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25 नवंबर 2009

'अपने किसानों से हम कुछ ज्यादा ही उम्मीद करते हैं'

November 24, 2009
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई), नई दिल्ली में प्रोफेसर प्रमोद कुमार अग्रवाल को हाल में ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए सुनियोजित रणनीति बनाने की खातिर एक ब्राजीली वैज्ञानिक के साथ संयुक्त रूप से अर्नेस्टो इली ट्राइस्टी साइंस पुरस्कार दिया गया है।
पर्यावरण परिवर्तन के देश की कृषि पर पड़ने वाले असर का अध्ययन करने वाली राष्ट्रीय परियोजना का नेतृत्व इन्होंने ही किया। यह सम्मान इटली की एकेडमी ऑफ साइंसेज फॉर द डेवलपिंग वर्ल्ड देती है। लता जिश्नू ने अग्रवाल से बात की। पेश है मुख्य अंश:
इस अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष क्या रहे?
वर्ष 2020 तक ज्यादातर फसलों की उत्पादकता में मामूली गिरावट होगी। हालांकि इस शताब्दी के खत्म होते-होते जबकि तापमान में 1.8 से 4 सेंटीग्रेड की वृद्धि हो जाएगी, तब उत्पादन में 10 से 40 फीसदी की कमी हो जाएगी। यह इसके बावजूद होगा कि कार्बन डाइऑक्साइड फसलों के लिए लाभकारी होता है। इसके अलावा भी कई निष्कर्ष रहे हैं।
क्या कोई विशिष्ट उदाहरण दे सकते हैं?
आईएआरआई के अध्ययन से जाहिर हुआ कि तापमान में हर 1 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि होने से गेहूं का हमारा उत्पादन 40-50 लाख टन कम हो सकता है। सोयाबीन, सरसों और मूंगफली का उत्पादन इससे 3 से 7 फीसदी कम हो जाएगा। हालांकि यह इलाके के ऊपर निर्भर करेगा। उत्तर-पश्चिम भारत में ठंड में कम कमी के चलते आलू, सरसों और सब्जियों के उत्पादन में कम कमी होगी।
हमारी खाद्य उपलब्धता पर इन फसलों के अलावा और क्या असर होगा?
हां, दूध उत्पादन पर काफी असर होगा। तापमान बढ़ने से पशुओं की समस्याएं बढ़ेंगी। 2020 तक दूध उत्पादन में करीब 16 लाख टन की कमी हो सकती है। वर्ष 2050 तक 1.5 करोड़ टन से ज्यादा की कमी हो सकती है। तापमान वृद्धि का देसी की तुलना में संकर नस्ल की मवेशियों पर ज्यादा असर होगा। घरेलू पशुओं के प्रजनन पर भी असर पड़ने की आशंका है।
इन प्रभावों को कम करने के लिए कुछ किया जा सकता है?
तात्कालिक तौर पर तो बुआई या रोपाई की तिथि और बीजों में बदलाव किया जा सकता है। लेकिन ऐसा केवल सिद्धांत रूप में आसान दिखता है, पर व्यवहार में ऐसा काफी मुश्किल है। किसान मौजूदा ढांचे का अधिकतम फायदा उठाना चाहते हैं, लिहाजा तिथि में बदलाव काफी मुश्किल है।
इस मसले का निचोड़ क्या है?
पर्यावरण परिवर्तन को दो नजरिए से देखना चाहिए। पहला तापमान और बारिश के औसत में बदलाव और दूसरा मौसम का उतार-चढ़ाव। वैज्ञानिक पहली समस्या से जूझने में पूरी तरह सक्षम हैं। चिंता की वजह दूसरी चीज है। इसने हमारी खाद्य सुरक्षा को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। इससे निपटने के लिए अलग तरह की रणनीति चाहिए।
आखिर क्या उपाय हैं ?
हमें भूमि और जल का बेहतर इस्तेमाल करना सीखना होगा। इस क्षेत्र में अनुसंधान पर निवेश बढ़ाना होगा। हालांकि, सबसे महत्वपूर्ण चीज किसानों का प्रशिक्षण और उन्हें वित्तीय मदद देना है।
दरअसल हम अपने किसानों से बहुत ज्यादा उम्मीद करते हैं। हमें उनसे कार्बन संरक्षण के साथ पानी और ऊर्जा के कम इस्तेमाल के लिए कहना चाहिए। यदि हम चाहते हैं कि वे ऐसा करें तो उन्हें क्षतिपूर्ति मिलना चाहिए। समाज स्वच्छ पर्यावरण की चाह में ऐसा कोई नहीं कर सकता।
प्रबंधन की हमारी पुरानी पद्धति में क्या कोई समाधान है? खासकर जल प्रबंधन के मामले में।
हां, बिल्कुल। बीज और पशुचारे के मामले में सामुदायिक भंडारण काफी दयनीय है। समस्या है कि हम कहते बहुत हैं पर करते बहुत थोड़ा हैं।
आपकी अन्य मुख्य सिफारिशें क्या हैं?
हमें अगले 15 साल में अपना खाद्य उत्पादन बढ़ाना होगा। फसलों की उत्पादकता बढ़ाने की काफी गुंजाइश है। हमें अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों पर ध्यान देने की जरूरत है। देश में फसल बीमा की हालत दयनीय है। (बीएस हिन्दी)

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