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19 अप्रैल 2012

भ्रामक विज्ञापनों पर अंकुश लगाने के लिए नियमित निगरानी जरूरी’-प्रोफेसर के. वी. थॉमस

उपभोक्‍ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्री, प्रोफेसर के. वी. थॉमस ने कहा है कि उपभोक्‍ताओं को गुमराह करने वाले विज्ञापनों से बचाने के लिए कानूनों में सुधार की आवश्‍यकता है। उन्होंने कहा कि अनेक प्रावधानों के बावजूद झूठे और गुमराह करने वाले विज्ञापन जारी किए जा रहे हैं। उन्‍होंने कहा कि व्‍यापक रूप से यह माना गया है कि आत्‍मानुशासन और कानून नियंत्रण को साथ-साथ काम करना चाहिए। प्रोफेसर थॉमस विज्ञापनों में गुमराह करने वाले दावों के बारे में आयोजित एक सेमीनार को संबोधित कर रहे थे। इसका आयोजन उपभोक्‍ता मामलों के विभाग ने किया।

श्री थॉमस ने कहा कि इस संगोष्ठी का आयोजन गुमराह करने वाले दावों से निपटने का रास्ता निकालने और उपभोक्‍ताओं को परेशानी से बचाने के लिए किया गया है। उन्‍होंने कहा कि विज्ञापन आज हमारे जीवन का महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा बन चुका है। हालांकि यह जरूरी है कि इनका इस्तेमाल सावधानी से किया जाये, ताकि सामाजिक मूल्‍यों पर इसका प्रतिकूल असर न पडे।

प्रोफेसर थॉमस ने कहा कि हालांकि सही और तथ्‍यपूर्ण विज्ञापन सूचना के एक उपयोगी साधन हैं परंतु अक्सर यह सवाल उठता है कि क्या यह भौतिकवाद और वर्गों के बीच भेदभाव पैदा करते हैं। अपने लक्षित बाजार तक पहुंचने के लिए विज्ञापनकर्ता कई बार कानूनी और सामाजिक नियमों का उल्‍लंघन करते हैं। भारत का संविधान अभिव्‍यक्ति की आजादी देता है फिर भी सरकार को व्यावसायिक विज्ञापनों को नियमित करने का अधिकार है। वह भ्रामक, झूठे, अनुचित और गुमराह करने वाले विज्ञापनों पर रोक लगा सकती है। किसी विज्ञापन को ऐसी स्थिति में भ्रामक कहा जा सकता है जब वह उपभोक्‍ता की खरीदारी पर असर डाले। भारत में सिगरेट, शराब, पान-मसाला के विज्ञापनों को टीवी चैनलों में जगह मिल जाती है जबकि सरकार ने इनपर प्रतिबंध लागू कर रखा है, क्‍योंकि यह सभी स्‍वास्‍थ्‍य के लिए नुकसानदायक हैं।

प्रोफेसर थॉमस ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस तरह के अनुचित और गुमराह करने वाले विज्ञापनों से उपभोक्‍ताओं को बचाने के लिए बने अनेक कानूनों के बावजूद उपभोक्‍ताओं का शोषण हो रहा है।

संभवत: विपणन संचार के क्षेत्र में सबसे विवादास्‍पद मुद्दा है विज्ञापनों की विषय वस्‍तु। विज्ञापनों की नैतिक निर्णय की बात करें तो तीन क्षेत्र सामने आते हैं ये हैं – व्‍यक्तिगत स्‍वायत्‍तता, उपभोक्‍ता सत्‍ता और उत्‍पाद की प्रकृति। व्‍यक्तिगत स्‍वायत्‍तता बच्‍चों के विज्ञापन से जुड़ी हुई है। उपभोक्‍ता सत्‍ता का सीधा संबंध ज्ञान के स्‍तर और लक्ष्‍य समूह के परिष्‍करण से, जबकि हानिकारक उत्‍पाद लम्‍बे समय से जनमत के केन्‍द्र रहे हैं। खतरनाक उत्‍पादों के विज्ञापनों की तीखी आलोचना होती रही है। खासतौर से तब, जब इनका लक्ष्‍य वे लोग होते हैं जिनकी स्‍वायत्‍तता कम हैं अर्थात बच्‍चे। बच्‍चे सिर्फ ग्राहक ही नहीं होते, बल्कि उपभोक्‍ता भी हैं और वे परिवार में निर्णयकर्ताओं को प्रभावित करते हैं। इसके अलावा एक और मुश्किल यह है कि वे निर्णय करने वालों पर खासा असर डालते हैं। इसमें कोई आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए कि बच्‍चों के लिए विज्ञापनों पर होने वाले खर्च में पिछले पांच से दस वर्षों के दौरान बढ़ोतरी होती गयी है और टेलीविज़न पर जितने विज्ञापन दिखाए जाते हैं उनमें से दो तिहाई खाने-पीने की चीजों के बारे में होते हैं। स्‍वीडन, नॉर्वे, जर्मनी, नीदरलैंड और ऑस्‍ट्रेलिया जैसे देशों में बच्‍चों के लिए जारी होने वाले विज्ञापनों पर अनेक कड़े प्रतिबंध लगाए जाते हैं।

विज्ञापन मानक और विज्ञापन उद्योग द्वारा आत्मानुशासन बहुत महत्‍वपूर्ण मुद्दे हैं, खासतौर से भारत जैसे देश में जहां अधिकांश उपभोक्‍ता ग्रामीण क्षेत्रों के निवासी हैं। अपना रिकॉर्ड सुधारने के लिए हमें अपने आपकी बाकी दुनिया के साथ तुलना करनी होगी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई अंतर्राष्‍ट्रीय मानक बना हुआ है, जिसके आधार पर मानक तैयार किये जाते हैं और जिन पर आधारित विज्ञापनों के बारे में यह तय किया जा सकता है कि वह हानिकारक हैं अथवा नहीं। अगर हम सिर्फ विज्ञापनों की संख्‍या के अनुसार चलें और उनके लिए यह देखें कि विज्ञापन मानक परिषद कितनी शिकायतें प्राप्‍त करता है, तो जान पड़ेगा कि भारत में विज्ञापन बहुत ऊंचे दर्जे के होते हैं। इसका कारण यह है कि भारत की विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) के सामने ब्रिटेन की एडवर्टाइजिंग स्‍टैंडर्ड्स ऑथोरिटी-एएसए की तुलना में कम शिकायतें आती हैं। अगर एएससीआई को कुछ सौ शिकायतें प्राप्‍त होती है तो उनकी तुलना में एएसए को दस हजार से ज्‍यादा शिकायतें मिलती हैं। भारत में सही तस्‍वीर अक्‍सर इस बात से नहीं मिलती है कि कितनी शिकायतें प्राप्‍त हुई और न ही उनसे उपभोक्‍ता के असंतुष्‍ट होने के स्‍तर का पता चल पाता है। इसके कारण हैं जागरूकता स्‍तर कम होना और उपेक्षा। एएसए पहले ही कार्रवाई करने की दिशा में काफी सक्रिय है। इसने राष्‍ट्रीय और क्षेत्रीय प्रेस में ऐसे सर्वेक्षण कराये हैं जिनसे एएसए संहिता के परिपालन की जांच हो पाती है। इसके अच्‍छे परिणाम रहे हैं और 97 प्रतिशत विज्ञापन, एक सर्वेक्षण के अनुसार, संहिताओं के अनुरूप पाये गए।

उपभोक्‍ता संरक्षण अधिनियम के अनुच्‍छेद-2 (आर) में अनुचित व्‍यापार पद्धति की व्‍यापक परिभाषा दी गई है और अनुच्‍छेद-14 उन निर्देशों से संबंधित है जो ऐसे व्यवहारों के बारे में अदालत जारी कर सकती है। इस दिशा में उपभोक्‍ता अदालतों ने शानदार काम किया है और वह भ्रामक विज्ञापनों से निपटने में कामयाब हुई हैं। लेकिन उपभोक्‍ता अदालतों के पास न तो अधिकार हैं और न ही छानबीन करने की मूल सुविधाएं। उनके पास अन्वेषण का कोई तंत्र भी नहीं है वे सिर्फ प्राप्‍त शिकायतों पर फैसला सुना सकती है, लेकिन उपभोक्‍ता अदालतें अंतरिम आदेश जारी करके भ्रामक विज्ञापनों को तब तक बंद करा सकती हैं, जब तक मुक़दमे का फैसला नहीं हो जाता। वे इनके कारण हुए नुकसान की भरपाई के आदेश भी जारी कर सकती हैं।

सज्जनों और देवियो, हमने आपके सामने अनेक तर्क और वितर्क प्रस्‍तुत किए, ताकि प्रतिनिधि और इस विषय से जुड़े हुए हितधारक इन पर विचार करें। आखिर में मुझे उम्‍मीद है कि यहां जो चर्चा होगी उससे ऐसे दस्‍तावेज तैयार किये जाएंगे, जिनके जरिए रचनात्‍मक कदम उठाए जा सकेंगे और अगर जरूरी हुआ, तो विधायी प्रयास भी किए जाएंगे। समय का तकाजा है कि हम देश के लोगों को इस बात के मजबूत संकेत दें कि उपभोक्‍ता की सत्‍ता से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता और न ही उन्‍हें धोखा दिया जा सकता है। भारत जैसे देश के लिए यह भी जरूरी है कि यहां का बाजार इस बात की पूरी प्रतिबद्धता जाहिर करे कि उपभोक्‍ता के अधिकारों की रक्षा की जाएगी।

एक दिन के इस सेमिनार में राज्‍य सरकारों, विभिन्‍न केन्‍द्रीय मंत्रालयों, विज्ञापन परिषद और उपभोक्‍ता निकायों के प्रतिनिधि शामिल हुए। (PIB.NIC)

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