबार में आमूल बदलाव की खातिर अन्य नियमों की देखरेख के लिए अनुभवी सदस्य डी एस कमलाकर की अध्यक्षता में अधिकारियों की एक कमेटी बनाई है। कमलाकर की अध्यक्षता वाली कमेटी सोयाबीन व सोया तेल जैसे अंतरराष्ट्रीय जिंसों के लिए कारोबारी समय का विस्तार 5 बजे से रात 11.30 करने जैसे मुद्दे पर नियामक को सहयोग दे सकता है। कारोबारियों को लगता है कि इन जिंसों का कारोबार वैश्विक स्तर पर होता है और भारतीय एक्सचेंज अमेरिका व यूरोपीय यूनियन जैसे विकसित देशों में एक्सचेंज खुलने के पहले ही बंद हो जाते हैं।ऐसे में घरेलू एक्सचेंज में अनुबंध या तो प्रीमियम पर होते हैं या फिर छूट पर, जो वैश्विक बाजार में होने वाले उतारचढ़ाव पर निर्भर करता है। उस समय हालांकि लाभ मिलता दिखता है, लेकिन इसके फंडामेंटल्स सामान्यत: बदल जाते हैं। इसलिए भारतीय कारोबारी वैश्विक कारोबारी समय के दौरान कीमतों में होने वाले उतारचढ़ाव से वस्तुत: दूर रहते हैं। लेकिन एफएमसी चेयरमैन बी सी खटुआ ने इस मुद्दे पर अंतिम फैसला लेने से पहले और ज्यादा बातचीत पर जोर दे रहे हैं।माना जा रहा है कि खटुआ ने कोमलकर को निर्देश दिया है कि मार्केट मेकर्स की नियुक्ति, सोने-चांदी व ऊर्जा कारोबार पर लेन-देन शुल्क घटाने, एकसमान पोजिशन सीमा आदि जैसे मुद्दों पर वह सभी जिंस एक्सचेंजों के बीच आमराय बनाने की कोशिश करे। लेकिन एक्सचेंज के विभिन्न अधिकारी इन मुद्दों के प्रति आशंकित हैं।मार्केट मेकर्स की बाबत एक्सचेंज के अधिकारियों का तर्क है कि जिंस वायदा बाजार ऐसी व्यवस्था के लिए अभी पर्याप्त रूप से परिपक्व नहीं हुआ है। विदेश से इस व्यवस्था की प्रतिकृति किसी एक एक्सचेंज में कारोबार होने वाली किसी एक जिंस में नहीं दोहराई जा सकती। भारत में हालांकि एक जिंस का कारोबार विभिन्न एक्सचेंजों में होता है और दुर्भाग्य से किसी एक एक्सचेंज में वह तरल (लिक्विड) होता है जबकि दूसरे में नहीं। ऐसे में मार्केट मेकर्स को प्रोत्साहन देने से एक एक्सचेंज का कारोबार व मात्रा दूसरे एक्सचेंज द्वारा छीन लिया जाएगा और एक्सचेंजों के बीच विवाद उसी रफ्तार से बढ़ेगा, जो जिंस वायदा कारोबार के लिए अच्छा नहीं होगा।जिंस एक्सचेंजों की स्थापना शुरुआती दौर में कृषि जिंसों को प्रोत्साहित करने ेक लिए हुई थी। ऐसे में गैर-कृषि जिंसों के लिए लेन-देन शुल्क में कमी लाने का मतलब होगा जिंस वायदा के प्राथमिक मकसद को कुचल देना। इसके उलट कई एक्सचेंज के अधिकारियों ने कहा था कि खुदरा सहभागिता बढ़ाने के लिए कृषि जिंसों के लेन-देन शुल्क में कमी लाई जाए।एकसमान पोजिशन सीमा के लिए कारोबार का पता लगाना काफी मुश्किल है, जब तक कि सेबी की तरह एफएमसी केंद्रीकृत सर्वर के जरिए पूरे कारोबार की निगरानी न करे। चूंकि हर एक्सचेंज की पोजिशन सीमा अलग-अलग होती है, लिहाजा हर एक्सचेंज के लिए हर जिंस में एकसमान पोजिशन सीमा तय करना अव्यवहारिक होगा। हालांकि इस बैठक में कृषि जिंसों के मिनी कॉन्ट्रैक्ट पेश करने जैसे मुद्दों पर भी चर्चा हुई, लेकिन इस पर कोई आमराय नहीं बन पाई।स्टांप ड्यूटी में बढ़ोतरी टलीमहाराष्ट्र सरकार ने जिंस वायदा कारोबार में स्टांप ड््यूटी में प्रस्तावित बढ़ोतरी को फिलहाल टाल दिया है। राज्य सरकार ने हालांकि नई तारीख की घोषणा नहींं की है, लेकिन इस कदम से कारोबारियों को बड़ी राहत मिली है। इसकी पुष्टि करते हुए एफएमसी के चेयरमैन बी सी खटुआ ने कहा - जिंस एक्सचेंजों की बात सरकार के सामने रखने में नियामक उसकी अगुआई कर रहा था और राज्य के वित्त मंत्री से लगातार संपर्क में था। उन्होंने कहा - यह अच्छा हुआ कि सरकार ने फैसला टाल दिया है। खटुआ ने कहा कि नई तारीख पर फैसला लेने से पहले सरकार एफएमसी से संपर्क करेगी। 23 मार्च को पेश बजट में सरकार ने जिंस कारोबार में हर एक लाख के लेनदेन पर 5 रुपये की स्टांप ड्यूटी लगाने का प्रस्ताव रखा था, जो मौजूदा प्रति लाख 1 रुपये के मुकाबले काफी ज्यादा है। इसे 1 जून से लागू किया जाना था। महाराष्ट्र में पंजीकृत ब्रोकरों को इस निर्देश का पालन करना था, अगर उन्हें अपनी दुकानें बंद न करनी हों तो। महाराष्ट्र के ब्रोकरों को इसका भार अपने क्लाइंट पर डालना होगा। 5 रुपये प्रति लाख के कारोबार पर या 0.005 फीसदी सभी नकद व डेरिवेटिव लेनदेन पर (डिलिवरी व गैर-डिलिवरी दोनों पर)।आदर्श रूप में लेनदेन की लागत का भार उपभोक्ताओं पर डाला जाएगा क्योंकि लेनदेन शुल्क बढऩे के बाद जिंस की लागत काफी ज्यादा बढ़ जाएगी।एमसीएक्स के प्रबंध निदेशक और सीईओ लेमन रूटेन ने कहा - स्टांप ड््यूटी में प्रस्तावित बढ़ोतरी को टाल देने के महाराष्ट्र सरकार के फैसले का मैं स्वागत करता हूं। इससे राज्य को अन्य प्रतिस्पर्धी राज्यों से नए कारोबारियों को मुंबई व राज्य के दूसरे हिस्से में आने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा। साथ ही जिंस वायदा कारोबार भारतीय की विकास दर में और ज्यादा योगदान दे पाएगा।फिलहाल, जिंस एक्सचेंज प्रति करोड़ रुपये के कारोबार पर 200 रुपये शुल्क वसूलते हैं। अगर सरकार ने ड्यूटी में बढ़ोतरी की तो शुल्क बढ़कर 700 रुपये प्रति करोड़ हो जाएगा, जो देश में सबसे महंगा होगा। इससे डब्बा कारोबार को भी प्रोत्साहन मिलेगा। एनसीडीईएक्स के चीफ बिजनेस अफसर विजय कुमार ने कहा कि इस फैसले के टलने से हेजर्स व सटोरियों को लाभ मिलेगा और वे जिंस बाजार में बिना किसी परेशानी के कारोबार कर पाएंगे।कई ब्रोकिंग फर्म महाराष्ट्र से अपना कारोबार समेटकर गुजरात जाने लगे थे क्योंकि वहां स्टांप ड्यूटी न के बराबर है। गुजरात सरकार ने महाराष्ट्र के कारोबारियों को आकर्षित करने के लिए राज्य में बड़ा बिजनेस पार्क स्थापित किया है। ऐश डेरिवेटिव ऐंड कमोडिटी एक्सचेंज के सीईओ दिलीप भाटिया ने कहा कि इससे महाराष्ट्र के बाहर कारोबार करने की इच्छा रखने वाले अब वहीं रूक जाएंगे यानी वहीं उनका कारोबार चलता रहेगा।पिछले दो महीने में जिंस वायदा कारोबार की मात्रा में करीब 50 फीसदी की उछाल आई है और यह 70,000 करोड़ रुपये पर पहुंच गई है जबकि पहले 40,000-45,000 करोड़ रुपये था। ऐंजल ब्रोकिंग के सहायक निदेशक (कमोडिटी) नवीन माथुर ने कहा कि इस फैसले से कम से कम अनिश्चितता दूर हो गई है। (BS Hindi)
10 फीसदी तक बढ़ेगा कपास का रकबा
अहमदाबाद June 03, 2011
साल 2011-12 में कपास के रकबे में करीब 5 से 10 फीसदी की बढ़ोतरी की संभावना है और इस तरह साल 2010-11 के 111.6 लाख हेक्टेयर के मुकाबले इसमें अच्छी खासी बढ़ोतरी होगी। रकबे में बढ़ोतरी इसलिए हो रही है क्योंकि कपास की ऊंची कीमतों के चलते ज्यादा से ज्यादा किसान कपास का रुख कर रहे हैं।कपास के रकबे में कुल मिलाकर बढ़ोतरी की संभावना इसलिए भी मजबूत हो रही है कि उत्तर भारत (पंजाब, हरियाणा और राजस्थान) में साल 2011-12 में कपास के रकबे मेंं 15-20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इन राज्यों में कपास की बुआई मोटे तौर पर समाप्त हो चुकी है। पंजाब, हरियाणा व राजस्थान में कपास के रकबे में करीब 2 लाख हेक्टेयर की बढ़ोतरी हुई है और यह आज के समय में 15 से 15.5 लाख हेक्टेयर के आसपास पहुंच गया है जबकि पिछले साल 13.5 लाख हेक्टेयर में कपास की बुआई हुई थी। नॉर्थ इंडिया कॉटन एसोसिएशन के अध्यक्ष राकेश राठी ने कहा - उत्तर भारत में कपास की बुआई का काम करीब-करीब समाप्त हो चुका है और पंजाब में हमने इसके रकबे में तीव्र बढ़ोतरी देखी है। राजस्थान व हरियाणा में भी कपास के रकबे में इजाफा हुआ है। बेहतर रिटर्न के चलते किसानों ने धान व ग्वार की बजाय कपास का रुख किया है। देश के कुल कपास उत्पादन में उत्तर भारत करीब 12-13 फीसदी का योगदान करता है और यहां का कुल उत्पादन करीब 38 से 39 लाख गांठ है।इस बीच, उद्योग के विशेषज्ञों का कहना है कि कपास के रकबे में 5 से 10 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई है और यह पिछले साल के 111.6 लाख हेक्टेयर से बढ़कर इस साल 150 से 180 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है।कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के प्रबंध निदेशक बी के मिश्रा ने कहा - हमने इस साल कपास के रकबे में बढ़ोतरी देखी है। हाल में इसकी कीमतों में हुए उतारचढ़ाव के बाद भी किसान इसकी खेती की तरफ आकर्षित हुए हैं क्यों कि पिछले साल उनन्हें भारी रिटर्न मिला था। हालांकि इस बात का अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी कि साल 2011-12 में कपास का वास्तविक रकबा कितना होगा। लेकिन इसके रकबे में संभवत: 5 से 10 फीसदी की बढ़ोतरी होगी। उन्होंने यह भी बताया कि मार्च के बाद कपास की कीमतों में भारी गिरावट आई है।कपास के शंकर-6 किस्म की कीमतें मार्च में 62,500 रुपये प्रति कैंडी पर थीं, जो अब घटकर 45,000 रुपये रह गई है। वैश्विक बाजार में भी कपास की कीमतें तेजी से गिरी हैं। भारत में कपास का रकबा साल 2009-10 में 103.1 लाख हेक्टेयर था, जो 2010-11 में बढ़कर 111.6 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया था।गुजरात में इस साल कपास का रकबा 28 लाख हेक्टेयर रह सकता है, जबकि पिछले साल 26.3 लाख हेक्टेयर में कपास की बुआई हुई थी। गुजरात स्टेट कोऑपरेटिव कॉटन फेडरेशन के प्रबंध निदेशक एन एम शर्मा ने कहा - कपास से मिले रिटर्न से किसान उत्साहित हैं। ऐसे में गुजरात में भी इस सीजन में कपास का रकबा बढ़ेगा। उन्होंने कहा कि यहां कपास का रकबा बढ़कर 28 से 30 लाख हेक्टेयर पर पहुंच जाएगा।कपास का उत्पादन करने वाले अन्य प्रमुख राज्य आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश हैं। इन इलाकों में कपास की फसल मोटे तौर पर बारिश पर आश्रित होती है। इन इलाकों में कपास की बुआई जून के दूसरे हफ्ते से जोर पकड़ेगी। चूंकि दक्षिण पश्चिम मॉनसून देश के दक्षिणी हिस्सों में दस्तक दे चुका है और इसके धीरे-धीरे आगे बढऩे की संभावना है, लिहाजा किसान साल 2011-12 में कपास की सफल खेती के प्रति आशान्वित हैं। (BS Hindi)
साल 2011-12 में कपास के रकबे में करीब 5 से 10 फीसदी की बढ़ोतरी की संभावना है और इस तरह साल 2010-11 के 111.6 लाख हेक्टेयर के मुकाबले इसमें अच्छी खासी बढ़ोतरी होगी। रकबे में बढ़ोतरी इसलिए हो रही है क्योंकि कपास की ऊंची कीमतों के चलते ज्यादा से ज्यादा किसान कपास का रुख कर रहे हैं।कपास के रकबे में कुल मिलाकर बढ़ोतरी की संभावना इसलिए भी मजबूत हो रही है कि उत्तर भारत (पंजाब, हरियाणा और राजस्थान) में साल 2011-12 में कपास के रकबे मेंं 15-20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इन राज्यों में कपास की बुआई मोटे तौर पर समाप्त हो चुकी है। पंजाब, हरियाणा व राजस्थान में कपास के रकबे में करीब 2 लाख हेक्टेयर की बढ़ोतरी हुई है और यह आज के समय में 15 से 15.5 लाख हेक्टेयर के आसपास पहुंच गया है जबकि पिछले साल 13.5 लाख हेक्टेयर में कपास की बुआई हुई थी। नॉर्थ इंडिया कॉटन एसोसिएशन के अध्यक्ष राकेश राठी ने कहा - उत्तर भारत में कपास की बुआई का काम करीब-करीब समाप्त हो चुका है और पंजाब में हमने इसके रकबे में तीव्र बढ़ोतरी देखी है। राजस्थान व हरियाणा में भी कपास के रकबे में इजाफा हुआ है। बेहतर रिटर्न के चलते किसानों ने धान व ग्वार की बजाय कपास का रुख किया है। देश के कुल कपास उत्पादन में उत्तर भारत करीब 12-13 फीसदी का योगदान करता है और यहां का कुल उत्पादन करीब 38 से 39 लाख गांठ है।इस बीच, उद्योग के विशेषज्ञों का कहना है कि कपास के रकबे में 5 से 10 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई है और यह पिछले साल के 111.6 लाख हेक्टेयर से बढ़कर इस साल 150 से 180 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है।कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के प्रबंध निदेशक बी के मिश्रा ने कहा - हमने इस साल कपास के रकबे में बढ़ोतरी देखी है। हाल में इसकी कीमतों में हुए उतारचढ़ाव के बाद भी किसान इसकी खेती की तरफ आकर्षित हुए हैं क्यों कि पिछले साल उनन्हें भारी रिटर्न मिला था। हालांकि इस बात का अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी कि साल 2011-12 में कपास का वास्तविक रकबा कितना होगा। लेकिन इसके रकबे में संभवत: 5 से 10 फीसदी की बढ़ोतरी होगी। उन्होंने यह भी बताया कि मार्च के बाद कपास की कीमतों में भारी गिरावट आई है।कपास के शंकर-6 किस्म की कीमतें मार्च में 62,500 रुपये प्रति कैंडी पर थीं, जो अब घटकर 45,000 रुपये रह गई है। वैश्विक बाजार में भी कपास की कीमतें तेजी से गिरी हैं। भारत में कपास का रकबा साल 2009-10 में 103.1 लाख हेक्टेयर था, जो 2010-11 में बढ़कर 111.6 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया था।गुजरात में इस साल कपास का रकबा 28 लाख हेक्टेयर रह सकता है, जबकि पिछले साल 26.3 लाख हेक्टेयर में कपास की बुआई हुई थी। गुजरात स्टेट कोऑपरेटिव कॉटन फेडरेशन के प्रबंध निदेशक एन एम शर्मा ने कहा - कपास से मिले रिटर्न से किसान उत्साहित हैं। ऐसे में गुजरात में भी इस सीजन में कपास का रकबा बढ़ेगा। उन्होंने कहा कि यहां कपास का रकबा बढ़कर 28 से 30 लाख हेक्टेयर पर पहुंच जाएगा।कपास का उत्पादन करने वाले अन्य प्रमुख राज्य आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश हैं। इन इलाकों में कपास की फसल मोटे तौर पर बारिश पर आश्रित होती है। इन इलाकों में कपास की बुआई जून के दूसरे हफ्ते से जोर पकड़ेगी। चूंकि दक्षिण पश्चिम मॉनसून देश के दक्षिणी हिस्सों में दस्तक दे चुका है और इसके धीरे-धीरे आगे बढऩे की संभावना है, लिहाजा किसान साल 2011-12 में कपास की सफल खेती के प्रति आशान्वित हैं। (BS Hindi)
हॉलमार्किंग से घटी पुराने सोने की आपूर्ति
मुंबई June 05, 2011
सोने के आभूषणों की हॉलमार्किंग ने विनिर्माताओं और खुदरा विक्रेताओं को विस्मित किया हो, लेकिन बेंचमार्क गुणवत्ता बताने वाली इस व्यवस्था ने भारत की मौजूदा सोने की 25 रिफाइनरियों के कारोबार को झटका दिया है।देश में सोने की रिफाइनरियों की संचालन क्षमता गिरकर 20-25 फीसदी रह गई है, जो इतिहास में सबसे कम है क्योंकि पुराना सोना उपलब्ध नहीं हो पा रहा। करीब एक साल पहले इन रिफाइनरियों की संचालन क्षमता 35-40 फीसदी थी। वल्र्ड गोल्ड काउंसिल के आंकड़ों के मुताबिक, रीसाइक्लिंग के लिए भारत में सोने की उपलब्धता मौजूदा कैलेंडर वर्ष की पहली तिमाही में घटकर 10 टन रह गई है जबकि पिछले साल की समान अवधि में यह 14 टन थी। इससे पहले की तिमाही में हालांकि सोने की उपलब्धता 25 टन हो गई थी।गोल्ड रिफाइनर्स एसोसिएशन के सचिव और सी. गोल्ड रिफाइनरी प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक जेम्स जोस ने कहा - उपलब्ध पुराने सोने की गुणवत्ता बढ़ी है और इसका श्रेय उपभोक्ताओं केजागरूकता को जाता है। 25 साल तक चलन में रहे सोने सामान्यत: 18 कैरेट के होते थे और इसमें बाकी मात्रा तांबे की होती थी। आज बाजार में बिक्री के लिए आ रहे पुराने सोने कम से कम 22 कैरेट के हैं क्योंंकि खुदरा ज्वैलरों ने बेंचमार्क हॉलमार्किंग अपना ली है। ऐसे में पहले आ रहे सोने में जहां 80 फीसदी की शुद्धता होती थी, वहीं आज यह कम से कम 91.6 फीसदी हो गई है।सामान्यत तौर पर इस्तेमाल किए गए ऐसे गहने ज्वैलर दोबारा बेच देते हैं, लेकिन इससे पहले इन पर पॉलिस करते हैं और इसकी मरम्मत करते हैं। बाजार में उपलब्ध कुल पुराने सोने में ऐसे सोने की हिस्सेदारी करीब 25 फीसदी होती है, जिसकी आपूर्ति सामान्य तौर पर रिफाइनर्स को नहीं होती है। बड़े सुनार सामान्यत: इस्तेमाल किए गए आभूषण रिफाइनिंग के लिए भेजते हैं ताकि इससे तांबे जैसी अशुद्धता निकाली जा सके।स्पष्ट रूप से केरल जैसे राज्यों में गर्मी की छुट्टिïयां समाप्त होने व प्रवासी भारतीय के विदेश लौट जाने के चलते इस्तेमाल किए गए सोने की बिक्री समाप्त हो चुकी है। तमिलनाडु में भी ऐसा सीजन समाप्त हो चुका है। ये दोनों राज्य इलाके में पुराने सोने की बिक्री में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी रखते हैं। ऐसे में पुराने सोने की उपलब्धता में गिरावट तो आएगी ही। दूसरा, दक्षिण भारतीय बाजार में उपभोक्ता पुराने आभूषण के बदले नए आभूषण लेते हैं, जबकि उत्तर व पश्चिम भारत में नहीं होता क्योंकि यहां के लोग पुराने सोने के बदले नकदी लेना पसंद करते हैं। जोस ने कहा कि इसलिए उपभोक्ताओं की प्राथमिकता एक जगह से दूसरी जगह अलग-अलग होती है।स्पष्ट रूप से आयात शुल्क केचलते गोल्ड कन्सन्ट्रेट (डोर बार) का आयात उपयुक्त नहीं है। जोस ने ऐसे शुल्क को समाप्त करने की मांग की है। आज के समय में गोल्ड कन्सन्ट्रेट की खुदाई अफ्रीका में होती है और इसे यूरोप में साफ किया जाता है। यूरोप की गोल्ड रिफाइनरी 50,000 रुपये प्रति किलोग्राम का शुल्क वसूलती है जबकि भारत में यह 5,000 रुपये प्रति किलोग्राम हो सकता ह ै।ऐसे में डोर बार पर आयात शुल्क घटाने से सोने की कीमतों में प्रति 10 ग्राम 450 रुपये की कमी आएगी।एनआईबीआर बुलियन के प्रबंध निदेशक हर्मेश अरोड़ा ने कहा - सरकार ने 80 फीसदी की शुद्धता वाले डोर बार के आयात पर सीमा शुल्क समाप्त कर दिया है, जिसे हासिल करना काफी मुश्किल है। लेकिन आज 91-92 फीसदी सोने की शुद्धता वाले डोर बार की खुदाई हो रही है। उन्होंने कहा कि कीमतों में बढ़ोतरी वाले बाजार में उपभोक्ता सामान्यत: किसी उत्पाद की बिक्री को टाल देते हैं। चूंकि सोने की कीमतें लगातार ऊपर जा रही हैं, लिहाजा उपभोक्ता इसमें और तेजी की उम्मीद में सोने को अपने पास रखे हुए हैं। (BS Hindi)
सोने के आभूषणों की हॉलमार्किंग ने विनिर्माताओं और खुदरा विक्रेताओं को विस्मित किया हो, लेकिन बेंचमार्क गुणवत्ता बताने वाली इस व्यवस्था ने भारत की मौजूदा सोने की 25 रिफाइनरियों के कारोबार को झटका दिया है।देश में सोने की रिफाइनरियों की संचालन क्षमता गिरकर 20-25 फीसदी रह गई है, जो इतिहास में सबसे कम है क्योंकि पुराना सोना उपलब्ध नहीं हो पा रहा। करीब एक साल पहले इन रिफाइनरियों की संचालन क्षमता 35-40 फीसदी थी। वल्र्ड गोल्ड काउंसिल के आंकड़ों के मुताबिक, रीसाइक्लिंग के लिए भारत में सोने की उपलब्धता मौजूदा कैलेंडर वर्ष की पहली तिमाही में घटकर 10 टन रह गई है जबकि पिछले साल की समान अवधि में यह 14 टन थी। इससे पहले की तिमाही में हालांकि सोने की उपलब्धता 25 टन हो गई थी।गोल्ड रिफाइनर्स एसोसिएशन के सचिव और सी. गोल्ड रिफाइनरी प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक जेम्स जोस ने कहा - उपलब्ध पुराने सोने की गुणवत्ता बढ़ी है और इसका श्रेय उपभोक्ताओं केजागरूकता को जाता है। 25 साल तक चलन में रहे सोने सामान्यत: 18 कैरेट के होते थे और इसमें बाकी मात्रा तांबे की होती थी। आज बाजार में बिक्री के लिए आ रहे पुराने सोने कम से कम 22 कैरेट के हैं क्योंंकि खुदरा ज्वैलरों ने बेंचमार्क हॉलमार्किंग अपना ली है। ऐसे में पहले आ रहे सोने में जहां 80 फीसदी की शुद्धता होती थी, वहीं आज यह कम से कम 91.6 फीसदी हो गई है।सामान्यत तौर पर इस्तेमाल किए गए ऐसे गहने ज्वैलर दोबारा बेच देते हैं, लेकिन इससे पहले इन पर पॉलिस करते हैं और इसकी मरम्मत करते हैं। बाजार में उपलब्ध कुल पुराने सोने में ऐसे सोने की हिस्सेदारी करीब 25 फीसदी होती है, जिसकी आपूर्ति सामान्य तौर पर रिफाइनर्स को नहीं होती है। बड़े सुनार सामान्यत: इस्तेमाल किए गए आभूषण रिफाइनिंग के लिए भेजते हैं ताकि इससे तांबे जैसी अशुद्धता निकाली जा सके।स्पष्ट रूप से केरल जैसे राज्यों में गर्मी की छुट्टिïयां समाप्त होने व प्रवासी भारतीय के विदेश लौट जाने के चलते इस्तेमाल किए गए सोने की बिक्री समाप्त हो चुकी है। तमिलनाडु में भी ऐसा सीजन समाप्त हो चुका है। ये दोनों राज्य इलाके में पुराने सोने की बिक्री में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी रखते हैं। ऐसे में पुराने सोने की उपलब्धता में गिरावट तो आएगी ही। दूसरा, दक्षिण भारतीय बाजार में उपभोक्ता पुराने आभूषण के बदले नए आभूषण लेते हैं, जबकि उत्तर व पश्चिम भारत में नहीं होता क्योंकि यहां के लोग पुराने सोने के बदले नकदी लेना पसंद करते हैं। जोस ने कहा कि इसलिए उपभोक्ताओं की प्राथमिकता एक जगह से दूसरी जगह अलग-अलग होती है।स्पष्ट रूप से आयात शुल्क केचलते गोल्ड कन्सन्ट्रेट (डोर बार) का आयात उपयुक्त नहीं है। जोस ने ऐसे शुल्क को समाप्त करने की मांग की है। आज के समय में गोल्ड कन्सन्ट्रेट की खुदाई अफ्रीका में होती है और इसे यूरोप में साफ किया जाता है। यूरोप की गोल्ड रिफाइनरी 50,000 रुपये प्रति किलोग्राम का शुल्क वसूलती है जबकि भारत में यह 5,000 रुपये प्रति किलोग्राम हो सकता ह ै।ऐसे में डोर बार पर आयात शुल्क घटाने से सोने की कीमतों में प्रति 10 ग्राम 450 रुपये की कमी आएगी।एनआईबीआर बुलियन के प्रबंध निदेशक हर्मेश अरोड़ा ने कहा - सरकार ने 80 फीसदी की शुद्धता वाले डोर बार के आयात पर सीमा शुल्क समाप्त कर दिया है, जिसे हासिल करना काफी मुश्किल है। लेकिन आज 91-92 फीसदी सोने की शुद्धता वाले डोर बार की खुदाई हो रही है। उन्होंने कहा कि कीमतों में बढ़ोतरी वाले बाजार में उपभोक्ता सामान्यत: किसी उत्पाद की बिक्री को टाल देते हैं। चूंकि सोने की कीमतें लगातार ऊपर जा रही हैं, लिहाजा उपभोक्ता इसमें और तेजी की उम्मीद में सोने को अपने पास रखे हुए हैं। (BS Hindi)
खाद्यान्न के परिवहन के लिए राष्ट्रीय योजना
नई दिल्ली June 05, 2011
खरीद के मुख्य सीजन में खाद्यान्न के परिवहन को आसान बनाने के लिए खाद्य मंत्रालय रेलवे के साथ मिलकर राष्ट्रीय योजना बना रहा है। हाल में खाद्य मंत्री के वी थॉमस ने प्रधानमंत्री से इस योजना पर चर्चा की है। इसके तहत रेलवे बोर्ड के चेयरमैन, खाद्य व जन वितरण प्रणाली के सचिव, भारतीय खाद्य निगम के चेयरमैन को शामिल करते हुए अलग से स्थायी तौर पर एकीकृत संयुक्त ढांचा बनाया जाएगा, जो खाद्यान्न की आवाजाही की निगरानी करेगा।केंद्रीय स्तर पर इस ढांचे की मौजूदगी के अलावा योजना के तहत ऐसा ही ढांचा राज्यों में बनाए जाने की वकालत की गई है। एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि राज्यस्तरीय ढांचे में मुख्य सचिव, एफसीआई व भारतीय रेलवे के क्षेत्रीय प्रबंधक को शामिल किया जा सकता है। इससे प्रखंड और जिला स्तर पर भी अनाज की सहज आवाजाही सुनिश्चित होगी।आंकड़ों से पता चला है कि भारतीय खाद्य निगम औसतन 250 लाख टन अनाज का परिवहन 1500 किलोमीटर तक रेल, सड़क और जलमार्ग के जरिए करता है। हालांकि सबसे ज्यादा अनाज की ढुलाई भारतीय रेल के जरिए होती है।खरीद के मुख्य सीजन में इस गतिविधि में मुश्किलें पैदा होती हैं क्योंकि अनाज की मात्रा बढ़ जाती है जबकि रेलवे वैगन की संख्या में कमी आ जाती है। गेहूं की खरीद का मुख्य सीजन अप्रैल में शुरू होता है और जून-जुलाई तक चलता है जबकि चावल के मामले में यह अक्टूबर में शुरू होता है और दिसंबर-जनवरी तक चलता है।समस्या से निपटने के लिए खाद्यान्न के राष्ट्रीय परिवहन योजना में एफसीआई में समर्पित विभाग बनाने और रेलवे को वैगन की उपलब्धता आदि का ध्यान रखने की बात कही गई है। अधिकारी ने कहा कि राष्ट्रीय योजना के तहत खरीद के मुख्य सीजन में उत्पादक राज्यों से खपत वाले राज्यों तक अनाज के परिवहन के लिए लंबी अवधि की रणनीति तैयार की गई है। राष्ट्रीय योजना के लिए मंत्रालय जल्द ही रेलवे बोर्ड के चेयरमैन, एफसीआई चेयरमैन, संबंधित मंत्रालय के प्रतिनिधियों, अनाज खरीद की दृष्टि से पंजाब-हरियाणा जैसे प्रमुख राज्यों के खाद्य सचिवों की बैठक बुलाएगा। एफसीआई के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2010-11 में रेल के जरिए 3142.1 लाख टन खाद्यान्न का परिवहन हुआ, जो पिछले साल के मुकाबले 11 फीसदी ज्यादा है।यह काम करीब 12,322 रैक के जरिए संपन्न हुआ, जो पिछले साल के मुकाबले 11 फीसदी ज्यादा है। अधिकारियों ने बताया कि खाद्यान्न का अतिरेक मुख्य तौर पर उत्तरी राज्यों मसलन पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि तक सीमित है जबकि इसकी ढुलाई देश भर में होती है यानी लंबी दूरी तक इसका परिवहन होता है। बाजारों व खरीद केंद्रों पर खरीदे गए माल सबसे पहले नजदीकी डिपो में संग्रहित किए जाते हैं और तय समय में इसे हासिल करने वाले राज्यों को भेजा जाता है।साल 2010-11 में भारत में 23.58 करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन का अनुमान है, जो पिछले साल के मुकाबले 8.14 फीसदी ज्यादा है। साल 2011-12 के खरीद सीजन के पहले दो महीने में ही गेहूं की खरीद 260 लाख टन के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है। (BS Hindi)
खरीद के मुख्य सीजन में खाद्यान्न के परिवहन को आसान बनाने के लिए खाद्य मंत्रालय रेलवे के साथ मिलकर राष्ट्रीय योजना बना रहा है। हाल में खाद्य मंत्री के वी थॉमस ने प्रधानमंत्री से इस योजना पर चर्चा की है। इसके तहत रेलवे बोर्ड के चेयरमैन, खाद्य व जन वितरण प्रणाली के सचिव, भारतीय खाद्य निगम के चेयरमैन को शामिल करते हुए अलग से स्थायी तौर पर एकीकृत संयुक्त ढांचा बनाया जाएगा, जो खाद्यान्न की आवाजाही की निगरानी करेगा।केंद्रीय स्तर पर इस ढांचे की मौजूदगी के अलावा योजना के तहत ऐसा ही ढांचा राज्यों में बनाए जाने की वकालत की गई है। एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि राज्यस्तरीय ढांचे में मुख्य सचिव, एफसीआई व भारतीय रेलवे के क्षेत्रीय प्रबंधक को शामिल किया जा सकता है। इससे प्रखंड और जिला स्तर पर भी अनाज की सहज आवाजाही सुनिश्चित होगी।आंकड़ों से पता चला है कि भारतीय खाद्य निगम औसतन 250 लाख टन अनाज का परिवहन 1500 किलोमीटर तक रेल, सड़क और जलमार्ग के जरिए करता है। हालांकि सबसे ज्यादा अनाज की ढुलाई भारतीय रेल के जरिए होती है।खरीद के मुख्य सीजन में इस गतिविधि में मुश्किलें पैदा होती हैं क्योंकि अनाज की मात्रा बढ़ जाती है जबकि रेलवे वैगन की संख्या में कमी आ जाती है। गेहूं की खरीद का मुख्य सीजन अप्रैल में शुरू होता है और जून-जुलाई तक चलता है जबकि चावल के मामले में यह अक्टूबर में शुरू होता है और दिसंबर-जनवरी तक चलता है।समस्या से निपटने के लिए खाद्यान्न के राष्ट्रीय परिवहन योजना में एफसीआई में समर्पित विभाग बनाने और रेलवे को वैगन की उपलब्धता आदि का ध्यान रखने की बात कही गई है। अधिकारी ने कहा कि राष्ट्रीय योजना के तहत खरीद के मुख्य सीजन में उत्पादक राज्यों से खपत वाले राज्यों तक अनाज के परिवहन के लिए लंबी अवधि की रणनीति तैयार की गई है। राष्ट्रीय योजना के लिए मंत्रालय जल्द ही रेलवे बोर्ड के चेयरमैन, एफसीआई चेयरमैन, संबंधित मंत्रालय के प्रतिनिधियों, अनाज खरीद की दृष्टि से पंजाब-हरियाणा जैसे प्रमुख राज्यों के खाद्य सचिवों की बैठक बुलाएगा। एफसीआई के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2010-11 में रेल के जरिए 3142.1 लाख टन खाद्यान्न का परिवहन हुआ, जो पिछले साल के मुकाबले 11 फीसदी ज्यादा है।यह काम करीब 12,322 रैक के जरिए संपन्न हुआ, जो पिछले साल के मुकाबले 11 फीसदी ज्यादा है। अधिकारियों ने बताया कि खाद्यान्न का अतिरेक मुख्य तौर पर उत्तरी राज्यों मसलन पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि तक सीमित है जबकि इसकी ढुलाई देश भर में होती है यानी लंबी दूरी तक इसका परिवहन होता है। बाजारों व खरीद केंद्रों पर खरीदे गए माल सबसे पहले नजदीकी डिपो में संग्रहित किए जाते हैं और तय समय में इसे हासिल करने वाले राज्यों को भेजा जाता है।साल 2010-11 में भारत में 23.58 करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन का अनुमान है, जो पिछले साल के मुकाबले 8.14 फीसदी ज्यादा है। साल 2011-12 के खरीद सीजन के पहले दो महीने में ही गेहूं की खरीद 260 लाख टन के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है। (BS Hindi)
04 जून 2011
जॉब छोड़कर खेती की ओर मुड़े युवा उद्यमी
अहमदाबाद एवं कोलकाताः पैंतीस साल के गौरव सहाय ने हाल ही में एक ट्रैक्टर खरीदा है, जिसकी शोर करने वाली आवाज उन्हें होंडा एकॉर्ड के इंजन की हल्की आवाज से भी ज्यादा सुरीली लगती है। कुछ साल पहले तक सहाय अमेरिका में ह्यूलेट पैकार्ड (एचपी) के लिए काम करते थे और वह वहां होंडा एकॉर्ड में चलते थे। हालांकि, उन्हें एचपी के अमेरिकी ऑफिस से ज्यादा सुख और आराम मोहाली जिले के लादा गांव के सात एकड़ खेत में पसीना बहाकर मिलता है। ढाई साल तक एक किसान की तरह काम करने के बाद उन्हें बस इसी बात का अफसोस है कि आज भी वह 'भूमिहीन मजदूर' हैं। वह अपने एक करीबी दोस्त की जमीन पर खेती करते हैं। सहाय के दोस्त ने उन्हें न सिर्फ खेती के लिए जमीन दी, बल्कि इस गैर-पारंपरिक पेशे के लिए प्रोत्साहित भी किया। सहाय के एक अन्य दोस्त ने उन्हें चंडीगढ़ के सेक्टर 8 मार्केट में जगह दी, जहां वह हफ्ते में एकबार तीन घंटे के लिए अपनी उगाई चीजें बेचते हैं। पिछले महीने उन्होंने 1200 किलो सब्जियां बेची थीं। इस जमीन पर खेती से उन्हें जो भी आमदनी होती है, वह उसे दोबारा उसी में निवेश कर रहे हैं। उन्होंने कहा, 'मैंने काफी रिसर्च किए और बुनियादी बातें सीखने के लिए किसानों से बातचीत भी करता हूं।' सहाय ने कहा, 'खेती सिर्फ जमीन और मिट्टी से जुड़ी नहीं है। इसमें अध्ययन और योजना की भी जरूरत है।' वह अब जड़ी बूटी और मसाले उगाने पर विचार कर रहे हैं, जिसकी मांग काफी बढ़ रही है। पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी में 35 साल के एक अन्य व्यक्ति राजा अधिकारी ने अपना पारिवारिक कारोबार छोड़कर खेती की राह पकड़ ली है। वह 100 एकड़ में चाय की पैदावार करते हैं। उन्होंने कहा, 'चाय मुझे अपनी ओर खींचती है। मैं चाय की हरी पत्तियां मैकलॉयड रसेल जैसी कंपनी को बेचता हूं।' चाय की कीमतें पिछले दो साल में 95-100 रुपए प्रति किलो से बढ़कर 125 रुपए प्रति किलो हो गई हैं। चाय उद्योग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, 'चाय की बढ़ती कीमत की वजह से युवा कारोबारियों को यह आकर्षित कर रही है।' हाल के दिनों में कमोडिटी की कीमतों में तेजी आई है। चाहे सब्जियां हों या चाय, कपास या कोई और फसल...ये सभी नई पीढ़ी को लुभा रही हैं। ये किसान रोजी-रोटी के लिए खेती नहीं करते हैं, बल्कि नई पीढ़ी के उद्यमी इसमें कारोबारी संभावनाएं देख रहे हैं। वे नए तरीकों का इस्तेमाल कर नए आइडिया को अपनाने की कोशिश कर रहे हैं। हल चलाने के लिए ये सभी अपने पारंपरिक करियर का मोह छोड़ रहे हैं। केपीएमजी के एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर नारायणन रामास्वामी ने कहा, 'ये उद्यमियों की नई पीढ़ी है, जो वनीला, कॉफी, स्ट्रॉबेरी, चाय की खेती कर रहे हैं। इनकी नजर नए बाजारों पर है।' उन्होंने कहा, 'उत्पादन और गुणवत्ता सुधारने के लिए उन्हें कृषि के बेहतर तरीकों का इस्तेमाल करना चाहिए।' पर्यावरण अर्थशास्त्र से पोस्ट ग्रेजुएट करने वाली 33 साल की योगिता मेहरा ने खेती शुरू करने के लिए इस साल फरवरी में टेरी (एनर्जी एंड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट) की अपनी नौकरी को लात मार दी। मेहरा ने कहा, 'मैं धान और आम की खेती करूंगी।' मेहरा अब जमीन खरीदने की तैयारी कर रही हैं। उनके पति करण मनराल भी उनकी मदद कर रहे हैं, जो पेशे से स्वतंत्र मार्केटिंग कंसल्टेंट हैं। (ET Hindi)
बढ़ेगा ग्वारसीड का रकबा!
मुंबई June 03, 2011
मॉनसून के करीब आते ही ग्वारसीड का उत्पादन करने वालेकिसान खरीफ सीजन में इसकी बुआई की तैयारी शुरू कर रहे हैं, जहां उन्हें कपास व ग्वारसीड में से एक फसल को चुनना होगा, हालांकि कुछ किसान अरंडी की बुआई कर सकते हैं। एक ओर जहां ग्वारसीड ने 40 फीसदी से ज्यादा का रिटर्न दिया है, वहीं अरंडी के उत्पादन से किसानों को 45 फीसदी लाभ अर्जित हुआ है। फरवरी में कपास की कीमतें हाजिर बाजार में 63,000 रुपये प्रति कैंडी (एक कैंडी में 356 किलोग्राम) पर पहुंच गई थी, जो किसानों को ज्यादा आकर्षित कर रही है। मौजूदा समय में कपास की कीमतें 45,000 रुपये प्रति कैंडी है। रकबे में हालांकि कुछ बदलाव हो सकता है, पर मोटे तौर पर कुल रकबा पिछले साल के मुकाबले 15-20 फीसदी ज्यादा होगा।राजस्थान कृषि विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, 2010 में पर्याप्त बारिश के चलते राजस्थान में 30 लाख हेक्टेयर में ग्वारसीड की बुआई हुई थी और कुल उत्पादन 15.46 लाख टन रहा था। प्रदेश में ग्वारसीड की बुआई की प्राथमिकता इसकी आधारभूत प्रकृति से तय होगी, जिसके लिए कम बारिश की आवश्यकता होती है और किसान थोड़ी दुविधा में हैं कि सामान्य या अच्छी बारिश कपास जैसी फसल की बुआई के लिए ज्यादा उपयुक्त होगा।जोधपुर में ग्वारसीड और ग्वारगम के कारोबारी ब्रृज मोहन ने कहा - अगर अच्छी बारिश होती है तो राजस्थान में ग्वारसीड का रकबा 20 से 25 फीसदी तक बढ़ सकता है और अगर कम बारिश हुई तो रकबे में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। उन्होंने कहा कि इस साल ग्वारगम का ज्यादा निर्यात हुआ है, ऐसे में किसान इसके रकबे में बढ़ोतरी करेंगे।ग्वारगम की कीमतें किसानों को लुभा रही हैं, क्योंकि इसकी कीमतें एक साल में दोगुनी हो गई हैं। ग्वारसीड की 70 फीसदी से ज्यादा फसल की बुआई राजस्थान में होती है। हाजिर बाजार में ग्वारसीड की कीमतें 3221 रुपये प्रति क्विंटल है, वहीं पिछले साल जून में यह 2280 रुपये प्रति क्विंटल थी। ग्वारगम का उत्पादन ग्वारसीड से होता है और मजबूत निर्यात मांग के चलते इसकी कीमतों में भी 100 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। कारोबारी और विश्लेषक अभी भी ग्वारसीड के रकबे में बढ़ोतरी की बात कह रहे हैं। केडिया कमोडिटीज के अजय केडिया का मानना है कि पिछले साल इसमें अच्छा रिटर्न मिला था, लिहाजा इस साल ग्वारसीड के रकबे में 15 से 20 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। लेकिन इस बात की ज्यादा संभावना है कि कपास और अरंडी में भी कुछ रकबा जा सकता है। 2010-11 में 111.6 लाख हेक्टेयर में कपास की बुआई हुई थी। पाराडाइम कमोडिटीज के निदेशक बीरेन वकील ने कहा - अरंडी जैसे अन्य जिंसों के बाजार परिदृश्य को देखते हुए कहा जा सकता है कि ग्वारगम की निर्यात मांग में बढ़ोतरी व ग्वारसीड की कीमतों में बढ़ोतरी के बावजूद इसके रकबे में कमी आएगी क्योंकि कपास व अरंडी ने बेहतर रिटर्न दिया है। (BS Hindi)
मॉनसून के करीब आते ही ग्वारसीड का उत्पादन करने वालेकिसान खरीफ सीजन में इसकी बुआई की तैयारी शुरू कर रहे हैं, जहां उन्हें कपास व ग्वारसीड में से एक फसल को चुनना होगा, हालांकि कुछ किसान अरंडी की बुआई कर सकते हैं। एक ओर जहां ग्वारसीड ने 40 फीसदी से ज्यादा का रिटर्न दिया है, वहीं अरंडी के उत्पादन से किसानों को 45 फीसदी लाभ अर्जित हुआ है। फरवरी में कपास की कीमतें हाजिर बाजार में 63,000 रुपये प्रति कैंडी (एक कैंडी में 356 किलोग्राम) पर पहुंच गई थी, जो किसानों को ज्यादा आकर्षित कर रही है। मौजूदा समय में कपास की कीमतें 45,000 रुपये प्रति कैंडी है। रकबे में हालांकि कुछ बदलाव हो सकता है, पर मोटे तौर पर कुल रकबा पिछले साल के मुकाबले 15-20 फीसदी ज्यादा होगा।राजस्थान कृषि विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, 2010 में पर्याप्त बारिश के चलते राजस्थान में 30 लाख हेक्टेयर में ग्वारसीड की बुआई हुई थी और कुल उत्पादन 15.46 लाख टन रहा था। प्रदेश में ग्वारसीड की बुआई की प्राथमिकता इसकी आधारभूत प्रकृति से तय होगी, जिसके लिए कम बारिश की आवश्यकता होती है और किसान थोड़ी दुविधा में हैं कि सामान्य या अच्छी बारिश कपास जैसी फसल की बुआई के लिए ज्यादा उपयुक्त होगा।जोधपुर में ग्वारसीड और ग्वारगम के कारोबारी ब्रृज मोहन ने कहा - अगर अच्छी बारिश होती है तो राजस्थान में ग्वारसीड का रकबा 20 से 25 फीसदी तक बढ़ सकता है और अगर कम बारिश हुई तो रकबे में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। उन्होंने कहा कि इस साल ग्वारगम का ज्यादा निर्यात हुआ है, ऐसे में किसान इसके रकबे में बढ़ोतरी करेंगे।ग्वारगम की कीमतें किसानों को लुभा रही हैं, क्योंकि इसकी कीमतें एक साल में दोगुनी हो गई हैं। ग्वारसीड की 70 फीसदी से ज्यादा फसल की बुआई राजस्थान में होती है। हाजिर बाजार में ग्वारसीड की कीमतें 3221 रुपये प्रति क्विंटल है, वहीं पिछले साल जून में यह 2280 रुपये प्रति क्विंटल थी। ग्वारगम का उत्पादन ग्वारसीड से होता है और मजबूत निर्यात मांग के चलते इसकी कीमतों में भी 100 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। कारोबारी और विश्लेषक अभी भी ग्वारसीड के रकबे में बढ़ोतरी की बात कह रहे हैं। केडिया कमोडिटीज के अजय केडिया का मानना है कि पिछले साल इसमें अच्छा रिटर्न मिला था, लिहाजा इस साल ग्वारसीड के रकबे में 15 से 20 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। लेकिन इस बात की ज्यादा संभावना है कि कपास और अरंडी में भी कुछ रकबा जा सकता है। 2010-11 में 111.6 लाख हेक्टेयर में कपास की बुआई हुई थी। पाराडाइम कमोडिटीज के निदेशक बीरेन वकील ने कहा - अरंडी जैसे अन्य जिंसों के बाजार परिदृश्य को देखते हुए कहा जा सकता है कि ग्वारगम की निर्यात मांग में बढ़ोतरी व ग्वारसीड की कीमतों में बढ़ोतरी के बावजूद इसके रकबे में कमी आएगी क्योंकि कपास व अरंडी ने बेहतर रिटर्न दिया है। (BS Hindi)
10 फीसदी तक बढ़ेगा कपास का रकबा
अहमदाबाद June 03, 2011
साल 2011-12 में कपास के रकबे में करीब 5 से 10 फीसदी की बढ़ोतरी की संभावना है और इस तरह साल 2010-11 के 111.6 लाख हेक्टेयर के मुकाबले इसमें अच्छी खासी बढ़ोतरी होगी। रकबे में बढ़ोतरी इसलिए हो रही है क्योंकि कपास की ऊंची कीमतों के चलते ज्यादा से ज्यादा किसान कपास का रुख कर रहे हैं।कपास के रकबे में कुल मिलाकर बढ़ोतरी की संभावना इसलिए भी मजबूत हो रही है कि उत्तर भारत (पंजाब, हरियाणा और राजस्थान) में साल 2011-12 में कपास के रकबे मेंं 15-20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इन राज्यों में कपास की बुआई मोटे तौर पर समाप्त हो चुकी है। पंजाब, हरियाणा व राजस्थान में कपास के रकबे में करीब 2 लाख हेक्टेयर की बढ़ोतरी हुई है और यह आज के समय में 15 से 15.5 लाख हेक्टेयर के आसपास पहुंच गया है जबकि पिछले साल 13.5 लाख हेक्टेयर में कपास की बुआई हुई थी। नॉर्थ इंडिया कॉटन एसोसिएशन के अध्यक्ष राकेश राठी ने कहा - उत्तर भारत में कपास की बुआई का काम करीब-करीब समाप्त हो चुका है और पंजाब में हमने इसके रकबे में तीव्र बढ़ोतरी देखी है। राजस्थान व हरियाणा में भी कपास के रकबे में इजाफा हुआ है। बेहतर रिटर्न के चलते किसानों ने धान व ग्वार की बजाय कपास का रुख किया है। देश के कुल कपास उत्पादन में उत्तर भारत करीब 12-13 फीसदी का योगदान करता है और यहां का कुल उत्पादन करीब 38 से 39 लाख गांठ है।इस बीच, उद्योग के विशेषज्ञों का कहना है कि कपास के रकबे में 5 से 10 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई है और यह पिछले साल के 111.6 लाख हेक्टेयर से बढ़कर इस साल 150 से 180 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है।कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के प्रबंध निदेशक बी के मिश्रा ने कहा - हमने इस साल कपास के रकबे में बढ़ोतरी देखी है। हाल में इसकी कीमतों में हुए उतारचढ़ाव के बाद भी किसान इसकी खेती की तरफ आकर्षित हुए हैं क्यों कि पिछले साल उनन्हें भारी रिटर्न मिला था। हालांकि इस बात का अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी कि साल 2011-12 में कपास का वास्तविक रकबा कितना होगा। लेकिन इसके रकबे में संभवत: 5 से 10 फीसदी की बढ़ोतरी होगी। उन्होंने यह भी बताया कि मार्च के बाद कपास की कीमतों में भारी गिरावट आई है।कपास के शंकर-6 किस्म की कीमतें मार्च में 62,500 रुपये प्रति कैंडी पर थीं, जो अब घटकर 45,000 रुपये रह गई है। वैश्विक बाजार में भी कपास की कीमतें तेजी से गिरी हैं। भारत में कपास का रकबा साल 2009-10 में 103.1 लाख हेक्टेयर था, जो 2010-11 में बढ़कर 111.6 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया था।गुजरात में इस साल कपास का रकबा 28 लाख हेक्टेयर रह सकता है, जबकि पिछले साल 26.3 लाख हेक्टेयर में कपास की बुआई हुई थी। गुजरात स्टेट कोऑपरेटिव कॉटन फेडरेशन के प्रबंध निदेशक एन एम शर्मा ने कहा - कपास से मिले रिटर्न से किसान उत्साहित हैं। ऐसे में गुजरात में भी इस सीजन में कपास का रकबा बढ़ेगा। उन्होंने कहा कि यहां कपास का रकबा बढ़कर 28 से 30 लाख हेक्टेयर पर पहुंच जाएगा।कपास का उत्पादन करने वाले अन्य प्रमुख राज्य आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश हैं। इन इलाकों में कपास की फसल मोटे तौर पर बारिश पर आश्रित होती है। इन इलाकों में कपास की बुआई जून के दूसरे हफ्ते से जोर पकड़ेगी। चूंकि दक्षिण पश्चिम मॉनसून देश के दक्षिणी हिस्सों में दस्तक दे चुका है और इसके धीरे-धीरे आगे बढऩे की संभावना है, लिहाजा किसान साल 2011-12 में कपास की सफल खेती के प्रति आशान्वित हैं। (BS Hindi)
साल 2011-12 में कपास के रकबे में करीब 5 से 10 फीसदी की बढ़ोतरी की संभावना है और इस तरह साल 2010-11 के 111.6 लाख हेक्टेयर के मुकाबले इसमें अच्छी खासी बढ़ोतरी होगी। रकबे में बढ़ोतरी इसलिए हो रही है क्योंकि कपास की ऊंची कीमतों के चलते ज्यादा से ज्यादा किसान कपास का रुख कर रहे हैं।कपास के रकबे में कुल मिलाकर बढ़ोतरी की संभावना इसलिए भी मजबूत हो रही है कि उत्तर भारत (पंजाब, हरियाणा और राजस्थान) में साल 2011-12 में कपास के रकबे मेंं 15-20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इन राज्यों में कपास की बुआई मोटे तौर पर समाप्त हो चुकी है। पंजाब, हरियाणा व राजस्थान में कपास के रकबे में करीब 2 लाख हेक्टेयर की बढ़ोतरी हुई है और यह आज के समय में 15 से 15.5 लाख हेक्टेयर के आसपास पहुंच गया है जबकि पिछले साल 13.5 लाख हेक्टेयर में कपास की बुआई हुई थी। नॉर्थ इंडिया कॉटन एसोसिएशन के अध्यक्ष राकेश राठी ने कहा - उत्तर भारत में कपास की बुआई का काम करीब-करीब समाप्त हो चुका है और पंजाब में हमने इसके रकबे में तीव्र बढ़ोतरी देखी है। राजस्थान व हरियाणा में भी कपास के रकबे में इजाफा हुआ है। बेहतर रिटर्न के चलते किसानों ने धान व ग्वार की बजाय कपास का रुख किया है। देश के कुल कपास उत्पादन में उत्तर भारत करीब 12-13 फीसदी का योगदान करता है और यहां का कुल उत्पादन करीब 38 से 39 लाख गांठ है।इस बीच, उद्योग के विशेषज्ञों का कहना है कि कपास के रकबे में 5 से 10 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई है और यह पिछले साल के 111.6 लाख हेक्टेयर से बढ़कर इस साल 150 से 180 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है।कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के प्रबंध निदेशक बी के मिश्रा ने कहा - हमने इस साल कपास के रकबे में बढ़ोतरी देखी है। हाल में इसकी कीमतों में हुए उतारचढ़ाव के बाद भी किसान इसकी खेती की तरफ आकर्षित हुए हैं क्यों कि पिछले साल उनन्हें भारी रिटर्न मिला था। हालांकि इस बात का अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी कि साल 2011-12 में कपास का वास्तविक रकबा कितना होगा। लेकिन इसके रकबे में संभवत: 5 से 10 फीसदी की बढ़ोतरी होगी। उन्होंने यह भी बताया कि मार्च के बाद कपास की कीमतों में भारी गिरावट आई है।कपास के शंकर-6 किस्म की कीमतें मार्च में 62,500 रुपये प्रति कैंडी पर थीं, जो अब घटकर 45,000 रुपये रह गई है। वैश्विक बाजार में भी कपास की कीमतें तेजी से गिरी हैं। भारत में कपास का रकबा साल 2009-10 में 103.1 लाख हेक्टेयर था, जो 2010-11 में बढ़कर 111.6 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया था।गुजरात में इस साल कपास का रकबा 28 लाख हेक्टेयर रह सकता है, जबकि पिछले साल 26.3 लाख हेक्टेयर में कपास की बुआई हुई थी। गुजरात स्टेट कोऑपरेटिव कॉटन फेडरेशन के प्रबंध निदेशक एन एम शर्मा ने कहा - कपास से मिले रिटर्न से किसान उत्साहित हैं। ऐसे में गुजरात में भी इस सीजन में कपास का रकबा बढ़ेगा। उन्होंने कहा कि यहां कपास का रकबा बढ़कर 28 से 30 लाख हेक्टेयर पर पहुंच जाएगा।कपास का उत्पादन करने वाले अन्य प्रमुख राज्य आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश हैं। इन इलाकों में कपास की फसल मोटे तौर पर बारिश पर आश्रित होती है। इन इलाकों में कपास की बुआई जून के दूसरे हफ्ते से जोर पकड़ेगी। चूंकि दक्षिण पश्चिम मॉनसून देश के दक्षिणी हिस्सों में दस्तक दे चुका है और इसके धीरे-धीरे आगे बढऩे की संभावना है, लिहाजा किसान साल 2011-12 में कपास की सफल खेती के प्रति आशान्वित हैं। (BS Hindi)
अब राज करेगी घरवाली
नई दिल्ली 06 03, 2011
देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अब महिलाओं का रुतबा बढ़ाने की तैयारी शुरू हो गई है। खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे में 18 साल से अधिक उम्र की लड़की या महिला को परिवार का प्रमुख बनाने का प्रस्ताव शामिल है। अब तक राशन कार्ड के वितरण के दौरान जीवित पुरुष सदस्य को ही परिवार का मुखिया माना जाता था। अधिकारियों का कहना है कि प्रस्तावित विधेयक में अनाज की मासिक अधिप्राप्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी। मसौदे में राज्य में खाद्य वस्तुओं की पर्याप्त आपूर्ति नहीं होने पर नकद देने की भी बात कही गई है। प्रस्ताव पारित हुआ तो खुले बाजार से अनाज खरीदने में महिलाओं की रायशुमारी बढ़ेगी। मसौदे में प्रस्ताव है कि अगर किसी परिवार में सभी महिलाओं की उम्र 18 साल से कम है तो उनमें से सबसे बड़ी महिला की उम्र 18 साल होते ही उसे परिवार का मुखिया बनाया जाए।संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्टï्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने भी राशन कार्ड के वितरण में महिला को परिवार का मुखिया बनाने की सिफारिश की थी। खाद्य सुरक्षा बिल काफी हद तक परिषद की सिफारिशों पर ही आधारित है।मसौदे में परिवार के बजाय व्यक्तियों के आधार पर अनाज बांटने का प्रस्ताव भी शामिल है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया की अध्यक्षता में खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण पर बनाए गए कार्यकारी समूह ने भी ऐसा ही सुझाव दिया था।फिलहाल सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवार को तय मात्रा में अनाज मिलता है। इसमें परिवार के सदस्यों की संख्या को अहमियत नहीं दी जाती है। विशेषज्ञों का मानना है कि इससे सही तरीके से अनाज का आवंटन नहीं हो पाता है। विधेयक में गरीबी रेखा से ऊपर रहने वाले 29 फीसदी परिवारों को कानूनी रूप से अनाज देने का प्रस्ताव है। हालांकि एनएसी ने इसके दायरे में गरीबी रेखा से ऊपर रहने वाले 44 फीसदी परिवारों को लाने की सिफारिश की थी।मसौदे में कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति के खिलाफ कड़ी दंडात्मक कार्रवाई करने की भी सिफारिश है। मसौदे में केंद्रीय या राज्य स्तर पर इस कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को तीन साल की कारावास या 3 लाख रुपये का जुर्माना या फिर कारावास व जुर्माना दोनों लगाने का प्रस्ताव है। मसौदे में अनाज वितरण संबंधी शिकायतों को 15 दिन में सुलझाने का निर्देश है। एनएसी की सिफारिश मानते हुए गर्भवती महिलाओं, असहाय, बेघर, प्रवासी मजदूर और बच्चों को अनाज या पका हुआ भोजन देने का भी प्रस्ताव है। (BS Hindi)
देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अब महिलाओं का रुतबा बढ़ाने की तैयारी शुरू हो गई है। खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे में 18 साल से अधिक उम्र की लड़की या महिला को परिवार का प्रमुख बनाने का प्रस्ताव शामिल है। अब तक राशन कार्ड के वितरण के दौरान जीवित पुरुष सदस्य को ही परिवार का मुखिया माना जाता था। अधिकारियों का कहना है कि प्रस्तावित विधेयक में अनाज की मासिक अधिप्राप्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी। मसौदे में राज्य में खाद्य वस्तुओं की पर्याप्त आपूर्ति नहीं होने पर नकद देने की भी बात कही गई है। प्रस्ताव पारित हुआ तो खुले बाजार से अनाज खरीदने में महिलाओं की रायशुमारी बढ़ेगी। मसौदे में प्रस्ताव है कि अगर किसी परिवार में सभी महिलाओं की उम्र 18 साल से कम है तो उनमें से सबसे बड़ी महिला की उम्र 18 साल होते ही उसे परिवार का मुखिया बनाया जाए।संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्टï्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने भी राशन कार्ड के वितरण में महिला को परिवार का मुखिया बनाने की सिफारिश की थी। खाद्य सुरक्षा बिल काफी हद तक परिषद की सिफारिशों पर ही आधारित है।मसौदे में परिवार के बजाय व्यक्तियों के आधार पर अनाज बांटने का प्रस्ताव भी शामिल है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया की अध्यक्षता में खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण पर बनाए गए कार्यकारी समूह ने भी ऐसा ही सुझाव दिया था।फिलहाल सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवार को तय मात्रा में अनाज मिलता है। इसमें परिवार के सदस्यों की संख्या को अहमियत नहीं दी जाती है। विशेषज्ञों का मानना है कि इससे सही तरीके से अनाज का आवंटन नहीं हो पाता है। विधेयक में गरीबी रेखा से ऊपर रहने वाले 29 फीसदी परिवारों को कानूनी रूप से अनाज देने का प्रस्ताव है। हालांकि एनएसी ने इसके दायरे में गरीबी रेखा से ऊपर रहने वाले 44 फीसदी परिवारों को लाने की सिफारिश की थी।मसौदे में कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति के खिलाफ कड़ी दंडात्मक कार्रवाई करने की भी सिफारिश है। मसौदे में केंद्रीय या राज्य स्तर पर इस कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को तीन साल की कारावास या 3 लाख रुपये का जुर्माना या फिर कारावास व जुर्माना दोनों लगाने का प्रस्ताव है। मसौदे में अनाज वितरण संबंधी शिकायतों को 15 दिन में सुलझाने का निर्देश है। एनएसी की सिफारिश मानते हुए गर्भवती महिलाओं, असहाय, बेघर, प्रवासी मजदूर और बच्चों को अनाज या पका हुआ भोजन देने का भी प्रस्ताव है। (BS Hindi)
02 जून 2011
सरकार ने खाद्य सामग्री की बर्बादी को रोकने के लिए समिति का गठन किया
उपभोक्ता मामले, खाद्य व सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने खाद्य पदार्थों की बर्बादी को रोकने के लिए संभव उपाय एवं मार्ग सुझाने के लिए और इस संबंध में विचार-विमर्श करने के लिए एक पन्द्रह सदस्यीय समिति का गठन किया है । खाद्य सामग्रियों की बर्बादी पर और दिखावे के नाम पर खास तौर पर शादियों/पार्टियों/बैठकों जैसे अवसरों के नाम पर की गई बर्बादी पर समय–समय पर चिंता व्यक्त की गई है । यह अनुमान लगाया गया है कि हमारे देश में खाद्य सामग्रियों का लगभग 15 से 20 प्रतिशत ऐसे सामाजिक समारोहों में बर्बाद हो जाता है । यह समिति खाद्य सामग्री की बर्बादी को रोकने के लिए उपयुक्त जागरूकता कार्यक्रम/जन अभियान का सुझाव देगी । यह इस दिशा में विधार्थी एवं प्रशासनिक पहलों को शुरू करने के लिए विभिन्न विकल्पों की भी तलाश करेगी । इसके अलावा यह समिति इस बात की भी जांच करेगी कि किस प्रकार सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र मितव्ययिता के द्वारा एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं । उपभोक्ता मामलों के सचिव श्री राजीव अग्रवाल इस समिति के अध्यक्ष होंगे । इस समिति के सदस्य हैं : पत्र सूचना कार्यालय की प्रधान महानिदेशक (मीडिया व संचार) श्रीमती नीलम कपूर, डीएवीपी के महानिदेशक ए. पी. फ्रैंक नोरोन्हा, तमिलनाडु सरकार के खाद्य एवं उपभोक्ता संरक्षण विभाग के प्रधान सचिव स्वर्ण सिंह, पश्चिम बंगाल सरकार के उपभोक्ता मामले के प्रधान सचिव के. साथियावासन, महाराष्ट्र सरकार के खाद्य व जन आपूर्ति विभाग के सचिव बलदेव सिंह, दिल्ली सरकार के खाद्य व जन आपूर्ति विभाग के सचिव धरम पाल, पत्रकार के. एम. रॉय, पत्रकार जॉर्ज वर्गीज, पूर्व विधायक एम. ए. चंद्रशेखरन , उपभोक्ता विषय पर लिखने वाली पुस्पा गिरिमाजी, उपभोक्ता कार्यकर्ता विनोद आशिष, उपभोक्ता कार्यकर्ता राजन गांधी, आईआईपीए में उपभोक्ता अध्ययन केंद्र के प्रोफेसर सुरेश मिश्रा । उपभोक्ता मामले विभाग के उप सचिव जी. एन. सिंह इस समिति के संयोजक होंगे । (Pib)
महंगा पड़ रहा है ड्रैगन का सोना प्रेम
मुंबई : भारतीय खरादारों को सोने के गहनों के लिए ज्यादा कीमत चुकानी होगी। इसकी वजह सिर्फ
सोने की बढ़ती कीमतें नहीं हैं। दरअसल, चीन में बढ़ी मांग के चलते भारतीय उपभोक्ताओं की जेब ढीली होगी। चीन में मांग बढ़ने और विमानों का ईंधन महंगा होने के चलते विदेशी सप्लाइकर्ताओं ने हाल में सोने पर प्रीमियम बढ़ा दिया है। एक प्रमुख सरकारी बैंक की बुलियन ब्रांच के एक अधिकारी ने कहा कि सप्लायरों ने इस महीने चीनी मांग में तेज उछाल के चलते एक औंस (31.10 ग्राम) के लिए प्रीमियम 75 सेंट से एक डॉलर तक बढ़ा दिया। घरेलू ज्वैलर्स को सोने की सप्लाई करने वाले स्कॉटियाबैंक के एक अधिकारी ने कहा कि जेट ईंधन में तेजी ने भी बैंक को प्रीमियम बढ़ाने के लिए मजबूर किया है। सरकारी बैंक के अधिकारी ने कहा, 'चीन से मांग लगातार बढ़ रही है। उनकी वजह से सप्लाई पर दबाव पड़ा है, जिसके चलते इस महीने प्रीमियम 1-1.5 डॉलर प्रति औंस से बढ़कर 1.5-2 डॉलर प्रति औंस हो गया।' बैंक सप्लायर के प्रीमियम के ऊपर 30-50 सेंट प्रति औंस का कमीशन लेता है। सप्लायर के प्रीमियम में पैकिंग, इंश्योरेंस और ट्रांसपोर्ट का खर्च शामिल होता है। स्कॉटियाबैंक की शाखा स्कॉटियामोकाटा के एमडी (बुलियन) राजन वेंकटेश के मुताबिक, हवाई ईंधन की ऊंची कीमतों की भरपाई के लिए सोने के प्रीमियम में 20-30 सेंट प्रति औंस की हल्की बढ़ोतरी की गई थी। सोने की ढुलाई मुख्य तौर पर हवाई रास्ते से होती है। क्रूड ऑयल की कीमतों में तेजी के साथ अंतरराष्ट्रीय जेट ईंधन के दाम मार्च के 918.5 डॉलर प्रति किलोलीटर से बढ़कर अप्रैल में 1020.66 डॉलर प्रति किलोलीटर और मई में 1061.14 प्रति किलोलीटर रहे। पिछले 11 वषोर्ं से हर साल सोने के भाव बढ़े हैं। डॉलर में कमजोरी और हाल में यूरो जोन के कर्ज संकट, साथ ही चीन और भारत जैसे उभरते बाजारों में महंगाई की वजह से पिछले एक साल में सोने के भाव में 21 फीसदी की तेजी आई है और यह 22,593 रुपए प्रति 10 ग्राम पर पहुंच गया है। सोने के भाव में डॉलर से उलटी गति देखी जाती है और महंगाई के खिलाफ हेजिंग के लिए इसका इस्तेमाल होता है। वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल (डब्ल्यूजीसी) ने पाया है कि साल 2011 की पहली तिमाही में चीन में सोने की मांग वहां के लोगों के सांस्कृतिक जुड़ाव, महंगाई पर काबू पाने के लिए की जा रही मौद्रिक सख्ती और सोने पर चीन के केंदीय बैंक की सकारात्मक नजर तथा रियल एस्टेट से नकदी दूसरे सेक्टरों में जाने की वजह से बढ़ी है। बैंकरों का कहना है, 'आज चीन दुनिया में सोने का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है। 2010 में सोने के भाव में औसतन सालाना 25 फीसदी की तेजी के बाद भी सोने की मांग 32 फीसदी बढ़ी। पहली बार ज्वैलरी, निवेश और टेकनेलॉजी सभी को मिलाकर सोने की सालाना मांग 700 टन के पार पहुंच गई।' बैंकरों का कहना है कि फिलहाल चीन की मांग भारत से ज्यादा है। चीन ने पिछले साल 958 टन सोने का आयात किया था। डब्ल्यूजीसी के मुताबिक, चालू साल की पहली तिमाही में सोने की ज्वैलरी के लिए भारतीय मांग 206.2 टन रही, जो वैश्विक मांग का 37 फीसदी है। (ET Hindi)
सोने की बढ़ती कीमतें नहीं हैं। दरअसल, चीन में बढ़ी मांग के चलते भारतीय उपभोक्ताओं की जेब ढीली होगी। चीन में मांग बढ़ने और विमानों का ईंधन महंगा होने के चलते विदेशी सप्लाइकर्ताओं ने हाल में सोने पर प्रीमियम बढ़ा दिया है। एक प्रमुख सरकारी बैंक की बुलियन ब्रांच के एक अधिकारी ने कहा कि सप्लायरों ने इस महीने चीनी मांग में तेज उछाल के चलते एक औंस (31.10 ग्राम) के लिए प्रीमियम 75 सेंट से एक डॉलर तक बढ़ा दिया। घरेलू ज्वैलर्स को सोने की सप्लाई करने वाले स्कॉटियाबैंक के एक अधिकारी ने कहा कि जेट ईंधन में तेजी ने भी बैंक को प्रीमियम बढ़ाने के लिए मजबूर किया है। सरकारी बैंक के अधिकारी ने कहा, 'चीन से मांग लगातार बढ़ रही है। उनकी वजह से सप्लाई पर दबाव पड़ा है, जिसके चलते इस महीने प्रीमियम 1-1.5 डॉलर प्रति औंस से बढ़कर 1.5-2 डॉलर प्रति औंस हो गया।' बैंक सप्लायर के प्रीमियम के ऊपर 30-50 सेंट प्रति औंस का कमीशन लेता है। सप्लायर के प्रीमियम में पैकिंग, इंश्योरेंस और ट्रांसपोर्ट का खर्च शामिल होता है। स्कॉटियाबैंक की शाखा स्कॉटियामोकाटा के एमडी (बुलियन) राजन वेंकटेश के मुताबिक, हवाई ईंधन की ऊंची कीमतों की भरपाई के लिए सोने के प्रीमियम में 20-30 सेंट प्रति औंस की हल्की बढ़ोतरी की गई थी। सोने की ढुलाई मुख्य तौर पर हवाई रास्ते से होती है। क्रूड ऑयल की कीमतों में तेजी के साथ अंतरराष्ट्रीय जेट ईंधन के दाम मार्च के 918.5 डॉलर प्रति किलोलीटर से बढ़कर अप्रैल में 1020.66 डॉलर प्रति किलोलीटर और मई में 1061.14 प्रति किलोलीटर रहे। पिछले 11 वषोर्ं से हर साल सोने के भाव बढ़े हैं। डॉलर में कमजोरी और हाल में यूरो जोन के कर्ज संकट, साथ ही चीन और भारत जैसे उभरते बाजारों में महंगाई की वजह से पिछले एक साल में सोने के भाव में 21 फीसदी की तेजी आई है और यह 22,593 रुपए प्रति 10 ग्राम पर पहुंच गया है। सोने के भाव में डॉलर से उलटी गति देखी जाती है और महंगाई के खिलाफ हेजिंग के लिए इसका इस्तेमाल होता है। वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल (डब्ल्यूजीसी) ने पाया है कि साल 2011 की पहली तिमाही में चीन में सोने की मांग वहां के लोगों के सांस्कृतिक जुड़ाव, महंगाई पर काबू पाने के लिए की जा रही मौद्रिक सख्ती और सोने पर चीन के केंदीय बैंक की सकारात्मक नजर तथा रियल एस्टेट से नकदी दूसरे सेक्टरों में जाने की वजह से बढ़ी है। बैंकरों का कहना है, 'आज चीन दुनिया में सोने का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है। 2010 में सोने के भाव में औसतन सालाना 25 फीसदी की तेजी के बाद भी सोने की मांग 32 फीसदी बढ़ी। पहली बार ज्वैलरी, निवेश और टेकनेलॉजी सभी को मिलाकर सोने की सालाना मांग 700 टन के पार पहुंच गई।' बैंकरों का कहना है कि फिलहाल चीन की मांग भारत से ज्यादा है। चीन ने पिछले साल 958 टन सोने का आयात किया था। डब्ल्यूजीसी के मुताबिक, चालू साल की पहली तिमाही में सोने की ज्वैलरी के लिए भारतीय मांग 206.2 टन रही, जो वैश्विक मांग का 37 फीसदी है। (ET Hindi)
तांबा, सोना और कोयले के दाम में रहेगी तेजी
मुंबई: अगले दो से तीन सालों के दौरान कमोडिटी में तेजी की अगुवाई तांबा, सोना, लौह अयस्क और कोयला के हाथों में होगी। यह कहना है स्टैंडर्ड चार्टर्ड का। बैंक मुताबिक, भारत और चीन जैसे देशों में खपत ज्यादा रहने की वजह से इन कमोडिटी की मांग आपूर्ति से ज्यादा रहेगी। स्टैंचार्ट के ग्लोबल हेड (कमोडिटी सेल्स) आशीष मित्तल ने कहा, 'मांग और आपूर्ति के बीच अंतर बढ़ रहा है। इसकी वजह से अगले तीन सालों के दौरान कमोडिटी की कीमतें बढ़ेंगी। असल में वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान कंपनियों ने कई निवेश स्थगित कर दिए थे।' अप्रैल में भी लगातार पांचवें महीने स्टैंडर्ड एंड पुअर्स जीएससीआई इंडेक्स ने शेयरों, बॉन्ड और डॉलर से बेहतर प्रदर्शन किया है। इसकी प्रमुख वजह निवेशकों की कमोडिटी में दिलचस्पी है। ऊंची मंहगाई दर के चलते निवेशक कमोडिटी पर दांव लगाना फायदेमंद मान रहे हैं। पिछले करीब 14 सालों में यह पहला मौका है, जब इस इंडेक्स ने लगातार पांच महीनों तक शेयर, बॉन्ड और डॉलर को पीछे किया है। इस इंडेक्स में 24 कमोडिटी शामिल हैं। उधर, गोल्डमैन सैक्स ने भी इस हफ्ते कमोडिटी में तेजी का रुझान व्यक्त किया है। इसने ऑयल, तांबा और जिंक में खरीदारी की सलाह दी है जबकि पिछले महीने गौल्डमैन सैक्स ने इन कमोडिटी को बेचने की सलाह दी थी। गुरुवार को जी-8 के नेताओं की ओर से ऐसे संकेत आए कि कमोडिटी की ऊंची कीमतें वैश्विक आर्थिक रिकवरी के लिए खतरा साबित हो सकती हैं। बैंक ऑफ जापान के असिस्टेंट गवर्नर हिरोशी नाकासो ने कहा कि उभरते बाजारों में तेज ग्रोथ की वजह से पैदा हो रही मांग को पूरा करने में उत्पादकों को समय लग सकता है, जिसके कारण कीमतों में और इजाफे की आशंका है। कमोडिटी की बढ़ती कीमतों के कारण अप्रैल में वैश्विक खाद्य कीमतें रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गईं। इसके चलते कई देशों के केंद्रीय बैंकों को ब्याज दरों में वृद्धि करनी पड़ी। मित्तल ने कहा, 'लोग अपनी कारों के लिए महंगे ईंधन का खर्च वहन कर सकते हैं, लेकिन वे खाद्य पदार्थों की ऊंची कीमतें नहीं दे सकते।' मित्तल ने कहा कि कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने का असर कृषि कमोडिटी पर भी पड़ेगा क्योंकि क्रूड के दाम बढ़ने से वैकल्पिक ईंधन की मांग बढ़ेगी और चीनी, मक्का और पॉम ऑयल के भाव बढ़ेंगे। संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक, पिछले महीने 55 खाद्य कमोडिटी का एक सूचकांक बढ़कर 232.1 पर पहुंच गया जो मार्च में 231 अंक पर था। फरवरी में यह सूचकांक 237.2 अंक के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया था। 6 मई को खत्म हुए हफ्ते के दौरान एसएंडपी जीएससीआई इंडेक्स 11 फीसदी उछल गया, जो दिसंबर 2008 के बाद से सबसे बड़ा उछाल है। पिछले साल की तुलना में इस साल इसमें 10 फीसदी उछाल आ चुका है। गैसोलीन, गैस ऑयल और चांदी में आई तेजी की वजह से इसमें इतनी उछाल देखने को मिली। (ET Hindi)के
रबड़ के दाम में फिर आ सकता है उछाल
कोच्चि : पिछले कुछ हफ्तों में प्राकृतिक रबड़ की कीमतों में तेज गिरावट आई है। इसकी वजह ज्यादा उत्पादन और बढ़ता आयातहै। हालांकि, मानसून आने के बाद रबड़ का ऑफ सीजन होने पर इसकी कीमतों में फिर बढ़ोतरी हो सकती है। मई में टायर कंपनियों की खरीदारी टालने से रबड़ की हाजिर कीमत में 11 फीसदी गिरावट आई थी। बाजार के सूत्रों के मुताबिक, कुल रबड़ उत्पादन की 62 फीसदी खरीदारी टायर कंपनियां करती हैं। मई के दौरान उनकी खरीदारी में 25 फीसदी की कमी आई थी। अप्रैल में रबड़ का उत्पादन लगभग 6 फीसदी ज्यादा रहा। रबड़ उत्पादकों और डीलरों के मुताबिक, मई में भी ऐसी की स्थिति रह सकती है। वित्त वर्ष 2010-11 में उत्पादन में लगभग 4 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी। इंडियन रबड़ डीलर्स फेडरेशन के प्रेसिडेंट जॉर्ज वैली के मुताबिक, 'ज्यादा बारिश, पेड़ों की बेहतर सुरक्षा और 20 फीसदी आयात शुल्क को बदलकर 20 रुपए या 20 फीसदी (जो भी कम हो) किए जाने से कीमतों में गिरावट आई है।' अप्रैल से 27 मई के बीच देश में 16,668 टन रबड़ का आयात हुआ, लेकिन यह पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 35 फीसदी कम है। सूत्रों के मुताबिक, आने वाले दिनों में और रबड़ का आयात हो सकता है। बाजार के जानकारों का कहना है कि मानसून के दौरान उत्पादन का ऑफ सीजन शुरू होने पर रबड़ की कीमतों में फिर से उछाल आ सकता है। केरल तट पर उम्मीद से पहले मानसून आने से उत्पादन में कमी और कीमतों में बढ़ोतरी हो सकती है। मई में 215 रुपए प्रति किलो की दर से बिक रहे रबड़ की कीमत सोमवार को 218 रुपए प्रति किलोग्राम हो गई थी। विदेशी बाजार में मई के अंतिम पखवाड़े में रबड़ की कीमतों में कमी आई। इस दौरान इसकी औसत कीमत 230.63 रुपए प्रति किलोग्राम रही। (ET Hindi)
पेट्रोल में एथॅनाल मिलाने के कार्यक्रम पर संकट के बादल
नई दिल्लीः पेट्रोल में अनिर्वाय रूप से 5 फीसदी एथनॉल मिलाने के प्रस्ताव पर काले बादल घिर आए हैं। एक प्रभावशाली सलाहकार समिति ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस कार्यक्रम पर दोबारा विचार करने या कम से कम फिलहाल इसे अनिवार्य न बनाने का मशविरा दिया है। सी रंगराजन की अगुवाई वाली प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी) ने कहा है कि देशभर में पेट्रोल में एथनॉल मिलाने का कार्यक्रम शुरू करने से पहले से कुछ सवालों के जवाब ढूंढे जाने चाहिए। एक सरकारी अधिकारी ने बताया कि ईएसी ने सरकार को फिलहाल एथनॉल मिश्रण को अनिवार्य बनाने से बचने और रसायन तथा पोटेबल अल्कोहल जैसे दूसरे अहम क्षेत्रों की जरूरत पूरा होने के बाद बचने वाले एथनॉल पर काम करने की सलाह दी थी। अप्रैल के मध्य में लिखे गए एक पत्र में दलील दी गई है कि मंत्रालय की ओर से बताए गए उद्देश्यों और इन उद्देश्यों का समर्थन करने वाले सबूतों के बीच 'तालमेल' की भारी कमी है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने इन सवालों को खाद्य, पीडीएस और उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के सामने रखा था, जिसने ब्लेंडिंग के इस कार्यक्रम पर विचार-विमर्श किया। एथनॉल मिलाने को अनिवार्य बनाने के पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे विदेशी मुद्रा की बचत होगी, ऊर्जा सुरक्षा मिलेगी, चीनी सेक्टर को फायदा पहुंचेगा और साथ ही पर्यावरण की दृष्टि से भी यह कदम वाजिब रहेगा। यह कार्यक्रम तभी कामयाब रहेगा, जब पर्याप्त मात्रा में एथनॉल हो। और इस बारे में राय बंटी हुई है। रसायन और अल्कोहल उद्योग का कहना है कि सभी के लिए पर्याप्त एथनॉल नहीं है। अगर एथनॉल को ब्लेंडिंग के लिए घुमा दिया जाता है, तो उन्हें अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए आयात करने पर मजबूर होना होगा। तमिलनाडु ने पहले ही एथनॉल ब्लेंडिंग कार्यक्रम के लिए होने वाली सप्लाई पर पाबंदी लगा दी है, जबकि बिहार ने 'अनाधिकारिक' रूप से इसे प्रोत्साहित न करने का रुख दिखाया है। योजना आयोग के सदस्य सौमित्र चौधरी की अगुवाई में सरकार की ओर से गठित एक समिति ने एथनॉल की उपलब्धता को लेकर सवाल खड़े किए थे। चौधरी ईएसी के सदस्य भी हैं। हालांकि, चौधरी पैनल के आठ सदस्यों में से पांच ने एथनॉल के सेक्टरवार आवंटन के मुद्दे के खिलाफ जाने का फैसला किया है, जिसमें एथनॉल ब्लेंडिंग कार्यक्रम भी शामिल है। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) के महानिदेशक ए वर्मा ने 5 फीसदी ब्लेंडिंग कार्यक्रम के लिए एथनॉल की सप्लाई में कमी आने वाली चिंताओं को सिरे से दरकिनार किया है। उन्होंने बताया कि 58 करोड़ लीटर की सप्लाई के लिए पहले ही अनुबंध हो चुका है। सौमित्र चौधरी पैनल का कहना है कि ब्लेंडिंग के लिए 60 करोड़ लीटर एथनॉल उपलब्ध है। अक्टूबर से शुरू होने वाले साल में एथनॉल की कुल मांग 100 करोड़ लीटर रहने की उम्मीद जताई जा रही है। ईएसी ने खाद्य सुरक्षा चिंताओं को लेकर सीधे गन्ने से एथनॉल का उत्पादन करने का भी विरोध किया है। फिलहाल एथनॉल का उत्पादन चीनी मैन्युफैक्चरिंग के बाई-प्रोडक्ट के रूप में होता है। (ET Hindi)
रीटेल में 51% FDI करने का सशर्त प्रस्ताव
नई दिल्लीः वॉलमार्ट, कैरफूर और टेस्को जैसी मल्टीनेशनल रीटेल कंपनियों को भारत में अपने आउटलेट खोलने की इजाजत जल्द ही मिल सकती है, हालांकि उन्हें निवेश, सप्लाई और बड़े शहरों में स्टोर की सीमा को लेकर कई पाबंदियों का सामना करना पड़ेगा। औद्योगिक नीति और संवर्द्धन विभाग (डीआईपीपी) एक ऐसा प्रस्ताव कैबिनेट के पास भेज सकता है, जिसमें मल्टी ब्रांड रीटेल में 51 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की सिफारिश हो। डीआईपीपी इस सेक्टर में विदेशी निवेश की न्यूनतम सीमा 10 करोड़ डॉलर तय कर सकता है। इस कदम का राजनीतिक विरोध न हो, इसलिए विदेशी रीटेल चेन स्टोर पर आखिरी फैसले का अधिकार संबंधित राज्य सरकारों को दिए जाने का प्रस्ताव है। डीआईपीपी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम नहीं जाहिर करने की शर्त पर बताया, 'ड्राफ्ट फ्रेमवर्क तैयार कर लिया गया है। इसमें छोटे दुकानदारों के हितों की रक्षा के लिए पर्याप्त इंतजाम किए गए हैं। ड्राफ्ट फ्रेमवर्क में यह कोशिश की गई है कि इस सेक्टर में एफडीआई आने से बैक-एंड इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूती मिले।' ड्राफ्ट फ्रेमवर्क को एक सचिवों की समिति को बांटा गया है। समिति इसमें संशोधन करके इसे अंतिम रूप देगी, जिसके बाद औपचारिक कैबिनेट नोट भेजा जाएगा। हफ्ते भर पहले कौशिक बसु की अगुवाई वाली उच्चस्तरीय अंतर-मंत्रालयी समिति ने मल्टी ब्रांड रीटेल सेक्टर को एफडीआई के लिए खोलने की सिफारिश की थी। भारत में अभी सिंगल ब्रांड रीटेल में 51 फीसदी और होलसेल कैश एंड कैरी में 100 फीसदी एफडीआई की इजाजत है। डीआईपीपी के प्रस्ताव के मुताबिक, विदेशी रीटेलरों को कम से कम 50 फीसदी निवेश बैक-एंड इंफ्रास्ट्रक्चर में करना होगा। इस निवेश के स्टेटमेंट ऑफ एकाउंट को उन्हें आरबीआई और विदेशी निवेश संवर्द्धन बोर्ड (एफआईपीबी) के पास जमा कराना होगा। सरकार बैक-एंड इंफ्रास्ट्रक्चर को अलग इकाई के जरिए तैयार करने की इजाजत भी दे सकती है, जिससे उसे इस पर नजर रखने में सहूलियत होगी। विदेशी रीटेलरों को खाद्य उत्पाद सहित 30 फीसदी सामान भारत में छोटे और मझोले उपक्रम से खरीदने होंगे। विदेशी मल्टी ब्रांड रीटेल स्टोर को खोलने की इजाजत उन्हीं शहरों में दी जाएगी, जिनकी आबादी 10 लाख से ज्यादा है। हालांकि इस बारे में आखिरी फैसला राज्यों पर छोड़ा जा सकता है। आउटलेट शहर के 10 किलोमीटर के दायरे में हो सकता है। डीआईपीपी के इस अधिकारी ने बताया कि सरकार चाहती है कि मल्टी ब्रांड रीटेल में एफडीआई से बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन हो। साथ ही इससे बैंक-एंड इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत बनाने में भी मदद मिलनी चाहिए। भारत में कोल्ड चेन की कमी से 40 फीसदी कृषि उत्पाद बर्बाद हो जाते हैं। उद्योग के अनुमान के मुताबिक, इससे सालाना 50,000 करोड़ रुपए का नुकसान होता है। भारत में रीटेल इंडस्ट्री 400 अरब डॉलर की है और यह तेजी से बढ़ रही है। मल्टीनेशनल रीटेल चेन यहां आने के लिए काफी समय से लॉबीइंग कर रहे हैं। हालांकि लेफ्ट और बीजेपी सहित दूसरे आलोचकों का कहना है कि विदेशी रीटेल चेन के आने से छोटे दुकानदारों के हितों को चोट पहुंचेगी। (ET Hindi)
चीनी निर्यात के लिए 3 लाख टन के परमिट जारी
सरकार ने चीनी निर्यात के लिए ओपन जरनल लाइसेंस (ओजीएल) के तहत 337,407 टन चीनी के परमिट जारी कर दिए हैं। सरकार ने ओजीएल के तहत पांच लाख टन चीनी के निर्यात की अनुमति दी हुई है। इसमें से 51,500 टन चीनी पड़ोसी देशों के लिए आरक्षित रखी गई है बाकी 4.48 लाख टन चीनी का निर्यात ओजीएल के तहत होना है।
खाद्य मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि 30 मई तक 337,407 टन चीनी निर्यात के लिए रिलीज आर्डर जारी कर दिए हैं। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में खाद्य मामलों पर उच्च अधिकार प्राप्त मंत्रियों के समूह (ईजीओएम) ने 22 मार्च को चीनी मिलों के लिए ओजीएल के तहत पांच लाख टन चीनी निर्यात करने की इजाजत दी थी।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी की कीमतों में पिछले चार महीनों में 22.7 फीसदी की गिरावट आई है। न्यूयॉर्क के आईसीई एक्सचेंज में फरवरी महीने में रॉ शुगर का भाव 30 सेंट प्रति बुशल था जबकि 31 मई को जुलाई वायदा भाव 23.18 सेंट प्रति बुशल पर बंद हुआ। व्हाइट शुगर का भाव लिफ्फे में अगस्त महीने के वायदा अनुबंध में 31 मई को 672 डॉलर प्रति टन पर बंद हुआ। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों में आई गिरावट से निर्यात सीमित मात्रा में ही हो रहा है।
इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन के महानिदेशक अविनाश वर्मा ने बताया कि चालू पेराई सीजन 2010-11 में (अक्टूबर से सितंबर) के दौरान देश में चीनी का उत्पादन 242 लाख टन होने का अनुमान है जबकि सीजन के शुरू में 250 लाख टन उत्पादन होने का अनुमान लगाया गया था। देश में चीनी की सालाना खपत 225 लाख टन की होती है। 15 मई तक 226.5 लाख टन चीनी का उत्पादन हो चुका है जबकि पिछले की समान अवधि में 183 लाख टन चीनी का उत्पादन हुआ था। (Business Bhaskar...R S Rana)
खाद्य मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि 30 मई तक 337,407 टन चीनी निर्यात के लिए रिलीज आर्डर जारी कर दिए हैं। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में खाद्य मामलों पर उच्च अधिकार प्राप्त मंत्रियों के समूह (ईजीओएम) ने 22 मार्च को चीनी मिलों के लिए ओजीएल के तहत पांच लाख टन चीनी निर्यात करने की इजाजत दी थी।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी की कीमतों में पिछले चार महीनों में 22.7 फीसदी की गिरावट आई है। न्यूयॉर्क के आईसीई एक्सचेंज में फरवरी महीने में रॉ शुगर का भाव 30 सेंट प्रति बुशल था जबकि 31 मई को जुलाई वायदा भाव 23.18 सेंट प्रति बुशल पर बंद हुआ। व्हाइट शुगर का भाव लिफ्फे में अगस्त महीने के वायदा अनुबंध में 31 मई को 672 डॉलर प्रति टन पर बंद हुआ। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों में आई गिरावट से निर्यात सीमित मात्रा में ही हो रहा है।
इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन के महानिदेशक अविनाश वर्मा ने बताया कि चालू पेराई सीजन 2010-11 में (अक्टूबर से सितंबर) के दौरान देश में चीनी का उत्पादन 242 लाख टन होने का अनुमान है जबकि सीजन के शुरू में 250 लाख टन उत्पादन होने का अनुमान लगाया गया था। देश में चीनी की सालाना खपत 225 लाख टन की होती है। 15 मई तक 226.5 लाख टन चीनी का उत्पादन हो चुका है जबकि पिछले की समान अवधि में 183 लाख टन चीनी का उत्पादन हुआ था। (Business Bhaskar...R S Rana)
उत्तरी राज्यों में बीटी कपास बीजों की 15% ज्यादा बिक्री
रुझान - अच्छे दाम मिलने से किसानों की कपास में दिलचस्पी बढ़ीदेशव्यापी तस्वीर:- चालू सीजन में बीटी कपास के बीजों की देशभर में कुल मांग बढ़कर 4 से 4.25 करोड़ पैकेट होने का अनुमान है। जबकि पिछले साल बीटी कपास के बीजों की कुल बिक्री 3.60 करोड़ पैकेट की हुई थी।उत्तर भारत के राज्यों पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में चालू सीजन में बीटी कपास के बीजों की बिक्री में 15 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। चालू सीजन में कीमतों में आई भारी तेजी को देखते हुए किसानों ने कपास की ज्यादा बुवाई की है। चालू सीजन में उत्तर भारत में 57 से 58 लाख पैकेटों (एक पैकेट-450 ग्राम) की बिक्री हुई है जबकि पिछले साल कुल बिक्री 50 लाख पैकेटों की ही हुई थी।
रासी सीड प्राइवेट लिमिटेड के रीजनल बिजनेस मैनेजर निरंजन सिंह ने बताया कि उत्तर भारत के राज्यों पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में बीटी कपास के बीजों की कुल मांग पिछले साल की तुलना में 15 फीसदी ज्यादा रही है।
कुल बिक्री पिछले साल के 50 लाख पैकटों से बढ़कर 57-58 लाख पैकटों की हुई है। रासी सीड के बीटी कपास के बीजों की बिक्री पिछले साल से 7.6 फीसदी ज्यादा हुई है। कंपनी ने पिछले साल उत्तर भारत में बीटी कपास बॉलगार्ड-1 और बॉलगार्ड-2 के 13 लाख पैकेटों की बिक्री की थी जबकि चालू सीजन में 14 लाख पैकेटों की बिक्री हुई है।
महाराष्ट्र हाईब्रिड सीड कंपनी लिमिटेड (म्हाइको) के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि चालू सीजन में किसानों को कपास का अच्छा दाम मिला है इसीलिए किसानों ने कपास की बुवाई पिछले साल ज्यादा की है। गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक तथा मध्य प्रदेश में भी चालू सीजन में बुवाई बढऩे की संभावना है। चालू सीजन में बीटी कपास के बीजों की देशभर में कुल मांग बढ़कर 4 से 4.25 करोड़ पैकेट होने का अनुमान है। जबकि पिछले साल बीटी कपास के बीजों की कुल बिक्री 3.60 करोड़ पैकेट की हुई थी।
कृषि मंत्रालय द्वारा जारी बुवाई आंकड़ों के अनुसार कपास की बुवाई पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 17.1 फीसदी बढ़ी है। चालू सीजन में अभी तक 9.5 लाख हैक्टेयर में कपास की बुवाई हो चुकी है जबकि पिछले साल 8.11 लाख हैक्टेयर में हुई थी।
पंजाब में चालू सीजन में 4.44 लाख हैक्टेयर में बुवाई हो चुकी है जबकि पिछले साल इस समय तक 3.9 लाख हैक्टेयर में बुवाई हुई थी। इसी तरह से हरियाणा में पिछले साल की समान अवधि के 3.13 लाख हैक्टेयर से बढ़कर 3.66 लाख हैक्टेयर में बुवाई हो चुकी है। (Business Bhaskar...R S Rana)
रासी सीड प्राइवेट लिमिटेड के रीजनल बिजनेस मैनेजर निरंजन सिंह ने बताया कि उत्तर भारत के राज्यों पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में बीटी कपास के बीजों की कुल मांग पिछले साल की तुलना में 15 फीसदी ज्यादा रही है।
कुल बिक्री पिछले साल के 50 लाख पैकटों से बढ़कर 57-58 लाख पैकटों की हुई है। रासी सीड के बीटी कपास के बीजों की बिक्री पिछले साल से 7.6 फीसदी ज्यादा हुई है। कंपनी ने पिछले साल उत्तर भारत में बीटी कपास बॉलगार्ड-1 और बॉलगार्ड-2 के 13 लाख पैकेटों की बिक्री की थी जबकि चालू सीजन में 14 लाख पैकेटों की बिक्री हुई है।
महाराष्ट्र हाईब्रिड सीड कंपनी लिमिटेड (म्हाइको) के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि चालू सीजन में किसानों को कपास का अच्छा दाम मिला है इसीलिए किसानों ने कपास की बुवाई पिछले साल ज्यादा की है। गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक तथा मध्य प्रदेश में भी चालू सीजन में बुवाई बढऩे की संभावना है। चालू सीजन में बीटी कपास के बीजों की देशभर में कुल मांग बढ़कर 4 से 4.25 करोड़ पैकेट होने का अनुमान है। जबकि पिछले साल बीटी कपास के बीजों की कुल बिक्री 3.60 करोड़ पैकेट की हुई थी।
कृषि मंत्रालय द्वारा जारी बुवाई आंकड़ों के अनुसार कपास की बुवाई पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 17.1 फीसदी बढ़ी है। चालू सीजन में अभी तक 9.5 लाख हैक्टेयर में कपास की बुवाई हो चुकी है जबकि पिछले साल 8.11 लाख हैक्टेयर में हुई थी।
पंजाब में चालू सीजन में 4.44 लाख हैक्टेयर में बुवाई हो चुकी है जबकि पिछले साल इस समय तक 3.9 लाख हैक्टेयर में बुवाई हुई थी। इसी तरह से हरियाणा में पिछले साल की समान अवधि के 3.13 लाख हैक्टेयर से बढ़कर 3.66 लाख हैक्टेयर में बुवाई हो चुकी है। (Business Bhaskar...R S Rana)
मुश्किल में हैं बासमती चावल के निर्यातक
चंडीगढ़ May 31, 2011
देश भर के बासमती निर्यातक प्रचुरता की समस्या से दो-चार हो रहे हैं। बासमती उत्पादक क्षेत्रों (पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में बासमती धान की बंपर पैदावार के चलते चावल निर्यातकों की सौदेबाजी की शक्ति कमजोर हो गई है क्योंकि ईरान व पश्चिम एशिया के खरीदारों की तरफ से भुगतान की समस्या से जूझ रहे हैं।नवंबर 2008 में पूसा-1121 किस्म को बासमती में शामिल किए जाने के बाद बासमती धान के ज्यादा उत्पादन में काफी मदद मिली है। ऑल इंडिया राइस एक्सपोट्र्स एसोसिएशन के सचिव और डी डी इंटरनैशनल प्राइवेट लिमिटेड (बासमती के अग्रणी निर्यातकों में से एक) के निदेशक गौरव भाटिया के मुताबिक, पूसा-1121 से ज्यादा पैदावार मिलने और इसकी बुआई में कम सिंचाई की आवश्यकता ने ज्यादातर किसानों को इस फसल के प्रति उत्साहित किया है। कम अवधि में इस किस्म ने निर्यात बाजार में अपनी पैठ बना ली है, लेकिन बासमती की अति आपूर्ति ने निर्यातकों की सौदेबाजी की ताकत को प्रभावित किया है।निर्यातकों के पास ज्यादा स्टॉक होने के चलते हर कोई जल्द से जल्द इसका निर्यात कर देना चाहता है और भुगतान के मामले में भी काफी लचीला रुख अपना रहा है। 10 से 15 फीसदी अग्रिम भुगतान की बजाय विभिन्न निर्यातक फिलहाल 120 दिन के लिए उधार दे रहे हैं। चूंकि इस जिंस में मुनाफा काफी कम है, लिहाजा यह इसकी उपयुक्तता को प्रभावित कर रहा है। एल टी फूड्स लिमिटेड के संयुक्त प्रबंध निदेशक रजनीश अरोड़ा ने कहा कि वैश्विक बाजार में मांग में लगातार 10 फीसदी की बढ़ोतरी होती रही है, लेकिन कीमतों पर दबाव है। उन्होंने कहा कि ईरान चावल का सबसे बड़ा खरीदार है और अमेरिका से इसके संबंध मधुर नहीं हैं, लिहाजा ईरान में बैंकिंग गतिविधियां प्रभावित हो रही है। ईरान से भुगतान में देरी की वजह से निर्यातक मुश्किल में फंस गए हैं। उन्होंने कहा कि ईरान की मुद्रा रियाल की कमजोरी और भारतीय रुपये की मजबूती से भी निर्यातकों का मुनाफा सिकुड़ गया है। पिछले साल 1050 करोड़ रुपये का कारोबार करने वाले एल टी फूड्स का इरादा इस साल इसे बढ़ाकर 1250 करोड़ रुपये करने का है और कुल कारोबार में निर्यात का योगदान करीब 50 फीसदी का है। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में भारतीय बाजार की बढ़त दर वैश्विक बाजार के मुकाबले करीब दोगुनी है। ऐसे में निर्यातक थोड़ी अतिरिक्त कोशिश से घरेलू उपभोक्ताओं को अपनी ओर खींच सकते हैं और निर्यात बाजार की कमी की भरपाई कर सकते हैं।कुछ निर्यातक ब्राजील, मैक्सिको और अर्जेंटीना में समानांतर बाजार की तलाश कर रहे हैं। एक निर्यातक ने कहा कि इन बाजारों में माल खप सकता है, लेकिन वहां प्रवेश संबंधी कुछ अवरोध हैं। उन्होंने कहा कि हम इन देशों में रोड शो आयोजित करने की योजना बना रहे हैं ताकि स्थानीय चैनल पार्टनर तक अपनी पहुंच बना सकेंऔर मौजूदा बाजार के विकल्प के तौर पर यहां अपना माल बेच सकें।निर्यातकों के मुताबिक, पिछले तीन साल में वैश्विक बाजार में चावल की कीमत 2500 रुपये प्रति क्विंटल से घटकर 1800 रुपये प्रति क्विंटल पर आ गई है। यह साल उनके लिए कठिन हो सकता है, लेकिन वे नई रणनीति के जरिए या तो नए बाजार में प्रवेश करने पर विचार कर रहे हैं या फिर खुदरा ब्रांड घरेलू बाजार में पेश करने पर विचार कर रहे हैं। (BS Hindi)
देश भर के बासमती निर्यातक प्रचुरता की समस्या से दो-चार हो रहे हैं। बासमती उत्पादक क्षेत्रों (पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में बासमती धान की बंपर पैदावार के चलते चावल निर्यातकों की सौदेबाजी की शक्ति कमजोर हो गई है क्योंकि ईरान व पश्चिम एशिया के खरीदारों की तरफ से भुगतान की समस्या से जूझ रहे हैं।नवंबर 2008 में पूसा-1121 किस्म को बासमती में शामिल किए जाने के बाद बासमती धान के ज्यादा उत्पादन में काफी मदद मिली है। ऑल इंडिया राइस एक्सपोट्र्स एसोसिएशन के सचिव और डी डी इंटरनैशनल प्राइवेट लिमिटेड (बासमती के अग्रणी निर्यातकों में से एक) के निदेशक गौरव भाटिया के मुताबिक, पूसा-1121 से ज्यादा पैदावार मिलने और इसकी बुआई में कम सिंचाई की आवश्यकता ने ज्यादातर किसानों को इस फसल के प्रति उत्साहित किया है। कम अवधि में इस किस्म ने निर्यात बाजार में अपनी पैठ बना ली है, लेकिन बासमती की अति आपूर्ति ने निर्यातकों की सौदेबाजी की ताकत को प्रभावित किया है।निर्यातकों के पास ज्यादा स्टॉक होने के चलते हर कोई जल्द से जल्द इसका निर्यात कर देना चाहता है और भुगतान के मामले में भी काफी लचीला रुख अपना रहा है। 10 से 15 फीसदी अग्रिम भुगतान की बजाय विभिन्न निर्यातक फिलहाल 120 दिन के लिए उधार दे रहे हैं। चूंकि इस जिंस में मुनाफा काफी कम है, लिहाजा यह इसकी उपयुक्तता को प्रभावित कर रहा है। एल टी फूड्स लिमिटेड के संयुक्त प्रबंध निदेशक रजनीश अरोड़ा ने कहा कि वैश्विक बाजार में मांग में लगातार 10 फीसदी की बढ़ोतरी होती रही है, लेकिन कीमतों पर दबाव है। उन्होंने कहा कि ईरान चावल का सबसे बड़ा खरीदार है और अमेरिका से इसके संबंध मधुर नहीं हैं, लिहाजा ईरान में बैंकिंग गतिविधियां प्रभावित हो रही है। ईरान से भुगतान में देरी की वजह से निर्यातक मुश्किल में फंस गए हैं। उन्होंने कहा कि ईरान की मुद्रा रियाल की कमजोरी और भारतीय रुपये की मजबूती से भी निर्यातकों का मुनाफा सिकुड़ गया है। पिछले साल 1050 करोड़ रुपये का कारोबार करने वाले एल टी फूड्स का इरादा इस साल इसे बढ़ाकर 1250 करोड़ रुपये करने का है और कुल कारोबार में निर्यात का योगदान करीब 50 फीसदी का है। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में भारतीय बाजार की बढ़त दर वैश्विक बाजार के मुकाबले करीब दोगुनी है। ऐसे में निर्यातक थोड़ी अतिरिक्त कोशिश से घरेलू उपभोक्ताओं को अपनी ओर खींच सकते हैं और निर्यात बाजार की कमी की भरपाई कर सकते हैं।कुछ निर्यातक ब्राजील, मैक्सिको और अर्जेंटीना में समानांतर बाजार की तलाश कर रहे हैं। एक निर्यातक ने कहा कि इन बाजारों में माल खप सकता है, लेकिन वहां प्रवेश संबंधी कुछ अवरोध हैं। उन्होंने कहा कि हम इन देशों में रोड शो आयोजित करने की योजना बना रहे हैं ताकि स्थानीय चैनल पार्टनर तक अपनी पहुंच बना सकेंऔर मौजूदा बाजार के विकल्प के तौर पर यहां अपना माल बेच सकें।निर्यातकों के मुताबिक, पिछले तीन साल में वैश्विक बाजार में चावल की कीमत 2500 रुपये प्रति क्विंटल से घटकर 1800 रुपये प्रति क्विंटल पर आ गई है। यह साल उनके लिए कठिन हो सकता है, लेकिन वे नई रणनीति के जरिए या तो नए बाजार में प्रवेश करने पर विचार कर रहे हैं या फिर खुदरा ब्रांड घरेलू बाजार में पेश करने पर विचार कर रहे हैं। (BS Hindi)
बढ़ सकती है कपास निर्यात सीमा
मुंबई May 31, 2011
वाणिज्य विभाग 2 जून, 2011 को होने वाली मंत्रियों के समूह की बैठक में कपास निर्यात का कोटा 15 लाख गांठ बढ़ाने का प्रस्ताव रखेगा। कपास निर्यात की वर्तमान सीमा 55 लाख गांठ है।घरेलू बाजार में कपास की खपत में गिरावट आने के कारण कारोबारी और किसान वर्ग ने कपास निर्यात कोटा में 20 लाख गांठों की बढ़ोतरी करने का प्रस्ताव रखा है। हालांकि अधिकारियों ने कहा कि कपड़ा मंत्रालय घरेलू बाजार के बारे में चिंतित है। इसे डर है कि अगर पूरे सरप्लस के निर्यात की स्वीकृति दे दी गई तो घरेलू कपड़ा बाजार प्रभावित होगा। पहले कीमतों में बढ़ोतरी और फिर मांग में गिरावट के कारण कारोबारियों और किसानों का घाटा बढ़ता जा रहा है। कृषि मंत्रालय निर्यात कोटा बढ़ाने के पक्ष में है। अमेरिका के बाद भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा कपास निर्यातक देश है।सरकार ने पिछले साल अक्टूबर में कपास की 55 लाख गांठों के शुल्क मुक्त निर्यात की स्वीकृति दी थी। मार्च के चौथे सप्ताह से स्थिति पूरी तरह बदल गई है और प्राकृतिक रेशों की कीमतें भारी मात्रा में ताजा स्टॉक आने और पिछले सीजन के बचे हुए स्टॉक के कारण तेजी से गिरी हैं। कपास की कीमतें पिछले महीने में 25 फीसदी गिरकर 62,000 रुपये प्रति कैंडी (प्रति कैंडी 356 किलोग्राम) से 47,000 रुपये प्रति कैं डी पर आ गई हैं। भारतीय कपास निगम (सीसीआई) द्वारा प्रकाशित आउटलुक रिपोर्ट के मुताबिक, कपास की प्रसिद्ध किस्म एस-6 की कीमत इस सप्ताह पिछले सप्ताह के मुकाबले 1,000-1,500 रुपये गिर चुकी है। कपास सीजन लगभग समाप्त होने को है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कपास की आवक में गिरावट के साथ ही इसकी गुणवत्ता में भी गिरावट दर्ज की गई है। भारतीय कपास की पैदावार 2010-11 में घटकर 475 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रही है, जो 2007-08 में 554 किलोग्राम रही थी। इसके विपरीत कपास का क्षेत्रफल 2007-08 के 94.1 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 2010-11 मे 110 लाख हेक्टेयर रहा है। सीसीआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि कपास की दैनिक आवक 30,000 से 35,000 गांठों के बीच हो रही है। हरियाणा में 1,000 से 1,500 गांठ, गुजरात में 10,000 से 14,000 गांठ, महाराष्ट्र में 7,000 से 8,000 गांठ, मध्य प्रदेश में 800 से 1,000 गांठ, कर्नाटक मेंं 1,000 से 2,000 गांठ और आंध्र प्रदेश में 5,000 से 6,000 गांठों की दैनिक आवक हो रही है। 22 मई 2011 तक कपास की कुल आवक 294.23 लाख गांठ रही है, जो पिछले साल 284.50 लाख गांठ रही थी। अंतरराष्ट्रीय कपास सलाहकार समिति (आईसीएसी) की रिपोर्ट के मुताबिक, 2010-11 में कपास का क्षेत्रफल 13 फीसदी बढ़कर 338.1 लाख हेक्टेयर रहने का अनुमान लगाया गया है, जो 2009-10 में 299.8 लाख हेक्टेयर रहा था। (BS Hindi)
वाणिज्य विभाग 2 जून, 2011 को होने वाली मंत्रियों के समूह की बैठक में कपास निर्यात का कोटा 15 लाख गांठ बढ़ाने का प्रस्ताव रखेगा। कपास निर्यात की वर्तमान सीमा 55 लाख गांठ है।घरेलू बाजार में कपास की खपत में गिरावट आने के कारण कारोबारी और किसान वर्ग ने कपास निर्यात कोटा में 20 लाख गांठों की बढ़ोतरी करने का प्रस्ताव रखा है। हालांकि अधिकारियों ने कहा कि कपड़ा मंत्रालय घरेलू बाजार के बारे में चिंतित है। इसे डर है कि अगर पूरे सरप्लस के निर्यात की स्वीकृति दे दी गई तो घरेलू कपड़ा बाजार प्रभावित होगा। पहले कीमतों में बढ़ोतरी और फिर मांग में गिरावट के कारण कारोबारियों और किसानों का घाटा बढ़ता जा रहा है। कृषि मंत्रालय निर्यात कोटा बढ़ाने के पक्ष में है। अमेरिका के बाद भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा कपास निर्यातक देश है।सरकार ने पिछले साल अक्टूबर में कपास की 55 लाख गांठों के शुल्क मुक्त निर्यात की स्वीकृति दी थी। मार्च के चौथे सप्ताह से स्थिति पूरी तरह बदल गई है और प्राकृतिक रेशों की कीमतें भारी मात्रा में ताजा स्टॉक आने और पिछले सीजन के बचे हुए स्टॉक के कारण तेजी से गिरी हैं। कपास की कीमतें पिछले महीने में 25 फीसदी गिरकर 62,000 रुपये प्रति कैंडी (प्रति कैंडी 356 किलोग्राम) से 47,000 रुपये प्रति कैं डी पर आ गई हैं। भारतीय कपास निगम (सीसीआई) द्वारा प्रकाशित आउटलुक रिपोर्ट के मुताबिक, कपास की प्रसिद्ध किस्म एस-6 की कीमत इस सप्ताह पिछले सप्ताह के मुकाबले 1,000-1,500 रुपये गिर चुकी है। कपास सीजन लगभग समाप्त होने को है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कपास की आवक में गिरावट के साथ ही इसकी गुणवत्ता में भी गिरावट दर्ज की गई है। भारतीय कपास की पैदावार 2010-11 में घटकर 475 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रही है, जो 2007-08 में 554 किलोग्राम रही थी। इसके विपरीत कपास का क्षेत्रफल 2007-08 के 94.1 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 2010-11 मे 110 लाख हेक्टेयर रहा है। सीसीआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि कपास की दैनिक आवक 30,000 से 35,000 गांठों के बीच हो रही है। हरियाणा में 1,000 से 1,500 गांठ, गुजरात में 10,000 से 14,000 गांठ, महाराष्ट्र में 7,000 से 8,000 गांठ, मध्य प्रदेश में 800 से 1,000 गांठ, कर्नाटक मेंं 1,000 से 2,000 गांठ और आंध्र प्रदेश में 5,000 से 6,000 गांठों की दैनिक आवक हो रही है। 22 मई 2011 तक कपास की कुल आवक 294.23 लाख गांठ रही है, जो पिछले साल 284.50 लाख गांठ रही थी। अंतरराष्ट्रीय कपास सलाहकार समिति (आईसीएसी) की रिपोर्ट के मुताबिक, 2010-11 में कपास का क्षेत्रफल 13 फीसदी बढ़कर 338.1 लाख हेक्टेयर रहने का अनुमान लगाया गया है, जो 2009-10 में 299.8 लाख हेक्टेयर रहा था। (BS Hindi)
सोयाबीन खेती का रकबा बढऩे की उम्मीद नहीं
मुंबई June 01, 2011
इस साल देश में सोयाबीन खेती के क्षेत्रफल में पिछले साल के मुकाबले कोई बड़ा बदलाव आने की उम्मीद नहीं है। विशेषज्ञों ने यह मत जाहिर किया है। सोयाबीन प्रसंस्करण एसोसिएशन (सोपा) के मुताबिक 2010-11 में 93 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खरीफ फसल सोयाबीन की खेती की गई थी।
सोयाबिन का सर्वाधिक उत्पादन मध्य प्रदेश में किया जाता है। पिछले साल वहां 55 लाख हेक्टेयर में सोयाबीन की खेती की गई थी। सोपा के अधिकारी के मुताबिक इस साल सोयाबीन फसल के क्षेत्रफल में कोई महत्वपूर्ण बदलाव आने की उम्मीद नहीं है। अगर कोई बदलाव आता है तो वह एक से दो प्रतिशत ही होगा।
महाराष्ट्र के किसान अधिक आमदनी की वजह से कपास की ओर आकर्षित हो सकते हैं। लेकिन इसकी पूर्ति तमिलनाडू, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में क्षेत्रफल में बढ़ोतरी से हो जाएगी। सोपा के मुताबिक 2010-11 सत्र में 1.01 करोड़ टन सोयाबीन के उत्पादन होने की उम्मीद है। (BS Hindi)
इस साल देश में सोयाबीन खेती के क्षेत्रफल में पिछले साल के मुकाबले कोई बड़ा बदलाव आने की उम्मीद नहीं है। विशेषज्ञों ने यह मत जाहिर किया है। सोयाबीन प्रसंस्करण एसोसिएशन (सोपा) के मुताबिक 2010-11 में 93 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खरीफ फसल सोयाबीन की खेती की गई थी।
सोयाबिन का सर्वाधिक उत्पादन मध्य प्रदेश में किया जाता है। पिछले साल वहां 55 लाख हेक्टेयर में सोयाबीन की खेती की गई थी। सोपा के अधिकारी के मुताबिक इस साल सोयाबीन फसल के क्षेत्रफल में कोई महत्वपूर्ण बदलाव आने की उम्मीद नहीं है। अगर कोई बदलाव आता है तो वह एक से दो प्रतिशत ही होगा।
महाराष्ट्र के किसान अधिक आमदनी की वजह से कपास की ओर आकर्षित हो सकते हैं। लेकिन इसकी पूर्ति तमिलनाडू, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में क्षेत्रफल में बढ़ोतरी से हो जाएगी। सोपा के मुताबिक 2010-11 सत्र में 1.01 करोड़ टन सोयाबीन के उत्पादन होने की उम्मीद है। (BS Hindi)
मई में कॉफी निर्यात 42 प्रतिशत बढ़कर 80,367 टन
मुंबई June 02, 2011
भारी वैश्विक मांग को देखते हुए देश का कॉफी निर्यात इस वर्ष मई में 42 प्रतिशत बढ़कर 80,367 टन तक पहुंच गया। कॉफी बोर्ड के ताजा आंकड़ों के अनुसार पिछले वर्ष की समान अवधि में निर्यात 56,690 टन रहा था। निर्यात से प्राप्त होने वाली कुल आय मई, 2011 में दोगुने से भी अधिक बढ़कर 24 करोड़ 44.1 लाख डालर हो गई, जो पिछले साल के मई माह में 11 करोड़ 34.2 डॉलर थी। रुपये के संदर्भ में निर्यात आय 89 प्रतिशत बढ़कर 1,008.51 करोड़ रुपये की हो गई जो पिछले वर्ष की समान अवधि में 532.99 करोड़ रुपये था। भारत मुख्य तौर पर इटली, जर्मनी, बेल्जियम, रूस और स्पेन को कॉफी का निर्यात करता है। (BS Hindi)
भारी वैश्विक मांग को देखते हुए देश का कॉफी निर्यात इस वर्ष मई में 42 प्रतिशत बढ़कर 80,367 टन तक पहुंच गया। कॉफी बोर्ड के ताजा आंकड़ों के अनुसार पिछले वर्ष की समान अवधि में निर्यात 56,690 टन रहा था। निर्यात से प्राप्त होने वाली कुल आय मई, 2011 में दोगुने से भी अधिक बढ़कर 24 करोड़ 44.1 लाख डालर हो गई, जो पिछले साल के मई माह में 11 करोड़ 34.2 डॉलर थी। रुपये के संदर्भ में निर्यात आय 89 प्रतिशत बढ़कर 1,008.51 करोड़ रुपये की हो गई जो पिछले वर्ष की समान अवधि में 532.99 करोड़ रुपये था। भारत मुख्य तौर पर इटली, जर्मनी, बेल्जियम, रूस और स्पेन को कॉफी का निर्यात करता है। (BS Hindi)
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