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13 मार्च 2014

तोडऩे होंगे जी एम फसलों पर पूर्वाग्रह

कृषि जगत : दुनिया भर में 1996 से 2013 के बीच बायोटेक फसलों की खेती में हुई है सौ गुना बढ़ोतरी वर्ष 2013 की शुरूआत में जी एम फसलों के महत्व को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सार्वजनिक तौर पर अपने विचार देश के सामने रखे थे। कुछ उसी तरह वर्ष 2014 की शुरूआत भी एग्रीबायोटेक उद्योग के लिए खुशनुमा है। हमारे तमाम वैज्ञानिक प्रधानमंत्री के स्पष्ट वक्तव्य से उत्साहित हैं। अनुवांशिक रूप से परिवर्तित जीएम फसलों के लिए एक सक्षम नीति के लिए अपनी सरकार की प्रतिबद्धता दर्शाते हुए डॉ.सिंह ने कहा है कि जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों के बारे में अवैज्ञानिक पूर्वाग्रहों के सामने सरकार झुक नहीं सकती। अपने इस खरे बयान के साथ ही उन्होंने किसी भी अन्य विवाद पर यह कहते हुए लगाम लगा दिया कि सरकार जीएम फसलों के बारे में अब और ज्यादा पुनर्विचार न करते हुए आगे बढ़ेगी। गत चार फरवरी को भारतीय विज्ञान कांग्रेस में प्रधानमंत्री ने कहा,बायोटेक फसलों से संबंधित अवैज्ञानिक पूर्वाग्रहों के सामने अब और नहीं झुकना है। बायोटेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से कृषि फसलों के अधिक पैदावार में मदद मिलेगी। ग्यारह फरवरी को संसद में पूछे गए एक प्रश्न पर कृषि मंत्री शरद पवार ने भी इस तथ्य को दोहराते हुए कहा कि वर्ष 1992 से 2002 के बीच कपास की पैदावार तकरीबन 300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी, जो 2013 के दौरान बढ़कर 488 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई। अन्य फसलों के पैदावार के मामले में भी इसी प्रकार की प्रभावशाली बेहतरी की सख्त जरूरत है, क्योंकि हमारे देश की आबादी दिनोंदिन बढ़ रही है और सभी का पेट भरने और उन्हें खिलाने की चुनौती सामने है। वर्ष 2030 तक हमारी जनसंख्या मौजूदा आबादी से 25 प्रतिशत बढ़कर 1.5 अरब से ज्यादा हो जाएगी, जबकि खेती के लिए उपलब्ध जमीन उतनी ही रहेगी। पिछले कुछ दशकों से भारत में जोते जाने वाले खेतों का क्षेत्रफल 14 करोड़ हेक्टेयर पर लगभग स्थिर बना हुआ है। इसका अर्थ है कि कृषि योग्य भूमि में वृद्धि की बेहद सीमित संभावना है। जाहिर है,मौजूदा उत्पादन प्रणालियों को ही प्रखर बनाना होगा, जो कि एकमात्र संभावना है। परंतु यह संभावना भी पानी और बिजली की कमी के चलते सीमित रहेगी। शहरीकरण और उद्योगीकरण की बढ़ती मांग के चलते जमीन, पानी और बिजली के लिए मुकाबला आने वाले समय में और कड़ा होने की उम्मीद है। ऐसे में समय रहते तैयारी आवश्यक है। भारत बड़ी मात्रा में ऊर्जा सघन उर्वरक व तेलों का अन्य देशों से आयात करता है। इस तरह आने वाले समय में बढ़ती लागत कीमतों से कृषि की लागत में भी इजाफा होगा और खेतों से होने वाले लाभ में कमी आएगी, जिससे किसानों को और अधिक नुकसान होगा। इसके साथ ही आने वाले समय में भारतीय बाजार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी दूसरे देशों की तुलना में अपेक्षाकृत कम प्रतिस्पर्धी हो जाएगा। इसके अलावा हमें जलवायु परिवर्तन का भी सामना करना होगा, जो कृषि क्षेत्र के चिरस्थायी विकास के समक्ष विकट चुनौतियां पेश कर रहा है। बतौर एग्रो.इंडस्ट्री हम जी एम फसलों से संबंधित गलत सूचनाओं की बमबारी से भौंचक हैं। जी एम टेक्नोलॉजी, जो किसानों के लिए इतनी लाभकारी है, उसे नकारने की प्रवृत्ति देश के भीतर बढ़ती जा रही है, जो हमारे लिए चिंता का विषय होना चाहिए। इस तरह की तमाम भ्रामक जानकारियां प्रतिष्ठित सूचना माध्यमों से भी फैलाने की कोशिश हो रही है, जिसके प्रति हमें सतर्क रहना होगा। जीएम फसलों के फायदों व इसकी अहम जरूरत को नकारने की जिद में विरोधी पक्ष इस हद तक चला जाता है कि वह संदर्भ से बाहर जाकर कई बार तथ्यों को तोड़ मरोड़कर पेश करने की कोशिश करता है, ताकि लोगों को भ्रमित किया जा सके और कुछ निहित स्वार्थों के उद्देश्यों को पूरा किया जा सके। ऐसे दावे भी किए जाते हैं कि जी एम फसलों से कृषि उत्पादन में बेहद मामूली बढ़त होगी और ये फसलें स्वास्थ्य की दृष्टि से सुरक्षित नहीं होंगी। ऐसे भ्रम विरोधियों द्वारा बेशर्मी से प्रचारित किए जा रहे हैं। दुनिया भर में 1996 से 2013 के बीच बायोटेक फसलों की खेती में सौ गुना वृद्धि हुई है। वर्ष 1996 में जहां 17 लाख हेक्टेयर पर बायोटेक फसलें उगाई जाती थीं, वहीं 2013 में 27 देशों में 17.5 करोड़ हेक्टेयर पर बायोटेक फसलें उपजाई गईं। यह तमाम आंकड़े इंटरनेशनल सर्विस फॉर द एक्विजिशन ऑफ ऐग्रो.बायोटेक एप्लीकेशंस के हैं। अमेरिका बायोटेक फसलों का अग्रणी उत्पादक देश है, जो 7.01 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर जी एम फसलों की खेती करता है। मकई, सोयाबीन, कपास, कोनोला, सुगरबीट, अल्फाफा,पपीता व स्कवैश जैसी प्रमुख फसलों में अमेरिका में नब्बे प्रतिशत की औसत से बायोटेक फसलों को अपनाया गया है। अगर इस टेक्नोलॉजी से लाभ नहीं होता है तो इतनी बड़ी तादात में वहां के किसान इसे क्यों अपनाते? यदि बायोटेक से उनकी उपज नहीं बढ़ती, उनकी आमदनी नहीं बढ़ती तो फिर उसे इस्तेमाल करने की क्या जरूरत है? जीएम फसलों पर संसद में दिए अपने जवाब में शरद पवार ने यह भी कहा कि 2002 में बीटी कॉटन को पेश करने के बाद से कीटनाशकों का औसत इस्तेमाल कम हुआ है। जहां वर्ष 2002 में प्रति हेक्टेयर 0.88 किग्रा कीटनाशक का छिड़काव हुआ करता थाए वहीं 2011 में यह घटकर 0.56 किग्रा प्रति हेक्टेयर रह गया। पवार ने भी उसी बात को दोहराया जिनकी पुष्टि डब्ल्यूएचओ और यूएसएफडीए जैसी कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने की है। इस बात की कोई विश्वसनीय वैज्ञानिक रिपोर्ट नहीं है कि जीएम फसलों का पर्यावरण मानव स्वास्थ्य और मवेशियों पर कोई विपरीत असर पड़ता है। यह भी जाना माना तथ्य है कि सरकार ट्रांसजेनिक बीजों की जैव सुरक्षा एवं कृषि प्रदर्शन की गहन समीक्षा के बाद ही जीएम फसलों को वाणिज्यिक खेती को स्वीकृति देती है। यहां यह जानना अहम है कि पर्याप्त नियामकीय निरीक्षण के जरिये व्यापक जनविश्वास बनाने के लिए सरकार की ओर से निरंतर आश्वासन दिए जा रहे हैं। अब देश प्रतीक्षा कर रहा है कि इस बिल को शीघ्रातिशीघ्र पास किया जाए। जीएम फसलों पर हम एक ऐसी बहस में उलझे हैं जिसमें भ्रम अधिक और सच्चाई कम है। जरूरत प्रगतिशील कदम उठाने की है। जीएम फसलों के पक्ष में या उसके विरोध में प्रस्तुत की गई कहानियां वास्तविकता से काफी दूर हैं। इस बारे में गोलमोल बातें की जा रही हैं और बातों को गलत रूप में पेश किया जा रहा है। डॉ. एन सीतारामा लेखक बायोटेक व कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं। प्रस्तुत आलेख में बहुचर्चित जीएम फसलों के बारे में पड़ताल (Business Bhaskar)

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