नई दिल्ली June 09, 2009
गुजरे जमाने की बात करें तो किसान अपनी जीविका को चलाने के लिए खेती करते थे लेकिन अब वक्त के साथ सब कुछ बदल रहा है।
अब निर्वाह खेती नहीं होती बल्कि किसान बाजार के लिए उत्पादन करते हैं। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब बहुत ज्यादा फसल का उत्पादन किया जा रहा है जिनका कारोबार बाजार में किया जाता है।
मंडियों में बेचे जाने वाले अनाज के कुल उत्पादन का अनुपात वर्ष 1950-51 के महज 27.4 फीसदी से बढ़कर वर्ष 2007-08 में लगभग 68 फीसदी हो गया। बाजार में दालों और तिलहन की अतिरिक्त मात्रा का स्तर लगभग 90 फीसदी तक पहुंच गया है।
नेशनल एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज (एनएएएस) की एक रिर्पोट 'स्टेट ऑफ इंडियन एग्रीकल्चर' की एक रिपोर्ट में खेती के प्रदर्शन के संदर्भ में यह सारी बातें निकल कर आई है। बाजार में बेचे जाने वाली फसल के उत्पादन के अतिरिक्त अनुपात को देखकर ही यह आसानी से समझा जा सकता है कि यह कृषि के व्यावसायीकरण का संकेत समझा जा सकता है।
रिपोर्ट के मुताबिक, 'बाजार में अनाज के अतिरिक्त अनुपात को देखते हुए साफतौर पर यह समझा जा सकता है कि किसान बेहतर फसल में से भी अपने उपभोग के लिए उत्पादन का बहुत कम हिस्सा रखते हैं और ज्यादातर हिस्सा बाजार में बेच दिया जाता है। इसी वजह से खासतौर पर फसलों की कटाई के वक्त उत्पादन की कीमतें भारतीय किसानों के लिए बहुत मायने रखती है।'
वर्ष 1950 में बाजार में बेचे जाने वाली फसलों चावल और गेहूं का अनुपात महज 30 फीसदी तक था। वर्ष 2007-08 में यह अनुपात बढ़ गया और चावल लगभग 71 फीसदी और गेहूं 63 फीसदी तक हो गया। कुछ ऐसा ही मोटे अनाज मसलन, ज्वार, बाजार और मक्के में भी हुआ।
बाजार में बेचे जाने वाले ज्वार की मात्रा भी इस अवधि में 24 फीसदी से बढ़कर 53 फीसदी तक हो गई। वहीं बाजरा में भी 27 फीसदी के मुकाबले 70 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई। जहां तक मक्के की बात है तो इसकी मांग मुर्गीपालन और स्टार्च उद्योग में होती है। बाजार में बेचे जाने वाले मक्के का उत्पादन वर्ष 1950 के 24 फीसदी के मुकाबले अब लगभग 76 फीसदी तक हो गया है।
परंपरागत रूप से बाजार में दालों और तिलहन का हिस्सा अपेक्षाकृत ज्यादा ही होता है क्योंकि इन फसलों के उपभोग से पहले कुछ हद तक प्रसंस्करण की जरूरत होती है। दालों का हिस्सा जहां वर्ष 1950-51 में 54.3 फीसदी थी वहीं वर्ष 2007-08 में इसका हिस्सा 89 फीसदी तक है। दूसरी ओर तिलहन इस अवधि में 73.6 फीसदी से बढ़कर 91 फीसदी तक हो गया है।
इस रिपोर्ट में यह संकेत मिलते हैं कि किसान और बाजार का वास्तविक दायरा बहुत ज्यादा भी हो सकता है। इसकी वजह यह है कि इस अवधि के दौरान उत्पादन का कारोबार बहुत ज्यादा बढ़ा है। मिसाल के तौर पर बाजार में बेचे जाने वाले कुल फसलों की मात्रा वर्ष 1950-51 में महज 1.16 करोड़ टन थी वहीं अब यह मात्रा 14.63 करोड़ टन है। (BS Hindi)
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