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27 अक्तूबर 2008

चीनी मिलों की जिद से आगे की पहल

देश में चीनी उद्योग अकेला ऐसा उद्योग है, जो यह चाहता है कि चीनी और उसके कच्चे माल गन्ने दोनों का मूल्य निर्धारित करने का अधिकार उसे मिले। गन्ने को 11 से 13 माह तक अपने खेत में तैयार करने वाले किसान को उद्योग यह हक देने के लिए तैयार नहीं है। यह काम उसके लिए केंद्र और राज्य सरकारें करती हैं। लेकिन राज्यों की ओर से तय कीमत अगर मिलों के मुताबिक नहीं हैं तो उसे वह हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देती रही हैं। इससे पहले मिलें राज्यों के दाम तय करने के अधिकार को भी चुनौती दे रही थीं और करीब आठ साल की कानूनी लड़ाई के बाद मई, 2004 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने राज्यों की ओर से राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) तय करने के अधिकार को वैधानिक रूप से जायज ठहरा दिया। इसलिए अब लड़ाई दाम तय करने की प्रक्रिया को लेकर चल रही है। इस लड़ाई में एक नया पेंच आ गया है जिसके चलते पलड़ा किसानों के पक्ष में झुकता दिख रहा है। करीब पांच दशक के गन्ना मूल्य नियंत्रण आदेश के इतिहास में पहली बार उत्तर प्रदेश सरकार ने चालू पेराई सीजन (2008-09) के लिए गन्ने का दाम चीनी मिलों को गन्ना क्षेत्र का रिजर्वेशन आर्डर देने के पहले तय कर दिया है। पिछले सप्ताह उत्तर प्रदेश सरकार ने गन्ने की सामान्य किस्म के लिए 140 रुपये प्रति क्विंटल, अगैती फसल के लिए 145 रुपये और निरस्त किस्म के लिए 137.50 रुपये प्रति क्विंटल का दाम तय किया है। दाम तय करना कोई बड़ी बात नहीं है। असली बात है गन्ना रिजर्वेशन आर्डर के पहले दाम घोषित करना।असल में राज्य सरकार से निर्धारित होने वाले दाम को सहमति दाम मानकर चीनी मिलों के लिए राज्य सरकार गन्ना रिजर्वेशन आर्डर जारी करती है। इसके लिए चीनी मिलों, राज्य के गन्ना आयुक्त और किसान गन्ना सहकारी समितियों के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता होता है जिसके तहत फार्म-6 नाम का एक प्रपत्र जारी होता है। गन्ना रिजर्वेशन के तहत क्षेत्र विशेष की चीनी मिल को ही उस क्षेत्र का किसान गन्ना बेच सकता है।उल्लंघन करने वाले किसानों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी होती रही है। 2004 में राज्य सरकारों को गन्ने का एसएपी तय करने का अधिकार सही साबित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद चीनी मिलों ने पहली बार 2006-07 के लिए निर्धारित एसएपी को चुनौती दी। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है और उक्त साल के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 117 रुपये प्रति क्विंटल का एक अंतरिम दाम तय कर दिया है। वर्ष 2007-08 के लिए भी राज्य सरकार ने पिछले साल के बराबर दाम तय किया तो चीनी मिलें इसके खिलाफ भी इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चली गईं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने इस कीमत को जायज ठहराया तो इलाहाबाद पीठ ने केंद्र की ओर से निर्धारित न्यूनतम वैधानिक मूल्य के भुगतान का आदेश देकर एसएपी के लिए एक समिति बनाने का आदेश दिया। यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट में है और 2007-08 के लिए 110 रुपये प्रति क्विंटल का अंतरिम मूल्य तय कर रखा है। दोनों साल का फैसला अभी आना बाकी है। विवादों के चलते चीनी मिलों का बकाया 1200करोड़ रुपये तक पहुंच गया जिसका भुगतान न्यायालयों के आदेश से होता रहा। लेकिन चालू पेराई सीजन 2008-09 के लिए किसानों ने राज्य सरकार के ऊपर दबाव बनाकर गन्ना मूल्य तय करने के पहले चीनी मिलों के लिए रिजर्वेशन आर्डर जारी नहीं करने दिये। किसानों से सहमति लेने के लिए हर साल होने वाली रस्मी बैठकें किसानों के लिए आंदोलन का मौका बन गई।राज्य सरकार ने भी मौके को समझते हुए दाम तय कर दिया। राज्य सरकार ने साफ तो नहीं कहा लेकिन उसने जिस तरह से रिजर्वेशन आर्डर जारी नहीं किये उससे संकेत दे दिया कि जिस चीनी मिल को इस दाम पर गन्ने की जरूरत है वह इस दाम को स्वीकार कर रिजर्वेशन आर्डर हासिल कर सकती है। इसका नतीजा यह होगा कि चीनी मिल को तय किया गया गन्ना मूल्य स्वीकार्य है या नहीं और इसके चलते न्यायालयों में इस विवाद के जाने का सिलसिला बंद हो सकता है। हालांकि जिस तरह इस साल चीनी की कीमतें फायदेमंद बनी हुई हैं। विश्व स्तर पर भी आपूर्ति के मुकाबले उत्पादन कम रहने का इंटरनेशनल शुगर आर्गेनाइजेशन का अनुमान उद्योग और किसानों के लिए बेहतर संकेत है। साथ ही घरेलू उत्पादन भी पिछले साल के 265 लाख टन से घटकर 200 लाख टन से भी कम रह जाने का अनुमान है। जिसके चलते कीमतें बेहतर रह सकती हैं। लेकिन सवाल एक साल का नहीं है, इस विवाद का अंत होना ही चाहिए। (Business Bhaskar)

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