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26 दिसंबर 2009

'डब्ल्यूपीआई में घटे चीनी का हिस्सा'

चीनी उद्योग ने की सरकार से मांग; कहा-भारांक 3.62 से घटाकर हो आधा
मुंबई December 26, 2009
ज्यादा मुनाफा कमा रहे चीनी उद्योग ने अब सरकार से थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) में चीनी के मौजूदा भारांक को 3.62 से कम करने की गुजारिश की है।
उद्योग ने इसे सीमेंट और डीजल के बराबर करने की मांग सरकार से की है। इन दोनों का भारांक चीनी का करीब आधा है। भारतीय चीनी मिल संघ, नैशनल फेडरेशन ऑफ कोऑपरेटिव शुगर फैक्ट्रीज और फेडरेशन ऑफ कोऑपरेटिव फैक्ट्रीज जैसे कई चीनी संघों ने इस मसले को केंद्र सरकार के समक्ष उठाया है।
यह मुद्दा उस समय उठा है, जब चीनी की महंगी कीमतों पर पहले से ही काफी हो-हंगामा मचा है। सूत्रों के मुताबिक पिछले कुछ साल से चीनी को डब्ल्यूपीआई में काफी ज्यादा भारांक मिला हुआ है। ज्यादा भारांक और ज्यादा कीमतों के चलते खाद्य वस्तुओं की महंगाई बढ़ने में चानी को मुख्य भागीदार माना जाता है।
चीनी उद्योग का हमेशा से तर्क रहा है कि चीनी लोगों के मुख्य भोजन का हिस्सा नहीं है। इसलिए इसे आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी से भी हटा दिया जाना चाहिए। इससे चीनी आवश्यक वस्तु अधिनियम से भी मुक्त हो जाएगा। इस मुद्दे पर पर सरकार की प्रतिक्रिया मिलनी अभी बाकी है।
महाराष्ट्र की एक सहकारी चीनी मिल के चेयरमैन और पूर्व मंत्री नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, 'साल भर में देश में चीनी की प्रति व्यक्ति खपत 20 किलो है। इस तरह 4 लोगों का परिवार एक साल में औसतन 80 किलो चीनी का उपभोग करता है। यानी उनका मासिक उपभोग 6-7 किलो से ज्यादा नहीं होता। ऐसे में 10 रुपये प्रति किलो ज्यादा कीमत लोगों के बजट को बहुत ज्यादा नहीं बिगाड़ता।'
दूसरी ओर एक निजी चीनी मिल के मालिक का कहना है कि देश में चीनी की खपत करने वाले मुख्य हिस्सेदार ड्रिंक्स, मिठाई और चॉकलेट उद्योग हैं। आम लोगों का उपभोग हिस्सा तो केवल 25 फीसदी ही है। ऐसे में चीनी की ऊंची कीमतों को पर मचा हो-हल्ला जायज नहीं है। इसलिए केंद्र सरकार को जल्द ही चीनी के भार को डीजल और सीमेंट के स्तर पर लाने का निर्णय करना चाहिए।
महाराष्ट्र सहकारी चीनी मिल संघ के प्रबंध निदेशक प्रकाश नाइकनवारे ने कहा, 'चीनी उद्योग के हितों को ध्यान में रखते हुए सरकार को इस बारे में तुरंत निर्णय लेने की जरूरत है। हम यह साफ करना चाहते हैं कि चीनी के लिए मिलों को मिलने वाली कुल कीमत का 70 फीसदी गन्ना किसानों को जाता है। ज्यादातर गन्ना किसान सीमांत जोत वाले हैं। ऐसे में अगर उन्हें गन्ने के लिए अच्छी कीमत मिलती है, तो ऊंचे वर्ग को ज्यादा समस्या नहीं होनी चाहिए।' (बीएस हिन्दी)

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