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12 जनवरी 2011

आर्थिक कुप्रबंधन का नतीजा है खाद्य महंगाई

कुछ सप्ताह पहले जब खाद्य मुद्रास्फीति एक फीसदी की कमी आई तो तमाम अर्थविदों और नीति निर्धारकों ने उम्मीदें जतानी शुरू कर दी थी कि अब इस पर अंकुश लगने लगा है। नवंबर माह की महंगाई दर भी घटकर 7.48 फीसदी पर आ गई थी, जो 11 माह में सबसे न्यूनतम है। इसके चलते ही दिसंबर में भारतीय रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति की अद्र्ध तिमाही समीक्षा में ब्याज दरों में कोई बदलाव नहीं किया बल्कि बैंकिंग क्षेत्र को करीब एक लाख करोड़ रुपये की तरलता मुहैया कराने का इंतजाम कर दिया। लेकिन महंगाई पर सरकारी नाकामी की सारी पोल खोली प्याज और दूसरी सब्जियों के संकट ने। इसके पहले ही दूध की कीमत में मदर डेयरी ने इजाफा कर ही दिया था। पेट्रोल की कीमतों में करीब तीन रुपये लीटर की बढ़ोतरी के तेल कंपनियों के फैसले के बाद उम्मीद जताई जा रही थी कि सरकार डीजल की कीमत में भी बढ़ोतरी कर इस पर बढ़ रही अंडर रिकवरी से तेल कंपनियों के निजात दिलाएगी। साथ ही रसोई गैस पर सब्सिडी का इसके बिक्री मूल्य से अधिक हो जाना सरकार को इसके दाम में भी बढ़ोतरी के लिए प्रेरित करेगा। प्याज की कीमत थामने के लिए प्रधानमंत्री से लेकर कैबिनेट सचिव तक और कृषि मंत्री से लेकर राज्यों की सरकारें तक एक साथ जुट गईं। जिस कीमत बढऩे का कारण अक्तूबर की बारिश थी उसका निदान दिसंबर में कीमतों में 200 फीसदी बढ़ोतरी के बाद सोचा गया। वह भी किस्तों में। वहीं 11 दिसंबर को समाप्त सप्ताह में खाद्य महंगााई दर बढ़कर 12.13 फीसदी पर पहुंच गई। इसमें दूध की बढ़ी कीमत और प्याज की आसमान छूती कीमत का पूरा असर शामिल नहीं है। सवाल यह है कि क्या महंगाई पर नाकामी का ठीकरा कृषि और खासतौर से खाद्य उत्पादों के कम उत्पादन पर फोड़ा जा सकता है। सचाई यह नहीं है। अगर हम पिछले करीब डेढ़ दशक के कृषि उत्पादन को देखें तो उसमें आश्चर्यजनक रूप से बढ़ोतरी हुई है। साथ ही केवल उत्पादन ही नहीं किसानों की आय बढ़ाने में अहम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में भी बढ़ोतरी हुई है। लेकिन इसके साथ ही महंगाई दर भी बढ़ी है। केवल खाद्यान्न उत्पाद को देखें तो 1995 से 2000 के बीच इनका औसतन सालाना उत्पादन 19.71 करोड़ टन रहा जबकि से 2000-2005 के बीच औसतन सालाना उत्पादन 19.92 करोड़ टन रहा। लेकिन 2005 से 2010 के दौरान यह बढ़कर 22.19 करोड़ टन पर पहुंच गया। वहीं इस दौरान तिलहन उत्पादन 226.6 लाख टन से बढ़कर 269.0 लाख टन पर पहुंच गए। यह बात जरूर है कि इस दौरान दालों के उत्पादन में कोई खास बदलाव नहीं आया। लेकिन जिस प्याज को लेकर संकट है उसका उत्पादन करीब 45 लाख टन से बढ़कर 100 लाख टन को पार कर गया। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इस बढ़ते उत्पादन के बावजूद महंगाई नया रिकार्ड बना रही है। इसे एक संयोग कहें या कड़वी सचाई कि जब खाद्य महंगाई दर 20 फीसदी को छू रही थी तो प्रधानमंत्री ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकार नीतिगत बदलावों के लिए ग्रुप बनाए थे। जो उत्पादन में बढ़ोतरी और महंगाई पर अकुंश के उपाय सुझाएंगे। इनमें से एक ग्रुप ने 10 माह बात अपनी रिपोर्ट 16 दिसंबर को सौंप दी। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुडा की अध्यक्षता वाले इस समूह ने जो सिफारिश की है उसमें कहा गया है कि कृषि उत्पादों की सी-2 लागत के ऊपर 50 फीसदी का मुनाफा किसानों को दिया जाना चाहिए। अगर इस समूह की सिफारिशों पर अमल किया जाता है तो इस समय मौजूद फसलों के एमएसपी में अच्छी खासी बढ़ोतरी करने की जरू रत है। ऐसे में कीमत पर नियंत्रण वाला समूह कीमत बढ़ोतरी का एक नया उपाय लेकर आया है। आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाले समूह की याद प्याज का संकट खड़ा होने के समय आई। वहीं ताजा महंगाई दरें अब रिजर्व बैंक को भी ब्याज दरों में बढ़ोतरी के लिए मजबूर कर सकती हैं। रिजर्व के नीति निर्धारक खुद इस बात को स्वीकार करते हैं कि मार्च का महंगाई दर का लक्ष्य हासिल करना संभव नहीं है। साथ ही मैन्यूफैक्चरिंग के रास्ते आ रही महंगाई कॉरपोरेट जगत के लालच के चलते आ रही है। वह इस बात को भी स्वीकारते हैं कि रिजर्व बैंक और सरकारी अमले के बीच भी तालमेल की कमी है और उसी के चलते महंगाई पर अंकुश पाने के लिए नई तिथियां घोषित की जाती रही हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कीमतों के प्रबंधन में सरकार का कामकाज काफी लचर है। अगर महंगाई दर घटती भी है तो उससे कीमत कम नहीं होती केवल बढऩे का स्तर घटता है। जो आम आदमी की तकलीफ को बहुत कम नहीं करता है। इस कुप्रबंधन के चलते ही 10 फीसदी उत्पादन घटने पर दामों में 200 फीसदी तक बढ़ोतरी वाले प्याज जैसे उदारण सामने आते हैं। (Business Bhaskar)

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