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11 जनवरी 2010

हफ्तेभर में 36 से 43; क्यों बढ़ रहे हैं चीनी के दाम?

श्रीनिवास।।नई दिल्ली गुजरे साल के अंतिम दिन यानी 31 दिसंबर को चीनी का भाव 36 रुपये प्रति किलो था। इसके ठीक एक हफ्ते बाद यानी 7 जनवरी को चीनी का थोक भाव उछलकर 43 रुपये पर पहुंच गया। इससे चीनी का खुदरा भाव 50 रुपये किलो हो गया है। आपको यह जानकार ताज्जुब नहीं होगा कि चीनी अब देसी घी, काजू और बादाम से भी महंगी हो गई है। क्या ईश्वर हमें ऐसी सरकार चुनने के लिए सजा दे रहा है जो खुद को आम आदमी की पार्टी कहती है। केंद्र सरकार देश में चीनी के घटते उत्पादन को इसकी कीमतों में बढ़ोतरी के लिए जिम्मेदार बता रही है। साथ ही केंद्र सरकार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री नवंबर से राज्य में कच्ची चीनी के आयात पर लगाई गई रोक को भी इसके लिए जिम्मेदार मान रही है। हालांकि सोचने वाली बात यह है कि जिन वजहों की दुहाई केंद्र इस वक्त दे रहा है, वे सारे कारक दिसंबर में भी मौजूद थे। वास्तव में, चीनी को तो इस वक्त और सस्ता होना चाहिए था, क्योंकि मिलों के लिए गन्ने की पेराई जनवरी से फरवरी के बीच अपने चरम पर होती है। ऐसे में सरकार का तर्क जायज नहीं लगता है। हमें सोचना होगा कि आखिर एक हफ्ते में ऐसा क्या बदल गया कि चीनी की कीमतों में 14 रुपये प्रति किलो की तेजी आ गई। हम आपको बता रहे हैं इसके पीछे छिपी असल कहानी। हर महीने शरद पवार का खाद्य मंत्रालय यह तय करता है कि देश में कितनी चीनी बेची जाएगी। 30 दिसंबर को मंत्रालय ने एलान किया कि जनवरी में केवल 16 लाख टन चीनी की बिक्री की जाएगी। जनवरी शादियों और त्योहारों का सीजन होता है। कारोबारी जानते हैं कि चीनी की मांग इस कोटे से दो लाख टन ज्यादा है। ऐसे में कीमतों का आसमान पर पहुंचना तय था। पिछले एक साल में दोगुने हो चुके चीनी के भाव पर लगाम लगाने की बजाय खाद्य मंत्रालय ने सप्लाई और डिमांड की खाई को और बढ़ाकर कीमतों में आग लगा दी। कारोबारी यह भी कह रहे हैं कि तकरीबन तब से ही रेलवे ने खुले बाजार वाली चीनी की देश के पूर्वी इलाके में ढुलाई सुस्त कर दी है। रेलवे की दलील है कि वहां दूसरी कमोडिटी पहुंचाना ज्यादा जरूरी है। इससे कोलकाता की मुसीबतें बढ़ गई हैं। कोलकाता चीनी का बड़ा बाजार है और यहां हर महीने 30 रेक चीनी की जरूरत होती है। उत्तर पूर्व में हर महीने दो लाख टन चीनी की खपत होती है। कोलकाता और उत्तर पूर्व के राज्य पूरी तरह से महाराष्ट्र से आने वाली चीनी पर निर्भर हैं। मुंबई के एक कारोबारी ने बताया, 'मैंने आंध्र प्रदेश से ट्रकों के जरिए कोलकाता चीनी भेज रहा हूं। मुझे हर किलो पर तीन रुपये ट्रांसपोर्टेशन शुल्क पड़ रहा है। ट्रक भी उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। अगर मैं दो ट्रक भेजता हूं तो मेरे खरीदार खुश हो जाते हैं। जिस दिन ट्रक नहीं पहुंच पाते हैं उसी दिन कीमतों में तेजी आ जाती है।' चूंकि देश में चीनी का उत्पादन इस वक्त चरम पर होता है। ऐसे में आयातित कच्ची चीनी भी इस दौरान हल्दिया पोर्ट पर कम आई है। पिछले साल दिसंबर में चीनी की कीमत इसकी अंतरराष्ट्रीय कीमत से काफी कम रही है। इसकी वजह यह है कि देश में उत्पादन लागत कम है। ठीक यही चीज हर साल देश में तिलहनों की कटाई के वक्त सामने आती है। इस दौरान खाद्य तेलों का आयात कम हो जाता है। निश्चित तौर पर कीमतों में बना हुआ अंतर आयातकों को देश में चीनी मंगाने से रोक रहा है, लेकिन सबसे बड़ी खामी खाद्य मंत्रालय की है। कुछ महीने पहले जमाखोरी पर लगाम लगाने के लिए कुछ राज्यों ने अपने यहां स्टॉक लिमिट लागू की थी। लेकिन यह बात पूरी तरह से भुला दी गई कि देश में कुल चीनी का एक चौथाई हिस्सा उत्पादित करने वाले महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से इसकी सही और पर्याप्त सप्लाई सुनिश्चित की जाए ताकि देश भर में लोगों को सस्ती दर पर चीनी मिल सके। आज जेल के डर से कोई भी स्टॉक नहीं रखना चाहता है। ऐसे में कोलकाता जैसी जगहों पर जब सप्लाई बाधित होती है तो हर तरफ कोहराम मच जाता है। रीटेलरों की मुनाफाखोरी पर किसी भी राज्य में लगाम नहीं लगाई गई है। बाजार के एक जानकार के मुताबिक, 'जब चीनी गोदामों, रेक, ट्रकों और रसोई कहीं नहीं है तो ऐसे में साफ तौर पर संकट आने वाला है। और यही हुआ है।' सप्लाई मैनेजमेंट के जरिए महंगाई रोकने में सरकार नाकाम रही है। आयात केंद्र के अधीन होने के बावजूद सरकार मायावती के सामने कायर बनी बैठी हुई है। अब क्या केंद्र इस इंतजार में बैठा हुआ है कि कब मायावती राज्य में कच्ची चीनी के आयात पर लगी रोक हटाएंगी। अगर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री आयातित सोयाबीन तेल पर रोक लगा दें तो क्या केंद्र मूकदर्शक बनकर यह देखता रहेगा? भारत को इस साल हर 10 में से चार बोरी चीनी का आयात करना होगा। (ई टी हिन्दी)

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