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31 मई 2013
जीएम फसलों को अपनाने में विकासशील देशों से पीछे हैं हम
एक ओर जहां दुनिया भर के विकासशील देशों ने जीएम (आनुवांशिक तौर पर संवद्र्घित) फसलों को अपनाने में तेजी दिखाई है वहीं अजीब विडंबना है कि औद्योगीकृत देश भारत बीटी कपास की खासी सफलता के बाद भी इन फसलों को अपनाने में कोताही बरत रहा है। नई जीएम फसलों के लिए खेतों के परीक्षण को फिलहाल टाल दिया गया है और ऐसे में संभावना है कि निकट भविष्य में केवल कपास ही भारत में उगाई जाने वाली जीन संवद्र्घित फसल रह जाएगी। वहीं दूसरे देशों में, जिनमें विकासशील देश भी शामिल हैं, खासतौर पर तैयार की गई 25 जीएम फसलों को कारोबार के लिए नियामकीय मंजूरी मिल चुकी है।
जीएम फसलें उगाने वाले 28 में से 20 देश विकासशील हैं। इसके अलावा यह कहा जा रहा है कि 31 दूसरे देशों ने भी जैवप्रौद्योगिकी उत्पादों के खाद्य और चारे के तौर पर इस्तेमाल को मंजूरी दे दी है। इस तरह इन उत्पादों को अपनाने वाले देशों की कुल संख्या 59 हो गई है।
सार्वजनिक और निजी क्षेत्र वाले जैवप्रौद्योगिकी उद्योग की गैर लाभकारी संस्था इंटरनैशनल सर्विस फॉर दी एक्वीजिशन ऑफ एग्री बायोटेक ऐप्लीकेशंस (आईएसएएए) ने साल 2012 की अपनी रिपोर्ट में कहा है कि दुनिया भर में जीएम फसलों के कुल रकबे में 52 फीसदी हिस्सेदारी विकासशील देशों की है। इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि 2012 में विकासशील देशों में जैवप्रौद्योगिकी फसलों की सालाना विकास दर 11 फीसदी रही जो कि विकसित देशों में महज 3 फीसदी ही थी। दुनिया की कुल जैवप्रौद्योगिकी फसलों के रकबे में से 46 फीसदी हिस्सेदारी पांच प्रमुख विकासशील देशों- चीन, भारत, ब्राजील, अर्जेंटीना और दक्षिण अफ्रीका की है जहां इन फसलों की खेती छोटे-छोटे खेतों में की जाती है। कुल वैश्विक आबादी का 40 फीसदी इन्हीं पांच देशों में पाया जाता है।
भारत को खासतौर पर इस बात पर गौर फरमाना चाहिए कि भले ही यूरोप जीएम फसलों और उत्पादों को लेकर सबसे अधिक आशंकित रहा है, मगर यूरोपीय संघ (ईयू) के कम से कम पांच सदस्य इस आलोचना को छोड़कर जैवप्रौद्योगिकी फसलों की खेती को बढ़ावा देने लगे हैं। स्पेन, पुर्तगाल, चेक, स्लोवाकिया और रोमानिया ने 2012 में 1,29,071 हेक्टेयर कृषि भूमि पर जैवप्रौद्योगिकी फसलों के बीज बोये हैं जो कि पिछले साल से 13 फीसदी अधिक है। यूरोप में स्पेन ऐसा देश है जहां सबसे अधिक भूभाग पर बीटी मक्के की खेती की गई है। बीटी मक्के का दोहरा इस्तेमाल किया जाता है, खाद्य उत्पाद के तौर पर भी और चारे के रूप में भी।
जैवप्रौद्योगिकी फसलों के भविष्य को लेकर आईएसएएए आशावादी तो है मगर उसने सतर्क रुख भी अख्तियार कर रखा है। विकासशील और औद्योगिक देशों में पहले से इन फसलों को अपनाने की गति काफी तेजी है और इस बीच आईएसएएए ने इसमें ठीक-ठाक सालाना बढ़ोतरी की उम्मीद जताई है। मक्के और गन्ने की ऐसी किस्म जो सूखे को सह सकती है, बीमारियों से निपटने में कामयाब आलू और विटामिन ए से भरपूर गोल्डन राइस उन फसलों में से है जिन्हें अगले कुछ सालों में कई देशों में खेती की मंजूरी मिल सकती है।
बड़े दुख की बात है कि पर्यावरणविदों और जीएम का विरोध कर रही लॉबी की ओर से जीएम फसलों के कारण नुकसान होने का झूठा खौफ फैलाने के कारण भारत ऐसी पोषक और बीमारियों से लडऩे में सक्षम जीएमएफ फसलों से महरूम रहेगा। हालांकि कृषि वैज्ञानिकों और खुद कृषि मंत्री शरद पवार समेत सरकार के कुछ बड़े अधिकारियों ने जीएम फसलों का समर्थन किया है, मगर इनकी दलीलों को लॉबीइंग करने वालों के शोर-शराबे के बीच दबा दिया गया है। यह समझने की जरूरत है कि बीटी जीन 2002-03 में बीटी कपास को पेश करने के समय से ही मानव खाद्य शृंखला में शामिल हो चुके हैं। कपास के बीज के रूप में ये खाद्य शृंखला में अपनी जगह बना चुके हैं जिसका इस्तेमाल पशु चारे के तौर पर किया जाता है। इससे न तो पशुओं को और न ही लोगों को किसी तरह की स्वास्थ्य संबंधी परेशानी का सामना करना पड़ा है।
वैश्विक और घरेलू स्तर पर कुछ दूसरे घटनाक्रम भी हैं जो भारत की जीएम नीति की समीक्षा को जरूरी बना देती हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बात करें तो विख्यात पर्यावरणविद मार्क लाइनस जो 1990 के दशक से ही यूरोप में सफलतापूर्वक जीएम उत्पादों के खिलाफ अभियान चलाते आए हैं, उनके रुख में भी अचानक से बदलाव आया है और एक महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकी विकल्प के उपयोग में अड़ंगा लगाने में अपनी भूमिका पर उन्होंने खुद अफसोस जताया है। वह अब मानते हैं कि इस विकल्प से पर्यावरण को फायदा हो सकता है।
अगर अपने देश की बात करें तो सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर 1 जनवरी से ऐसे सभी खाद्य उत्पादों पर लेबल लगाना अनिवार्य कर दिया है जिनमें जीएम उत्पाद शामिल हैं। इस तरह उपभोक्ता खुद इस बात का फैसला कर सकेंगे कि उन्हें जीएम उत्पादों को इस्तेमाल करना है या नहीं। ऐसे में इन उत्पादों के परीक्षण, उत्पादन या आयात पर रोक लगाने का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है।
हालांकि यह सही है कि जीएम उत्पाद, ,खासतौर पर जिनमें असंबद्घ प्रजातियों के बीच जीन का विनिमय होता है, जैसे कि फसलें और जमीन में पनपने वाले बैक्टीरिया, पूरी तरह से जोखिम मुक्त नहीं होते हैं। ऐसे में इन उत्पादों का गंभीरता से परीक्षण बहुत जरूरी है। उत्पादों के दोषपूर्ण विकास और नियमन के लिए एक तकनीकी तौर पर एक सक्षम प्रणाली की जरूरत है और इन उत्पादों के उत्पादन और इनके इस्तेमाल पर रोक लगाने से बात नहीं बनने वाली। जब तक नीतियों में बदलाव नहीं किया जाता है तब तक जैवप्रौद्योगिकी शोध और विकास में निवेश भारत से बाहर जाना तय है।
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