कुल पेज दृश्य

26 फ़रवरी 2011

खाद्य सुरक्षा की राह में कौन अटका रहा है रोड़े

खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे पर यू.पी.ए सरकार और एन.ए.सी के बीच खींचतान जारी है. इस सिलसिले में सबसे ताजा उदाहरण यह है कि एन.ए.सी द्वारा सरकार को भेजे गए खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे की जांच कर रही समिति के मुखिया और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सी. रंगराजन ने साफ तौर पर कह दिया है कि एन.ए.सी का प्रस्ताव अव्यावहारिक है और इसे लागू करना संभव नहीं है. कहने को रंगराजन समिति के इस निष्कर्ष से ‘हैरान’ एन.ए.सी अब अपना जवाब तैयार करने में लगी है लेकिन उसके रक्षात्मक रवैये से साफ है कि वह अब पीछे हटने और सरकार की चिंताओं को भी ध्यान में रखने के नामपर लीपापोती की तैयारी कर रही है. साफ है कि खाद्य सुरक्षा के प्रावधानों को हल्का और सीमित करने की जमीन तैयार की जा रही है. रंगराजन समिति की रिपोर्ट से साफ है कि सरकार एन.ए.सी द्वारा खाद्य सुरक्षा को लेकर सुझाये गए सीमित प्रस्तावों को भी मानने के लिए तैयार नहीं है. जबकि एन.ए.सी ने पहले ही खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे को सरकार के मंत्रियों और अफसरों से चर्चा के बाद काफी हल्का और सीमित कर दिया है. इसके बावजूद रंगराजन समिति ने जिन आधारों पर उसके प्रस्ताव को ख़ारिज किया है, उससे स्पष्ट है कि उसने एन.ए.सी की लंबी-चौड़ी कसरत और सीमित प्रस्ताव को भी कोई खास भाव नहीं दिया. यही कारण है कि एन.ए.सी के एक महत्वपूर्ण सदस्य ज्यां द्रेज को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया है कि एन.ए.सी अब नेशनल एडवाइजरी काउन्सिल नहीं बल्कि नोशनल यानी दिखावटी एडवाइजरी काउन्सिल बनती जा रही है. उल्लेखनीय है कि एन.ए.सी ने खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर सबसे पहले भोजन के अधिकार को एक सार्वभौम कानूनी अधिकार बनाने की घोषणा से शुरुआत की थी लेकिन इस सवाल पर खुद एन.ए.सी के अंदर और बाहर सरकार के प्रतिनिधियों के साथ मतभेद होने के कारण पीछे हटते हुए उसने बीच का एक प्रस्ताव तैयार किया जिसमें देश की कुल ७५ फीसदी आबादी को सीमित खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने का प्रावधान किया था. इस प्रस्ताव में भी एन.ए.सी ने इस कानून के तहत खाद्य सुरक्षा के लाभार्थियों को दो समूहों में बाँट दिया था. पहले समूह को प्राथमिक समूह कहा गया जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों की ४६ प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों की २८ प्रतिशत आबादी शामिल करने का प्रस्ताव था जिन्हें हर महीने तीन रूपये किलो चावल, दो रूपये किलो गेहूं और एक रूपये किलो मोटा अनाज के भाव से ३५ किलोग्राम खाद्यान्न देने का प्रावधान किया गया था. दूसरी ओर, सामान्य समूह में ग्रामीण क्षेत्रों से ४४ फीसदी और शहरी क्षेत्रों से २२ फीसदी आबादी को हर महीने खाद्यान्नों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी) की आधी कीमत पर २० किलोग्राम खाद्यान्न देने का प्रस्ताव किया गया था. कहने की जरूरत नहीं है कि एन.ए.सी का यह प्रस्ताव भी उम्मीदों से काफी कम और बहुत सीमित था. प्राथमिक और सामान्य समूह का विभाजन काफी हद तक मौजूदा गरीबी रेखा के नीचे (बी.पी.एल) और ऊपर (ए.पी.एल) के विभाजन की लाइन पर ही था. यहां तक कि योजना आयोग तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के बाद बी.पी.एल परिवारों की संख्या में १० से १५ फीसदी तक बढ़ोत्तरी करने पर राजी हो गया था. इसी तरह, सामान्य समूह को ऊँची कीमत पर और वह भी सिर्फ २० किलोग्राम अनाज देने का प्रस्ताव खाद्य सुरक्षा का मजाक उड़ने जैसा ही था. लेकिन एन.ए.सी के इस सीमित और आधा-अधूरे प्रस्ताव का उससे भी बड़ा मजाक यू.पी.ए सरकार द्वारा नियुक्त रंगराजन समिति ने उड़ाया है. रंगराजन समिति का कहना है कि यह प्रस्ताव लागू करना संभव नहीं है क्योंकि लाभार्थियों को कानूनी अधिकार देने के लिए जरूरी अनाज उपलब्ध नहीं है. समिति के मुताबिक, इस अधिकार को एन.ए.सी के सुझावों के अनुसार लागू करने के लिए २०१४ में ७.४ करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी जबकि खादयान्नों की पैदावार और खरीद के मौजूदा ट्रेंड के आधार पर सरकार के पास अधिकतम ५.७६ करोड़ टन अनाज ही उपलब्ध होगा. समिति का यह भी तर्क है कि भोजन का कानूनी अधिकार देने के बाद सरकार को अपना वायदा हर हाल में यहां तक कि लगातार दो सालों तक सूखा पड़ने की स्थिति में भी पूरा करने में सक्षम होना चाहिए. समिति के अनुसार, मौजूदा परिस्थितियों में आयात के जरिये इस कानूनी वायदे को पूरा करना संभव नहीं है. समिति का यह भी कहना है कि इस वायदे को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा भारी मात्रा में अनाज की खरीद से खुले बाजार में अनाजों की कीमतें बढ़ जाएंगी. इन तर्कों के आधार पर रंगराजन समिति का सुझाव है कि खाद्य सुरक्षा का कानूनी अधिकार सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों की ४६ फीसदी और शहरी इलाकों की २८ फीसदी आबादी को दिया जाए जो कि एन.ए.सी के कथित प्राथमिक समूह के करीब है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि भोजन के अधिकार के सीमित और आधे-अधूरे प्रस्ताव पर भी रंगराजन समिति के तर्कों में नया कुछ भी नहीं है. इस तरह की राय नव उदारवादी आर्थिक सुधार के समर्थक और पैरोकार बहुत पहले से व्यक्त करते रहे हैं. वे भोजन के सार्वभौम अधिकार के विरोध को जायज ठहराने के लिए जानबूझकर अनाज और इस कारण सब्सिडी की मांग को इतना अधिक बढ़ा-चढाकर दिखाते रहे हैं कि वह असंभव दिखने लगे. जबकि सच्चाई यह है कि न सिर्फ देश में अनाज की कोई कमी नहीं है बल्कि सरकार चाहे तो इस अधिकार को लागू करने के लिए जरूरी अनाज खरीद सकती है. इसके लिए उसे सिर्फ अनाज खरीद के मौजूदा दायरे को और बढ़ाना होगा. इससे न सिर्फ किसानों को बिचौलियों से निजात मिलेगी बल्कि उनकी फसलों की उचित कीमत भी मिल पायेगी. इससे किसानों को पैदावार बढ़ाने का प्रोत्साहन भी मिलेगा. दूसरे, सरकार के बड़े पैमाने पर अनाज खरीदने से कीमतें बढ़ने की आशंका इसलिए बेमानी है क्योंकि अनाज खरीदकर अगर उसे लोगों तक पहुँचाया गया तो कीमतें बढेंगी नहीं, उल्टे उनपर लगाम लगेगी. कीमतें तब बढ़ती हैं जब सरकार अनाज दबाकर बैठ जाती है जैसीकि जमाखोरी उसने अभी कर रखी है. साफ है कि सरकार की मंशा वास्तविक और व्यापक खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने की नहीं है. वह अधिक से अधिक थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ मौजूदा प्रावधानों को ही खाद्य सुरक्षा के नामपर थोपना चाहती है. (anand Pardhan)

कोई टिप्पणी नहीं: