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07 जुलाई 2009
भरपूर अनाज होने पर भी मानसून में देरी चिंताजनक
जुलाई-अगस्त तक चलने वाला दक्षिण- पश्चिमी मानसून या बारिश का मौसम दरअसल भारतीय कृषि के लिए जीवन रेखा है। व्यापक संदर्भ में कहें तो यह बारिश देश की अर्थव्यवस्था की भी जीवन रेखा है क्योंकि भारतीय कृषि पर करीब 60 फीसदी आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर है। दूसरी ओर अमेरिका व जापान और अन्य विकसित देशों में बमुश्किल छह फीसदी आबादी बारिश पर निर्भर है। भारत में कुल 14 करोड़ हैक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से 65 फीसदी जमीन मानव सिंचिंत (जैसे ट्यूब वैल या नहरी सिंचाई की सुविधा) नहीं है। इतने विशाल भूक्षेत्र दरअसल ड्राई लैंड है जो विशुद्ध रूप से बारिश पर निर्भर है। अगर बारिश नहीं होती है या देरी होती है तो भारत में आधे से ज्यादा खेतिहर जमीन ऊसर रह जाती है। ऐसी स्थिति में सरकार को सूखा घोषित करना पड़ता है जो अकाल से पहले की स्थिति है। भारत हर वक्त अकाल के कगार पर रहता है। इतिहास में ऐसी कई अकाल दर्ज हैं। बंगाल में अकाल के दौरान करीब दो करोड़ लोगों की मौत हुई थी।वास्तव में यही वजह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मौसम विभाग को मानसून की गतिविधियों पर बारीकी से नजर रखने की हिदायत दी डाले। इस साल मानसून करीब एक पखवाड़ा लेट हो गया। इससे उत्तर भारत में चिंता बढ़ गई। उत्तरी और मध्य भारत में जैसे ही हल्की बारिश हुई, उत्साहित कृषि मंत्री शरद पवार ने तुरंत घोषणा कर दी देश में सूखे जैसी कोई स्थिति नहीं है। लेकिन देश के पूवरेत्तर के राज्यों में स्थिति ज्यादा खराब है। मणिपुर सरकार ने आधिकारिक रूप से राज्य में सूखे की स्थिति होने की घोषणा की है। इस बीच किसानों के मूड को देखते हुए पवार ने मौसम विभाग का हवाले देते हुए किसानों को रिझाने का काम किया है। उनके मुताबिक जुलाई में बारिश 93 फीसदी और अगस्त में यह करीब 101 फीसदी हो सकती है। बेशक ऐसे में सूखे की स्थिति नहीं है। सरकार इस साल पांच करोड़ टन खाद्यान्न का भंडारण कर चुकी है जो मांग के लिहाजा से पर्याप्त है। सरकार का मानना है कि मानसून बारिश में थोड़ी कमी होने से खरीफ फसल ज्यादा प्रभावित नहीं होगी। खरीफ के सीजन में करीब पचास फीसदी अनाज पैदा होता है। लेकिन अभी सरकार ने गेहूं के निर्यात को हरी झंडी नहीं दी है। इससे पहले वाणिज्य मंत्रायल करीब एक करोड़ टन गेहूं निर्यात के लिए तैयारी कर रहा था।दरअसल सरकार फूंक-फूक कर कदम रख रही है। वर्ष 2002 में अनाजों की पैदावार गिरने के बाद पैदा स्थिति सत्ता के गलियारों में बैठे लोगों को याद है। उस साल सूखे की स्थिति बन गई थी। तब सरकार को बेहद ऊंची कीमतों पर गेहूं का आयात करना पड़ा था। लेकिन शायद जलवायु परिवर्तन की वजह से कुछ इलाकों में बाढ़ आई और कुछ सूखे रह गए। उदाहरण के तौर पर इस साल जैसे समय से पहले केरल में मानसून आ गया। लेकिन आइला की वजह से इसकी चाल गड़बड़ा गई और अब कई इलाकों में अनिश्चितता बनी हुई है। आमतौर पर देश में 20 जून तक मानसून का आगमन होता है। लेकिन इस साल हालत दूसरी रही। मौसम विभाग के आंकड़ों के मुताबिक देश में अब कुल मिलाकर बारिश में करीब 53 फीसदी की कमी दर्ज की जा चुकी है। बारिश में यह कमी 1901 से 2000 के बीच दर्ज की गई है। पिछले 16 साल के दौरान ही जून में होने वाली बारिश में करीब 27 फीसदी की कमी आई है। पिछले 16 सालों में से पांच साल सूखे की स्थिति रही। तकनीकी रूप से जून से सितंबर के दौरान बारिश 90 फीसदी से कम रहने पर सूखा मान लिया जाता है। लेकिन इस साल मानसूनी बारिश में कमी करीब सात फीसदी है। सामान्य (लंबी अवधि के औसत यानि एलपीए) से कम बारिश इस साल करीब 93 फीसदी है। इसमें चार फीसदी की कमी या बढ़त मान्य होती है। पहले मौसम विभाग ने अप्रैल में 96 फीसदी सामान्य बारिश होने की भविष्यवाणी की थी। जून में बारिश की कमी मध्य भारत के गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में रही। इन इलाकों में सामान्य के मुकाबले 75 फीसदी बारिश हुई। वास्तव में मानसूनी बारिश कृषि क्षेत्र के लिए अति महत्वपूर्ण है। इसके अलावा आम जीवन के लिए यह अहम है। मानसून में देरी से कई इलाकों में बिजली की आपूर्ति बाधित होने लगती है। इस तरह दक्षिण-पश्चिम मानसून दर्शाता है कि भारतीय कृषि इस पर कितनी निर्भर है। बड़ी संख्या में भारतीय स्वाभाविक रूप से इस पर निर्भर हैं। दरअसल हम सभी प्रकृति व पर्यावरण और वनस्पति पर काफी ज्यादा निर्भर हैं। हमें देखना होगा कि पृथ्वी पर जीवन बचाए रखने के लिए ये प्राकृतिक संसाधन बरकरार रहे। (Busienss Bhaskar)
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